Jivan ko safal nahi sarthak banaye - 7 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ७

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ७

61. कर्तव्य

सुप्रसिद्ध समाचारपत्र देशबंधु के प्रबंध निर्देशक दीपक सुरजन ने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये कि जीवन में कोई भी व्यक्तित्व तभी सफल होता है जब उसके जीवन को सही वक्त पर सही दिशा देने वाले प्रेरक का मार्गदर्शन प्राप्त हो। हमारे जीवन में ऐसे व्यक्तित्व भी प्रेरणा देते है जो शून्य से शिखर तक पहुँचे है। आज से नही आदिकाल से ही मनुष्य जीवन में आदर्श चरित्रों महानायकों प्रेरक प्रसंगों का खासा महत्व रहा है। ये प्रेरणादाता, शिक्षक, मित्र, परिवार के सदस्य या कोई अन्य भी हो सकते है। वे अपने जीवन की सफलता की प्रेरणा का श्रेय अपने माता पिता को देते है। वे कहते हैं कि वे दोनो ही विकट जीवट एवं सूझबूझ के व्यक्तित्व के धनी थे।

वे अपनी आँखों देखी सत्य घटना जो कि 40 वर्ष पूर्व घटित हुयी थी, उनके मन और मस्तिष्क में आज भी जस की तस है। रायपुर के एक व्यस्ततम मार्ग में अचानक एक कार तेज गति से ट्रेफिक सिग्नल तोड़कर भागती हुयी निकली। ट्रेफिक हवलदार के बहुत रोकने पर भी वह भागती चली गयी, तब उसने अपनी स्कूटर से तेजी से उसका पीछा किया और कार ड्राइवर के तरफ वाली खिड़की से लटककर घिसटता हुआ चला गया। उसने आखिरकार कार को रोक ही लिया, यह सबकुछ ऐसा हुआ जैसे किसी फिल्म का दृश्य हो परंतु अपनी जान जोखिम में डालकर उस जाँबाज ट्रेफिक सिपाही ने कार चालक को सबक सिखाया और साथ ही वहाँ उपस्थित लोगों को भी प्रेरणा दी की कानून का पालन किया जाना चाहिए।

वे दूसरे प्रेरणा प्रसंग में अपनी बेटी कृति का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि लगभग 22 साल पूर्व वे सपरिवार रायपुर से जबलपुर सड़क मार्ग से लौट रहे थे। अलसुबह मीठी नींद का वक्त था कि जब बरघाट ( बालाघाट ) के पास उनकी कार एक पेड़ से टकरा गयी। वे सभी घायल थे ऐसे में उन्होंने उसे एक परिचित के बारे में जानकारी दी और वह अकेले ही उनका घर ढूँढते हुये उनके पास पहुँची और उनको लेकर आयी। वे भी उसे उस घायल अवस्था में देखकर चैंक गये थे। कृति की त्वरित बुद्धि और साहस की वजह से उन्हें सिवनी जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया उस समय कृति की उम्र सिर्फ 12 साल की थी।

पुराने समय में संयुक्त परिवार का चलन था परंतु अब एकल परिवार का चलन आ गया है। संयुक्त परिवार में घर का मुखिया समय समय पर प्रेरणा देने की मिसाल कायम करते थे। वे शांति और सद्भाव से रहने के प्रेरणास्त्रोत थे।

62. नेता हमारे प्रेरणास्त्रोत

मेरे एक मित्र श्याम सुंदर जेठा जो कि दीपक एडवरटाईजिंग एजेंसी के संचालक हैं ने बताया कि राजनीति में उच्च शिखर पर विराजमान नेतागण उनके जीवन के प्रेरणास्त्रोत हैं। यदि आपको इसमें कोई संशय हो तो मैं उनके पास आपको ले चलता हूँ, आप स्वयं हमारे वार्तालाप के बाद मेरी बात से सहमत हो जायेंगे।

मैं जेठा जी के साथ उनके आदर्श नेताजी के पास गया और जेठा जी ने मेरा परिचय उनसे कराते हुए बताया कि ये एक लेखक है जो कि प्रेरणादायक घटनाओं पर कोई पुस्तक का लेखन कर रहे हैं। नेताजी बोले कि ना जाने क्या बात है कि पत्रकार और लेखक हमारे प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख नही करते बल्कि कार्यप्रणाली की आलोचना करते हैं। यह मेरी सहनशीलता है कि मेरे विरोधी मेरे बारे में अनर्गल बातें करते है परंतु मैं इन सभी बातों को भूलकर उनसे लड़ता नही हूँ बल्कि कभी भी उनसे मिल लेता हूँ। जेठा जी बोले हम लोग आम जनजीवन में छोटी छोटी बातों में आपा खोकर लड़ाई झगड़ा एवं मारपीट करते है। नेताजी के समान सहनशीलता हम सब के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

