कर्मवीर
(उपन्यास)
विनायक शर्मा
अध्याय 7
आगे की पढ़ाई में कर्मवीर का बहुत ज्यादा मन लगने लगा। उसने चूँकि इस बार अपनी बेहद ही ज्यादा रूचि का विषय चुना था इसलिए उसे पढाई में मन भी दोगुना लग रहा था। कर्मवीर कॉलेज में जा चुका था और थोड़ा और बड़ा हो गया था। अब वो किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने वाला था। उसकी उम्र सत्रह साल से ज्यादा की हो गयी थी। वो समझदार तो बचपन से बहुत ज्यादा था लेकिन अब वो और भी ज्यादा प्रबुद्ध हो गया था। चूँकि ये वो अवस्था थी जिसमें जिंदगी में सबसे ज्यादा बदलाव आते हैं। शारीरिक और मानसिक दोनों बदलाव बराबर हो होते हैं। ज्याद डर इस अवस्था में बिगड़ने का ही रहता है। एक से एक धुरंधर उम्र के इस पड़ाव को सम्भाल नहीं पाते और बहक जाते हैं।
महावीर सिंह को इस बात का भान पहले से ही था। हालाँकि उनको अपने बेटे पर बेशुमार विश्वास था फिर भी जिस तरह गणेश के साथ हुआ अगर उसका अंश मात्र असर भी उनके बेटे पर पड़ जाता तो ये उनके लिए बहुत बुरी बात होती। उन्होंने कर्मवीर को गाँव छोड़ने से पहले ये बात समझा कर भेजी थी। कि वो कॉलेज जा रहा है। उसकी उम्र ऐसी उम्र है जब बहकने का सबसे ज्यादा डर रहता है। इस उम्र में मन भी गलत चीजों को ही सही मानता है। उसने सही गलत का फर्क जिस तरह से अब तक बनाए रखा है बस उसी तरह से आगे भी सही गलत को इसी तरह से परखना है। कर्मवीर ने पाने बाबूजी को वादा दिया था कि वो जैसा अभी है वैसा ही आगे भी रहेगा। उसे अपनी पढ़ाई के अलावा और किसी चीज से मतलब नहीं होगा। कर्मवीर अपने पिता को दिया वचन निभा भी रहा था। लेकिन कर्मवीर भी था तो इंसान ही उसका मन भी कभी कभार किसी किसी चीज को देखकर बहक जाता था। उसने देखा कि बारहवीं तक तो उसे बहुत से छात्र ऐसे मिल जाते थे जो उसे पढ़ाई करते दीखते थे लेकिन कॉलेज में तो पढाई का भार बढ़ जाने के बावजूद विद्यार्थी ज्यादा संख्या में निश्चिंत ही घूम रहे हैं। यहाँ और ज्यादा पढाई करनी चाहिए लेकिन लोग यहीं कम पढ़ाई कर रहे हैं।
गणेश के तो जैसे पर एक बार फिर निकल आये थे । एक तो उसका कॉलेज के साधारण कॉलेज था तो वहाँ छात्रों के बीच प्रतियोगिता वैसे ही थोड़ी कम थी। और किसी ने उसके दिमाग में ये डाल दिया था कि विज्ञान जो है वो समझने का विषय है कक्षा में हम इस विषय को जितना समझ लेते हैं उतना काफी है इम्तिहान में लिखने के लिए। इसके लिए रट्टा मारने की कोई जरुरत नहीं है। साथ साथ समय इतना तेज़ी से परिवर्तनशील था कि दिनानुदिन नित्य नए मनोरंजन के साधन आ रहे थे। गणेश उसी में उलझता जा रहा था उसने सोच रखा था कि कक्षा में तो वो समझ ही लेता है चीजों को बस एक बार इम्तिहान से पहले पलट कर देख लेगा तो उसका काम हो जाएगा। कभी कभी तो वो कक्षा से भी अनुपस्थित रहने लगा था। उसे कॉलेज की हवा पूरी तरह लग गयी थी। इस बार तो उसका नामांकन भी दूसरे शहर में हुआ था सो कर्मवीर भी नहीं था कि उसकी मदद कर पाता या समय समय पर जाकर उसका उचित मार्गदर्शन कर देता। गणेश का रवैया बिगड़ता ही जा रहा था। हालाँकि उसे अपने पिता की खाई कसम याद थी इसलिए उसने दुबारा कभी शराब को हाथ नहीं लगाया था।
पहले त्रैमासिक परीक्षा का परिणाम आया और कर्मवीर के आस पास कोई भी विद्यार्थी नहीं था। एक से एक अच्छे विद्यार्थियों का ही चयन उस महाविद्यालय में हुआ था लेकिन कर्मवीर की तरह मेहनती और कोई नहीं था। उस महाविद्यालय के प्राध्यापक कर्मवीर से बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने उसे अपने कार्यालय में बुलाकर प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा,
“कर्मवीर तुम्हारी तरह के मेहनती छात्र बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। वैसे तो इस महाविद्यालय में ज्यादातर मेहनती और मेधावी छात्र ही आते हैं लेकिन यहाँ नामांकन होने के बावजूद इस तरह की मेहनत और इस तरह की लगन बहुत ही कम दिखा पाते है। सभी कॉलेज और शहर की चकाचौंध में खोने लगते हैं। कई कई साल तुम्हारे जैसे विद्यार्थी नहीं आ पाते। कॉलेज में कोई फेल होता है या कुछ गलत करता है तो उसकी जानकारी तो हम उसके अभिभावकों को देते हैं लेकिन जब कोई तुम्हारी तरह भी असाधारण मेहनत कर महाविद्यालय को गौरवान्वित करता है तो भी हम उनके अभिभवकों को ये बताते हैं कि उनहोंने हमें अपना रत्न कुछ दिनों के लिए उधार दिया है इसके लिए उनका बहुत बहुत शुक्रिया।”
अपने प्राध्यापक से इस तरह की प्रशंसा सुन के कर्मवीर को अन्दर से बहुत ही ख़ुशी महसूस हुई। प्राध्यापक ने अपने हाथ से चिट्ठी लिखनी शुरू की और कर्मवीर का प्रशंसा पत्र उसके घर पहुँच गया। डाकिया जब मंगरू के हाथ में चिट्ठी थमा गया तो सभी को लगा कि कर्मवीर ने ही चिट्ठी लिखी होगी। महावीर सिंह के अलावा उस घर में और कोई पढ़ भी नहीं सकता था और वो खेत गए हुये थे। मंगरू और कर्मवीर की माँ को उसकी चिट्ठी सुनने की बेचैनी हो रही थी लेकिन वो कुछ नहीं कर सकते थे। एक बार मंगरू को लगा कि वो खेत में जाकर अभी ही चिट्ठी दे आये लेकिन उसने सोचा जब वो दोपहर का भोजन लेकर जाय्गेया तभी चिट्ठी भी पढवा लेगा और उसमे क्या लिखा है वापस आकर माँ को सुना देगा।
उसने ऐसा ही किया थोड़ी देर और प्रतीक्षा की उसके बाद जब खाना बन गया तो वो खाना और चिठ्ठी लेकर खेतों की ओर चल पड़ा। जब वो महावीर सिंह के पास पहुँचा तो महावीर सिंह खुद खेत के मजदूरों के साथ काम कर रहे थे। वो दौड़ता हुआ उनके पास गया और बोला,
“बाबूजी बाबूजी ये देखिये कर्मवीर की चिट्ठी आई है।” उन्होंने उसके हाथ से लिफाफा लिया और कहा,
“अरे नहीं रे मंगरू ये तो कर्मवीर ने नहीं भेजा है देखो इसपर तो उसके महाविद्यालय के प्राध्यापक का नाम लिखा है।”
“बाबूजी कर्मवीर ने वहाँ कोई गड़बड़ तो नहीं कर दी न भला प्राध्यापक हमें चिट्ठी क्यों भेजने लग गया। लाइए मैं खोलता हूँ।”
“अरे नहीं कर्मवीर ने कोई गलती नहीं की होगी। तुम रहने दो मैं ही खोल कर देखता हूँ इसके अन्दर क्या लिखा हुआ है।” महावीर सिंह ने मंगरू का हाथ थोड़ा पीछे करते हुए कहा। उनदोनों का मन सशंकित हो गया था। दोनों की धडकनें सामान्य से ज्यादा धडक रही थीं। दोनों के मन में ये विश्वास भी था कि कर्मवीर ने कोई गलती नहीं की होगी फिर भी दोनों का दिल डरा हुआ था।
महावीर सिंह ने चिट्ठी निकाली और फिर पढ़ना शुरू किया। उन्होंने मन ही मन चिट्ठी पढ़ी और जैसे जैसे वो चिट्ठी को पढ़ते जा रहे थे वैसे वैसे उनका चेहरा ख़ुशी से झूमता जा रहा था। मंगरू बीच बीच में ही उन्हें रोककर पूछ रहा था था कि बताइए न बाबूजी क्या लिखा है चिट्ठी में लेकिन जबतक उन्होंने चिट्ठी पूरी पढ़कर खत्म न कर ली उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। जब उन्होंने पूरी चिट्ठी पढ़ ली तब उन्होंने मंगरू से कहा,
“मंगरू चिंता की कोई बात नहीं ये चिट्ठी तो भेजी है कर्मवीर के कॉलेज के प्राध्यापक ने ही लेकिन इसमें ये नहीं लिखा है कि मेरे बेटे ने कोई गलती कर दी है या फिर वो बिगड़ गया है। बल्कि इसमें तो ये लिखा है कि वो बहुत ही ज्यादा मेहनत से पढ़ रहा है। उसके जैसा विद्यार्थी सालों बाद उस कॉलेज में आया है। वो पहली परीक्षा में इतने नम्बर लेकर आया है जितना पिछले तीन सालों में कोई नहीं लाया था। कला का विद्यार्थी होने के बावजूद उसे 98 प्रतिशत अंक आये हैं। उन्होंने अपने बेटे का नामांकन उनके कॉलेज में करवाने के लिए भी शुक्रिया कहा है। देख मंगरू मेरा बेटा मेरा नाम रौशन करने लगा है। एक दिन ऐसा आएगा जब सारे लोग कहेंगे कि ये देखो महावीर सिंह का बेटा कितना नेक और महान है सभी को भगवान ऐसा ही बेटा दें। मंगरू आज मैं बहुत खुश हूँ। जा इन पैसों की मिठाई खरीद और पूरे गाँव में बाँट दे।” महावीर सिंह ने मंगरू के हाथ में कुछ रूपये थमाए और कहा।
“बाबूजी आप जल्दी से खा लीजिये तो मैं ये बर्तन लेकर चला जाऊँगा और सबसे पहले ये खुशखबरी माँ को सुनाऊंगा उसके बाद मिठाई बाँटने जाऊँगा। माँ ये सुनकर कितनी ज्यादा खुश हो जायेंगी!” मंगरू ने टिफिन खोलते हुए महावीर सिंह से कहा।
“अरे नहीं रे मंगरू मैं इतना खुश हूँ कि मुझसे खाना भी नहीं खाया जाएगा। ला एक रोटी खा लेता हूँ और बाकी तू घर ले कर चला जा। और हाँ कुछ मिठाइयाँ खेतों में भी जरूर लाना मेरे सहकर्मी हैं यहाँ उनका भी तो मुँह मीठा करवाना है।”
“ठीक है बाबूजी” बोलकर मंगरू टिफन का डब्बा लेकर तेज़ी से दौड़ता हुआ पहले घर पहुँच गया।
घर पहुँच कर उसने माँ के साथ शरारत करने की सोची। उसने पाना मुँह बनाते हुए कहा,
“माँ ये चिट्ठी कर्मवीर ने नहीं उसके कॉलेज के प्राध्यापक ने भेजी है।” उसका चेहरा उतरा देख उसकी माँ थोड़ी डर गयी।
“क्यों कर्मवीर ने कुछ गलती की है क्या? मेरा बेटा तो ऐसा नहीं है वो कुछ गलती तो कर नहीं सकता तू चुपचाप बता कि उसके प्राध्यापक ने चिट्ठी क्यों भेजी है। नहीं, तू वो छोड़ तू मुझे ये बता कि इस चिट्ठी में लिखा क्या है?” माँ ने भयभीत होते हुए कहा।
“माँ इस चिट्ठी में लिखा है कि कर्मवीर जितना नम्बर लाया है उतना पाँच सालों से कोई भी विद्यार्थी नहीं ला पाया था। और ये बात उसके माँ बाप को पता चलनी चाहिए इसलिए उसके प्राध्यापक ने चिट्ठी लिखी है और अब मैं जा रहा हूँ गाँव में मिठाई बाँटने क्योंकि बाबूजी ने कहा है पूरे गाँव में ये खुशखबरी देते हुए मिठाई बाँट दूँ।” कहते हुए मंगरू तेज़ी से घर से बाहर निकल गया माँ अन्दर ही अन्दर बहुत ज्यादा खुश थी।
शाम को जब महावीर सिंह घर आये तो इन्होंने कर्मवीर के छात्रावास में फोन लगाया। इस छात्रावास का अर्दली कर्मवीर को बहुत अच्छे से पहचानता था क्योंकि कर्मवीर अपनी पढ़ाई के कारण पूरे महविद्यालय में विख्यात था। अर्दली तुरंत ही उसे बुला लाया।
“हेल्लो कैसे हो बेटे?” महावीर सिंह की आवाज इतनी ज्यादा प्रफुल्लित थी कि कर्मवीर समझ गया था कि जरूर कोई न कोई ख़ुशी की बात ही है।
“मैं ठीक हूँ बाबूजी आप बताइए आप कैसे हैं? लगता है आज कोई ख़ुशी की बात हुई है आप बहुत खुश लग रहे हैं।”
“हाँ जिसका तुम्हारे जैसा लायक, समझदार और मेहनती बेटा हो वो बाप तो हमेशा खुश ही रहेगा।” अपने पिता से ही इतनी प्रशंसा सुनने के बाद कर्मवीर खुश तो हुआ लेकिन थोड़ा शर्मा भी गया।
“अच्छा मुझे भी जल्द बताइये कि आखिर वो कौन सी ख़ुशी वाली बात है जिसके कारण आप इतने खुश हैं।”
“आज हमारे घर एक चिट्ठी आई थी और उस चिट्ठी में ऐसी बातें लिखीं थीं कि हमसब के अन्दर ख़ुशी समा नहीं रही है।” बाबूजी की यह बात सुनकर कर्मवीर समझ गया कि क्या बात है क्योंकि प्राध्यापक महोदय ने उसे सामने बिठा कर ही वो चिट्ठी लिखी थी। फिर भी उसने अनजान बनते हुए प्रश्न किया।
“ऐसा क्या लिखा था उस चिट्ठी में और कहाँ से आई थी वो चिट्ठी?”
