Bhige Pankh - 1 in Hindi Fiction Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | भीगे पंख - 1

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भीगे पंख - 1

भीगे पंख

1. मोहित-रज़िया-सतिया

यह कहानी विभिन्न मन-स्थितियों मं जी रहे तीन ऐसे पात्रों की कहानी है जो असामान्य जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

थामस ए. हैरिस नामक अमेरिका के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘आई. ऐम. ओ. के. यू. आर. ओ. के.’ में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि कोई भी शिशु अपने जन्म के समय एवं शैशवास्था में उपलब्ध परिस्थितियों के अनुसार जन्म के पश्चात अधिक से अधिक पांच वर्ष में अपने लिये निम्नलिखित चार जीवन-स्थितियों मन-स्थितियों मे से कोई एक जीवन-स्थिति निर्धारित कर लेता है, जो जीवनपर्यंत उसक्रे अंतर्मन एवं आचरण को प्रभावित करती रहती हंै।

1. ‘आई ऐम नौट ओ. के. यू आर ओ. के.’

जब एक शिशु माता के गर्भ के वातानुकूलित एवं सुरक्षित वातावरण से निकलकर बाहर आता है तो प्राय उसे आंख में चुभने वाले प्रकाश, त्वचा मे कटन पैदा करने वाली शीत, जलाने वाली गी्रष्म, अथवा कर्णकटु ध्वनियों का सामना करना पड़ता है, जिससे उसे गम्भीर असुरक्षा का अनुभव होता है। तब माॅ की गोद उसे सुरक्षा प्रदान करती है। स्वनियंत्रण से परे वाह्य वातावरण की कटुता एवं तत्पष्चात प्राप्त माॅ की गोद का सुरक्षात्मक अनुभव उसमें ‘आई. ऐम. नौट ओ. के. यू आर ओ. के.’ की मनस्थिति उत्पन्न करता है। यदि जन्म के पश्चात प्रारम्भिक महीनों में शिशु की अस्वस्थता के कारण, अथवा घर की दुरूह परिस्थितियों के कारण अथवा घर के अन्य सदस्यों के व्यवहार के कारण ऐसी स्थिति बार बार आती रहे कि शिशु को असुरक्षात्मक अनुभव होते रहें और उसे माॅ, नर्स अथवा पिता आदि की गोद की सुरक्षा की उपलब्धता के बिना जीवन कठिन लगने लगे, तो ‘आई. एम नौट ओ. के., यू आर ओ. के.’ की मनस्थिति स्थायी हो जाती है। प्राय ऐसा व्यक्ति हीनभावना से ग्रसित रहकर साहसपूर्ण कदम उठाने में दूसरों का आसरा देखने लगता है और अपने प्रत्येक निर्णय को इस कसौटी पर परख कर लेता है कि इसमंे दूसरों का अनुमोदन प्राप्त होगा अथवा नहीं।

2. ‘आई ऐम ओ. के. यू आर नौट ओ. के.’

बचपन में सुरक्षा एवं प्यार की आवश्यकता होती है, परंतु यदि उस समय किसी व्यक्ति को अवहेलना क्रे साथ साथ दुत्कार एवं गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना भी मिलती है तो उसका मन विद्रोहरत होकर ‘आई. एम. ओ. के. यू आर. नौट. ओ. के.’ की जीवनस्थिति स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्राय स्वार्थ को सर्वोपरि समझने वाला बन जाता है एवं स्वार्थ साधन हेतु समाज के नियम एवं कानून का उल्लंघन करने में वह किसी प्रकार की ग्लानि का अनुभव कम ही करता है।

3. ‘आई ऐम नौट ओ. के. यू आर नौट ओ. के.’