यह सुनकर नेताजी प्रसन्न हो गये और बोले कि नेतागिरी में स्थायी वैमनस्यता कभी नही होती। दिल मिले या ना मिले हम लोग हाथ मिलाते रहते है क्योंकि हमें कभी भी कहीं भी एक दूसरे की आवश्यकता बनी रहती है। इसलिए राजनीति में ना तो स्थायी मित्रता होती हैं और ना ही दुश्मनी। जेठाजी यह सुनकर बोलने लगे कि यह एक अच्छा गुण है। इसे अपनाकर हमे यह प्रेरणा मिलती हैं कि जीवन में स्थायी दुश्मनी किसी से मत करो।

अब नेताजी भाव विभोर हो गये और बोले विभिन्न विचारधाराओं एवं विभिन्न मतो के होते हुए भी हम लोग गठबंधन करके परिवार का एक रूप लेकर सर्वोच्च पद प्राप्त कर उसका सुख और आनंद लेते है। जेठा जी का मत था कि नेताओं का यह अंदाज हमारे लिए प्रेरणा देता हैं कि हर परिवार और समाज में एक मजबूत गठबंधन से सब बंधे रहें, बिखराव और ना बढे़ और अपने जीवन में सदा आनंद को प्राप्त कर गठबंधन को अपने जीवन का अमूल्य सूत्र बनालें।

नेताजी ने वार्तालाप समाप्त होने के पहले अंतिम बात यह बताई कि उनमें यह खासियत है कि वे समय के अनुसार देशहित की बातों को अपने अनुसार परिवर्तित करके लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं जेठा जी ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि हमें परिवार हित में, सामाजिक हित में अपने स्वभाव में परिवर्तन करते रहना चाहिए। इतने वार्तालाप के उपरांत हम लोग बाहर निकल आये। श्यामसुंदर जेठा जी ने मुझसे पूछा कि अब बताओ नेता मेरे प्रेरणास्त्रोत है, इसमें क्या बुराई है। मैने कहा कि यह आपका निजी मामला हैं कि आप अपने नेता को प्रेरणा स्त्रोत माने या ना माने।

63. जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

हमें जीवन को यदि समग्रता से जीना है तो हमें उसकी परिभाषा को आत्मसात् करना होगा जीवन उतार चढ़ाव, सुख दुख, आशा निराशा, सफलता और असफलता का नाम हैं। यह विचार व्यक्त करते हुए प्रो, एच.बी. पालन अतीत में खो गए। वे बोले जीवन में कुछ ना कुछ घटनाएँ ऐसी घटित हो जाती है जो हमारी दिशा एवं दशा बदल देती है। उन्होंने बताया कि उनकी शिक्षा केमेस्ट्री में एम.एस.सी होने के कारण उस समय उन्हें रोजगार के अवसरों की कोई कमी नही थी। देश के प्रतिष्ठित अनेकों संस्थान उन्हें नौकरी देने के लिए तैयार थे।

उनमें से एक मफतलाल इंडस्ट्रीज़ में कार्य करने हेतु वे मुंबई गये परंतु दुर्भाग्यवश वहाँ कार्यरत होने के पहले ही उनके पिताजी का निधन हो गया और उन्हे वापिस जबलपुर आना पड़ा। उनकी माँ ने उन्हें बुलाकर कहा कि वे अकेली हो गयी है इसलिए तुम जबलपुर से बाहर मत जाओ। यह सुनकर वे स्तब्ध रह गये और समझ नही पा रहे थे कि मफतलाल ग्रुप को छोड़कर, माँ की बात को माने या नही।

एक ओर आर्थिक भविष्य सुरक्षित था वही दूसरी ओर माँ के प्रति मेरी नैतिक जवाबदारी और उनका स्नेह एवं प्यार था। इसमें उन्हें किसे स्वीकार करना चाहिए वे असमंजस में थे। उन्होने अपनी मन की बात माँ के सामने रखी। वे बोली सफलता ही मात्र जीवन को ऊँचाई पर ले जाने की सीढ़ी नही है, तुम सफलता की जगह जीवन को सार्थक बनाओ जो कि किसी के जीवन में खुशियाँ ला सके, बदलाव कर सके एवं जीवन की दशा व दिशा बदल सके। माँ के इस कथन ने एवं विचारों ने उनके मानस पटल पर ऐसा प्रभाव डाला कि उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जबलपुर में रहकर ही ऐसा कार्य करेंगे जिससे माँ के सपने साकार हो सके।