“बेटे बाप से चालाकी मत करो मुझे पता है कि तुम्हें सब पता है। हमने तो तुम्हें बस इसलिए फोन किया है कि तुम बस इसी तरह मेहनत करते रहो और फिर हमारा नाम रोशन करते रहो।” कर्मवीर एक बार फिर शर्मा गया। उसके बाद उसने अपनी माँ और मंगरू से भी थोड़ी देर बात की फिर वो अपने कमरे में चला गया।
कुछ दिन और बीते और फिर समय आया कॉलेज के चुनावों का। चूँकि कर्मवीर काफी ज्यादा मेहनती और मेधावी था। ईमानदार भी शायद ही कोई उसके जैसा था पूरे महाविद्यालय में। तो मेधावी छात्रों के एक दल ने चाहा कि कर्मवीर को ही छात्र संघ का अध्यक्ष होना चाहिए। सभी राजनितिक दल भी उसे टिकट देने के लिए तैयार थे। लेकिन कर्मवीर ये चुनाव नहीं लड़ना चाहता था। उसकी ये दलील थी कि इससे उसकी पढ़ाई पर असर पड़ेगा। सभी छात्र जो उसे चुनाव लडवाना चाहते थे उसे खूब मनाने की कोशिश कर रहे थे। क्योंकि एक दूसरा दल जो था उससे जो लड़का खड़ा था वो बहुत ही ज्यादा उदंड था। उसे अध्यक्ष बनाने का मतलब था कि पूरे कॉलेज का माहौल खराब कर देना।
कर्मवीर चुनाव नहीं लड़ने की अपनी जिद पर अड़ा ही रहा। जब भी उसे मेधावी छात्रों के दल में से कोई छात्र या छात्रा उसे चुनाव लड़ने के लिए समझाने के लिए जाता या जाती थी तो वो उसे ही चुनाव लड़ने की नसीहत दे देता था और ये कह देता था कि वो उसका हर तरीके से समर्थन और सहयोग देगा। चुनाव नजदीक आते जा रहे थे और कर्मवीर अपने फैसले से हिलता नहीं दिख रहा था। कहीं से ये बात कर्मवीर को चुनाव लड़वाने की इच्छा रखने वाले समूह को पता चल गयी कि वो प्राध्यापक का कहा नहीं टालता है। उस समूह का एक लड़का प्राध्यापक के पास गया।
“सर आप ही कर्मवीर को समझाइये न कि वो छात्र संघ के अध्यक्ष पद जा चुनाव लड़े। हमसब तो समझा कर थक गए लेकिन वो मानने के लिए तैयार ही नहीं है। अगर वो अध्यक्ष बन गया तो कॉलेज की दशा और दिशा ही बदल जायेगी।”
“हाँ ये बात तो है लेकिन वो कहता क्या है क्यों चुनाव नहीं लड़ना चाहता वो?” प्राध्यापक ने उस लड़के से प्रश्न किया।
“सर उसका मानना है कि अगर वो अध्यक्ष बन गया तो फिर वो ढंग से पढ़ाई नहीं कर पायेगा और वो यहाँ पढ़ाई करने आया है चुनाव वगैरह लड़ने नहीं। अब हमलोग समझा रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं है कि उसकी पढ़ाई पर असर पड़ेगा लेकिन वो समझने को तैयार ही नहीं है।”
“लेकिन वो भी तो सही ही कह रहा है कि उसकी पढ़ाई पर असर तो जरूर पड़ेगा।” प्राध्यापक ने उत्तर दिया जिससे उस लड़के को लगा जैसे अब कर्मवीर के चुनाव लड़ने की उम्मीद काफी कम बची है।
“नहीं सर ऐसी बात नहीं है। ये आपको और हमको सभी को पता है कि कर्मवीर इतना मेहनती है कि इस अध्यक्ष पद पर रहने के बावजूद वो अपनी पढ़ाई उतने ही ढंग से कर लेगा जितने ढंग से वो अभी कर रहा है। और दूसरी बात ये है कि उसके विपक्ष में विधायक का बेटा खड़ा है जो अपने आप को विधायक से कम नहीं समझता है। अभी ही वो इतने घमंड में रहता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता अगर वो अध्यक्ष बन गया तो सोचिये क्या होगा। इसलिए बेहतर है कि कर्मवीर जैसा लड़का ही अध्यक्ष बने। वो आपकी बात कभी नहीं टालता अगर आप उसे समझा दें कि चुनाव लड़ने से उसकी पढ़ाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा तो कर्मवीर ये चुनाव जरूर लडेगा। अब कॉलेज का भविष्य आप पर ही निर्भर करता है सर।” उस लड़के ने प्राध्यापक को समझाने के लिए अपनी अंतिम उम्मीद झोंक दी। उसकी इतनी बातों को सुनकर प्राध्यापक को भी लगा कि सच में अगर कर्मवीर अध्यक्ष बनता है तो ये कॉलेज के लिए बेहतर होगा।
“ठीक है मैं कर्मवीर से बात करता हूँ।” प्राध्यापक ने आश्वासन दिया और वो लड़का उनके कार्यालय से बाहर आ गया। बाहर आते ही उसके चेहरे पर जैसी मुस्कान थी उसे देखकर सभी बाकी के साथी समझ गए कि परिणाम सकारात्मक ही है। फिर भी एक ने पूछ ही दिया कि क्या कहा प्राध्यापक महोदय में वो हमारी कोई मदद कर सकते हैं कि नहीं। इसपर उस लड़के ने जवाब दिया जो उनके कार्यालय में गया था।
“शुरू में तो मना कर रहे थे लेकिन जब मैंने उनके सामने सारे तर्क रख दिए तो उन्होंने कहा कि वो कर्मवीर से बात करेंगे और उसे चुनाव लड़ने के लिए राजी करने का प्रयास जरूर करेंगे।” उसके इतना कहते ही उस समूह के बाकी सारे सदस्यों के चेहरे पर एक मुस्कान तैर गयी।
प्राध्यापक महोदय कर्मवीर के पास गए और उसे समझाने की कोशिश करने लगे।
“देखो कर्मवीर छात्र संघ का चुनाव होने वाला है और सारे बच्चे चाहते हैं कि तुम ये चुनाव लड़ो और छात्रों के अध्यक्ष बनो और इस कॉलेज के छात्रों की भलाई के लिए काम करो।” प्राध्यापक के समझाने का तरीका अलग था।
“सर आपको तो पता है कि मुझे पढ़ाई लिखाई से बाहर की चीजों से ज्यादा कोई मतलब रहता नहीं है और मैं एक राजनीतिक व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं होना चाहता हूँ। और अगर मैं अध्यक्ष बन भी गया तो फिर मेरी पढ़ाई पर तो इसका असर जरूर पड़ेगा मैं जिस तरह से अभी पढाई कर रहा हूँ उस तरह तब नहीं कर पाउँगा। मैं अपने नए कर्तव्यों से बंधा रहूँगा और मैं उससे भी पीछे नहीं भाग पाऊंगा।” कर्मवीर ने चुनाव नहीं लड़ने की अपनी दलील दी।
“देखो कर्मवीर, चूँकि अध्यक्ष छात्र छात्राओं को ही बनना होता हिया इसलिए अध्यक्ष के कर्तव्य कुछ इस तरह से होते हैं कि उससे उस छात्र की पढ़ाई पर विशेष असर न पड़े और रही बात राजनीतिक होने की तो तुम राजनीति कर ही कहाँ रहे हो। तुम तो बस चुनाव में अपना नामांकन करो और जीतने के बाद इस कॉलेज के छात्रों की भलाई के लिए क्या क्या काम किया जा सकता है तुम्हें बस ये ध्यान रखना है। तुम्हें राजनीति करनी ही नहीं है तुम्हें तो बस भलाई ही करनी है।” प्राध्यापक ने उसे एक बार फिर से समझाने के लिए अपनी पूरी परख लगा ली।
“ठीक है सर अगर आप कह रहे हैं कि ये छात्रों की भलाई के लिए होगा तो मैं चुनाव लड़ने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मेरी एक शर्त है। मेरे बाबूजी से पूछ कर ही मैं चुनाव लडूँगा अगर उन्होंने मना कर दिया तो फिर मैं ये चुनाव नहीं लड़ सकता।”
“ठीक है तो चलो अपने बाबूजी से अभी ही बात कर लो। मेरे कार्यालय में जो फोन है उससे तुम्हारे घर फोन करके पूछ लेते हैं।”
“ठीक है सर चलिए।”
दोनों प्राध्यापक के कार्यालय की तरफ बढे। कर्मवीर के पिता को फोन लगाया गया। संयोग से महावीर सिंह उस समय घर पर ही मौजूद थे।
“हेल्लो।” उधर से महावीर सिंह ने फोन उठाते ही कहा।
“हाँ बाबूजी मैं बोल रहा हूँ कर्मवीर।”
“हाँ बेटा बताओ कैसे हो? क्या हो रहा है और इस वक्त कैसे फोन कर दिया अभी तो कॉलेज का समय है न आज छुट्टी है क्या?” महावीर सिंह ने दनादन प्रश्नों की बौछार कर दी।
“बाबूजी मैं ठीक हूँ। वो अभी मैं कॉलेज में ही हूँ और प्राध्यापक महोदय के कार्यालय से फोन कर रहा हूँ। वो बाबूजी आपसे एक बात पूछनी थी।” बोलते वक्त कर्मवीर थोड़ा सकपका रहा था।
“हाँ हाँ बेटे पूछो क्या बात है?” महावीर सिंह को स्थिति थोड़ी गंभीर लगी।
“वो दरसल बाबूजी, यहाँ पर सभी छात्र चाहते हैं कि मैं उनके लिए अध्यक्ष पद का चुनाव लडूँ। तो मैं आपसे यही पूछ रहा था कि मैं चुनाव लडूँ या नहीं?” बिल्कुल ही धीरे धीरे और रुकते हुए कर्मवीर ने अपनी बात कही।
“चुनाव लड़ने से तो पढ़ाई पर असर पड़ेगा न बेटे?” महावीर सिंह ने शालीनता से पूछा।
“हाँ पिताजी थोड़ा बहुत असर तो पड़ेगा ही लेकिन प्राध्यापक महोदय ने समझाया है कि चूँकि एक छात्र को ही ये पद ग्रहण करना होता है इसलिए उसके दाइत्वों और कर्तव्यों को इतना जटिल नहीं बनाया जाता कि इससे उस छात्र की पढाई पर विशेष असर पड़े।” कर्मवीर ने अपना पक्ष रखा।
“ठीक है अगर प्राध्यापक महोदय कह रहे हैं तो वहाँ की स्थिति तो वो मुझसे कहीं बेहतर समझते होंगे। वैसे चुनाव लड़ने के बारे में वो क्या कह रहे हैं तुम्हें चुनाव लड़ना चाहिए कि नहीं लड़ना चाहिए?”