यदि शिशु के बढ़ते समय विपरीत परिस्थितियों के कारण उसके जन्म के समय उत्पन्न ‘आई ऐम नौट ओ. के.’ की भावनात्मक स्थिति को सुधारने के अवसर नहीं मिलते है और साथ ही माॅ-बाप व अन्य बडों़ से भी प्यार एवं सुरक्षा की अपेक्षा तिरस्कार एवं अवहेलना मिलते हैं तो वह ‘आई. एम. नौट ओ. के. यू. आर. नौट. ओ. के.’ की मनस्थिति को अपने जीवन मंे स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्राय निराशा में डूबकर उस शैशवकाल की कल्पना में रमा रहना चाहता है जब जन्म के प्रारम्भिक दिनों में उसे प्यार एवं सुरक्षा मिले थे। प्राय ऐसे लोग अवसादग्रस्त रहकर संसार से विरक्ति की स्थिति में जीने लगते हैं और यदा कदा आत्महत्या द्वारा अथवा सब कुछ नश्टकर मुक्ति की कामना भी करते है।

4.आई एम ओ. के. यू आर ओ. के.

यह एक संतुलित जीवन स्थिति है। यदि शिशु को अपने प्रारम्भिक जीवन में समुचित सुरक्षा, प्यार एवं दिशा निर्देशन मिलता है तो वह ‘आई. एम. ओ. के. यू. आर. ओ. के.’ की जीवनस्थिति को स्थायी बना लेता है। ऐसा व्यक्ति प्राय षांतिमय एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन जीता है।

मनुष्य विशेष के जीन्स की संरचना भी एक सीमा तक शिशु की जीवन-स्थिति के निर्धारण को प्रभावित करती है परंतु शैशवकाल के अनुभव असामान्य प्रकृति को सामान्य अथवा सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने में अधिक महत्व रखते हैं। सभी नवजात शिशु कुछ न कुछ अवधि के लिये प्रथम जीवनस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं। भविष्य की परिस्थितियों के अनुसार किसी किसी में वह स्थायी हो जाती है और कुछ में परिस्थितियों के अनुसार द्वितीय अथवा तृतीय जीवनस्थिति स्थायी हो जाती है। प्रथम तीनों स्थितियां व्यक्ति को एक असामान्य जीवन जीने को उद्वेलित करतीं रहतीं हैं। चतुर्थ जीवनस्थिति शिशु के प्रति प्रेम-प्रदर्शन एवं लालन-पालन में बरती गई समझदारी से स्थापित होती है; इस जीवनस्थिति का व्यक्ति संतुलित जीवन जीता है।

मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य के व्यवहार को ‘पेरेंट, ऐडल्ट, ऐंड चाइल्ड’ की कैटेगरीज़ में भी बांटा है। उनके अनुसार प्रथम जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की किसी समस्या पर प्रतिक्रिया प्राय चाइल्ड की प्रतिक्रिया के समान होती है- हीनभावनामय एवं परोन्मुखी; द्वितीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया प्राय पेरेंट की प्रतिक्रिया केे समान होती है- अपने उचित अथवा अनुचित निर्णय को बलात ठोकने वाली, तृतीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया अवसादमय एवं निराशापूर्ण होती है एवं चतुर्थ जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया वैसी समझदारीपूर्ण होती है जैसी एक ऐडल्ट की होनी चाहिये।

इस कहानी के तीनों पात्र मोहित, सतिया और रज़िया असामान्य परंतु एक दूसरे से भिन्न जीवनस्थितियेंा में जीने वाले व्यक्ति हैं जो भवसागर मे गोते लगाते हुए एक दूसरे के निकट आ गये हैं- मोहित ‘आई ऐम नौट ओ. के. यू आर ओ. के.’ की चाइल्ड की जीवनस्थिति मे है, सतिया ‘आई ऐम ओ. के. यू आर नौट ओ. के.’ की पेरेंट की जीवनस्थिति मे है और रज़िया ‘आई ऐम नौट ओ. के. यू आर नौट ओ. के.’ की अवसादमय स्थिति में जी रही है।