ईश्वर की कृपा से उन्हें जबलपुर साइंस कालेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति का आदेश मिल गया। वे स्वीकार करते हैं कि माँ की प्रेरणा एंव प्रेरक व्यक्तित्व के कारण ही उन्होंने छात्रों के लिए राष्ट्रीय सेवा योजना के अंतर्गत अनेकों सेवा कार्य किए जिनमें प्रमुख हैं:- प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, बुक बैंक योजना के माध्यम से समाज सेवा को नयी दिशा दी है। वे धर्मार्थ चिकित्सालय एवं अनेक संस्थाओं के सेवा कार्यों से संबंद्ध रहते है और जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग वे सार्थक बनाने, दूसरों को खुशियाँ बाँटने में व्यतीत करते हैं इससे उन्हें जीवन में असीम शांति और आत्मसंतुष्टि मिलती है। उनका कहना है कि व्यक्ति को अपना जीवन का समग्रता के साथ जीना चाहिए। हमें पल पल का सदुपयोग करते हुए परमार्थ करना ही जीवन की सफलता है।

64. अहंकार

आलोक दवे ( रिटा. जी.एम. रेल्वे ) ने बताया कि मानव में अंहकार ना हो यह बहुत कठिन है। हम सेवा अवश्य करते हैं परंतु उसमें से अहंकार का भाव ना हो तभी वह सच्ची सेवा है इसी संबंध में वे अपने जीवन का एक घटना बताते है जिसने ना केवल उनके मन से अहंकार हटा दिया बल्कि सबकुछ कर्ता धर्ता प्रभु हैं हम केवल उनके माध्यम हैं, का अहसास भी कराकर उनके जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया।

सन् 2006 में उनकी अतिप्रिय चाची जी की कैंसर से मृत्यु हो गयी, उनके इलाज के लिए सभी ने बहुत कोशिशे की और पता लगा कि इस असाध्य रोग में खर्च तो बहुत होता है परंतु हाथ कुछ नही आता सिवाए रोगी का कष्ट हम कुछ दिनो के लिए और बढ़ा देते है। सन् 2007 में उनका स्थानांतरण मंडल रेल प्रबंधक के रूप में जबलपुर मे हुआ इसी दौरान पता चला कि कांकेर के एक गरीब परिवार के छः माह के एक बच्चे को कुछ इलाज की आवश्यकता है जिसे उन्होंने पत्नी की सहमति लेकर सेवा के रूप में उसे इलाज कराने का मन बना लिया उन्हें ऐसा लगा जैसे इस कार्य को करने में परमपिता परमेश्वर का विशेष अनुग्रह है। उन्होंने निश्चय के उपरांत जुलाई माह मे उस व्यक्ति से मुलाकात की।

कांकेंर के रहने वाले उस गरीब व्यक्ति ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि उसके नवजात शिशु की आँखों में कुछ समस्या है उसने रायपुर में इलाज करवाया था पर जब वह हैदराबाद गया तो उसे पता चला कि उसके छः माह के बच्चे की एक आँख में कैंसर हैं। आलोक दवे यह सुनकर घबरा गये क्योंकि उन्होंने अपनी चाची के इलाज में होने वाले खर्च को देखा था। यह बात जब उन्होने पत्नी को बतायी तो उनकी पत्नी ने साहस पूर्वक कहा कि यह सेवा का कार्य है अब पीछे मत हटना। दवे जी भयभीत थे कि इस इलाज में लाखों रूपये का खर्च होगा इसे वह कैसे दे सकेंगे। यह सोचकर वे बहुत परेशान हो गये परंतु पत्नी के कहने पर भरे मन से सोचने लगे कि शायद यह रूपये अपने पी.एफ. से निकालना पडेंगे जो कि एक सरकारी कर्मचारी के लिये बहुत कष्टप्रद होता है वह भी जब आप अपने या अपने परिवार को छोड़कर किसी अनजान पर खर्च कर रहे हों। उन्होंने तुरंत ही शंकर नेत्रालय में बात की और 3 अगस्त का समय मिला। उन्होंने उस बच्चे के परिवार सहित चेन्नई जाने की व्यवस्था कर दी और उसके बाद अपनी दैनिक दिनचर्या एवं कार्यालीन कार्यों में व्यस्त हो गये।