“बाबूजी उन्होंने ही तो मुझसे कहा है कि इस कॉलेज के छात्रों को मेरे जैसे लड़के की जरुरत है जो उनकी सेवा और भलाई के लिए काम कर सके।”
“अरे जब प्राध्यापक महोदय कह रहे हैं तब तो तुम्हें मुझसे पूछने की जरुरत ही नहीं है तुम चुनाव जरूर लड़ो।” महावीर सिंह प्राध्यापक द्वारा भेजी उस चिट्ठी के बाद से उनकी बहुत इज्जत करते थे। उन्हें ये पता था कि वो उनके बेटे के लिए कोई भी गलत फैसला नहीं ले सकते।
फोन रखने के बाद कर्मवीर ने बताया कि उसके पिता ने भी उसे इजाजत दे दी है चुनाव लड़ने की। प्राध्यापक महोदय ने बाहर आकर जो लड़का उनके कार्यालय में आया था, उस छात्र के कान में बता दिया कि कर्मवीर अब चुनाव लड़ने के लिए तैयार है। उस दिन शाम में सबलोगों ने छात्रावास में कर्मवीर के नाम के नारे लगा के ये स्पष्ट कर दिया कि अध्यक्ष पद का चुनाव वही लड़ने वाला है। ये बात उस विधायक के बेटे को भी पता चल गयी। वो रात में कर्मवीर के कमरे में गया।
“देखो कर्मवीर ये सबलोग तुम्हारा बुरा चाहते हैं। तुम पढने लिखने वाले लड़के हो, पिछले पाँच सालों में कोई जितना नम्बर नहीं ला पाया था उतना नम्बर तुम लेकर आये हो। अब इस राजनीति के दलदल में क्यों कूद रहे हो? पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो और भी अच्छे नम्बर लाओ और ये काम उन्हीं को करने दो जिनका या पुश्तैनी काम है।” विधायक के बेटे की ऐसी बात सुनकर कर्मवीर को गुस्सा आ गया। लेकिन वो इतना शांत स्वभाव का था कि उसने अपने गुस्से को काबू करते हुए जवाब दिया,
“पुश्तैनी काम के हिसाब से तो मुझे अभी खेतों में होना चाहिए था और तुम्हें जेल में। तुम्हारे पिताजी अभी वहीं हैं न? और रही बात मेरी पढ़ाई लिखाई की तो इसके लिए तुम्हें दिल से शुक्रिया कहता हूँ कि तुम्हें मेरी पढाई की इतनी फ़िक्र है और जब इतनी फ़िक्र है तो मैं तुम्हें ये भी बता देता हूँ कि बस चुनाव लड़कर जीतने और फिर अपने ही सहपाठियों के लिए काम करने से मेरी पढ़ाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा।” कर्मवीर के इस जवाब से विधायक का बेटा बहुत जी ज्यादा तैश में आ गया और तुम्हें अब देख लूँगा बोलते हुए वहाँ से चला गया।
चुनाव से कुछ दिन पहले कुछ लड़कों ने कर्मवीर को घेर लिया और लाठी डंडों के साथ उसे डराने लगे। उन्होंने उसे धमकी दी कि अभी भी उसके पास समय है वो छात्रसंघ का चुनाव नहीं लड़े। कर्मवीर ने कहा,
“देखो मुझे जो निर्णय लेना था वो तो मैंने ले लिया अब तुमलोगों को जो भी करना है तुम करो तुम मुझे मारना चाहते हो तो मारो। जान से भी मारना चाहते हो तो मार दो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे बाबूजी ने मुझे सिखाया है कि अगर किसी की सेवा करने में अपना सबकुछ भी देना पड़ जाए तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए। मैं अब पीछे तो नहीं हटूँगा तुमलोगों को जो भी करना है वो कर लो।”
“देखो हमारा ऐसा कोई असूल नहीं है कि हम निहत्थे पर वार नहीं करते, लेकिन हाँ अभी तो तुम्हें बिना मारे ही छोड़ दे रहे हैं तुम्हें मोहलत है अभी भी तुम चाहो तो अपना नाम वापस ले सकते हो। अभी तो मैं ये लाठी डंडे बिना बरसाए वापस जा रहा हूँ अगर तुम नहीं माने तो फिर ये लाठी डंडे तुम्हारे शरीर पर टूट भी सकते हैं।” कर्मवीर को धमका कर वो लड़के जाने लगे।
“भाई तुम्हें जो भी करना है कर सकते हो मैं ऐसे ही घूमता रहता हूँ। मैंने एक बार निर्णय ले लिया है कि मैं छात्र संघ का चुनाव लडूँगा मतलब लडूँगा। अगर मैं जीवित रहा तो मुझे चुनाव लड़ने से कोई नहीं रोक सकता है।” कर्मवीर ने उन जाते हुए लड़कों को ऊँची आवाज में अपनी बात बताई।
“बहुत अकड़ है न तुममें सब निकल जायेगी तुम जरा सा धीरज रखना।” उस समूह का एक लड़का बोलते हुए वहाँ से ओझल हो गया।
कर्मवीर को डराने जितने भी लड़के गए थे सब विधायक के बेटे के पास गये और जो लड़का वहाँ कर्मवीर से बात कर रहा था उसने उसे कहा,
“वो तो डरने को तैयार ही नहीं है, वो तो तुमने कहा था कि उसे छूना भी मत इसीलिए हमने उसे कुछ भी नहीं किया वरना मन तो कर रहा था आज ही उसकी टाँगे तोड़ दूँ।”
“नहीं तुम नहीं समझते हो अगर उसे कुछ भी हुआ तो ऐसे ही सबलोग उसे पूजते हैं और सारे लोग ही उसकी तरफ ही हो जाएँगे। अगर वो डर नहीं रहा है तो हमें कुछ और सोचना पड़ेगा जिससे वो खुद ही चुनाव न लड़े।” विधायक के बेटे ने उन लड़कों को समझाते हुए कहा।
“तुम जानते हो वो तो पहले चुनाव लड़ने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था लेकिन फिर बाद में अपने कॉलेज के प्राध्यापक ने ही उसे राजी किया और वो चुनाव लड़ने को तैयार हो गया।” वहाँ मौजूद लड़कों के झुण्ड में से एक ने कहा।
“ तो क्या अब हम प्राध्यापक को डराकर कहेंगे कि वो कर्मवीर को बोलें कि वो चुनाव नहीं लड़े! नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता इसका बहुत ही प्रतिकूल असर पड़ेगा। अगर ये बात किसी को भी पता चल गयी तो हम चुनाव नहीं जीत पायेंगे।”
विधायक का बेटा चुनाव जीतने के लिए हरेक मुमकिन दाँव खेल लेना चाहता था। उसमें राजनितिक कूटनीति कूट कूट कर भर गयी थी।
“अरे इसे तो आधी ही बात पता है हाँ ये बात सही है कि पहले तो कर्मवीर चुनाव लड़ने के लिए एकदम से सोच भी नहीं रहा था और प्राध्यापक के बोलने पर उसने सोचना शुरू किया लेकिन चुनाव लड़ने का निर्णय उसने अपने बाबूजी के कहने पर ही लिया। जब प्राध्यापक ने उसे मना लिया था कि छात्र संघ का चुनाव लड़ना कोई खराब काम नहीं है और न ही इससे कर्मवीर की पढाई पर ज्यादा असर पड़ेगा तो उसने कहा ठीक है अगर मेरे बाबूजी को कोई ऐतराज नहीं होगा मेरे चुनाव लड़ने से तो मैं तैयार हूँ। उसके बाद कॉलेज में ही प्राध्यापक के कार्यालय से उसके पिता को टेलिफोन किया गया और फिर उसके पिता ने भी चुनाव लड़ने की इजाजत कर्मवीर को दे दी।” उस समूह के एक दूसरे लडके ने कहा।
“यार ये कर्मवीर के पिता भी न अजीब हैं क्या जरूरत थी अपने इतने होनहार बेटे को चुनाव लड़ने के लिए हाँ कहने की। अच्छा खासा पढ़ लिख कर नाम रोशन तो कर रहा था उनका क्या जरूरत थी उसे नेता भी बनाने की। उसकी जगह अगर कोई दूसरा लड़का होता न मैदान में तो मैं कभी हार नहीं पाता लेकिन कर्मवीर की छवि ही पूरे कॉलेज में ऐसी है कि उसे हराना संभव ही नहीं है। ना ही उसकी छवि ख़राब की जा सकती है। अगर उसके बारे में कुछ भी अफवाह उड़ाते हो तो भी कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि कर्मवीर ने ऐसा किया है। मेरे तो बाबूजी की शाख दाँव पर लगी हुई है। वो मुझे कह रहे थे कि यही मेरी प्रारम्भिक परीक्षा है। आगे मैं जीवन में क्या करने वाला हूँ इसी चुनाव से तय हो जाएगा। कोई कुछ सोचो यार कैसे ये चुनाव जीता जाए।” विधायक के बेटे ने पानी बात पूरी करने बाद अपने लड़कों से सलाह माँगी।
“मैं कुछ बोलूँ?” समूह के एक तीसरे लड़के ने पूछा जो अभी तक चुप था और थोड़ा पीछे भी खड़ा था। सभी पीछे मुड़कर देखने लगे।
“अगर कहो तो मैं कुछ सुझाव दे सकता हूँ।” उस लड़के ने फिर से अपनी बात दोहराई।
“हाँ हाँ क्यों नहीं यार हमलोग सबकुछ कर एक तो देख ही रहे हैं तुम भी कुछ बताओ अगर सही लगा तो उसी पर अमल किया जाएगा।” विधायक के बेटे ने कहा।
“देखो जब तक कर्मवीर के पिता ने हामी नहीं भरी थी तब तक कर्मवीर ने चुनाव लड़ने के लिए हाँ नहीं की थी न?”
“हाँ मगर तुम कहना क्या चाह रहे हो?” विधायक के बेटे ने बेसब्र होते हुए पूछा।
“अरे तो मैं बस ये कहना चाह रहा हूँ कि अगर वो फिर से मना कर दें तो कर्मवीर चुनाव नहीं लड़ेगा।”
“हाँ हो सकता है उनके मना करने पर वो चुनाव नहीं लड़े लेकिन उसके पिता जब एक बार उसे चुनाव लड़ने की इजाजत दे चुके हैं तो फिर वो उसे मना क्यों करेंगे?” विधायक के बेटे ने पूछा और सभी आश्चर्य भरी निगाहों से उस लड़के को देख रहे थे।
अब वो लड़का कुछ बोलने की बजाय थोड़ा सा मुस्का रहा था।
“अरे तुम कुछ बोलने की बजाय मुस्का क्यों रहे हो?” विधायक के बेटे ने चिढ़ते हुए प्रश्न किया।
“देखो वो क्यों अपने आप उसे चुनाव लड़ने से मना करेंगे? लेकिन अगर उन्हें ये पता चले कि यहाँ चुनाव लड़ने में उनके लाल की जिंदगी तक को ख़तरा है तो वो उसे चुनाव लड़ने से जरूर मना कर देंगे।”
“तुम कहना क्या चाह रहे हो?”
