Jivan ko safal nahi sarthak banaye - 8 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ८

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ८

71. पड़ोसी धर्म

आम आदमी की जिंदगी मे भी कुछ घटनाएँ इस तरह घटित होती है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में अंकित हो जाती है और उसे मानवीय आधार पर कार्य करने की प्रेरणा देती है। ऐसा कहते हुए श्रीमती ममता गिरिराज चाचा ने एक घटना के विषय में विस्तारपूर्वक बताया जिसने उनके मन, मस्तिष्क को झकझोर दिया था।

वे अपने परिवार के साथ जिस स्थान पर निवास करती थी, वहाँ चर्च, गुरूद्वारा, मंदिर एवं मस्जिद बने हुए थे और सभी धर्म के अनुयायी अपने अपने धर्म और श्रद्धा के अनुसार पूजन, अर्चन, वंदन करते हुए अपने परिवार के साथ सौहाद्रपूर्वक रहते थे। वहाँ की महिलाएँ जब आपस में मिलती थी तो यह कमी अवश्य बताती थी कि सब लोग बड़े शहरों की तरह अपने अपने में ही मगन रहते हैं। हमें एक दूसरे से मिलना चाहिए, एक दूसरे से सुख दुख की जानकारी लेना चाहिए। इस पर बातें तो बहुत होती थी परंतु व्यवहार में ये बातें नही आयी थी।

एक दिन अचानक 31 अक्टूबर 1984 को अप्रत्याशित घटना घट गयी जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा कर्मी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। सुरक्षा कर्मी सिख सरदार था इस घटना से देश की सद्भावना, अमन चैन, मानवीय भाईचारा कुछ समय के लिए शून्य हो गया और अकल्पनीय रूप से हिंसा भड़क उठी। लोग बिना सोचे विचारे अपना सारा क्रोध सिख समुदाय पर उतारने लगे।

उनके निवास के ठीक सामने एक सरदार जी का परिवार रहता था। सरदार जी किसी काम से बाहर गये हुये थे। उनके घर के सामने उग्र भीड़ एकत्रित हो गयी। घर में सरदारनी अपने पुत्र एवं पुत्री के साथ अकेली थी। भीड़ दरवाजा तोड़ने की कोशिश कर रही थी उनके घर पर पेट्रोल और मिट्टी का तेल डालकर आग लगाने की कोशिश हो रही थी। सरदार परिवार का जानमाल सबकुछ स्वाहा होने के कगार पर था। उस मकान के आसपास के सभी लोग एकत्रित होकर उग्र भीड़ को समझा रहे थे पर भीड़तंत्र किसी को सुनने तैयार नही था।

गिरिराज चाचा अचानक ओढ़ने की अण्डी ( एक प्रकार का ओढ़ने का कपड़ा ) लेकर नाले की तरफ से पड़ोसी के घर जाकर सरदार जी के घर में पहुँच गये और सरदारनी को अण्डी देकर लपेटने कहकर सबको साथ में लेकर वापिस अपने घर आ गये। सरदारनी और उनके बच्चों को सुरक्षित करने के बाद गिरिराज बाहर आकर सभी के साथ उपस्थित हो गये। इसी बीच सरदार जी के घर में भीड़ ने आग लगा दी। भीड़ में कुछ दुस्साहसी लोगों ने घर में घुसकर सामान की लूटपाट चालू कर दी। उनके घर में परिवार का कोई सदस्य नही मिला यह जानकर भीड़ क्रोधित हो गयी। कानून की व्यवस्था इतनी कमजोर होकर तहस नहस हो चुकी थी कि पुलिस थाना एवं दमकल विभाग फोन ही नही उठा रहा था। तभी कर्फ्यु लग गया और उग्र भीड़ तितर बितर हो गयी थी।