7-8 अगस्त के आसपास उनके एक रेल्वे से सेवानिवृत्त मित्र आये और उन्होंने चेन्नई में 5 दिनों के लिए 15 से 20 अगस्त तक रेस्ट हाऊस में प्रबंध करने की मदद माँगी। उनके मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि चेन्नई अपनी आँख की जाँच करवाने के लिए जा रहे हैं क्योंकि छः माह पहले ही उनकी एक आँख जिसमें कैंसर था का शंकर नेत्रालय में आपरेशन हुआ है और उसकी जगह पत्थर की आँख प्रत्यारोपित की गयी है। यह सुनकर उनके जेहन में घंटियाँ सी बज उठी, दवे जी ने डरते डरते अपने मित्र को बताया कि एक छोटा बच्चा जिसकी आँख में कैंसर हैं को 3 अगस्त को शंकर नेत्रालय में बुलाया गया है उनके मित्र अनमने से होकर बोले समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो कहीं कैंसर उसकी दूसरी आँख या मस्तिष्क में ना फैल जाए। उन्होंने शंकर नेत्रालय में स्वयं ही चिकित्सक से बात कर 15 अगस्त की तारीख उस बच्चे के आपरेशन के लिए निर्धारित कर दी। यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि मुझे तुरंत उस व्यक्ति को सूचना देकर चेन्नई में ही रूकने का प्रबंध करना पड़ा।

अब उनके मन में खर्च के प्रश्न ने परेशान करना शुरू कर दिया। उन्होंने डरते डरते अपने मित्र से पूछा कि इस आपरेशन में कितना खर्च होता है उसने बताया मात्र 45 हजार रू. लगते हैं यह सुनते ही दवे जी की चिंता समाप्त हो गयी और उन्होंने तुरंत बैंक से 45 हजार रू. निकालकर मित्र को दे दिये और उसे चेन्नई रवाना कर दिया। एकाएक सभी कुछ व्यवस्थित व संभव सा लगने लगा उनके मित्र ने उस बच्चे के इलाज मे बहुत मदद की यहाँ तक की उसने अपनी तरफ से अस्पताल के प्रबंधक से कुछ छूट देने का अनुरोध किया कि वह एक बच्चा है और उसका पिता गरीब है। उसने दवे जी को जब फोन पर यह बताया तो दवे जी बोले कि ऐसा अनुरोध करने की कोई आवश्यकता नही है इतना खर्च वह सहर्ष वहन कर सकते हैं। दूसरे दिन उनका मित्र जब पुनः प्रबंधक से मिला तो उसने बड़े उत्साह से सूचित किया कि अस्पताल प्रबंधन ने निर्णय लिया है कि शंकर नेत्रालय में इस बच्चे का आपरेशन ना केवल निशुल्क किया जायेगा बल्कि अगले पाँच सालों तक का चैकअप भी निशुल्क होगा।

उनके मित्र ने तुरंत ही यह जानकारी दवे जी को टेलीफोन पर दे दी। यह सुनकर दवे जी हतप्रभ रह गये, वे अहंकारवश सोच रहे थे कि 45 हजार रू. खर्च करके उस बच्चे का आपरेशन कराकर वे सेवाकार्य कर रहे हैं परंतु अब उसका निशुल्क आपरेशन प्रभु कृपा से होना जानकर उनको मन में यह आभास हो गया कि सब कुछ प्रभु की इच्छा पर निर्भर है वे केवल निमित्त मात्र थे। अहंकार के इस रूप को समझने में उन्हें समय लगा पर यह उनके जीवन का सबसे अभूतपूर्व व रोमांचित करने वाली घटना हैं। वे यह अच्छे से समझ गये कि विपत्ति के समय तुम जब घबराते हो कि अब क्या होगा और कैसे होगा ? उस समय भी याद रखो कि करने वाला अब भी परमपिता परमेश्वर ही हैं।

65. उद्योग और विकास

उद्योगपति अरूण भटनागर कहते हैं कि वर्तमान समय में कठिन आर्थिक मंदी की परिस्थितियों में समुचित तकनीकि जानकारी के बिना, माल की बिक्री में कठिन स्पर्धा की स्थिति में कार्यभार संभालने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति ना हो तो किसी भी उद्योग को आज की परिस्थितियों में खोलने का निर्णय अपने परिवार को आर्थिक जोखिम में डालना ही है। उन्होंने बताया कि आज से 20 वर्ष पूर्व ब्रोमाइट केमिकल नामक संस्थान में उन्होंने अपने एक भागीदार के साथ मिलकर फोटो प्रोसेसिंग केमिकल जिसका उपयोग मेडिकल एवं इंडस्ट्रीयल एक्स रे फिल्म एवं ग्रेफ्कि आर्ट फिल्म तथा कागज के निर्माण में होता है का उत्पादन प्रारंभ किया था। उस समय इसे देश में केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जैस कोडेक, एगफा, फ्यूजी एवं मे एंड बेकर आदि ही इनको बनाती थी। उनके कठिन परिश्रम मेहनत एवं उत्पादन की गुणवत्ता के कारण धीरे धीरे बाजार में उनके उत्पादन की बिक्री बढ़ती चली गयी।