“यही कि उसके पिता को अगर फोन कर के ये बताया जाए कि ये गाँव नहीं शहर है और यहाँ की राजनीति गाँव से खतरनाक है जिस चुनाव को वो बहुत छोटा समझ रहे हैं उसे लड़ने म उनके बेटे की जान तक भी जा सकती है तो वो खुद अपने बेटे को चुनाव लड़ने से रोक देंगे।”
वहाँ मौजूद सभी लड़कों ने उसकी बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुनी। जैसे ही उसने अपनी बात समाप्त की सभी लड़के तो जैसे स्तब्ध रह गये कि इतना दिमागदार भी उनके समूह में कोई रह रहा है।
“अरे वाह मित्र तुम्हारे पास तो बहुत ही उम्दा दिमाग है। इतना कहाँ से सोच लेते हो। इससे अच्छी कोई भी योजना हो ही नहीं सकती। कोई भी बाप नहीं चाहेगा कि एक मात्र छात्र संघ का चुनाव लड़ने के लिए उसका बेटा अपनी जान दे दे। वाह मित्र वाह तुमने तो सारी समस्या ही खत्म कर दी।” विधायक का बेटा ख़ुशी से झूम उठा था।
“मगर उसके पिता का टेलिफोन नम्बर कहाँ से आएगा?” विधायक के बेटे ने ही फिर प्रश्न किया।
“उसकी चिंता तुम मत करो ये काम मैं कर दूँगा।” इसबार एक चौथे लड़के ने उत्तर दिया।
“अरे वाह मेरे तो समूह में हीरे ही भरे हैं। अब मुझे यकीन हो गया कि ये चुनाव मैं ही जीतूँगा और अपने पिता का नाम रोशन करूँगा। बहुत ही जल्द मैं भी विधायक सांसद बन जाऊँगा। बस ये चुनाव मैं जीत जाऊँ।” विधायक का बेटा मदमस्त हुआ जा रहा था।
अगले दिन वो लड़का कहीं से कर्मवीर के पिता का टेलिफोन नम्बर लेकर आ गया। योजना के मुताबिक़ पब्लिक टेलिफोन बूथ से कर्मवीर के घर का नम्बर मिलाया गया।
“हेल्लो” उधर से आवाज आई। आवाज किसी महिला की थी।
“हाँ चाची प्रणाम। महावीर चाचा जी हैं क्या हमें उनसे बात करनी है।” विधायक के बेटे ने बहुत ही नम्र होने का अभिनय करते हुए कहा।
“नहीं वो तो अभी खेत गए हुए हैं आप कौन बोल रहे हैं बता दीजिये, वो आयेंगे तो मैं उन्हें बता दूँगी।” कर्मवीर की माँ ने कहा।
“नहीं चाची उनसे ही बात करनी थी, आप ये बता दीजिये वो आयेंगे कब?”
“ऐसे तो वो इसी समय के आस पास चले आते थे लेकिन आज लगता है उन्हें थोड़ी देर हो गयी है। लेकिन आधे घंटे के अन्दर तो वो आ ही जाएँगे।”
“ठीक है चाची हम आधे घंटे बाद फोन करेंगे।” कहकर बदमाशों ने फोन रख दिया।
“अरे लेकिन आपलोग बोल कौन रहे हैं ये तो बता दीजिये।” कर्मवीर की माँ बोलती रह गयी लेकिन फोन कट गया।
करीब पंद्रह मिनट बाद जब महावीर सिंह घर आये तो उनकी पत्नी ने बताया कि “कोई चाची चाची कह रहा था लेकिन कौन था ये उसने नहीं बताया। जब मैंने कहा कि आप आधे घंटे में आ जाओगे तो उसने बस यही कहा कि वो अब आधे घंटे में फोन करेगा।”
“ठीक है जब उसने कहा है कि वो आधे घंटे में फोन करेगा ही तो करेगा अगर उसे जरुरत होगी तो, इसमें इतनी चिंता की क्या बात है।” महावीर सिंह ने उत्तर दिया।
करीब बीस मिनट बाद फिर से महावीर सिंह के टेलिफोन की घंटी बजी। उन्होंने फोन उठाया।
“हेल्लो।” महावीर सिंह ने फोन पर कहा।
“हाँ चाचा जी चरण स्पर्श कैसे हैं आप?” विधायक के बेटे ने कहा।
“खुश रहो और मैं बिल्कुल ठीक हूँ। लेकिन बेटा तुम हो कौन मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ।” महावीर सिंह ने उससे पहचान जाननी चाही।
“अरे हाँ चाचा ही मैंने तो बताया ही नहीं कि मैं कौन हूँ। मैं कर्मवीर का दोस्त हूँ उसी के कॉलेज में पढ़ता हूँ।” कर्मवीर के दोस्त का फोन आने पर महावीर सिंह थोड़े डर गए। अभी तक कर्मवीर के किसी दोस्त ने उन्हें फोन नहीं किया था। उन्हें किसी तरह की अनहोनी की आशंका होने लगी।
“बेटे वहाँ सबकुछ ठीक है न! कर्मवीर ठीक है न?” महावीर सिंह ने विधायक के बेटे से प्रश्न किया।
“हाँ चाचा कर्मवीर तो बिल्कुल ठीक है लेकिन यहाँ सबकुछ ठीक नहीं है।”
“क्यों क्या हो गया वहाँ? तुम सही सही बताओ न कर्मवीर को तो कुछ नहीं हुआ है न?” महावीर सिंह घबरा गए थे। उनकी इस तरह की बातें सुनकर कर्मवीर की माँ भी डर सी गयी।
“देखिये चाचा जी अब मैं सबकुछ साफ़ साफ़ बता देता हूँ। आपने अपने बेटे को यहाँ पढ़ाई करने के लिए भेजा था लेकिन अब वो राजनीति करने लगा है। और हम हैं विधायक के बेटे तो राजनीति पर तो पहला हक मेरा है न और मेरा कोई हक मारे ये मुझे अच्छा नहीं लगता। आप अपने बेटे को समझा लीजिये कि वो चुनाव नहीं लड़े नहीं तो कुछ भी हो सकता है, हो सकता है आप अपने बेटे को खो भी दें। आपका बेटा पढ़ाई में असाधारण है उसे सलाह दीजिये कि वो पढ़ाई पर ही ध्यान दे। बाद बाकी जिसका काम जो है वो उसे करने दे उसमे वो पानी दखल न दे।” विधायक के बेटे ने अब साफ साफ शब्दों में महावीर सिंह को उनके बेटे को जान से मारने की धमकी भी दे दी।
महावीर सिंह थोड़ी देर तक चुप रहे फ़िर उन्होंने कहा,
“देखो मेरे बेटे को चुनाव लड़ने के लिए मैंने ही कहा है। और अब चाहे कुछ भी हो जाए वो चुनाव तो लडेगा ही। और ये सब धमकियाँ जो हैं न ये तुम अपने ही पास रखो। मैंने अपने बेटे को ऐसी शिक्षा दी है कि वो गलत के सामने तो कभी भी नहीं झुक सकता चाहे उसकी जान पर ही क्यों न बन आये। और अगर तुम सोच रहे हो कि मैं उसे मना कर दूँगा तो ये तो तुम बिल्कुल ही भूल जाओ कि मैं उसे मना करूँगा। मैं तो उसे अब ये कहूँगा कि अब चाहे जो हो जाए उसे अपना फैसला नहीं बदलना है।” महावीर सिंह ने गुस्से में कहा और विधायक के बेटे की बिना कोई भी बात सुने उन्होंने फोन रख दिया।
विधायक का बेटा बहुत ही गुस्से में आ गया।
“क्या हुआ क्या कहा कर्मवीर के पिताजी ने?” उस लडके ने ये सवाल किया जिसने कर्मवीर के पिताजी का नम्बर लाकर दिया था।
“यार जब बाप ही ऐसा है तो फिर बेटा कैसा होगा। वो बोल रहा है कि उसके बेटे के साथ जो भी करना है कर ले लेकिन वो अपने बेटे को चुनाव लड़ने से मना नहीं करेगा। और उसने अपने बेटे को ऐसी शिक्षा दी है कि अब वो कभी चुनाव से अपना नाम वापस नहीं ले सकता।” विधायक के बेटे ने जवाब दिया।
“अब क्या किया जाए?” फिर उसी लड़के ने सवाल किया।
“अब क्या करना है अब चुनाव जीतने की रणनीति बनानी होगी क्योंकि कर्मवीर को चुनाव लड़ने से रोकना तो मुश्किल है और अगर हमलोग उसे कुछ करते हैं तो फिर उसके लिए विद्यार्थियों की सहानुभूति और बढ़ जायेगी ऐसे ही तो लोग उसे भगवान् की तरह मानते हैं।” विधायक के बेटे ने उत्तर दिया और फिर सभी सोचने लग गए कि किया क्या जाए।
उधर विधायक के बेटे के इस व्यवहार से महावीर सिंह काफी क्षुब्ध हो गये थे। उन्हें इस तरह देखकर पत्नी भी परेशान थी। जब उनकी पत्नी से उनसे पूरा माजरा समझाने को कहा तो उन्होंने सबकुछ अपनी पत्नी को बता दिया।
“नहीं नहीं अगर ऐसी बात है तो कर्मवीर को फोन कर के बोल दीजिये कि वो चुनाव न लड़े। क्या पता वो लोग सचमुच उसे कुछ कर दें अगर मेर बेटे को कुछ भी हो गया तो मैं क्या करूँगी। आप कर्मवीर को फोन लगाइए मैं उसे मना करुँगी चुनाव लड़ने से।” कर्मवीर की माँ ने रोती हुई आवाज में महावीर सिंह से कहा।
“अरे तुम कैसी बेवकूफों जैसी बात कर रही हो, कुछ नहीं करेंगे वो लोग उसे। मैं भी जानता हूँ। इतना आसान नहीं होता किसी को कुछ भी करना और सबसे बुरी चीज तो होगी इन तरह की धमकियों से डर जाना। मेरा बेटा केवल पढने में ही वीर नहीं है वो जिंदगी के असूलों में भी आगे है। पहली बात तो ये कि मैं उसे चुनाव लड़ने से मना नहीं करूँगा और अगर कर भी दिया तो यह कारण जानकर वो पक्का मुझपर हँसेगा और मुझे कहेगा कि आपने ही शिक्षा दी थी न झूठ और बुराई से कभी मत डरना और लोगों की भलाई से कभी पीछे मत हटना अब क्या हो गया बाबूजी आप बस एक धमकी से डर कर मुझे अपनी दी हुई शिक्षा से अलग काम करने को कह रहे हैं। बताओ इसके बाद मेरे पास उसे कहने के लिए क्या बच जाएगा। मैं बात तो उससे करूँगा लेकिन मैं उसे चुनाव लड़ने से मना नहीं कर सकता।”
महावीर सिंह के दिल में कर्मवीर के लिए करुना उभर आई। उनका पिता हृदय एक बार कर्मवीर के बारे में सोचकर डर जाता था लेकिन उनके उसूल उन्हें कायर कह रहे थे। इसलिए वो कठोर बने रहे।
“ठीक है आपने दी है न उसे शिक्षा मैंने इस तरह की कोई भी शिक्षा उसे नहीं दी है। मुझे फोन करने दीजिये मैं उसे अपनी कसम देकर मना कर दूँगी।” माँ बोलते हुए रो रही थी। मंगरू चुपचाप सबकुछ देख रहा था और ये सोच रहा था कि जो भी कर्मवीर वहाँ सुरक्षित रहे।
महावीर सिंह ने कर्मवीर के छात्रावास में फोन लगाकर उसे बुलवाया। कर्मवीर समझ गया था कि जरूर विधायक के बेटे ने ही कुछ किया होगा इसी कारण उसके पिता उससे बात करना चाह रहे हैं।
“हेल्लो पिताजी प्रणाम।”
“खूब खुश रहो बेटा। और बताओ कैसे हो तुम पढाई लिखाई कैसी चल रही है?”
“मैं बहुत ठीक हूँ पिताजी और पढ़ाई भी मेरी पहले की तरह ही बहुत अच्छे से चल रही है। अभी तक मेरी कक्षा में कोई मुझे पछाड़ नहीं पाया है। आप लोग बताइये आपलोग वहाँ कैसे हैं?” कर्मवीर ने अपना उत्तर देने के बाद महावीर सिंह से प्रश्न किया।
“यहाँ भी सब ठीक ठाक है बस एक बात करनी थी थोड़ी सी तुमसे।” महावीर सिंह ने कर्मवीर से कहा। जब वो ये बोल रहे थे तो उसी समय बगल में खाड़ी उनकी पत्नी फोन उसे देने का इशारा कर रही थी। उन्होंने अपनी पत्नी को इशारे में ही समझा दिया कि पहले वो बात कर लेंगे तब वो उसे बात करने देंगे।
कर्मवीर उनकी बात सुनकर समझ गया कि वो जरूर यहाँ के चुनाव से ही सम्बद्ध बात करेंगे। उसने जल्दी से कहा।
“हाँ बाबूजी बताइए क्या बात है?”