मोहित प्राय मोहित रहता था- मोहग्रस्त, मोहासक्त, मोहाच्छन्न; परंतु मोहित प्राय यह निश्चय नहीं कर पाता था कि वह किसी एक पर मोहित है अथवा अनेक पर, और उसके मोह का कारण स्नेह है, प्रेम है, या वासना है? फिर भी उसका मोहजाल किशोरावस्था आते आते निरंतर घना होता जा रहा था। महाभारत की युद्धभूमि पर अर्जुन परिजनों को देखकर मोहग्रस्त हुए थे तो कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश देकर कर्तव्य मार्ग दिखलाया था, परंतु मोहित को उपदेश देकर उसे मोहरहित करने वाला कोई कृष्ण नहीं था।

मोहित का मोह जन्मजात भी था एवं संस्कारगत भी। उसके जीन्स की संरचना में विद्यमान गुण एवं जन्म के समय विद्यमान प्राकृतिक परिवेश ने उसे मोहग्रस्त रहने की प्रवृत्ति प्रदान कर दी थी जो शैशवावस्था के अनुभवों से परिष्कृत न हो सकी थी। उसका मोह अज्ञानी का मोह नहीं था क्योंकि वह तीव्रबुद्धि था; वरन् उसके हरहराते सागर सम चपल मन में हीनता की ग्रंथि द्वारा जनित ऐसा मोह था जो उसके मन की तरंगों में उफा़न आने पर उन्हें जकड़कर रोक लेता था- ठीक उसी प्रकार जैसे कि जब कोई घोडा़ स्वच्छंद होकर दौड़ना चाहे, तभी सवार उसकी लगाम कस दे। मोहग्रस्त होने के कारण वह अपने को सदैव अन्यों से विशेष समझता रहा- बचपन में उसकी धारणा बन गई्र थी कि कुटुम्ब के सभी भाई बहनों में वह सबसे अधिक दुलारा है- इसका एक प्रत्यक्ष कारण विद्यालय की परीक्षाओं में उसके सर्वोत्तम अंक आने पर प्रशंसा पाना भी था। कुटुम्ब वालों का यह दुलार वह अनुभव तो करता था परंतु उस अनुभव को प्रकट करने की बात न उसे सिखाई गई थी और न उसकी समझ में आती थी। अपने बाल्यकाल में मोहित उसकी हवेली के बाहरी सहन में बैठी उसे हसरतभरी निगाहों से टुकुर टुकुर निहारने वाली बालिका सतिया पर मोहित रहता था- उसका सामीप्य प्राप्त करने, उसके साथ खेलने-कूदने, हंसने बतियाने का मोह उसे सताता था परंतु उस लड़की के ‘अछूत’ होने की सामाजिक वर्जना का उल्लंघन कर ऐसा करने का साहस वह कभी नहीं कर पाता था। फिर वह अपनी मौसी के गांव में रहने वाली रज़िया पर भी मोहित था जो गर्मियों की छुट्टी में मोहित के आने और उसके साथ तलैया किनारे लंगडी़-टांग, लुका-छिपी, गुल्ली-डंडा आदि खेल खेलने हेतु वर्ष भर उत्कंठा से उसकी प्रतीक्षा करती रहती थी- मोहित रज़िया की इस उत्कंठा पर मोहित था और अपना मोह प्रकट करने को कभी कभी उसका मन व्याकुल भी हो जाता था, परंतु तभी फिर उसे अपनी माॅ द्वारा प्रतिपादित वर्जनाओं का भय जकड़ लेता था। अत वह प्रयास कर रज़िया के समक्ष अपने को सदैव ऐसे प्रकट करता रहा जैसे उसका मन चिरशांत महासागर है।