सरदारनी व बच्चों को सुरक्षित लाने एवं अपने घर पर रखने के कारण उनके मकान मालिक नाराज हो रहे थे। वहाँ आसपास के सभी लोग एकत्रित थे कि अन्य कोई घटना ना घटे इस दृष्टि से चैकस भी थे। सभी महिलाओं को अपने अपने घरों में भेज दिया गया था और पुरूष वर्ग सड़क पर घूम रहा था। किसी ने यह सत्य प्रसारित कर दिया था कि सरदारनी एवं बच्चों को गिरिराज चाचा पीछे से निकाल कर अपने घर ले गये हैं। यह जानकर कुछ अवांछित लोग पुनः उनके घर के आसपास एकत्रित होकर उनको अनाप शनाप कहते हुए चिल्लाने लगे। सरदारनी को बाहर निकालो के नारे लगने लगे। उनके पड़ोसी पूरे सचेत थे उन्होने उन लोगो को समझाना शुरू किया और उनके दरवाजे के सामने सुरक्षा हेतु खड़े हो गये। उनके एक पड़ोसी डा. रावत का परिचय सेनाधिकारियों से था, सेना भी हिंसा को शांत करने में सहयोग कर रही थी। उन्होंने सैनिक कार्यालय में फोन कर दिया और 15 मिनिट के अंदर ही सेना वहाँ आ गयी। सैन्य अधिकारी और सेना पुलिस की सुरक्षा में सैन्य वाहन से सरदार जी के परिवार को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। सेना के सिपाहियों को देखकर भीड़तंत्र भाग खड़ा हुआ।

सरदार जी की संपत्ति को आगजनी से बहुत नुकसान हुआ पर सरदार परिवार की जान बच गयी। अब आसपास के लोग उनके घर पर आये। उन्होंने स्नेह भरे क्रोध से कहा कि एकबार तो हम घबरा गये थे कि उनकी भी जानमाल खतरे में हैं परंतु वहाँ के सब लोगों की एकता, समरसता और पड़ोसी धर्म की भावना देखकर धीरे धीरे हमारे भीतर भी हिम्मत जाग्रत हो गई। समय के साथ साथ स्थितियाँ सामान्य होने लगी। अब वहाँ पर सभी परिवार पहले के समान ही अपने सारे त्यौहार दीवाली, होली, क्रिसमस, बैसाखी, लोहड़ी, जन्माष्टमी, दशहरा आदि एक साथ मिलकर मनाते है।

72. प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर

डा. घनश्याम असरानी एक सुप्रसिद्ध समन्वय ( एलोपैथी एवं आयुर्वेद ) चिकित्सक है। वे कहते हैं कि उन्होने मौसमी बीमारियों के बचाव हेतु गहन शोध किया है। उनका निष्कर्ष यह है कि प्रदूषित वातावरण में हम बुखार, पेट की तकलीफ एवं एलर्जी इत्यादि से कैसे बचकर रहें ताकि यह बीमारियाँ आगे गंभीर रूप ना ले सकें। वे इसका कारण असंतुलित खान पान को बताते है। इनका मानना है कि भोज्य पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं पहला पका भोजन अर्थात जिसे आग पर पकाया गया हो, दूसरा कच्चा भोजन अर्थात फल, सब्जियाँ इत्यादि एवं तीसरा पानी। वे कहते हैं कि इन तीनों को एक साथ कभी भी ग्रहण नही करना चाहिए इससे ही बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इन सब भोज्य पदार्थों के बीच में कम से कम आधे घंटे का अंतराल होना चाहिए।

लगभग 20 वर्ष के शोध के पश्चात ये इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यदि कच्चे, पके भोजन एवं पानी के अंतराल को व्यवस्थित रखा जाए तो किसी भी हालत मे मौसमी बीमारियाँ नही होंगी। वे आगे बताते हैं कि इन्होने इस प्रदूषित वातावरण में रहते हुए भी जिन लोगों पर इसका प्रयोग किया है उन्हें किसी प्रकार का कोई नुकसान नही हुआ बल्कि वे लंबे समय से बीमार भी नही हुए।

वे बताते हैं कि उन्हें इस संबंध में शोध करने की प्रेरणा आज से 20 वर्ष पूर्व जब लेखक लायंस इंडिया नामक संस्था के अध्यक्ष थे तब उनके द्वारा “ प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर “ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन सभी विधाओं की चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों के बीच किया गया था जिसमें सभी ने बीमारियों से कैसे बचे विषय पर अपनी अपनी बात रखी थी।

इसी संगोष्ठी में उन्होने भी उनके उपरोक्त सिद्धांत को बताया था, इससे प्रेरित होकर उस सभागार का चैकीदार जो इसे सुन रहा था एवं उनका पुराना मरीज था, उसने इसे अपनाया। वह लगभग तीन चार माह बाद उनसे मिला और बोला कि डा. साहब मैं आपके द्वारा बताये गए भोजन के सिद्धांत को अपना रहा हूँ तथा विगत तीन माह से मैं पूर्णतया स्वस्थ्य हूँ। इससे उत्साहित होकर उन्होने दूसरे मरीजों के ऊपर भी उनके सिद्धांत का प्रयोग करके देखा और उन्हें भी इससे समुचित लाभ प्राप्त हुआ है। डा. असरानी जनसेवार्थ अपने इस सिद्धांत का प्रचार प्रसार निशुल्क रूप से कर रहे हैं।