“कर्मवीर वो तुम्हारे कॉलेज से विधायक के बेटे ने फोन किया था।”
“हाँ बाबूजी क्या बोल रहा था वो?” कर्मवीर ने जल्दीबाजी में प्रश्न किया।
“वो बोल रहा था कि अगर तुम चुनाव लड़े तो वो कुछ भी कर सकता है तुम्हारे साथ इसलिए मैं तुमसे ये कहूँ कि तुम वो छात्र संघ वाला चुनाव नहीं लड़ो।”
“तो आप क्या चाहते हैं बाबूजी आप जो कह देंगे मैं वही करूँगा।” कर्मवीर ने जवाब दिया।
“मेरी छोडो तुम ये बताओ कि तुम्हें अगर वो जान से मारने की धमकी देता तो तुम क्या करते?”
“पिताजी मैं आपका ही बेटा हूँ। आपने ही मुझे सिखाया है कि अगर किसी की भलाई के लिए कोई कदम उठा लिया हो तो चाहे जान ही क्यों न चली जाए अपने कदम वापस नहीं लेने चाहिए और मैं ये चुनाव अपनी किसी सुख सुविधा को बढ़ाने के लिए नहीं लड़ रहा हूँ बल्कि अपने सहपाठियों की भलाई के लिए लड़ रहा हूँ। तो जो कदम एक बार भलाई के बढ़ गए वो वापस कैसे आयेंगे।” कर्मवीर ने बहुत ही ज्यादा आत्मविश्वास से रोबदार आवाज में उत्तर दिया।
“बस बेटे मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।” महावीर सिंह के इतना कहते ही उनकी पत्नी कर्मवीर से बात करने के लिए व्याकुल हो उठी।
“अच्छा ठीक है कर्मवीर तुम्हारी माँ तुमसे बात करना चाहती है लो उससे बात करो।” महावीर सिंह ने अपनी पत्नी को फोन देते हुए कर्मवीर से कहा।
फोन अपने हाथ में लेते ही कर्मवीर की माँ रोने लगीं।
“माँ आप कुछ बोलिए न आप रो क्यों रही हैं। मुझे कुछ नहीं हुआ है और न होगा।”
“बेटा।”
“हाँ माँ बोलिए।” मैं तुम्हें एक कसम दूँगी क्या तुम वो कसम पूरी करोगे।”
“हाँ माँ पक्का मैं आपकी कसम मानूँगा लेकिन उसके पहले आप मुझे ये कसम दीजिये कि आप मुझे चुनाव नहीं लड़ने की कोई कसम नहीं देंगी।” इससे पहले कि कर्मवीर की माँ कुछ बोलतीं कर्मवीर ने उनसे पहले ही उन्हें कसम दे दी।
“जाओ तुम्हारी जो मर्जी हो करो ऐसे भी दोनों बाप बेटे एक जैसे ही हो। मैं तो कोई हूँ ही नहीं।” कर्मवीर ने इतना कहकर फोन महावीर सिंह के हाथ में थमा दिया।
“लगता है तुम्हारी माँ हमदोनों पर गुस्सा हो गयी है।” महावीर सिंह ने कर्मवीर से कहा।
“कोई बात नहीं बाबूजी मैं उन्हें मना लूँगा और आप भी ये समझ लीजिये कि मुझे कोई कुछ यहाँ नहीं कर सकता है और यही बात आपको माँ को भी समझानी होगी।” कर्मवीर ने अपने पिता को उत्तर दिया।
“ठीक है बेटा मैं समझा दूँगा। बस तू अपना ख्याल रखना।”
“हाँ ठीक है बाबूजी अब मैं फोन रखता हूँ। प्रणाम!” बोलकर कर्मवीर ने फोन रख दिया था क्योंकि काफी देर से बात हो रही थी और छात्रावास के फोन पर इतनी ज्यादा देर तक बात करने की इजाजत नहीं थी।
विधायक का बेटा अब अपनी जीत की रणनीति बनाने में लग गया। इसमें सबसे पहले आया कि वो विद्यार्थियों के बीच पैसे बाँटेगा और हर समय उनकी मदद करके उनकी सहानुभूति बटोरने का जितना ज्यादा हो सके प्रयास करेगा। कुछ दिनों के लिए वो अपनी सारी बुरी आदतों को कम से कम विद्यार्थियों के सामने बिल्कुल नहीं करेगा। पढाई में तो ये बिल्कुल भी मुम्किन नहीं है कि वो कर्मवीर को पीछे कर पाए लेकिन बाकी सारे कामों में तो वो उससे आगे निकल सकता है। उसी दिन से विधायक का बेटा लोगों की भलाई करने में लग गया और उसके बोलने के तरीके में भी अप्रत्याशित बदलाव आया।
अगले दिन उसे सारे कॉलेज के लोग देखकर बिल्कुल ही दंग थे। एक लड़के की साइकिल खराब हो गयी थी उसे विधायक का बेटा खुद अपने हाथों से ठीक करने में जुट गया। उसके साथी वहाँ इकट्ठे हो गए ताकि और भी ज्यादा भीड़ जमा हो गयी सभी छात्र छात्रा यह देखकर हैरान थे कि जो लड़का कल तक किसी से सीधे मुँह बात नहीं करता था वो आज कैसे किसी और की साइकिल को बनाने में अपने हाथ गंदे कर सकता है। कुछ लोगों को तुरंत ही समझ में आ गया कि हो न हो ये विधायक के बेटे का जो हृदय परिवर्तन उसका एक और मात्र एक कारण आने वाला छात्र संघ चुनाव है। चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे थे विधायक के बेटे वाले समूह ने अपना प्रचार करना शुरू कर दिया था। वो सभी को ये जता देना चाहता था कि वो अब बदल गया है वो पहले जैसा बिल्कुल भी नहीं रह गया है।
कुछ लोग तो समझ गए कि हो न हो ये बस चुनाव जीतने के लिए ही ऐसा ढोंग कर रहा है। ये कभी बदल ही नहीं सकता है लेकिन कुछ विद्यार्थी ऐसे थे जिन्हें ये लगने लगा था कि विधायक का बेटा बदल गया है और उसे अध्यक्ष बना कर एक मौका दिया जाए सुधरने का। विधायक का बेटा जिस विद्यार्थी से भी मिलता उससे उसका हाल चाल जरूर पूछता था। अगर उसे कोई दिक्कत रहती तो वो दिक्कत दूर करने का अपना हर संभव प्रयास भी करता था। और फिर जाते जाते उसे कह जाता कि वो उसकी मदद के लिए हमेशा ऐसे ही तैयार रहेगा चाहे वो अध्यक्ष बने या ना बने। कुछ लड़के जो केवल पैसे से मतलब रखते थे उन्हें रिझाना तो उसके लिए बहुत ही आसान काम था। जिन विद्यार्थियों की उसने मदद की थी वो इस बात को समझने लगे थे कि विधायक का बेटा ही अच्छा अध्यक्ष बन सकता है उसमे राजनीति और सेवा दोनों के गुण भरे हुए हैं ये बात अलग है कि कर्मवीर अच्छा लड़का है पढने में तेज़ है लेकिन उसमे राजनीतिक सूझ बूझ नहीं है इसलिए अगर विधायक का बेटा चुनाव जीतता है तो ज्यादा बेहतर होगा।
ये बात कर्मवीर के साथियों तक पहुँची। उन्हें ये भी पता चला कि लोग तो ये भी बोल रहे हैं विधायक का बेटा तो कम से कम उनसे मिलता भी है उनका हाल चाल भी लेता है। कर्मवीर को अपनी पढाई से फुर्सत ही कहाँ है कि वो किसी से मिले। वो जब अभी ही समय नहीं निकाल पा रहा है तो फिर कल जब कोई समस्या आएगी तो फिर वो क्या उनकी मदद के लिए आगे आएगा। विधायक के बेटे को ही वोट देना सही रहेगा। जब ये बात कर्मवीर के दोस्तों को पता चली तो भागते भागते वो कर्मवीर के पास गये।
“यार कर्मवीर हमें भी चुनाव के लिए घूमना पड़ेगा नहीं तो फिर बाजी हाथ से निकल जायेगी।”
“यार मुझसे ये घूमना नहीं हो पायेगा। और मैं यहाँ कोई बाजी लड़ने नहीं आया हूँ। वो तो तुमलोगों ने और प्रधानाचार्य जी ने बताया कि ये विद्यार्थियों की सेवा का काम है तो मैंने हाँ कर दिया अब ये घूमना फिरना मुझसे नहीं होने वाला है।”
“वो विधायक का बेटा लोगों को ये समझाने में कामयाब होता जा रहा है कि जो अभी ही आपके पास नहीं आ रहा है वो चुनाव जीतने के बाद क्या आएगा।”
“हाँ तो लोगों को उनके विवेक के हिसाब से चयन करने दो।” कर्मवीर ने कहा।
“नहीं कर्मवीर ऐसा नहीं चलता जैसे तुम सोच रहे हैं। लोग ये नहीं समझ पा रहे हैं कि विधायक का बेटा जो कर रहा है वो बस चुनाव तक ही है। उसके बाद वो उनकी कोई भलाई नहीं करने वाला है। लोग उसके झांसे में आयेंगे और फिर उसे जीता देंगे और एक बार वो जीत गया तो समझ लो पूरा कॉलेज बर्बाद कर के छोड़ेगा। तुम्हें कॉलेज को बर्बादी से बचाना है तुम्हें चुनाव नहीं जीतने कह रहा हूँ मैं तुम्हें कॉलेज के विद्यार्थियों की रक्षा करने कह रहा हूँ।”
“यार कॉलेज की भलाई के नाम पर ही तुमने मुझसे चुनाव लड़ने के लिए भी हाँ कहवाई थी अब फिर से उसी चीज का वास्ता देकर तुम मुझसे चुनाव प्रचार करने को भी कह रहे हो।”
इतना बोलकर कर्मवीर लोगों के पास उनसे मिलने जाने के लिए तैयार हो गया। वो अब सब लोगों के पास जाकर मिलने लगा और उन्हें बस इतना बोलकर समझाने लगा कि उनकी भलाई एक पढ़ा लिखा समझदार आदमी कर सकता है या फिर वो जो खुद विधायक कोटे से इस अच्छे से कॉलेज में नामांकन लेकर पढने आया है। लोग अब कर्मवीर की बातें समझने लगे थे और जो भी थोड़े बहुत लोगों ने विधायक के बेटे को वोट देने को सोचा था वो फिर से एक बार कर्मवीर की तरफ झुकने लगे थे।
विधायक के बेटे के समूह के एक लड़के ने विधायक के बेटे को सूचित किया कि जो थोड़ी बहुत हवा उसके पक्ष में बही थी वो फिर से एक बार कर्मवीर के पक्ष में बहने लगी है। कारण पूछने पर पता चला कि कर्मवीर भी काफी जोरों से चुनाव प्रचार में लगा हुआ है। सारे लोग पैसा लेकर वोट दे नहीं सकते थे और समझाने का हुनर विधायक के बेटे से ज्यादा कर्मवीर में था। चुनाव की तिथि नजदीक आती गयी और दोनों प्रत्याशी अपनी अपनी जीत के लिए मेहनत करते रहे।
चुनाव संपन्न हो गए और विद्यार्थियों ने अपनी पसंद के विद्यार्थी को वोट भी दिया। उम्मीद के मुताबिक़ ही परिणाम भी आया। कर्मवीर काफी मतों से चुनाव जीत गया। अब उसके सहपाठियों ने बिना उससे पूछे कॉलेज में एक विजयी जुलूस भी निकाल दिया और कॉलेज के मैदान में कर्मवीर का एक विजयी भाषण भी आयोजित किया गया।कर्मवीर ने भी विजयी भाषण दिया। उसे जिताए जाने पर उसने सभी विद्यार्थियों का आभार भी प्रकट किया और एक बार फिर से उन्हें ये आश्वाशन दिया कि जिस उम्मीद से उन्होंने कर्मवीर को विजयी बनाया है वो उस उम्मीद पर खड़ा उतरने में कोई भी कसर बाकी नहीं रखेगा।
सभी लोग भाषण सुनकर आनन्दचित हो गए। कर्मवीर वहाँ से गया और कॉलेज के बाहर के पीसीओ से सबसे पहले उसने अपने घर फोन लगाया।
“हेल्लो बाबूजी प्रणाम।”
“हाँ बेटे खुश रहो कैसे हो?” महावीर सिंह ने प्रश्न किया।
“बाबूजी अध्यक्ष पद के चुनाव का नतीजा आ गया।” कर्मवीर की बोली से ही पता चल रहा था कि वो विजयी हो गया है।
“हाँ बताओ कितने वोट से जीते?” महावीर सिंह ने प्रश्न किया और अपने बाबूजी का अपने ऊपर यह विश्वास देखकर कर्मवीर काफी दंग रहा गया।
“आपको कैसे पता कि मैं जीत गया हूँ। हो सकता है मैं हार भी सकता था।” कर्मवीर ने प्रश्न किया।
“बाप हैं हम तुम्हारे चलो अब सीधे सीधे बताओ कि कितने वोट से जीते हो?”