किशोरावस्था के आगमन पर उस मोहजाल मे एक नया आयाम जुड़ गया था। उसकी स्मृतियों मे खंचित बालपन के मधुर सम्बंध, जो खेल खेल मे बने थे, अनायास ही उसके हृदय में गुदगुदी और मन मंे मिठास उत्पन्न करने लगे थे। मोहित अवश होकर इस गुदगुदी और इस मिठास पर भी मोहित था। उसकी कल्पनाओं में उसकी बालपन की सहचरी सतिया और रज़िया के सुंदर मुख एवं सुकोमल अंग आने लगे थे- ऐसे मोह के दौरान उसके मन में प्रश्न उठता था कि क्या यदि अब सतिया अथवा रज़िया उसके सामने पड़ जायें तो उसी उन्मुक्तता से उससे मिल सकेंगी जैसे बचपन मे मिला करतीं थीं। फिर उसे जीवन की यह अजब विडम्बना लगती थी कि अब जब उसे उनके सान्निध्य की अदम्य चाह हो रही है तब वे लज्जावश एवं समाज के भयवश उससे दुराव रखेंगी; और तभी उसका मन कह उठता था कि उसमें स्वयं भी तो उनसे उन्मुक्त होकर मिलने का साहस नहीं है। यदि उनमंे से कोई अकेले में उसे मिल जाये तो क्या वह उसे भरपूर देखने का साहस भी जुटा पायेगा? क्या उससे बात करते समय उसके अंतस् मे यह भय व्याप्त नहीं रहेगा कि कहीं वह नेत्रों के मार्ग से उसके ह्दय में झांककर नवअंकुरित कामवासना को पढ़ न ले? और ऐसा होने पर क्या वह ग्लानि के ऐसे महासागर मे डूब नहीं जायेगा जहां से उबरना असम्भव होगा?, अथवा उनमें किसी के साथ अकेलेपन की स्थिति मंे अन्य किसी व्यक्ति के द्वारा दिख जाने पर उसकी ख्याति पर ऐसा दाग़ नहीं लग जायेगा, जिसका मानसिक क्लेश उसके लिये सर्वथा असह्य होगा? और यदि उन लड़कियों के किसी निकट सम्बंधी को उनके एकांत मिलन का ज्ञान हो जाये, तो क्या वे हिंसा पर उतारू नहीं हो जायेंगे? यद्यपि उसका मन कहता था कि आज भी रज़िया और सतिया उसकी निकटता को वैसी ही आतुर होंगी जैसा वह उनके लिये है, पर उसके हृदय में व्याप्त यह भय कभी नहीं जाता था कि अब उसकी न छिपायी जा सकने वाली कामेच्छा के ज्ञान में आने पर वे निश्चय ही उसे अधम कोटि का व्यक्ति समझने लगेंगी। कभी कभी उसे यह जिज्ञासा भी होती थी कि यदि दोनांे एक साथ उसे मिल जायें और एक ही समय उसकी निकटता चाहें तो वह किसे चुनेगा, परंतु स्वभावानुसार उसका मन किसी एक पर न टिक पाता था।

