Laut aao Deepshikha - 3 in Hindi Fiction Stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | लौट आओ दीपशिखा - 3

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लौट आओ दीपशिखा - 3

लौट आओ दीपशिखा

उपन्यास

संतोष श्रीवास्तव

अध्याय तीन

सुलोचना के चेहरे पर मुस्कुराहट देख वे परेशान हो उठे- “तुम मेरी बात कोतवज़्ज़ोनहीं दे रही हो|”

“मैं सोच रही हूँ कि आख़िर है तो वो हमारी ही बेटी| जब हमने अपनी शादी का फैसला खुदकिया तो वह क्यों नहीं कर सकती?”

सुलोचना के याद दिलाने पे उन्हें अपनी शादी याद आ गई| कैसे चार दोस्तोंकी उपस्थिति में उनका सुलोचना सेनिक़ाह हो गया था| निक़ाह के समय उनका नाम बदलकरनिक़हत रखा गया था और सभी दंग रह गये थे जब सुलोचनाने निक़ाहनामेपर उर्दू लिपि में हस्ताक्षर किये थे| फिर सुलोचना की मर्ज़ी के अनुसार यूसुफ़ ख़ाननेहिन्दू रीति से भी शादी की थी|उनका नाम भी बदलकर ‘अजय’ रखा गया था| तभी दोनों ने तय कर लिया था कि दोनों अपने-अपने ढंग सेअपनी ज़िन्दग़ी जियेंगे|वहाँ उनका कोई दख़ल नहीं होगा| सुलोचना माँग में सिंदूर भी लगाती हैं, माथे पर बिंदी, मंगलसूत्र..... करवाचौथ का व्रत भी रखती हैं|इस सबको लेकरकभी उन दोनों में मतभेद नहीं हुआ|लेकिन युसूफ़ ख़ान के परिवार वालों को यह बात बड़ी नागवार लगती थी और वे धीरे धीरे यूसुफ़ ख़ानको उनके हर हक़ से बेदख़ल करते गये| यूसुफ़ख़ानने इस बात की परवाह नहीं की|सुलोचना उनके प्रति बेहद समर्पित और ईमानदार है|वेसुलोचना की मौजूदगी से भरी साँसों को बड़े एहतियात से लेते हैं..... लेकिनबेटी के मामले में विचलित हो उठे हैं|

“लगाओदीपूको फोन..... शादी के मामले में उसकी मर्ज़ी पता करो|”

“यूसुफ़महाशय..... शादी के मामले कहीं फोन पर पूछे जाते हैं| वह दशहरे में आयेगी ही|बीस ही दिन तो बचे हैं| तभीबातेंकरना सही होगा|” कहते हुए सुलोचना ने चाय की आख़िरी घूँट भरी और फूलों की क्यारियों की ओर चल पड़ीं..... माली को कुछ ज़रूरी निर्देश देने थे|

दीपशिखाऔर शेफ़ाली आज जल्दी पहुँच गई थीं स्टूडियो| दीपशिखा आदिवासियों की पेंटिंग्स के साथ साथ इब्न-ब-तूता पे भी काम करना चाहती थी|जब वह पीपलवालीकोठी में थी, मुम्बई नहीं आई थी तब उसने इब्न-ब-तूता पर एक रेखाचित्र बनाया था| इस सैलानी व्यक्तित्व के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान औरपास में खड़ा उसका गधा और बच्चों की उसकी कहानियाँ सुन-सुन कर विस्फ़ारित आँखों को उसने रेखाचित्र में उकेरा था|अब वह इस चित्र में इब्न-ब-तूता की लम्बी दाढ़ी और उस दाढ़ी में चिड़ियों के घोंसले भी बनाएगी| यही घोंसले तो बच्चों को उसकी ओर आकर्षित करेंगे|

“बहुत मुश्किल है शेफ़ाली उस रहस्यमयी मुस्कान को इब्न-ब-तूता के चेहरे पर चित्रित करना जो सदियों तक शहर-दर-शहर गाँव-दर-गाँव भटकने और सैंकड़ों सालों तक बच्चों को कहानियाँ सुनाने के बाद चेहरे पर उभरती है लेकिन नामुमकिन नहीं|”