“बाबूजी उसे बस 46 वोट ही मिले बाकी सारे वोट मुझे ही मिल गए। जिस तरह से पिछले पाँच सालों में मेरे जितना नम्बर कोई नहीं लेकर आया था उसी तरह से किसी को याद ही नहीं है कि अध्यक्ष पद का चुनाव कोई इतने वोटों से जीता था।”
“अरे वाह ये हुई न बात।” महावीर सिंह ने शाबाशी दी।
कर्मवीर को तुरंत अपने माँ की याद आ गयी।
“बाबूजी माँ कहाँ है?”
“हाँ यहीं है और तेरी और मेरी बात सुन रही है वो। ले बात कर उससे और बता दे कि कभी भी बुरी ताकतों से डर कर पीछे नहीं हटा जाता है।” बोलते हुए महावीर सिंह ने अपनी पत्नी को फोन दे दिया।
“माँ प्रणाम।”
“जुग जुग जियो बेटा। बताओ कैसे हो?”
“मैं ठीक हूँ माँ और मैं कॉलेज के अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गया हूँ और तुम जिन लोगों से डर कर मुझे चुनाव नहीं लड़ने कह रही थी वो लोग मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाए।” कर्मवीर ने काफी दंभ भरते हुए कहा।
“ठीक है बेटे उन्होंने कुछ नहीं किया तो लेकिन मैं तो यही कहूँगी कि तुम अभी भी उनसे बच के ही रहना वो लोग अच्छे लोग नहीं है अभी भी कुछ भी कर सकते हैं तुम अपना ख्याल रखा करना।” एक माँ हृदय ने अपनी बात कही।”
“ठीक है माँ तुम मेरे बारे में बिल्कुल भी चिंता मत करो वो लोग बुरे लोग हैं उनके साथ कोई भी नहीं है लेकिन मेरे साथ पूरा कॉलेज है। तुम बिल्कुल भी चिंता मत करना।”
“ठीक है बेटा मन लगाकर पढाई करना और अपने खाने पीने पर ध्यान रखना कॉलेज में जाते हुई तुम दुबले होते जा रहे हो मुझे पता चला है।”
“अरे माँ आप चिंता मत करो कॉलेज ख़त्म करने के बाद तो मैं आपके पास ही आने वाला हूँ।”
“हाँ ठीक है फिर भी अभी भी तुम वहाँ अपना ख्याल रखा करो।”
माँ अपनी बात ख़त्म करके फोन रखने लगी कि तभी मंगरू ने माँ से फोन ले लिया। माँ मुझे भी कर्मवीर से बात करनी है।
“हेल्लो।”
“हाँ प्रणाम मंगरू भैया कैसे हैं आप?” कर्मवीर ने मंगरू से पूछा।
“मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ तुम बताओ तुम कैसे हो?”
“मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ।”
“कर्मवीर तुम तो अब नेता बन गए हो दस लोग हमेशा तुम्हारे आगे पीछे रहते होंगे जैसे एक नेता के आगे पीछे घूमते है?”
“अरे नहीं मंगरू भैया मैं उस तरह का नेता नहीं बना हूँ। मैं तो बस कॉलेज के विद्यार्थियों की किसी भी समस्या को कॉलेज के प्रसाशन के सामने रखने वाला नेता बना हूँ। ऐसा नेता नहीं जो गाड़ियों में हमेशा दस पाँच लोगों को साथ लेकर घूमता है। वैसा एक नेता लड़ रहा था मेरे खिलाफ चुनाव मगर वो हार गया।” कर्मवीर ने मंगरू को समझाते हुए उत्तर दिया।
“फिर भी तुम जब जीते होगे तो लोग तुम्हारे नाम का नारा लगाये ही होंगे। तुम्हें तो बहुत ही अच्छा लगा होगा न?”
“हाँ मंगरू भैया जो भी अच्छा काम करता है उसका नाम तो लिया ही जाता है हम अपने बाबूजी को ही देख लें उन्होंने गाँव की भलाई के लिए कितना काम किया है तो आज सारे लोग उनका नाम भी पूरे आदर के साथ लेते ही हैं।” कर्मवीर ने एक बार फिर से मंगरू को समझाते हुए कहा।
“ठीक है भाई तुम और भी अच्छा नाम और और भी अच्छे काम करो मैं तो यही भगवान से कामना करता हूँ।” मंगरू ने कर्मवीर से कहा और फोन रखने लगा।
महावीर सिंह ने मंगरू से फोन लिया और कहा कि उन्हें अभी कुछ और बात करनी है।
“हेल्लो।”
“हाँ बाबूजी।”
“बेटे एक बात और समझानी है तुम्हें।”
“हाँ बाबूजी बोलिए।”
“वैसे तो मुझे पता है कि तुम खुद ही बहुत ज्यादा समझदार हो लेकिन चूँकि मैं बचपन से तुम्हें समझाता आया हूँ इसलिए एक बार फिर समझा देना ही उचित समझाता हूँ।”
“हाँ बाबूजी जरूर आप ही के सिखाये पाठ के कारण तो मैं आज यहाँ कॉलेज के बाकी विद्यार्थियों से बिल्कुल अलग हूँ।” कर्मवीर ने पूरी नम्रता के साथ उत्तर दिया।
“तो सुनो। तीन चीजें लोगों को जब मिलती हैं तो उसे पचा पाना जरा मुश्किल हो जाता है। एक है दौलत, दूसरी ताकत और तीसरी शोहरत। इन तीन चीजों में से कोई एक भी अगर इंसान को मिल जाती है तो इसकी बहुत ज्यादा सम्भावना है कि वो अहंकार से भर जाए। तुम्हारा वो प्रतिद्वंदी तुम्हें याद है न जिससे तुम जीते हो, उसके पिता विधायक हैं और उस लडके में कितना अहंकार है ये तो कहने की बात नहीं है। तुमसे भी बस यही कहना है कि कॉलेज के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतना बहुत ही छोटी बात है अपने अन्दर अहंकार कभी भी मत आने देना। जैसे हो वैसे ही बने रहना।”
“बाबूजी मैं आपका ही बेटा हूँ और आपको ही देखकर मैं बड़ा हुआ हूँ। मैंने देखा है गाँव के लोग आपकी कितनी इज्जत करते हैं यहाँ तक कि मुखिया भी आपको इतना सम्मान देकर बात करता है फिर भी आपके व्यवहार में जब अभी तक लेश मात्र भी परिवर्तन नहीं आया तो जब ये सब देखकर मैं बड़ा हुआ हूँ तो फिर मैं कैसे अहंकार से भर सकता हूँ आप ही मुझे बताइए बाबूजी।” कर्मवीर ने बहुत ही सुलझा हुआ जवाब दिया।
“बेटे तुमसे मुझे यही उम्मीद थी तुम जीवन में बहुत तरक्की करोगे और मैं यही चाहता भी हूँ कि तुम्हारा नाम सारे जहाँ में रोशन हो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।’ महावीर सिंह ने प्रफुल्लित मुद्रा में जवाब दिया और फिर कुछ और औपचारिक बातो के बाद फोन रख दिया।
काफी देर बात करने के बाद काफी सारा फोन का बिल पीसीओ वाले को थमाने के बाद कर्मवीर अपने कमरे में आ गया। वो अपने बाबूजी की बात को सोचने लगा। उसने सोचा कि अच्छा हुआ कि बाबूजी ने उसे एक बार अहंकारी ना होने का पाठ और पढ़ा दिया नहीं तो क्या पता उसमें अगर घमंड आ ही जाता तो क्या होता। उसका विकास रुकने के अलावा और कुछ नहीं होता आदमी जितना ज्यादा झुकता है उतना ही आगे भी बढ़ता है। कर्मवीर अपनी सोचों में खोया हुआ ही था कि इतने में ही उसके कमरे में विधायक का बेटा आया।
“मुझे माफ़ करना दोस्त मैंने बस एक चुनाव जीतने के लिए तुम्हारा बुरा करना चाहा लेकिन मैं उतना भी बुरा नहीं हूँ कि मैं किसी का बुरा कर पाऊं मैं तो बस तुम्हें डराना चाहता था लेकिन अब मुझे समझ आ गया कि चुनाव या कोई भी चीज किसी को डराकर नहीं जीती जा सकती है बल्कि उसके लिए लोगों का दिल जीतना होगा और कड़ी मेहनत करनी होगी।” कर्मवीर के कमरे में घुसते ही विधायक के बेटे ने माफ़ी माँगते हुए कहा।
कर्मवीर इसका क्या जवाब दे उसे समझ नहीं आया। थोड़ी देर तक वो चुप रहा फिर उसने कहा,
“आओ बैठो।” उसके इतना कहते ही विधायक का बेटा उसके बगल में उसकी चारपाई पर बैठ गया।
“दोस्त मैंने क्या गलती की है मुझे पता है अब तुम इस कॉलेज के अध्यक्ष हो और मेरे पिता विधायक हैं तुम्हें अपने काम को करने में कभी भी कोई दिक्कत आये मुझे बताना मैं तुम्हारी मदद जरूर करूँगा। मुझे पता है कि तुम सोच रहे होगे कि मैं अभी भी तुम्हारे साथ कुछ बुरा करने ही आया हूँगा। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है हारने के बाद मैंने बहुत सोचा और ये पाया कि विधायक का बेटा ही विधायक नहीं हो सकता। हर वो व्यक्ति विधायक हो सकता है जिसमें विधायक बनने कि काबिलियत है और कोई अगर ये सोचता होगा कि वो अपने दम पर बिना कुछ किये ही कहीं भी कोई चुनाव लड़ कर जीत सकता है तो वो बहुत बड़ा बेवकूफ है मेरी तरह। मैंने अभी तक जो भी बुरा किया है तुम्हारे साथ हो सके तो उसके लिए मुझे माफ़ करना और कभी भी मेरी किसी तरह की जरुरत महसूस हो तो मैं हमेशा तुम्हारी मदद करने को तैयार हूँ।” विधायक के बेटे ने अपनी बात ख़त्म की और जाने लगा।
“धन्यवाद।” कर्मवीर ने ही विधायक के बेटे से कहा। विधायक के बेटे ने उसे पलटकर देखा।
“इसलिए नहीं कि तुमने मुझे हमेशा मदद करने के लिए तैयार रहने की बात कही है बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे लगा कि तुम बदल गए हो अगर तुम सचमुच बदल गए हो तो दिल से मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ।” कर्मवीर ने विधायक के बेटे से कहा।
“हाँ मैं जानता हूँ कि मुझ जैसे आदमी पर विश्वास करना मुश्किल ही नहीं नामुम्किन है लेकिन मैं तुम्हें ये यकीन दिलाता हूँ कि बहुत जल्द तुम्हें ये विश्वास हो जायेगा कि मैं सचमुच बदल गया हूँ।” विधायक के बेटे ने कर्मवीर को जवाब दिया और फिर वहाँ से चला गया।
विधायक के बेटे के जाने के बाद कर्मवीर अपने पिताजी की बात सोचने लगा जो आज ही उसे उसके पिताजी ने बताई थी कि ताकत, शोहरत और दौलत में कोई एक चीज भी अगर किसी इंसान को मिल जाए तो उसके अहंकारी होने की संभावना बढ़ जाती है। लेकिन उन्होंने एक बात जो नहीं बताई वो ये है कि परिस्थिति अच्छे से अच्छे इंसान को बदल देती है। विशेषकर विषम परिस्थितियाँ। अगर विधायक का बेटा अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गया होता तो उसमे आज ये बदलाव नहीं आया होता जो अब आया है उसमें। इसलिए कहा जाता है जो होता है वो अच्छे के लिए होता है कर्मवीर विधायक के बेटे में आये सुधार से बहुत खुश था।
कर्मवीर विधायक के बेटे के अपने कमरे से जाने के बाद अपनी चारपाई पर लेट कर आराम करने की सोचने लगा। वो अपनी चारपाई पर लेटा ही था कि छात्रावास का अर्दली उसे बुलाने के लिए आ गया।
“कर्मवीर तुम्हारा फोन है।” अर्दली के इतना कहते ही कर्मवीर को आश्चर्य हुआ उसके लिए तो उसके घर से ही फोन आता था लेकिन आज अपने घर पर तो उसने खुद ही बात कर ली थी फिर इस वक्त उसे कौन फोन कर सकता है? वो सोचने लगा और अर्दली के पीछे पीछे जाने लगा। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि आज उसे किसने फोन कर दिया और तो वो किसी को जानता भी नहीं है। हारने के बाद विधायक का बेटा फोन कर सकता था लेकिन वो भी तो अभी अभी ही मिल के गया है और अच्छे से ही गया है उसे अब यही लगने लगा कि वही नहीं सुधरा होगा और अब फोन कर के उससे बत्तमीजी करेगा। इन्हीं सोचों में उलझा हुआ वो फोन के पास पहुँच गया।
“हेल्लो कर्मवीर?”