सेक्स सम्बंधी शिक्षा से वंचित रखे जाने के कारण वह यह नहीं जानता था कि लड़कियों के प्रति उसका आकर्षण स्वाभाविक है और इस प्रकार का आकषर््ाण किशोरियों के मन में भी किशोरों के प्रति स्वभावत उत्पन्न होता है। ब्रह्मचर्य एवं वीर्यरक्षा को महिमामंडित करने वाली पुरानपंथी पुस्तकों को लुकछिप कर पढ़ने से प्राप्त दुज्र्ञान के कारण वह यह समझता था कि लड़कियों के प्रति उसका आकर्षण एकतरफा़ है एवं उसकी निम्नकोटि की प्रवृत्ति का परिणाम है- यदि किसी लड़की को उसके इस आकर्षण का ज्ञान हो गया तो वह इसका विरोध ऐसे करेगी जैसे हमला करने वाले शत्रु का किया जाता हैं। कभी कभी उसे यह विचार भी आता था कि उसमें ऐसा है ही क्या कि कोई लड़की उसकी निकटता चाहेगी, और उसके चेहरे पर एक विदू्रप-हास्य आ जाता था। वह समझता था कि लड़कियां विपरीतलिंग के प्रति आकर्शण की पौरुशेय कमजा़ेरी से उूपर की वस्तु हैं और उनका सामीप्य चाहने का उसका एकतरफा़ प्रयत्न एक अक्षम्य अपराध समझा जायेगा, परंतु वह अपने मन को उनके प्रति मोहित होने से रोक नहीं पाता था। अपनी कमजा़ेरी का यह आभास मोहित के मन को क्षण क्षण सालता था एवं क्लेष के जाल में फंसा रहा था- जैसे कांटे में लगे केंचुए को खाने हेतु झपटने वाली मछली जितनी तीव्र लालसा से केंचुए को खाने का प्रयत्न करती है उतनी ही फंसती जाती है। मोहित के शरीर मे पुरुष-हार्मोन्स तीव्रता से प्रवाहित होने लगे थे, परंतु उस प्रवाह एवं उनके द्वारा शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों केे विषय मे उसे ज्ञान कराने वाला कोई नहीं था; इसके विपरीत उसके विद्यालय के साथियों में उसके कोमल एवं लैंगिक-ज्ञान रहित मन को और भ्र्रम में डालने वाले अथवा उस पर व्यंग्यवाणों सेे प्रहार करने वाले अनेक थे। वह अज्ञानजनित मोहपाश मे फंसा था, जो सुलझने के बजाय उलझता ही जाता था। उसकी हीन भावना उसके इस मोहपाश से उत्पन्न मानसिक क्लेश को कइ्र्र गुना बढा़ती रहती थी। शनै शनै यह मोहजाल मोहित के व्यक्तित्व का ऐसा अंग बन गया कि वह भविष्य में भी किसी न किसी सीमा तक उसमें जकडे़ रहने को विवश हो गया- विश्वविद्यालय में पहुंचने, परास्नातक परीक्षा में टाप करने एवं आइ्र्र. ए. एस. में चयनित होने के पश्चात भी। मन का मकड़जाल उसके व्यक्तित्व के पूर्ण-प्रस्फुटन को सदैव बाधित करता रहा।

रज़िया और सतिया दोनों की जीवन-स्थिति आपस में भिन्न थी और मोहित की जीवन-स्थिति से भी भिन्न थी- रज़िया अंतर्मुखी भयाकुल हरिणी थी तो सतिया बहिर्मुखी बाघिनी; पर दोनों मोहित थीं और दोनों के मोह का केन्द्र मोहित था।

रज़िया छुई-मुइ्र्र थी- अतिकोमल तन एवं अतिसम्वेदनशील मन। विपन्नता से जूझता घर, निर्दयी शराबी पति से परित्यक्ता जैसी कृशकाय माॅ, एवं भाइयों की उद्दंडता व प्रताड़ना सभी मिलकर रज़िया के मन की कली के प्रस्फुटन के प्रत्येक प्रयत्न का दलन करते रहते थे। वह शैशवावस्था से ही अपने जीवन एवं दूसरों के अवलम्ब दोनों से निराश रहने लगी थी। ऐसे में उसके जीवन में मोहित का आगमन गर्मी से सूखते पौधे के लिये वर्षा की फुहार के समान था। रज़िया अपने जीवन का सब कुछ उसी को न्यौछावर कर, अपने समस्त दुख और दुष्चिंतायें उसी को समर्पित कर उस फुहार की शीतलता में तल्लीनता से खोे जाना चाहती थी। किशोरी होने के पूर्व ही रज़िया के मन में मोहित के प्रति प्रेम का उछाह और विछोह की अकुलाहट लबालब भरने लगी थी परंतु उन्हें व्यक्त करने की बात मन में आते ही उसकी जिह्वा काठ की हो जाती थी और उसके नेत्र उसक्रे दग्धहृदय की उूष्मा से बचने हेतु बरसने को उद्यत हो जाते थे। मोहित के मोह में वह अपना उत्सर्ग तो कर सकती थी परंतु उस मोह को व्यक्त कर मूर्तरूप देने का मार्ग न तो उसे सूझता था और न उस अग्निपथ पर चलने की शक्ति उसमें थी। मोहित उसके लिये उस गगनविहारी सूर्य के समान था जिसकी उूष्मा का अनुभव उसकी धूप के माध्यम से करने भर का बूता उसका था, उसकी निकटता प्राप्त कर पाना रज़िया के लिये अकल्पनीय था। वह यह भी समझती थी कि धर्म और समाज के बंधन ऐसी अभेद्य दीवार हैं जिन्हें तोड़ पाना उसके और मोहित दोनों के लिये असम्भव है। असम्भाविता का यह विश्वास रज़िया को किशोरावस्था आते आते पूर्ण नैराश्य के गर्त में ढकेल गया। भविष्य में परिस्थितियां भी कुछ ऐसी उत्पन्न हुईं कि रज़िया नैराश्य से उबर न पाई और उसका जीवन मूर्त अवसाद मात्र रह गया। ऐसे अवसाद की परिणति महाअवसाद में ही होनी थी और वही हुई भी।