उन्हें इस केमिकल के निर्माण की प्रेरणा उनकी माँ के विचारों के कारण प्राप्त हुई जो कि एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी और हमेशा कहा करती थी कि हमें पश्चिमी देशो का अनुसरण ना करते हुए अपने देश में तकनीकि विकास से औद्योगिक विकास करना चाहिए। वे कहते हैं कि दूसरे प्रेरणा स्त्रोत एक रेल्वे ड्राइवर जिसने उन्हें जब वे कोडेक कंपनी में तकनीकि बिक्री अधिकारी थे तब सहयोग दिया था। उनके तीसरे प्रेरणा स्त्रोत दिल्ली प्रेस के तत्कालीन निर्देशक थे जिसे उन्होंने इस केमिकल के उत्पादन के लिए प्रेरित किया। ईश्वर की कृपा से उनका व्यापार सफल होता चला गया और आज विदेशो में भी उनकी कंपनी का माल जाता है जिससे हमारे देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती हैं। अरूण भटनागर जी का जीवन कठिन परिश्रम, लगन एवं कार्य के प्रति समर्पण में बीत रहा है जो कि आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

66. शिक्षक का कर्तव्य

अपने बौद्धिक कौशल, चिंतन एवं सवंदेना का अद्भुत समन्वय के साथ साथ नीति निर्धारण, योजनाओं के क्रियान्वयन तथा आर्थिक संयोजन में चिंतन की अद्भुत क्षमता के धनी डा. फादर वलन अरासू जो कि सेंट अलायसिस कालेज में प्रधानाध्यापक है कहते है कि वे छात्रों के प्रति स्नेह , करूणा एवं उनके कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है। वे विद्यार्थियों के प्रति असीम स्नेह के दो उदाहरण बताते हैं।

एक विद्यार्थी अत्यंत उद्दंड एवं अशिष्ट था उसका अध्ययन के अतिरिक्त शेष हर जगह दखल रहता था। वह अक्सर मारपीट एवं अभद्र व्यवहार करता रहता था, सभी अध्यापकों की राय थी कि उसे महाविद्यालय से निष्कासित कर दिया जाए परंतु फादर ने उसे बुलाया उसकी पारिवारिक स्थिति की जानकारी प्राप्त की। वह छात्र अपने माता पिता का एकलौता पुत्र था तथा उसके पिता को कैंसर था। फादर ने उसे भावनात्मक रूप से झिंझोड़ा, समझाया और पारिवारिक प्रतिष्ठा एवं दायित्वों का बोध कराया। उस विद्यार्थी में अंततः परिवर्तन हुआ और तब से वह गुरूजनों का बेहद सम्मान करने लगा। वह एक दिन फादर के पास आया और बोला कि आप चाहते तो मुझे महाविद्यालय से निकाल देते परंतु आपने मेरे भविष्य को देखते हुए मुझे समझाया, मेरे पिता से संपर्क किया इससे मेरा सोचने का ढंग बदल गया। आपने वास्तव में मेरे भविष्य की रक्षा की इतना कहते हुए उसने फादर के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लिया।

दूसरे उदाहरण में एक विद्यार्थी किसी बाहरी जिले से पढ़ने के लिए आया था और छात्रावास में रहता था। कालांतर में पता चला कि घर से पैसा पाने के बाद भी उसने ना तो शुल्क जमा किया और ना ही उचित ढंग से पढ़ाई की। फादर ने उसके पिता को बुलवाया तथा संपूर्ण स्थितियों से अवगत कराया। उस छात्र के पिताजी हतप्रभ हो गये कि उन्होंने बड़े अरमान के साथ अपने बेटे को इस प्रसिद्ध संस्थान में पढ़ने के लिए भेजा था किंतु उनका यह बेटा उनके साथ ही नही अपितु अपने जीवन के साथ भी छल कर रहा था। वे स्वयं एक शिक्षक थे फादर ने उस बच्चे की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और कक्षा में उसकी उपस्थिति तथा समय निष्ठता को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की। इसलिए उन्होंने कुछ अध्यापकों एवं उपप्राचार्य को इसका दायित्व सौंपा जिसका परिणाम यह हुआ कि वह विद्यार्थि मुख्य धारा में आकर अध्ययन के प्रति समर्पित हो गया।

फादर के विचार हैं कि उनकी आवश्यकता उन्हें नही है जो समर्थ है बल्कि उन्हें है जो अक्षम और अभावग्रस्त है। राह से भटके हुए विद्यार्थीयों को सन्मार्ग पर ले आना सच्ची सेवा है। इसलिए शैक्षणिक संस्थानों का दायित्व है कि वे पूरी सोच, विद्यार्थियों के हित और उनके चरित्र निर्माण पर ध्यान केंद्रित करें। बहुत अच्छे परिवार से आये अत्यंत सभ्य और तीव्र बुद्धि वाले विद्यार्थी सभी को प्रिय होते है पंरतु निम्न जीवन स्तर से आये हुए एकाग्रहीन और सामाजिक शिष्टाचारों से अनभिज्ञ विद्यार्थीयों को अधिकतम समय देना और उन्हें श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में परिवर्तित करना वास्तविक राष्ट्रनिर्माण है।