“तुमऐसा कर लोगी दीपशिखा..... मुझे पता है|”

“तुम लोगों का भरोसा नर्व्हस भी करता है और उत्साहित भी|”

इतने में मुकेश आ गया..... उसके चेहरे पर ताज़ी खिली मुस्कान थी|

“लो तुम्हारा इब्न-ब-तूता आ गया|” दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं|

“क्या बात है, मैं चाँदनी में नहा रहा हूँ|” मुकेश ने रोमांटिक होते हुए कहा|

“देख दीपू..... मुकेश कवि होने की ज़द में प्रवेश कर रहा है|” दीपशिखा ने बेहद प्यार भरी नज़रों से मुकेश की ओर देखा और अपने काम में लग गई| हालाँकिउसके सभी दोस्तों कोउनके प्रेम के बाबत पता है लेकिन दोनों सबके सामने प्रगट नहीं करते| एक स्वस्थ दोस्ती का रिश्ता क़ायम है सबकेबीच|हँसना, खिलखिलाना, एक दूसरे को छेड़ना, खानापीना और काम में जुटे रहना..... दिनमानोपंख लगाये उड़े चले जा रहे थे| लेकिन एक रूटीन दीपशिखा और मुकेश के बीच बिना चूकेचलता रहा|स्टूडियोकेबाद कभी प्रियदर्शिनी पार्क, कभी गिरगाँव चौपाटी, कभी मरीन ड्राइव के समुद्री तट पर तीन चार घंटे गुज़ारना और दीपशिखा को घर के गेट तक पहुँचाना| जुहू तट पर वे कभी नहीं जाते थे क्योंकि वह दीपशिखा के घर के एकदम नज़दीक था| दीपशिखा अब मुकेश की ज़रुरत थी और मुकेश दीपशिखा की| इसज़रुरत ने दोनों को ऐसे तारों सेजोड़दिया है जिसे तोड़ना आसान नहीं| एक दूसरे के अंदर से गुज़रते हुए जैसे दोनों बारीकतार हो गये हैं और उनका वजूदबारीक तारों से बुना जाल बन गया है| इस गहराते प्रेम जाल मेंदोनों कोमलता से समा गये थे| जाल से आज़ाद होना अब उनके वश में न था| दीपशिखा हवा में डोलती पंखुड़ी सी मुकेश के दिल में समा गई थी और मुकेश के जिस्म काकोना-कोना महक उठा था| हवा ने उन्हें शरारत से देखा और पंखुड़ियाँ छितरा कर हँस दी| कोयल एन कानों के पास झुककर कुहुक उठी..... जाने कहाँ से आवाज़ आई..... दीप..... दीप..... दीप..... मुकेश..... मुकेश..... मुकेशकिदोनों के दिल की पहाड़ियों ने दूधिया झरने छलका दिये|

दशहरेपे दीपशिखा दाई माँ के संग पीपलवाली कोठी आई| महेश काका फ़्लैटकी देखभाल के लिए मुम्बई में ही रुक गये| दाई माँ की बड़ी बेटी की जचकी होने वाली थी सो आते ही वे उसके पास गाँव चली गईं| सुलोचना को दीपशिखा कुछ बदली-बदली सी नज़र आई|खूबसूरत तो वह बला की थी तिस पर मुकेश के प्रेम ने उसके चेहरे को गुलाब सा खिला दिया था| वह बेहद खुश रहने लगी थी|संगीत, चित्रकलासे उसे हद्द दर्ज़े का लगाव था..... सुलोचना ने एक और रूप देखा उसका..... सुबह उठकर योगासन,प्राणायाम के बाद वह अपने मोबाइल में फीड गाने लगाती और नाचती..... नाच भी ग़ज़ब के!बिल्कुलफिल्मी स्टाइल वाले|वे चकित थीं कि उनकी धीर, गंभीर बेटी में आकांक्षाओं के साथ-साथ यह चंचलता, यह जीवंतता कैसे, कहाँ से आ गई? फिर उन्हें याद आया कि नृत्य, संगीतऔर शेरो शायरी के शौक़ीन तो यूसुफ़ ख़ानभी हैं| दीपशिखा जब दस वर्ष की थी तो उनकी कोठी में बनारस घराने केकत्थकनर्तक गोपीनाथ आये थे| उनकेनृत्य का आयोजन इसलिए भी और किया गया क्योंकि उस दिन सुलोचना और यूसुफ़ख़ान की शादी की सालगिरह थी| कई लोगों को आमंत्रित किया गया था| नृत्य तो रात भर चलता रहा लेकिन हैरत की बात यह थी कि दीपशिखाभी मध्यरात्रि तक जागकर नृत्य देखती रही थी| नृत्य के गीत के बोल थे- “बलमवा मोहे..... लालचुनरिया मँगा दे|”