सतिया भी मोहित थी- उफ़नाती नदी की उच्छृंखल लहर के समान ठोकरें मारकर कगारों को ध्वंस करने की अकुलाहट से भरी हुई। जब वह पैदा हुइ्र्र थी तब उसकी माॅ मूर्छित थी, और कुछ देर तक उसे माॅ के वक्ष की सुरक्षा नहीं मिल सकी थी। सम्भवत उस समय भी उसके मन में नैराश्य का भाव आने के बजाय माॅ से शिकायत का भाव ही आया होगा कि उसने अपने वक्ष से चिपकाने में इतनी देर क्यों कर दी। वह जितनी विपन्नता में पैदा हुई थी एवं जितना अभाव उसने अपने बचपन में देखा था, उतनी ही सुख-लालसा उसके मन में भर गयी थी; जितना बडा़ अत्याचार उसने अपने कैशौर्य में भोगा था, उतना ही प्रतिशोध का विष उसके अंतर्मन में था। उसके विचार में केवल उसकी चाह सही थी जिसे प्राप्त करने हेतु सब कुछ उचित था- उचित वह था जो उसे पसंद था और जो वह सोचती थी। उसने अपने बचपन में अनुभव किया था कि मोहित उसके लिये सुदूर आकाश में चमकते चांद जैसा अप्राप्य है- अत वह उसके लिये सर्वाधिक अभीष्ट था। उसको प्राप्त करने हेतु सतिया संसार के सभी नियमों एवं सभी वर्जनाओं को तोड़ने को उद्यत थी। स्वयं के सही होने एवं अन्यों के गलत होने की आस्था उसके मन मंे ऐसी घर कर गयी थी कि सामाजिक मान्यताओं, नियमों, कानूनों केा ठोकर मारकर चलने में सतिया के मन में लेशमात्र सकुचाहट उत्पन्न नहीं होती थी। अपने सुख-साधन जुटाने, प्रतिशोध लेने और अपने अभीष्ट मोहित को प्राप्त करने के लिये वह किसी भी पाप-पुण्य के विचार से उूपर थी। पर क्या लालसा के अतिरेक एवं उचित-अनुचित के विवेक केा त्याग कर प्रयास करने पर जीवन का हर अभीष्ट प्राप्त किया जा सकता है?

रज़िया और सतिया दोनों एक दूसरे से अनभिज्ञ थीं एवं बाल्यावस्था में भिन्न भिन्न स्थानों पर मोहित से मिले सान्निध्य के उपरांत दोनों को मोहित से अलग रहकर जीवन जीना पडा़ था, फिर भी दोनो जीवनपर्यन्त अपने को मोहित के मोहपाश से अलग न कर पाईं।

तीनों में किसी को मुकम्मल जहां न मिला; किसी को ज़मीे न मिली, तो किसी को आसमां न मिला।

***