73. अजगर

रंजना नाम की एक लड़की जो कि कक्षा आठवीं की छात्रा थी उसे वन्य जीवों से बहुत लगाव था। वह अपने रिश्तेदार के यहाँ रहकर पढाई कर रही थी उसके पिता जंगल में तेंदूपत्ते की ठेकेदारी का कार्य करते थे एवं उसकी माँ का निधन काफी पहले हो चुका था।

एक दिन अचानक ना जाने कहाँ से वह एक अजगर के छोटे बच्चे को लेकर आ गयी और उसे पालने लगी। वह उसे शाकाहारी भोजन देती थी। उसे अजगर के उस बच्चे से इतना लगाव था कि वह उसे अपने पास ही बिस्तर पर सुलाती थी। कुछ माह बाद एक दिन उसने देखा कि अजगर सीधा लंबा होकर लेटा हुआ है। वह तीन चार दिन से कुछ खा भी नही रहा था। यह देखकर वह उसे पशु चिकित्सालय ले गई और उसने डाक्टर को सब बातें बताई।

डाक्टर उसकी बात सुनकर चौंका और उसने उसको कहा कि अब यह अजगर छोटा बच्चा नही रहा यह क्रमशः बड़ा होता जा रहा है। अब इसके स्वभाव में परिवर्तन आ रहा है। यह कुछ दिनो से सीधा इसलिए सो रहा है कि यह अपनी लंबाई तुम्हारी लंबाई से नापने का प्रयास कर रहा है यह तुम्हें अपना भोजन समझ रहा है और तुम्हें निगलना चाहता है। यह कहकर डाक्टर ने तुरंत वन अधिकारियों को बुलाकर अजगर को उनके हवाले यह कहकर कर दिया कि पता नही कहाँ से इस लड़की को प्राप्त हो गया और वह इसे मेरे पास सौपने को लाई है।

ऐसा कहकर डाक्टर ने उस लड़की एवं उसके परिवार को अनावश्यक कानूनी पचड़ों से बचा लिया। उसने उसे समझाते हुए कहा वन्य जीवों से प्रेम करना अच्छी बात हैं परंतु उन्हें पालना उतना ही खतरनाक होता है। इसलिये सरकार ने ऐसे कठोर नियम बनाए है कि वन के प्राणी वन में ही रहें। अब से इस बात का हमेशा ध्यान रखना और आगे से ऐसी गलती कभी मत करना। यदि तुम यहाँ आने में कुछ दिन की और देरी कर देती तो पता नही क्या हादसा हो जाता।

74. तवांग

यह कथानक सन् 1962 में भारत और चीन के मध्य,युद्ध के समय का है जिसमें हमारे देश के वीर सैनिकों की कुर्बानी एवं तत्कालीन राजनेताओं की अदूरदर्शिता एवं अपरिपक्वता को दर्शाती है। चीन की सेना ने वर्तमान अरूणाचल प्रदेश में तवांग के पास अपनी फौजें तैनात कर दी थी और रात के समय उन्हें भारतीय सीमा में प्रवेश कराकर भारी गोलाबारी प्रारंभ कर दी। उनकी सेना के पास अत्याधुनिक हथियार थे उनका संचार तंत्र इतना मजबूत था कि संपूर्ण अरूणाचल प्रदेश में किस चौकी पर भारत के कितने सैनिक है उनके पास कितने दिन की रसद है एवं उनके पास क्या हथियार है इस सबकी संपूर्ण जानकारी चीन के पास थी।

उन्होंने तवांग की चौकी पर कब्जा करने के पूर्व चेतावनी दी कि आप लोग चौकी खाली कर दे अन्यथा मारे जायेंगे। कुछ देर तक भारतीय सेना लड़ती रही परंतु रसद एवं हथियार खत्म होता देखकर एवं चीन की भारी संख्या में सेना को देखकर उस चौकी के इंचार्ज ने सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया क्योंकि उन्हें हार सुनिश्चित दिख रही थी और परिस्थितियाँ भी उनके अनुकूल नही थी।

