“जीत, मेरा पर्स वहीं टेबल पर ही रह गया। मैं अभी लेकर आई, तुम गाड़ी निकालो।“ दिलशाद ने कहा।
दिलशाद नेल्सन के कक्ष की तरफ दौड़ी, अंदर घुसी।
“मेरा पर्स मैं भूल गयी थी।“ वह टेबल पर पड़ी पर्स की तरफ बढ़ी, वह पर्स उठाती तब तक नेल्सन ने उसे उठा लिया।
“भूल गयी थी अथवा...?” नेल्सन दिलशाद की समीप गया। वह दिलशाद के अत्यंत समीप था। दिलशाद को उसका सामीप्य पसंद आया। वह मन ही मन चाहने लगी कि नेल्सन उसे स्पर्श करे किन्तु उसने स्वयं को रोका।
“मेरा पर्स?“ दिलशाद ने पर्स लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, नेल्सन ने पर्स देने के लिए। आगे बढ़े दो हाथ एक दूसरे से टकराए, मिले और अलग हो गए। दिलशाद ने पर्स ली, साथ में नेल्सन का स्पर्श भी। उस स्पर्श में ना जाने क्या क्या था?
दिलशाद कक्ष से बाहर जाने लगी, द्वार पर जाकर रुकी, मुड़ी,” आप की आँखें अत्यंत मोहक है।“ एक स्मित दिया और आगे बढ़ गयी।
“और आप तो स्वयं ही पूर्ण सौन्दर्य हो।“ नेल्सन के शब्दों ने दिलशाद के कानों में मीठा सा रस घोल दिया। वह निकल गयी। जाकर जीत के साथ गाड़ी में बैठ गयी।
गाड़ी घर की तरफ दौड़ने लगी, दिलशाद का मन नेल्सन की तरफ। मार्ग भर वह सोचती रही कि पर्स तो ले आई किन्तु ना जाने क्या क्या वह नेल्सन के पास छोड़ आई!
जीत का उपचार चलता रहा। इस बहाने नेल्सन से मिलती रही दिलशाद। धीरे धीरे दोनों के बीच सामीप्य बढ्ने लगा।
जीत की बीमारी बढ़ती गई। सारे प्रयास के उपरांत भी वह हिम का टुकड़ा ना तो टूट सका ना उसे आगे बढ़ते रोका जा सका। नेल्सन ने किसी तरह से उसे फेफड़े तक पहोंचने से बचाए रखा था। कभी भी कुछ भी हो सकता था।
“हिम का टुकड़ा सांस लेने मैं बाधा कर रहा है। बांये फेफड़े की दीवार तक वह जा चुका है। यदि उसे अभी नहीं रोक पाये तो वह फेफड़े में घुस सकता है, फेफड़े को फाड़ भी सकता है। एक प्रयास हम कर सकते हैं।“ नेल्सन ने जीत और दिलशाद को चेताया।
“क्या कर सकते हैं?” जीत और नेल्सन एक साथ बोले।
“लेसर से उस टुकड़े को थोड़ा सा घूमाते हैं, खिसकाते हैं और सांस की नली में कहीं फंसा देते हैं।“
“वह कैसे?”
नेल्सन ने रिमोट से बड़ी सी स्क्रीन ऑन की, उस पर विडीओ चलाया।
“यह जो नली है जिससे हम सांस लेते हैं वह स्नायुओं की बनी होती है। इसकी दीवार स्थिति स्थापक होती है। यदि फेफड़े के प्रवेश द्वार से ठीक पहले हिम के टुकड़े को इस दीवार में इस तरह से फंसा दें कि वह आगे खिसके ही नहीं।“
“उससे क्या जोगा?”
“उससे एक फायदा होगा। यदि उसे हम दीवार में फंसा दें तो नली का रास्ता थोड़ा खुल जाएगा जिससे साँसों का आवागमन सरल हो जाएगा। जब तक वह उस दीवार में फंसा रहेगा, सांस सरलता से चलती रहेगी।“
“और वहाँ से जरा सा भी खिसक गया तो?”
“तो?” नेल्सन ने गहरी सांस ली,”यह ‘तो’ को अभी नहीं सोचते हैं। अभी तो जो श्रेष्ठ उपाय है वही करते हैं।“
तीनों मौन हो गए। जीत और दिलशाद घर लौट गए।
दो दिवस बाद नेल्सन का फोन आया, दिलशाद ने बात की।
“फिर क्या सोचा?” दुसरे छोर से नेल्सन ने पूछा।
“किस विषय में?” दिलशाद ने नटखट होकर पूछा।
“हम जीत के लेसर ऑपरेशन के बारे में बात कर रहे हैं।“
“ओह, मैं तो कुछ और ही...।” दिलशाद ने बात आधी काही, आधी छोड़ दी।
उस छोर पर नेल्सन हंस पड़ा। दिलशाद उस हंसी को सुनती रही। दिलशाद को लगा कि, नेल्सन की हंसी फोन पर भी उतनी ही मोहक है। दिलशाद के होठों पर भी स्मित आ गया।
“हम अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहोंचे, कुछ समय और चाहिए, सोचने के लिए।“
“एक काम करो, तुम शाम को यहाँ आ जाओ।“
“जीत को साथ लेकर अथवा....?” दिलशाद ने फिर बात आधी छोड़ दी।
“तुम्हारी जैसी इच्छा। किन्तु आना अवश्य। आओगी ना?”
“अवश्य।“ दूसरी तरफ से फोन कट गया। दिलशाद जीत की तरफ मुड़ी। जीत खिड़की से बाहर कहीं देख रहा था किन्तु उसके कान, दिलशाद और नेल्सन की बात पर ही थे। उसने सब सुन लिया था, सब समझ भी लिया था। वह मौन रहा।
“जीत, डॉ॰ नेल्सन का फोन था। लेसर ओपराशन के विषय में पुछ रहे थे। कुछ बात करना चाहते हैं, बुलाया है।“
“तो तुम जाकर मिल लो।”
“तुम भी साथ चलो। मैं अकेली कोई निर्णय नहीं ले पाऊँगी।“ दिलशाद ने आग्रह करा, अधुरे मन से।
“नहीं, तुम ही चली जाओ। वैसे भी मैं थोड़ा थका हुआ हूँ।“ जीत ने बात टाल दी।
“ठीक है, तुम आराम करो। पर हाँ, फोन चालू रखना। हो सकता है मुझे वहाँ से तुम्हें कुछ पूछना पड जाय।“ दिलशाद संध्या तक प्रतीक्षा करने लगी।