गोपीनाथ जी ने लाल रंग की अनेकों मुद्राएँ प्रस्तुत कीं..... खिले हुए पुष्प, सिंदूर से भरी माँग, बिन्दी, उगता सूरज, पान का बीड़ा लेकिन बलमवा तब भी नहीं समझे कि चुनरिया का रंग उनकी सजनी को कैसा चाहिए| अंत में यशोदा मैया की गोद में उनके लाल कन्हैया को बताकर नृत्य की समाप्ति हुई| सुबह दीपशिखा ने सुलोचना से पूछा- “माँ, लाल रंग की ही चुनरी लानी है ये कैसे समझाया उन्होंने?” सुलोचना की आँखें रात्रि जागरण से बोझिल हो रही थीं| चाहती थीं थोड़ी देर सो ले पर बेटी की जिज्ञासा को वेटाल नहीं सकती थीं- "दीपू..... कोई भी कला हो..... एक तपस्या होती है| तुम्हें चित्रकारी का शौक है तो तुम चित्रकारी से अपने मन के भाव प्रगट करती हो वही काम नर्तक अपनी भावमुद्राओं सेकरता है|गहरे डूबना ही कला का उद्गम है|”

शायद दीपशिखा में चित्रकारी के साथ नृत्य का बीज भी उसी दिन पड़ा हो| उनके प्रश्न का समाधान हो गया था|उन्होंने दीपशिखा को एकांत में बुलाया- “बैठो दीपू|”दीपशिखा समझ गई..... माँ किसी मसले पर चर्चा करना चाहती हैं और निश्चय ही यह मसला उससे जुड़ा ही होगा| उसने अपने मनको तैयार किया|

“पहले ममा..... मेरीनई लिखी कविता सुनो.....

मैं मोहब्बत के सफ़े पर

इक तारीख़ सी सजी हूँ

और तू मेरे दिल के गोशे पर

हिना बनकर रचा है|

“क्या बात है दीपू..... प्रकृति के असली तत्त्व कोसमझ लिया है कि इस ज़िन्दग़ी में केवल प्रेमही सच है बाकीसब व्यर्थ..... लेकिन बेटी, जब हम प्रेम में डूबते हैं तो कोई साथी चाहिए होता हैवरनाप्रेम तनहा ज़िन्दग़ी में घुटकर रह जाता है|”

दीपशिखाटकटकी बाँधे सुलोचना को देखे जा रही थी| उसे लग रहा था जैसे मुकेश के साथ चलने का रास्ता अब सुगम होता जा रहा है|

“तो तलाशूँ कोई जीवनसाथी तुम्हारे लिए?”

“इस बार वहचौंकी- “क्यामाँ?”

सुलोचना ने अपनी बात दोहराई| इस बीच दीपशिखा को जवाब ढूँढने का मौका मिल गया- “नहीं माँ, मैं शादी के बंधनमें नहीं बँधना चाहती हूँ|”

“क्यों? कोई ख़ास वजह?”

दीपशिखा ख़ामोश रही..... वह कह भी सकती थी कि उसे मुकेश से प्यार है और वह उसी के साथ जीवन गुज़ारना चाहती है और अगर यह हो जाता है तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता|लेकिन वह अपेक्षाओं के घेरे में नहीं आना चाहती| शादी और कुछ नहीं बस एक दूसरे सेअपेक्षाओं का लम्बा सफ़र है|

“जवाब दो दीपू, तुम कौन से दिली मंथन से गुज़र रही हो?” दीपशिखा सावधानी से बात को ख़त्म करना चाहती थी कि माँ को शक भी न हो, दुख भी न हो और बेटी पर से उनका विश्वास डगमगाये भी नहीं|

माँ, मैं विश्वविख्यात चित्रकार, कवयित्री होने का सपना पाले हूँ| शादी इस सपने की क़तई इजाज़त नहीं देती| और माँ शादी तो एक आम बात है,हर व्यक्ति शादी करता है, परिवार बनाता है और एक दिन दुनिया से चल देता है| माँ, क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारी बेटी साधारण जीवन जिये?”