इनमें से एक जसवीर सिंह नामक सैनिक ने पीछे हटने से इंकार कर दिया उसका कहना था कि उसने अपनी माँ को वचन दिया है जान भी चली जाए परंतु पीछे नही हटूँगा और वह अकेला चौकी पर डटा रहा और चीनी सेना पर अंतिम गोली बची रहने तक फायरिंग करता रहा अंत में वह अंतिम सांस तक लड़ते हुये शहीद हो गया। उसका मृत शरीर जब उसके गांव लाया गया तो उसकी जेब से एक चिट निकली जिसमें लिखा था कि माँ में अपना वचन निभा रहा हूँ। उसकी वीरता एवं शौर्य गाथा की कहानी एक स्मारक के रूप में आज भी अंकित है। उसकी माँ ने उसे श्रद्धांजली देते हुए अपने दूसरे बेटे को भी भारतीय सेना में भेज दिया।

अरूणाचल प्रदेश के चप्पे चप्पे पर हर भारतीय सैनिक के शहीद होने की दास्तान गूँज रही है। तवांग में सैनिकों के प्रति श्रद्धांजली के स्वरूप में एक स्मारक बना है जिस पर लिखे हुए शब्द मुझे अंदर तक कचोट गये और मेरा अंतर्मन द्रवित हो गया। मेरे मन में तत्कालीन राजनेताओं के प्रति आक्रोश उबलने लगा उस स्मारक पर हमारी सेना की हार के पाँच प्रमुख कारण लिखे हुये थे।

एक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पंचशील के सिद्धांतों पर बेवजह अड़ा रहना दूसरा तत्कालीन विदेश मंत्री की अदूरदर्शिता और चीन की सेना की शक्ति को कम आँकने की अक्षमता तीसरा हमारे पास समुचित संचारतंत्र का ना होना चौथा हमारे पास अत्याधुनिक हथियारों का अभाव एवं पाँचवा सेना के युद्धाभ्यास की कमी एवं यह सोच कि हमारे ऊपर कोई आक्रमण नही करेगा।

75. दुखों के उस पार

जीवन के सपने यदि टूटते हैं तो घबराये नही सपनो को टूटने दे और आप पूरी ताकत के साथ उन सपनों को बुनने की कोशिश करें। जीवन में उम्मीद का दामन कभी नही छोडना चाहिए। विपरीत समय में मुश्किलें और परेशानियाँ तो सभी के जीवन का हिस्सा है, दुख भी सभी के हिस्से में है परंतु उसके पार जाना ही सफलता है। यह कथन है म.प्र. विद्युत मंडल में सेवारत् श्रीमती शशिकला सेन का।

वे बताती हैं कि उनका विवाह कम उम्र में ही हो गया था वे 25 वर्ष की उम्र होते तक 5 बच्चों की माँ बन गयी थी। उनके पति विद्युत मंडल में कार्यरत थे और एक दिन अचानक ही उनका निधन हो गया। उनकी इतनी कम उम्र में पति का ना रहना दो बेटे और तीन बेटियों की परवरिश करना सहज नही था। श्रीमती सेन आठवीं तक ही शिक्षित थी। उन्हें पति की स्थान पर चतुर्थ श्रेणी की नौकरी मिली जो उन्होने नही करने का निर्णय लिया।

विद्युत मंडल से जानकारी मिली की ग्यारवीं पास को ही तृतीय श्रेणी की नौकरी का पद मिल सकता है। शशिकला ने हार नही मानी उन्होने पहले ग्यारवीं पास करने का संकल्प लिया और पाँच बच्चों की परवरिश करते हुए कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी ग्यारवीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली। ग्यारवीं उत्तीर्ण होने के उपरांत उन्होंने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया और उन्हें तृतीय श्रेणी की नौकरी मिल गयी।

उनका कहना है उनके जीवन की सबसे बड़ी कमी यही थी कि उनके माता पिता ने आठवीं पास और कच्ची उम्र में ही उनकी शादी कर दी। यदि वे स्वयं संकल्प नही लेती तो कभी आगे नही पढ़ पाती और जीवन दूभर हो जाता। उन्होंने अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलायी और अपने गांव के दूसरे बच्चे बच्चीयों को भी उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। आज उनके रिश्तेदार, परिचित सभी के बच्चे उच्च शिक्षित हैं। उन्होंने नाबालिग विवाह की प्रथा को शासन से सहयोग लेकर अपने गांव में रोका और ऐसे परिवारों को वे आज भी अपना मार्गदर्शन दे रही हैं।