“हाँ मैं कर्मवीर बोल रहा हूँ आप कौन बोल रहे हैं?” कर्मवीर ने अपनी बात में आश्चर्य मिलाते हुए कहा।
“हाँ अब तो बड़े आदमी बन गए हो अब तुम कॉलेज के अध्यक्ष बन गए हो अब कैसे याद रख सकते हो मुझे?” उधर से आवाज आई और कर्मवीर आवाज को पहचानने पर जोर देने लगा। उस सचमुच पता नहीं चल पा रहा था कि उस ओर से कौन बोल रहा है।
“माफ़ कीजियेगा लेकिन मैं सचमुच आपको नहीं पहचान पा रहा हूँ।” कर्मवीर ने कहा।
“मुझे पता है कि तुम मुझे भूल ही गए होगे। अब कॉलेज में आ गए हो न और छात्र संघ के अध्यक्ष भी बन गए हो तो मुझे कैसे याद रख सकते हो। ऐसे भी मैं कम पढने लिखने वाला लड़का और तुम अब तो और भी बड़े हो गए हो। भाई मैं गणेश बोल रहा हूँ। अब पहचाना मुझे या अभी भी नहीं पहचान पा रहे हो?” गणेश ने प्रश्न किया।
थोड़ी देर के लिए गणेश को न पहचानने के कारण कर्मवीर को अपने ऊपर क्रोध भी आया।
“यार कैसी बात कर रहे हो तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ मैं?” कर्मवीर ने लज्जित होते हुए प्रश्न किया।
“नहीं नहीं आवाज तो भूल ही गए थे क्या पता अब नाम भी भूल गए होगे।” गणेश ने फिर से कर्मवीर की टांग खींची।
“अरे और क्यों शर्मिन्दा कर रहे हो मित्र। और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी पढाई लिखाई?” कर्मवीर ने थोड़ी बात बदलने की कोशिश की।
“अब मेरी पढाई तो तुम जैसी नहीं चल रही है लेकिन कोशिश में हूँ कि जो इंटर में हुआ वो अब न हो इसलिए पढाई कर रहा हूँ। मैं अपनी क्लास में पहले स्थान पर तो नहीं आ पा रहा हूँ लेकिन शीर्ष दस में स्थान बनाने में जरूर सफल रह पाता हूँ।”
“चलो ये तो बहुत ख़ुशी की बात है यार कि तुम फिर उसे उसी तरह मेहनत करने लग गए हो जिस तरह पहले किया करते थे और शराब वगैरह से तो दूरी बना ली है न अब?” कर्मवीर ने अब अच्छे से गणेश का जायजा लिया।
“नहीं दोस्त अब शराब वगैरह कुछ नहीं एक बार मेरे बाबूजी की तबियत बहुत ही ज्यादा खराब हो गयी थी तो वो गाँव आ गए थे मैं भी उन्हें देखने गाँव गया था। उनकी हालत देखकर मुझे तुम्हारी कही बात याद आ गयी मैंने उसी वक्त सोच लिया अब चाहे जो भी हो मैं बिना कुछ और सोचे बस पढ़ाई ही करूँगा और कुछ नहीं करूँगा।”
“चलो कभी कभी जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है। अच्छा ये बताओ अब कैसी तबियत है तुम्हारे पिताजी की?”
“अब तो सही है अब तो वो काम पर भी वापस लौट गए हैं।” गणेश ने उत्तर दिया।
“अच्छा गणेश ये बात बता कि तुम्हें ये कैसे पता चला कि मैं कॉलेज के छात्र संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया हूँ?”
“हाँ अब तुमने सही सवाल किया। अच्छा तुम्हें याद है जब तुम माँ के हाथ का बना खान मेरे कमरे पर देने के लिए आये थे। उस समय पाँच लोग बैठ के शराब पी रहे थे न।”
“हाँ लेकिन उससे मेरे सवाल का क्या लेना देना है?” कर्मवीर ने तुरंत ही उत्तेजित होते हुए पूछा।
“है उस बात का लेना देना है। उन पाँच लोगों में एक लड़का वो था जिसे तुमने चुनाव में हराया था।” गणेश ने उसे जवाब दिया और हल्का सा मुस्का दिया जिसे फोन के दूसरी तरह होने के कारण कर्मवीर देख नहीं पाया।
“अच्छा! मतलब विधायक का बेटा मुझे पहले से जानता है?” कर्मवीर ने गणेश से प्रश्न पूछा।
“नहीं वो उस वक्त तो तुम्हें जान ही नहीं पाया था। वो तो अब जान पाया है कि तुम मेरे मित्र हो।” गणेश ने जवाब दिया।
“अब कैसे जान पाया है वो?”
“अरे कल उसने मुझे फोन किया था कि वो कॉलेज के अध्यक्ष पद का चुनाव हार गया है। इससे पहले जब उससे मेरी बात हुई थी तब उसने ये बताया था कि वो अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने वाला है मैंने उसे कह दिया कि वो ही जीतेगा क्योंकि उसके पिताजी पहले से ही विधायक हैं तो उसे जीतने में कोई दिक्कत नहीं है। कल जब उसने फोन किया और बताया कि वो तुमसे चुनाव हारा है तो मैंने उसे बताया कि अगर तेरे सामने कर्मवीर खड़ा था तब तो तुझे हारना ही था। फिर उसने मुझसे तुम्हारे बारे में पूछा तो मैंने कल उसे पूरा बताया तुम्हारे बारे में तो वो कहने लगा कि तब तो उसे ही जीतना भी चाहिए था वही जीतने के योग्य ही था।” गणेश ने सारी बात को विस्तार से बताया।
थोड़ी और इधर उधर की बातें करने के बाद कर्मवीर ने फोन रख दिया और फिर अपने कमरे में चला गया। आज सारी दिशाओं से कर्मवीर के लिए अच्छी खबर ही आ रही थी। कर्मवीर काफी खुश था और वो आराम करते करते कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।
कर्मवीर चुनाव जीतने के बाद कुछ दिनों तक उस तरह पढ़ाई नहीं कर पा रहा था जिस तरह वो पहले कर लेता था। हालाँकि उसका प्रदर्शन पहले से अच्छा भले ही हो गया था लेकिन कॉलेज के किसी छात्र से वो अभी भी पीछे नहीं हो पा रहा था। बीतते समय के साथ कर्मवीर की पढाई ने भी रफ़्तार पकड़ ली और कॉलेज में भी वैसी कोई परेशानी नहीं आ रही थी कि उसे अपने अध्यक्ष पद के कारण ज्यादा समय जाया करना पड़े। उसका जिम्मा प्रधानाचार्य ने ही संभाल लिया था और किसी तरह की कोई नयी चीज कॉलेज में लानी होती थी तो वो ही सारा काम कर लेते थे। वो हमेशा ये ख्याल रखते थे कि कर्मवीर को अध्यक्ष पद के कारण अतिरिक्त भार न उठाना पड़े।
लेकिन समय हमेशा हमारे अनुकूल कहाँ चलता है? प्रधानाचार्य का तबादला होने को आ गया। वो जाने वाले थे। वो जाने वाले थे ऐसे में तो कर्मवीर के तो जैसे हाथ पाँव ही जाने वाले थे। जाते जाते उन्होंने कर्मवीर को खूब समझाया कि उसके जैसे लड़के बहुत ही कम होते हैं अभी भी उसके सामने पढाई का बहुत समय बचा हुआ है वो अभी भी डगमगाए नहीं जैसे वो उसे छोड़ के जा रहे हैं कभी भविष्य में अगर मिलना हुआ तो वो उसे इसी तरह देखना पसंद करेंगे। कर्मवीर ने भी उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वो उसे जैसा छोड़ के जा रहे हैं वैसा ही वो उसे आगे भी पायेंगे।
प्रधानाचार्य कॉलेज से दूसरे कॉलेज में चले गए जाते वक्त सभी विद्यार्थियों की आँखें नम थीं यहाँ तक कि विधायक का बेटा भी उनके जाने से काफी उदास था। कर्मवीर को रोता देख वही कर्मवीर को चुप कराने भी गया था। प्रधानाचार्य के जाने के बाद कर्मवीर को दिक्कतें आने लग गईं। चूँकि वो अध्यक्ष पद के कर्तव्यों के लिए बहुत हद तक प्रधानाचार्य पर भी निर्भर था इसलिए उनके जाने के बाद उसे उनकी कमी बहुत खल रही थी। नए प्रधानाचार्य जो आये थे उन्हें इन सब से ज्यादा कोई मतलब ही नहीं था। ऐसे में विधायक के बेटे ने बिना कहे ही कर्मवीर की मदद करनी शुरू कर दी। कर्मवीर को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वाकई कोई इंसान इतना ज्यादा बदल सकता है। एकदिन उसने विधायक के बेटे को कहा कि जो तुम कर रहे हो न यही एक असली नेता की पहचान है। तुम अब सचमुच जब भी बनोगे एक बहुत ही अच्छे नेता बनोगे।
समय का पहिया अपनी गति से घूमता बढ़ रहा था और उसी के सापेक्ष इस धरती पर सब कुछ बढ़ रहा था और बदल रहा था। कर्मवीर के पढ़ाई भी बीतते समय के साथ समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही थी। जिस तरह ये तय है कि गंगा हिमालय से ही निकलेगी और बंगाल की खाड़ी ने ही विलीन होगी, जिस तरह ये तय हो गया है कि सूर्य का उदय पूर्व दिशा में ही होगा और उसका अस्त पश्चिम में तय है ठीक उसी तरह ये तय था कि किसी भी तरह की परीक्षा में कर्मवीर ही प्रथम स्थान लाएगा। काफी समय बीत गया जब उसे किसी परीक्षा में दूसरा स्थान मिला हो। सभी उसकी मेधा के मुरीद हो गए थे। नए प्राध्यापक भी उससे बहुत ज्यादा प्रभावित थे।
तीन साल की अवधि पूरी होने के बाद कर्मवीर का स्नातक भी पूरा हो गया। महाविद्यालय ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय में उस विषय में कर्मवीर के बराबर अंक लाने वाला कोई विद्यार्थी ही नहीं था। उसे राज्यपाल ने अपने हाथों से सम्मानित किया। अपनी पढाई खत्म करने और राज्यपाल से पुरस्कार लेने के बाद वो अपने गाँव गया। जब वो राज्यपाल से पुरस्कार ले रहा था तब उसके बाबूजी भी वहाँ मौजूद थे इस बार वो कर्मवीर की माँ को भी साथ लेकर आये थे क्योंकि राज्यपाल के हाथों सम्मानित होना कोई छोटी मोटी बात नहीं थी। उसके माँ को ये बात महावीर सिंह ने बहुत ही अच्छे से समझा दिया था कि ये बहुत ही बड़ी उपलब्धि है जो उनके बेटे ने हासिल की है। जब वो राज्यपाल के हाथों से पुरस्कार ग्रहण कर रहा था तब उसके माँ और पिता दोनों की आँखों में आँसू थे।
पहली बार उसकी माता और उसके पिता का मौखिक साक्षात्कार हुआ। जहाँ पर ये कार्यक्रम चल रहा था कार्यक्रम खत्म होने के बाद समाचार पत्र वालों ने उसके माता पिता का साक्षात्कार लिया और फिर उसे अगले दिन अखबार में प्रकाशित भी किया। जब कर्मवीर गाँव आया तो जिन्हें नहीं भी पढ़ना आता था उन्होंने अखबार में कर्मवीर और उसके माता पिता की तस्वीर देखी थी। गाँव आते ही सरपंच सहित सारे गाँव वालों ने कर्मवीर का फूल माला के साथ स्वागत किया।