67. मित्र की मित्रता

हमें सफलता के लिए पूर्ण दक्षता के साथ कर्म तो करना चाहिए किंतु कर्म से प्राप्त अच्छा या बुरा जैसा भी हो उसे ईश्वर की इच्छा मान कर स्वीकार करना चाहिए ताकि हमारा जीवन आनंदित एवं प्रफ्फुलित रहे। यह विचार व्यक्त करते हुए धर्म प्रेमी, प्रतिष्ठित व्यवसायी एवं अनेक धर्मार्थ संस्थाओं के प्रणेता एवं चेयरमेन मधुसूदनदास मालपाणी ने आगे कहा कि आज मानव को मानव से प्रेम कम होता जा रहा है यदि मानव दूसरे मानव की कठिनाईयों को समझे और उसके निराकरण का प्रयास करे तो समाज में क्रांति लाई जा सकती हैं।

एक उदाहरण देकर बताते हैं कि दो मित्र एक ही पाठशाला में अध्ययनरत् थे। अध्ययन समाप्त होने के पश्चात वे दोनो अपने अपने कार्यों में व्यस्त हो गये। कई वर्षों बाद उनकी आपस में मुलाकात होती है वे दोनो एक दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं उनकी आपस मे बातचीत से ज्ञात होता है कि एक मित्र बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा है वह ईमानदारी से कठोर परिश्रम करने के बाद भी इतना धन नही कमा पाता कि परिवार का पालन पोषण कर सकें। उसका दूसरा मित्र व्यवसाय में बहुत तरक्की करके सुख, समृद्धि एवं वैभव का जीवन जी रहा था।

उसे अपने दूसरे मित्र का हाल जानकर बहुत दुख हुआ और उसने उसे मदद करने के लिए अपने व्यवसाय में साइकिल स्टैंड का ठेका दे दिया। उसने ईमानदारी से काम करते हुए साइकिल स्टैंड से प्राप्त होने वाली आय दुगुनी कर दी जिससे प्रभावित होकर प्रबंधन ने उसे भोजनालय विभाग का भी संचालक बना दिया। यह काम करते हुए भी उसने आय में काफी वृद्धि कर ली। अपने व्यवसाय की आय में दिन दूनी और रात चैगनी वृद्धि देखकर उसके मित्र ने उसे व्यवसाय मे भागीदार बना लिया।

अब वह मित्र आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो गया उसके कड़ी मेहनत और ईमानदारी से दोनो ही मित्रों को आर्थिक लाभ हुआ। इस प्रकार अभावों से त्रस्त उस मित्र का जीवन परिवर्तित हो गया। आज भी वह अपने बचपन के पुराने मित्र का आभारी है जिसने उसे आर्थिक रूप से नया जीवन प्रदान किया। इस उदाहरण से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि खराब वक्त में हमारे मित्र, सहयोगी या रिश्तेदारों की मदद अवश्य करनी चाहिए ताकि वह पुनः स्थापित हो सके।

68. कार्य के प्रति समर्पण

म.प्र. उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर दुबे ने म्यूनिसिपल हाई स्कूल गाडरवारा से हायर सेकेंड्ररी की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एल.एल.बी की डिग्री प्राप्त की। उनके गाँव में उनका संपर्क गरीब परिस्थिति के लोगो से हुआ। उन्होंने महसूस किया कि ऐसे गरीब तबके के लिए न्याय मिलना आवश्यक है तभी वे अपना भविष्य उज्जवल बना सकेंगे।

एल.एल.बी करने के पश्चात् कुछ समय के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता एस.सी.दत्त के यहाँ अनुभव प्राप्त किया। वे दत्त साहब की कार्यप्रणाली और उनका कार्य के प्रति समर्पण देखकर बहुत प्रभावित हुए और उनको अपना प्रेरणा स्त्रोत मानने लगे। वे उदाहरण देकर बताते है कि उनके यहाँ काम करने के दौरान वे अपनी निजी वकालत भी करते थे यहाँ तक कि कुछ प्रकरणों में हम दोनो एक दूसरे के विरूद्ध न्यायालय में उपस्थित होकर जिरह करते थे।