76. शिक्षा का दान महादान

डा. कामना श्रीवास्तव शिक्षाविद् और लेखिका हैं। उन्हें सृजन के गुण विरासत में ही मिले है। उनका कहना हैं कि जीवन में सत्साहित्य अध्ययन मनन का बहुत प्रभाव पड़ता है और आज वे जो कुछ भी हैं, अपने चिंतन, मनन एवं अध्ययन के कारण हैं।

कामना जी बताती हैं कि उनके घर के पास एक मध्यमवर्गीय परिवार किराए से रहता था। उनका एक बेटा और बेटी थे। इस परिवार में एक बार ऐसी स्थिति आ गयी कि उन दोनो बच्चों को आर्थिक संकट के कारण आगे की पढाई से वंचित होना पड़ा। एक दिन बातों बातों में जब यह जानकारी उन्हें मिली तो उन्होने उस पड़ोसी परिवार को समझाते हुए कहा कि आपकी बच्चे होशियार है आप किसी भी तरह उन्हें आगे पढाइये। पड़ोसी ने असमर्थता जताते हुए बताया कि उनकी आर्थिक स्थिति बिल्कुल भी ठीक नही हैं और वे किसी भी स्थिति में बच्चों को पढ़ा नही पायेंगें। यह सुनकर कामना जी ने उस परिवार के दोनो बच्चों के स्कूल की फीस, किताबों की खरीद और स्कूल की ड्रेस आदि का स्वयं प्रबंध कर दिया। इस प्रकार किसी तरह एक वर्ष व्यतीत हो गया और दोनो बच्चे भी उत्तीर्ण हो गए।

एक दिन अचानक ही बिना बताए उन्होने मकान खाली कर दिया। यह जानकर कामना जी को दुख हुआ कि वे कैसे लोग हैं जो बिना बताए, बिना मिले चले गए। इस घटना से कामना जी का मन व्यथित जरूर हुआ परंतु बात आई गई हो गई। इस घटना को बीते चार पाँच वर्ष हुये होंगे कि एक दिन उनके घर एक युवक मिठाई का डिब्बा लेकर आता है उसे देखते ही कामना उसे पहचान जाती है। वो कामना के पैर पडते हुए कहता है कि आंटी मेरा पी.एम.टी में चयन हो गया है, आप के सहयोग के कारण ही मेरी पढाई रूकी नही और आज मै मेडिकल कालेज में प्रवेश पाकर वहाँ पढ़ाई के लिए जा रहा हूँ। कामना ने अपना आशीर्वाद देते हुए उससे पूछा कि बिना बताए क्यों चले गए थे। उसने सिर झुकाकर रूंधे गले से केवल इतना ही कहा कि कुछ परिस्थितियाँ बताई नही जा सकती।

कामना ने बताया कि अब वह प्रतिवर्ष निर्धन और असहाय विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए प्रयासरत् रहती है। इससे उन्हे आत्मिक शांति मिलती है। उनका कहना है कि खराब वक्त में किसी की मदद कर दी जाये तो कभी कभी उसका जीवन ही बदल जाता हैं।

77. संकल्प साधना

यदि हमारे मन में लगन विचारों में सकारात्मक सोच हो तो विपरीत परिस्थितियों को भी हम सुधार सकते हैं और ऐसी परिस्थिति में भी अपने व्यक्तित्व को निखारने की क्षमता रख सकते हैं। जीवन में कठिन परिश्रम करने का उत्साह एवं लगन हो तो जीवन सफल हो जाता है। शिक्षाविद् कवियत्री एवं आकाशवाणी की ख्यातिलब्ध बुंदेली उद्घोषिका श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा ‘शील’ ने अपनी लगन एवं क्षमता से जो सफलता अर्जित की है वह प्रेरक है।

प्रभा विश्वकर्मा बुंदेलखंड की निवासी होने के कारण उनकी बोलचाल में बुंदेली भाषा का प्रभाव रहता है। बुंदेली भाषा हिंदी भाषा से अलग है, उसमें इते,उते जैसे ग्रामीण शब्दों का बहुत प्रयोग होता हैं। वह जब स्कूल में पढ़ती थी तो उन्हे बुंदेली बोलने के कारण मजाक का भी सामना करना पड़ा। प्रभा को बहुत बुरा भी लगता था किंतु उसकी जुबान में जन्मजात बुंदेलीपन होने के कारण उसे हटाना मुश्किल था।