जिस विद्यालय में उसने बचपन में पढाई की थी उस विद्यालय में उसे बच्चों को मार्गदर्शन देने के लिए बुलाया गया था। वो अपने साथ गणेश को भी लेकर गया था। गणेश ने भी स्नातक में बहुत ही अच्छे अंक अर्जित किये थे। जब उसे बोलने के लिए बोला गया तो उसने सीधे कह दिया कि अगर प्रेरणा लेनी है तो आपलोग गणेश से लीजिये। ये सीमित संसाधनों के बीच पढ़ा है। आज इसने अपनी मेहनत के बल पर अपने महाविद्यालय में सातवाँ स्थान अर्जित किया है। इसके पिताजी मजदूरी करके इसे पढ़ते हैं अगर कुछ सीखना है तो उनसे सीखिए कि त्याग क्या होता है। अपने बच्चों को कैसे पाला जाता है। और अपने पिता की मेहनत को कैसे कामयाब किया जाए ये आप गणेश से सीख सकते हैं।
कर्मवीर जब गणेश के बारे में बोल रहा था तब उसकी आँखों में आँसू थे। गणेश के आँसू रुक ही नहीं रहे थे। वो भावविभोर हो गया था। कर्मवीर ने कहा कि मैंने शौक से पढ़ाई की अगर मैं पढाई नहीं करता तो भी मेरे पिता के पास इतनी जमीन थी कि मैं खेती कर के आसानी से अपना गुजर बसर कर लेता मुझे कभी किसी भी चीज की कोई कमी महसूस नहीं हुई क्योंकि मेरे पिता धनि हैं। वहीं गणेश के पिता ने इसे कोई कमी महसूस नहीं होने दी और गणेश ने भी अपने पिता की मेहनत का पूरा सम्मान किया। बच्चों अगर कुछ सीखना है तो आप इन पिता बेटे से सीख सकते हैं। कर्मवीर की ये बातें सुनकर वहाँ विद्यालय के उस कार्यक्रम में मौजूद सभी छात्र और विद्यार्थी रो पड़े थे। गणेश की आँखों में भी आँसू थे और कर्मवीर भी अपनी बात ख़त्म कर भावुक हो गया था।
कर्मवीर ने बी।ए। ख़त्म करने के बाद एम।ए। में दाखिला लिया जबकि गणेश ने स्नातक के बाद ही शहर में एक अच्छी सी नौकरी पकड़ ली। कर्मवीर एम।ए। में और अच्छे से पढाई करने लगा और उसका विषय भी फिर से वही था जिस विषय को पढ़कर लोगों की अच्छे से सेवा की जा सके और कानूनी रूप से कोई बाधा पहुँचाना चाहे तो वो उसे कानूनी रूप से भी लड़ाई कर सके। पढाई के स्तर में कर्मवीर ने अभी भी कोई ढिलाई नहीं की थी लेकिन समय के साथ अब बहुत कुछ बदल गया था। कर्मवीर का गाँव ही काफी तेज़ी से बदल गया था। वहाँ के कुछ लोग जिनके पास धन दौलत हो गयी थी उन्होंने पक्के का घर बनवाना शुरू कर दिया था कुछ लोगों ने मोटर गाडी भी खरीदनी शुरू कर दी थी। बैलों की जगह कुछ लोग ट्रेक्टर भी इस्तेमाल करने लगे थे। लेकिन ये सब ज्यादा कर्मवीर के गाँव में नहीं ही हो पा रहा था उसके बाबूजी ने अपने गाँव को पक्की सडक से तो जोड़ दिया था लेकिन गाँव के अन्दर की सड़कें और गालियाँ अभी भी बेहद ख़राब थीं। उसके लिए वो लगे हुए थे काफी भाग दौड़ भी करते थे लेकिन फिर भी ज्यादा कुछ कर नहीं पा रहे थे। साथ साथ अब उनकी उमर भी होती जा रही थी इसलिए उनसे अब ज्यादा भाग दौड़ नहीं हो पा रही थी।
कर्मवीर भी पाँच सालों से बाहर रहकर पढ़ रहा था तो उसपर खर्च भी अच्छा ख़ासा हो गया था और इधर कुछ दिनों से फसल की पैदावार भी उतनी अच्छी नहीं हो रही थी इस वजह से भी महावीर सिंह का मनोबल थोड़ा गिर सा गया था। कर्मवीर सारी बातों को समझता था । वो खुद इतना ज्यादा समझदार था कि फ़ालतू खर्चे बिल्कुल कम करता था। पढाई के लिए फीस उसे नहीं देनी पड़ती थी क्योंकि हमेशा वो छात्रवृति जीतते रहता था। उसने अपनी तरह से हर संभव प्रयास कर रखा था जिससे उसके पिता पर ज्यादा भार न आये।
कर्मवीर एक बात जानकर बहुत दुखी होता था कि गाँव के बहुत सारे लोग अब बाहर का ही रास्ता नाप चुके थे इसलिए गाँव के लिए न तो ज्यादा कोई सोचता था न तो कोई करता था। लोग धरल्ले से शहर जा रहे थे और ये सोच रहे थे कि वो शीघ्र ही अमीर हो जाएँगे। कर्मवीर तो इन्हीं चीजों की पढाई भी कर रहा था उसे ये पता था कि लोग जो सोच कर शहर जा रहे हैं उन्हें वो मिलेगा नहीं फिर भी आधे से ज्यादा लोग ये सोचकर शहर में ही रह जाएँगे कि गाँव जाने पर लोग क्या कहेंगे। उसने सोच रखा था कि जैसे ही वो अपनी पढाई ख़त्म करके गाँव जाएगा वो अपने गाँव को एक मॉडल गाँव बना देगा। खुशहाली उसी के गाँव से होकर निकलेगी। उसके गाँव को छोड़कर कोई भी बाहर नहीं जाएगा।
फिर उसे गणेश का ख्याल आया। गणेश शहर में एक अच्छी सी नौकरी कर रहा था जिसमे उसे अच्छा पैसा मिलता था। उसने अपने पिता को बाहर काम करने के लिए मना कर दिया और हर महीने पैसे घर भेजता था जिससे कि उसके माता पिता अच्छी जिंदगी बिता सकें। कुछ लोग शहर की ओर गणेश को ही देखकर पलायित हो रहे थे। विशेषकर युवा वर्ग तो अब कर्मवीर से ज्यादा अच्छा गणेश को ही मानने लगा था। क्योंकि गणेश ने अपने बूढ़े माँ बाप को आराम दे दिया और उनके रहन सहन में भी काफी फर्क आ गया था। युवा लोगों ने तो बस ये सोच लिया कि शहर जाने पर उनके भी परिवार की जिंदगी गणेश के परिवार जैसी हो जाएगी। लेकिन वो ये नहीं देख पा रहे थे कि पहले दसवीं तक और उसके बाद पाँच साल शहर में गणेश ने कितनी मेहनत से पढाई की। जब उसके बाप मजदूरी कर अपना खून जला रहे थे तो वो पढाई में अपना खून सुखा रहा था। आज ये ऐशो आराम यूँ ही शहर जाने से नहीं मिल गयी। उसके लिए उसने वर्षों मेहनत की है।
कर्मवीर चाहता था कि गणेश भी गाँव में ही रहे लेकिन गणेश के लिए ये बात संभव ही नहीं थी ये बात कर्मवीर भी अच्छी तरह समझता था। जब भी कर्मवीर की बात गणेश से होती थी तो वो उसे समझाता था कि वो गाँव के लिए भी कुछ किया करे लेकिन गणेश हर बार बस यही कहता था कि तुम्हें तो मेरे घर की हालत के बारे में पता ही है किसी तरह तो मेरा घर चल रहा था तो पहले अपने घर को तो अच्छे से संभाल लूँ फिर गाँव के बारे में भी सोचूँगा अभी मुझसे नहीं हो पायेगा गाँव के लिए कुछ भी सही वक़्त आने पर सब कुछ कर दूँगा।
“अगर हम वक्त का इंतज़ार करते रहे न तो वक्त कभी नहीं आता है। किसी भी काम को हम जब चाहें तब शुरू कर दे सकते है।”
“देख कर्मवीर मैं तुम्हारी तरह बिल्कुल ही नहीं हूँ ये तुम्हें भी पता है और अगर सारी चीजें समय के साथ नहीं बदी हैं तो फिर मुझे ये बताओ कि मेरे अच्छे से पढ़कर कमाई करने के पहले ही क्यों नहीं मेरे घर की हालत मजबूत हो गयी। देखो ये सब बात न मुझे समझ नहीं आती। हाँ लेकिन मैं तुम्हें ये वादा करता हूँ कि जब भी मुझे लग जाएगा कि अब मेरे परिवार की हालत सुधर गयी है और अब मैं परिवार के अलावा भी कोई चीज सोच सकता हूँ तो मैं सबसे पहले गाँव के लिए ही कुछ करूँगा।”
“ठीक है जैसा तुम्हें उचित लगे तुम वैसा ही करना मेरा तुमपर कौन सा वश है वो तो मुझे लगा कि तुम अब अच्छा ख़ासा कमा रहे हो तो मैंने तुम्हें एक सुझाव बस दिया थामानना न मानना तो अब पूरा तुम्हारे हक में ही है।” कर्मवीर ने कहा।
कर्मवीर ने अपने एम।ए। की पढाई में छुट्टियों में भी घर आना उचित नहीं समझा और दो साल शहर में रहकर पढ़ाई की। जब जब छुट्टियाँ हुईं तब तब वो शहर घुमने निकल गया। उसने शहर की जिंदगी बहुत करीब से परखने की कोशिश की कि आखिर इसमें ऐसा क्या है जो लोगों को इतना ज्यादा आकर्षित कर लेती है। लेकिन उसे ऐसा कुछ समझ में ही नहीं आया कि शहर की जिंदगी गाँव से बेहतर लगे। वो अपनी पढाई और अपने शोध में पूरे जोश के साथ लगा रहा। और दो साल उपरांत उसने अपनी पढाई ख़त्म कर ली। एक बार फिर उसका प्रथम आने का सिलसिला जारी रहा। और वो एम।ए। में भी पूरे विश्वविद्यालय में सबसे ज्यादा अंक लेकर आया। कई सारी कम्पनियाँ उसे नौकरी पर रखना चाहती थीं लेकिन उसने साफ मना कर दिया कि वो किसी भी कम्पनी के लिए काम नहीं करेगा क्योंकि वो अपने गाँव से बाहर नहीं रह सकता वो अपने गाँव वालों की भलाई के लिए ही पढ़ाई कर रहा था और अपने गाँव की भलाई के अलावा उसके पास और कोई काम नहीं है । किसी भी कंपनी के लिए वो काम नहीं करेगा। जब ये बात एक कंपनी को पता चली तो उसने कर्मवीर के सामने ये प्रस्ताव रखा कि अगर वो चाहे तो बहुत ज्यादा तनख्वाह पर उसे नौकरी मिल सकती है और उसे अपना गाँव छोड़ने की भी जरुरत नहीं है। उसे हर महीने का काम और उसके लिए जरुरी सामान उसके घर तक पहुंचा दिया जाएगा और महीने के अंत में एक आदमी फिर से दूसरे महीने के लिए उसे काम पहुँचा जाएगा और उसका काम किया हुआ ले आएगा और उसके बदले में उसकी उस महीने की तनख्वाह भी घर पहुँचा दी जायेगी। इतने आकर्षक प्रस्ताव को मना करने में उसे बेवकूफी नजर आई और उसने उस कंपनी के साथ काम करने के लिए हामी भर दी।
जब उसने ये बात अपने बाबूजी को बताई तो वो बहुत ही ज्यादा खुश हुए उन्होंने कहा,
“देखा तुमने जो दिन रात तप कर मेहनत की उसका तो फल मिलना ही था। भगवान ऊपर बैठा सबकुछ देख रहा है। तुमने गाँव की सेवा करने की जो सच्ची प्रतिज्ञा ली थी भगवान् उसे भी नहीं तोड़ना चाहते थे और तुमने जो मेहनत की थी उसका भी मेहनताना भी उन्हें देना था। अब ये बताओ तुम घर कब आ रहे हो तुम्हारी माँ तुम्हें देखे बिना बेचैन हो गई है।”
“बहुत ही जल्द आ जाऊँगा बाबूजी बस अब उस कंपनी से यही बातें लिखित में दस्तखत हो जाएँ फिर मैं यहाँ से हमेशा के लिए निकल कर गाँव ही आ जाऊँगा।”
“हाँ हाँ जल्द आओ हम सब तुम्हारी प्रतीक्षा में व्यग्र हुए जा रहे हैं।” महावीर सिंह ने सचमुच व्यग्र होते हुए कहा।
कर्मवीर ने भी उस कम्पनी के साथ अपना करार दस्तखत किया और फिर गाँव के लिए निकल गया।
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