मेरे ऊपर पक्षकारों को विश्वास था कि उनकी तरफ से केस लडने के लिए मेरी ओर से कोई कमी नही रहेगी। यह उनके आत्मविश्वास की बात थी इससे उन्हें प्रेरणा मिली कि मेहनत और ईमानदारी से कार्य करने का फल अवश्य मिलता है। उनके यहाँ आज भी गरीब तबके के लोगो को कानून संबंधी मुफ्त मदद दी जाती है जिसे वे अपना धर्म मानते हैं। श्री दुबे जी का कहना है कि व्यक्ति को अपने कार्य को ही अपना धर्म मानकर करना चाहिए। अधिवक्ता का अपने पक्षकार के प्रति समर्पण और उसके प्रकरण के प्रति ज्ञान ही सफलता और असफलता का आधार बनता है अतः पूरी निष्ठा और समर्पण से अपने कार्य को अंजाम देने से यदि असफलता भी मिलती है तो आत्मसंतोष बना रहता है।

69. जीवन संघर्ष

सुप्रसिद्ध चिकित्सक डा. जी.सी. दुल्हानी से जब मैंने चर्चा की तो वह अतीत में मानो खो गये, वे बोले कि उनका सारा जीवन संघर्ष, समझौते एवं समर्पण में बीत गया। उनके इंटरमिडिएट की षिक्षा पूर्ण होते ही उनका जीवन संघर्ष आरंभ हो गया। वे उस समय की घटना को याद करते हुए बताते हैं कि उनके परिवार में किराने की एक दुकान हुआ करती थी जिसमें तीन भागीदार थे, उनके दादा, दादा के सगे भाई एवं दादा के चचेरे भाई। उनमें सब कुछ ठीक चल रहा था परंतु एक दिन अचानक ही उनके दादा जो सबसे बड़े और वृद्ध थे उन्हें उनके सगे भाई व चचेरे भाई ने मिलकर दुकान से उनका हिस्सा दिये बिना ही बेदखल कर दिया। हम लोग यह नही समझ पाये कि ऐसा क्यों हुआ हमारे परिवार में उस समय 15 सदस्य थे और हमें इस अचानक हुये परिवर्तन से खाने के भी लाले पड़ गए।

हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से रूपयों की व्यवस्था कर किराने की एक छोटी सी दुकान प्रारंभ कर ली परंतु उससे इतने बड़े परिवार का गुजारा संभव नही था। उनके दादा एवं माँ को उनके बड़े बेटे होने की वजह से उनसे बहुत उम्मीदे थी। उन्ही दिनो उनके मित्रो ने मेडिकल कालेज में एडमिशन के लिए फार्म मंगाए, उस समय आज के समान एंट्रेंस एग्जाम नही होते थे। उनके एक मित्र ने गलती से दो फार्म मंगा लिए, उसमें से एक फार्म इन्हें देकर उसे भरकर भिजवाने के लिए कहा। डा. दुल्हानी ने उसे भरकर भिजवा दिया परंतु जब घर में पता चला तो जैसे बवाल सा मच गया। उनके घर में माँ और दादा दोनो ही घर से दूर रहकर शिक्षा लेने के खिलाफ थे उन्हें संभवतः यह डर सता रहा था कि डाॅक्टर बनने के बाद वे उनसे अलग हो जायेंगे। उन्हें समझाने और उनकी सहमति लेने के लिए उनको घर में ही तीन दिन भूख हड़ताल करनी पड़ी तब बड़ी मुश्किल से इसके लिए सहमति बन सकी।

अब फार्म जमा करने की अंतिम तिथि में मात्र दो दिन बचे थे। वे फार्म लेकर जबलपुर अपने जीजाजी के पास आये उन्होने तुरंत ही अपने कर्मचारी को फार्म एवं रूपये देकर जमा कराने भिजवा दिया। प्रभु कृपा से उनका फार्म जमा होकर प्रवेश भी मिल गया। उन्हें कालेज में ही हास्टल में रहने के लिए एक कमरा मिल गया। अब उनके लिए पाँच साल की पढ़ाई के लिए निवास, भोजन और किताबों के रूपये का इंतजाम करना आसान नही था। उन्होने स्कालरशिप के लिए फार्म भर दिया, उनका यह आवेदन मंजूर होकर उन्हें प्रतिवर्ष 1200 रू. स्कालरशिप स्वीकृत हो गयी और ना जाने कैसे देखते देखते ही पाँच वर्ष व्यतीत हो गये और वे डाक्टर बन गये।