शनैः शनैः उन्होंने हिंदी भाषा का गहन अध्ययन किया परंतु बुंदेली भाषा के प्रति असीम लगाव होने के कारण उन्होंने बुंदेली भाषा के प्रेम को छोड़ा नही। हिंदी के साथ साथ बुंदेली को भी अपनाते हुए साहित्य के विद्वानों की कृतियों का अध्ययन किया। अब उनका चयन बुंदेली भाषा के गहन अध्ययन एवं स्पष्ट बोलचाल के कारण आकाशवाणी के बुंदेली कार्यक्रम की उद्घोषिका के रूप में हो गया। आज प्रभा आकाशवाणी की गम्मत कार्यक्रम की चर्चित उद्घोषिका है।

उन्होंने बताया कि बचपन में उनकी बुंदेली भाषा के कारण उन्हें चिढ़ाया जाता था तभी से उन्होंने संकल्प ले लिया था कि वे अपनी क्षेत्र की मातृभाषा में ही आगे बढ़ेंगी जिसका परिणाम यह हुआ कि वे आज बुंदेली बोलने के कारण ही प्रतिष्ठित हुयी हैं। वे कहती हैं कि हमे अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान एवं गौरव रखना चाहिये। यदि व्यक्ति ठान ले तो वह किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकता है। प्रभा ने अपने संकल्प के कारण अपनी मातृभाषा बुंदेली की लिये संघर्ष किया और वे इसमें सफल रहीं।

78. दृढ़ संकल्प

श्री सुनील गर्ग शहर के एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति हैं। आपका कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय हैं एवं आप नालंदा पब्लिक स्कूल के डायेक्टर हैं। आप संयुक्त परिवार के मूल्यों में विश्वास रखते हैं एवं वर्तमान में अपने भाइयों के साथ संयुक्त परिवार में रहते है। गर्ग जी भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद में भी काफी रूचि रखते हैं एवं लोगों को उचित आयुर्वेदिक परामर्श देकर उनकी स्वास्थ्य समस्याओं का काफी हद का निवारण भी करते हैं। उन्होने बताया कि आयुर्वेद के प्रति इतनी गहरी रूचि का कारण उनकी माँ हैं।

उन्होने बताया कि एक बार उनकी माताजी को हार्ट अटैक हुआ, उन्हें जबलपुर मार्बल सिटी हास्पिटल में 7 दिनों तक भर्ती रखा परंतु स्थिति में सुधार ना होता देखकर डाक्टरों ने उन्हें बाइपास सर्जरी हेतु दिल्ली रिफर कर दिया। उनकी हालत अत्याधिक नाजुक थी। दिल्ली पहुँचने पर वहाँ के एस्कार्ट हास्पिटल में भर्ती किया गया एवं सारे टेस्ट होने के बाद डाक्टर ने कहा कि आपकी माताजी की बाइपास सर्जरी नही हो सकती क्योंकि उनका हार्ट सिर्फ 18 प्रतिशत ही कार्यशील था। वहाँ के डाक्टर ने कहा कि बाइपास सर्जरी करवाने से कोई फायदा नही होगा आप जबलपुर ले जाकर इनकी सेवा करें और भगवान पर भरोसा रखे।

उस दिन गर्ग जी ने अपने मन में ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए मुझे अपनी माताजी को स्वस्थ्य करना है। उसके बाद उन्होने कई आयुर्वेदिक ग्रंथो एवं अन्य कई स्वास्थ्य पद्धतियों का गहन अध्ययन किया एवं कुछ नुस्खों का प्रयोग उन्होंने माताजी पर किया। कुछ समय लगातार आयुर्वेदिक औषधि सेवन के उनके स्वास्थ्य में अभूतपूर्व अंतर नजर आने लगा एवं वे पहले की तरह काफी हद तक स्वस्थ्य हो चुकी थी।

उनके इस प्रयोग से उनकी माताजी को नवजीवन प्राप्त हुआ था। इसके बाद उन्होंने और भी कई परिचित और रिश्तेदारों को भी अपना परामर्श दिया जिससे वे लोग भी स्वास्थ लाभ लेने लगे। श्री गर्ग जी के अपने इस सेवाकार्य को बिल्कुल निशुल्क रखते हैं। उनका कहना है कि यदि व्यक्ति मन में दृढ़ संकल्प करके कार्य में लग जाए तो कोई भी चीज दुनिया में असंभव नही हैं।