अब उनका जीवन संघर्ष और भी तेज हो गया। उन्हें स्वयं को स्थापित करना, छोटे भाईयों और बहनों की अधूरी पढ़ाई को पूरी करवाने की जवाबदारी एवं उन्हें समुचित रोजगार से लगाना आदि काम आसान नही थे। उनके रिश्ते के एक चाचाजी ने जबलपुर में लालमाटी क्षेत्र में एक दुकान दिलवा दी और फर्नीचर आदि की व्यवस्था भी उन्ही के द्वारा कर दी गयी। इसी दुकान से उन्होंने अपनी क्लीनिकल प्रेक्टिस आरंभ की और धीरे धीरे उनका काम वहाँ जम गया। वे अपने पूरे परिवार को अब जबलपुर ले आये। उनके दादा, दादी की मृत्यु के उपरांत भी उनकी पत्नी को मिलाकर 14 सदस्य थे। उनके पास इतना रूपया तो नही था कि वे अपने भाइयों को व्यवसाय शुरू कराते। उन्होने उन सब को पूरी शिक्षा दिलवाकर कुछ ऐसे हुनर सिखाए जिससे वे अपनी रोजी रोटी लायक धन कमा सके। वे सभी इस बात से सहमत थे और धीरे धीरे समय के साथ वे सभी धनोपार्जन करने लगे और अपनी अपनी शादियों के बाद सुखी एंव संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

डा. दुल्हानी कहते हैं कि उनके इस जीवन संघर्ष में सफल होने का श्रेय उनकी पत्नी को है जिसने हर कदम पर ईमानदारी एंव लगन के साथ सहयोग दिया अपने लिये कभी कुछ भी नही माँगा यदि उनका सहयोग एवं मार्गदर्शन प्राप्त नही होता तो कुछ भी संभव नही था। आज ईश्वर की असीम कृपा से उनके पास समृद्धि एवं प्रतिष्ठा दोनो है।

70. गुरू कृपा

पंडित रोहित दुबे भुवन विजय पंचांग के संपादक, शिक्षा में इंजीनियरिंग में स्नातक एवं सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य के रूप में जाने जाते है। वे कहते हैं कि यदि पूर्व जन्मों की बात छोड दे तो इस जन्म में उन्हें हनुमान जी के अनन्य भक्त गुरूदेव पंडित श्री रमाकांत झा का सानिध्य मिला। उनके 12 वर्ष की अवस्था से ही पारिवारिक परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नही थी किंतु उनके गुरूदेव ने उनकी बाँह पकडकर धर्म, आध्यात्म के साथ साथ शिक्षा की ओर पूर्ण ध्यान दिया और छोटी छोटी प्रेरणादायक बातों को सरल एवं ग्राह्य बनाकर अंतर्मन में इस प्रकार प्रविष्ट किया कि वे आज तक जीवन में संबल बनकर प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी स्वयं की कोई रूचि नही थी पंरतु गुरूजी की कृपा का ही परिणाम है कि आज कर्मकांड और ज्योतिष उनका कार्यक्षेत्र बन गया है। इंजीनियरिंग की तकनीकि शिक्षा का अध्ययन करने के साथ साथ गुरूजी ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन भी कराते रहे जो कि आज उनकी जीविका का माध्यम भी बन गया।

इंजीनियरिंग की शिक्षा की पूर्णता के पूर्व उनके मार्गदर्शक का स्वर्गारोहण हो गया। उन्होने मृत्यु के आधा घंटे पूर्व उन्हें आदेश देकर यह शपथ ग्रहण करवाई की उन्हें उनका उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा। समाज के प्रतिष्ठि व्यक्तियों ने उन्हें पूर्ण रूप से ज्योतिष के क्षेत्र में प्रवेश करा दिया और तकनीकि डिग्री होने के बाद भी जीवन की दिशा ही परिवर्तित हो गयी। अब ज्योतिष के साथ साथ वे पंचांग निर्माण के सूत्र जो अत्यंत कठिन होते हैं उसमें भी पारंगत हो गये। उनकी एकाग्रता समर्पण सेवा की त्रिवेणी ने जीवन की धारा को स्वर्णिम मोड़ दे दिया एवं उनकी प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर प्रगति होने लगी।

समय अपनी गति से चल रहा था उसी समय पंडित रामकिंकर जी उपाध्याय ने स्वयं के लिए भविष्यवाणी एवं ज्योतिष परीक्षण के लिए उनका सम्मान किया जिसकी सुखद अनुभूति उनके जीवन की सबसे सुरक्षित निधि है। उन्हें वे अपने जीवन में प्रेरणा का स्त्रोत मानते हैं। जीवन में कई बार विकट परिस्थितियों में जब अपने आप को असहाय महसूस किया, रास्ता नही दिखाई दे रहा था तो उस क्षण भी उनका स्मरण करने मात्र से ही सभी समस्याओं का दैविक समाधान हो जाता हैं। जीवन में प्रभु कृपा के बाद संतों की कृपा का प्रभाव भी विलक्षण होता है। स्वामी गिरीशानंद जी का आशीर्वाद भी पथप्रदर्शक के रूप में आज भी वे अपने अंतर्मन मे महसूस करते हैं। उनका मानना है कि पिता की साधना एवं माँ का स्नेह पाने के बाद जो अपने कर्तव्य का पालन करता है वही पुत्र आगे चलकर धन्य होता है।