79. जीवन का वह मोड़

सुप्रसिद्ध दंत चिकित्सक डा. राजेश धीरावाणी का मानना है कि जीवन में अनेको बार इंसान की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं जब उसे अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेना होता है। उसके मन में कई विचार उठते हैं और उनके समाधान के लिए उसे अपने मित्रों, बुजुर्गों एवं अनुभवी लोगों से सलाह मशविरा करने के बाद भी कोई निर्णय लेने में संशय बना रहता है।

मुंबई के प्रतिष्ठित महाविद्यालय से दंत चिकित्सा में स्नातकोत्तर परीक्षा सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्हे उसी विभाग में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति मिल गयी। एक वर्ष के उपरांत उन्होंने जसलोक हास्पिटल में जूनियर कंसल्टेंट के रूप में मैक्सीलोफेशियल सर्जरी विभाग में वरिष्ठ सर्जनों के सान्निध्य में उन्हें कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ कार्य करते हुए कुछ माह ही बीते थे तभी उनको एम.डी.एस की परीक्षा में अव्वल आने की वजह से मियामी विश्वविद्यालय अमेरिका ने अपनी फैलोशिप के लिये आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जसलोक हास्पिटल ने उन्हें दो वर्ष के लिए अमेरिका जाने की अनुमति दे दी पंरतु शर्त यह रखी कि वापिस लौटने पर उन्हें उसी हास्पिटल में सीनियर कन्सलटेंट के पद पर कार्य करना होगा। वहाँ से वापिस आने के उपरांत उन्होंने पुनः जसलोक हास्पिटल में सीनियर कंस्लटेंट के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया। वहाँ कार्य करते हुए उन्हें समृद्धि, प्रतिष्ठा के साथ साथ कार्य से संतुष्टि भी मिल रही थी। उनकी इन सफलताओं से उनके माता पिता, भाई बहन, मित्र, रिश्तेदार और शुभचिंतक सभी खुश होकर गर्व का अनुभव करते थे।

उनके जीवन में अहम मोड तब आया जब वे अवकाश पर अपने गृहनगर जबलपुर आये। उनके परिवार के करीबी एवं हितेषी, जाने माने पत्रकार और शिक्षाविद् एवं डा. धीरावाणी के प्रेरणा स्त्रोत श्री रामेश्वर प्रसाद गुरू ने उनसे आग्रह किया कि उच्च शिक्षा एवं अनुभव प्राप्त करने के उपरांत तुम जिस मिट्टी में पले बढ़े हो उसे ना भूलकर यहाँ की पीड़ित मानवता की सेवा के लिए वापस आना चाहिए। उन्होंने कहा कि इंसान में अगर काबिलियत हो तो अपना कार्यक्षेत्र कहीं भी बनाकर सफल हो सकता है। तुम्हे इस क्षेत्र की जनता की सेवा का बीड़ा उठाना चाहिए और साथ ही अपने माता पिता के सानिध्य एवं उनकी सेवा करने का सौभाग्य भी नही गँवाना चाहिए। उनके माता पिता की भी यही इच्छा थी। उन्होंने कई प्रेरणास्पद बाते कही जिसका गहरा असर उनके अंतर्मन पर हुआ। अवकाश के दौरान वे काफी विचलित रहे एवं लगातार चिंतन करते रहे कि यहाँ उनका क्या भविष्य होगा जबकि वहाँ मुम्बई में वे पूरी तरह स्थापित हो चुके थे। उन्हें विचलित देख उनकी माताजी ने कहा कि तुम्हें जो उचित लगे वह करो। उनके मन में अनेकों विचार आते रहे परंतु अंततः जबलपुर की माटी के कर्ज को चुकाने के कर्तव्य एवं माता पिता के प्रति स्नेह और उनकी खुशी के आगे उनके अंतर्दवंद की हार हुई एवं उन्होंने जबलपुर का कार्यक्षेत्र बनाने का निर्णय ले लिया।

जब यहाँ उन्होंने प्रेक्टिस आरंभ की तो ईश्वर कृपा से उन्हें जरा भी संघर्ष नही करना पड़ा। समय के साथ जबलपुर एवं आसपास के क्षेत्रों के लोगों में उनके प्रति असीम विश्वास एवं श्रद्धा के भाव पैदा हो गये। काम के प्रति ईमानदारी, निष्ठा, समर्पणभाव की वजह से उनकी प्रसिद्धि काफी दूर दूर तक फैल गयी। कुछ समय पश्चात उन्होंने एक हास्पिटल की स्थापना की जो इस क्षेत्र के लोगो के लिए महत्वपूर्ण चिकित्सा संस्थान बना जिसकी उन्होंने स्वप्न में भी कल्पना नही की थी। साल दर साल इसमें आधुनिक चिकित्सा विद्यायें जुड़ती गयी और यह हास्पिटल जबलपुर की एक पहचान बन गया।

वे कहते हैं कि यदि वे मुंबई को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाते तो शायद धन और स्वयं के लिये नाम कमाते परंतु पीड़ित मानवता की विभिन्न प्रकल्पों के माध्यम से जो सेवा का मौका मिला उससे वंचित रहना पडता। वे कहते है कि बुर्जर्गों के अनुभव एंव उनकी सलाह हर नौजवान व्यक्ति को मानकर अपने जीवन को सफल बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। व्यक्ति का प्रारब्ध निश्चित होता हैं परंतु सत्कर्म करने से इंसान अपनी किस्मत को बदल सकता है। ईमानदारी, उचित सलाह, सत्कर्म, कार्य के प्रति समर्पण एवं चिकित्सक की हमेशा मरीजों के लिए उपलब्धता सफलता के मंत्र है जिसे हर चिकित्सक को आत्मसात् करना चाहिए।

80. वे शब्द

डा. श्रीमती वर्षा संघी जो कि अंग्रेजी में पी.एच.डी. हैं का कथन है कि वे अपनी माँ से बहुत प्रभावित है और वे ही उनकी प्रेरणास्त्रोत रही है। उन्हें अपनी माँ के वचन अभी भी स्मृति में हैं कि मानव जीवन की सार्थकता तभी है जब वह अपने जीवन में कुछ ऐसा करें जिससे उसके स्वयं के चरित्र में निखार आ सके और अपने द्वारा समाज को भी सकारात्मक सृजन दे सके।

वे कहती हैं कि कई वर्ष पूर्व उनके जीवन में ऐसी घटना घटी जिससे उनके जीवन की दिशा बदल गई। उनकी माँ कहती थी कि स्वाभिमान और आत्मसम्मान के साथ कभी भी समझौता मत करना। उन्होने अपने साथ घटी एक घटना के विषय में बताया कि उनके एक निकट के रिश्तेदार दूसरे शहर में रहते थे, उनके पास से कुछ जरूरी दस्तावेज लाने थे इसलिए उनकी माँ उन्हें और उनके साथ उनकी छोटी बहन को वहाँ भेजा।

उस वक्त हम जीवन के उस काल में प्रवेश कर चुके थे जहाँ मन स्वयं ही बहुत तीव्र गति से बातें व वातावरण को समझ लेता है और यदि मन संवदेनशील होता है तो उसे तनिक सी चोट से भी गहरे आघात जैसा अनुभव होता हैं। ऐसा ही अनुभव उन्हें वहाँ उनके रिश्तेदार के यहाँ हुआ। वे चाय की चुस्कियों के साथ अपने रिश्तेदार से बातें कर रही थी तभी टेबल पर पड़ा अंग्रेजी समाचार पत्र उन्होने पढ़ा एवं एक वाक्य जोर से बोलने लगी, उनकी बात समाप्त होने के पूर्व ही उनकी रिश्तेदार ने उन्हे टोक दिया और रूखेपन से कहा कि तुम यह नही पढ़ पाओगी और इस वाक्य का भावार्थ उनकी बेटी स्कूल से आने के बाद बता देगी।

उन्हें यह सुनकर गहरा धक्का लगा कि उनके रिश्तेदार उन्हें अंग्रेजी में इतना कमजोर समझते हैं, जबकि उन्हे मालूम है कि वे बचपन से ही अंगे्रजी माध्यम से ही शिक्षित है। इससे उनके आत्मसम्मान को बडी गहरी ठेस पहुँची और वे अपना कार्य समाप्त करके तुरंत ही वहाँ से लौट गयी। रास्ते में उन्होने निर्णय लिया कि वे अंग्रेजी में एम.ए. करेंगी। उन्होने आगे ऐसा ही किया और अंग्रेजी में पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त करके अग्रेंजी की प्रोफेसर हो गई।

वे कहती है कि अपनी रिश्तेदार के कटाक्ष के कारण ही आज इस पद पर पहुँची है। वे आज की आधुनिक युग की पीढ़ी को अंगे्रजी के अधययन के साथ साथ नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा दे रही हैं। उनका मानना हैं कि क्या पता कौन सी अच्छी बात विद्यार्थियों के लिए जीवनोपयोगी प्रेरणा बन जाए।