सुलोचना उसके सुलझाव भरे वाक्यों में डूब गईं| उन्हें लगा जो वे नहीं कर पाईं वह दीपू कर रही है| जो वे नहीं सोच पाईं..... वह दीपू सोच रही है| असाधारण होकर वे भी जीना चाहती थीं पर समाज और परिवार के विद्रोही तेवरों को नकारते हुए सिर्फ प्रेम विवाह कर पाईं वे और फिर यूसुफ़के कदमों तले जन्नत की कामना में समर्पित होती गईं और रह गईं बस एक साधारणऔरत बनकर जोमोमसा पिघलती है पर अपने पिघलने का सबब नहीं जानती बस इतना जानती है कि उसका पिघलना दूसरों को उजाला दे रहा है जबकिवहअपने अंदर की उस आँच से पिघलती है जो औरत का रूप बख़्शतेवक़्त विधाता ने उसके सीने में उतार दी थी| सुलोचना ने दीपशिखा कोगले से लगा लिया, सीने में ऐसे दुबका लिया जैसे अपने पंखों के नीचे गौरैया अपने चूज़ों को दुबकाती है|

“मुझे तुम पर भरोसा है दीपू..... तुम जो करोगी ठीक ही करोगी|”

“शुक्रिया माँ..... माँ, मैं आम ज़िन्दग़ी के लायक नहीं| मुझे ऐसे ही अच्छा लगता है| धरती पर रहकर आसमान को देखना| उन आकाशगंगाओं को जिनमें करोड़ों सूरज और चाँद हैं|हमसुई की नोक बराबरभी तो नहीं हैं माँ|”

सुलोचनाने उसकी पीठ थपथपाई और अंदर रसोई घर में चली गईं| यूसुफ़ ख़ान का प्रश्न अनुत्तरित हीरहा| हालाँकि रात की तन्हाई में, अँधेरे में हाथ बढ़ाकर यूसुफ़ ख़ान ने सुलोचना की हथेली छुई थी|

“क्या कहा दीपू ने?”

सुलोचना ने सारी बातें बताते हुए कहा- “हमें वक़्त का इंतज़ार करना होगा|”

“कब तक?”

“बता नहीं सकती| परइसकेअलावा दूसरा विकल्प भी तो नहीं है हमारे पास|”

यूसुफ़ ख़ान ने लम्बी साँस हरी और अँधेरे में धीरे-धीरे उभरते छत के दूधियाझाड़फानूस पर नज़रें टिका दीं|

मुम्बई वापिसी की दीपशिखा की फ़्लाइट सुबह ३.३० की थी| रातको दाई माँ अपनी बेटी की जचकी कराके लौटी थीं और बहुत खुश थीं| लड़का जो पैदा हुआ था| रात को ही सुलोचना ने बूँदी के लड्डू मँगवाये थे| दाई माँ के लिए साड़ी और चूड़ियाँ..... ढेरसारे मेवे मिठाई, कपड़े, ज़ेवरजच्चा-बच्चादोनों के लिए दौलतसिंह के हाथ वे कल भिजवाएँगी ऐसा उन्होंने दाई माँ को बताया|दाई माँ की खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी| वे ढोलक लेकर बैठ गईं और लगीं सोहरें गाने|पीपलवाली कोठी गीतों से गुलज़ार थी| कल सब कुछ शांत हो जायेगा सोचकर सुलोचना उदास हो गईं|सबसे छुपाकर उन्होंने अपनी छलक आई आँखें रुमाल में दबा लीं|इस बार दीपशिखा की बिदाई बोझिलहो रही थी| यूसुफ़ ख़ान के लिए सुलोचना के लिए और खुद दीपशिखा के लिए भी..... जिन माँ पापा ने उसे चौदह बरस बाद पाया था उनकी अपेक्षाओं में खरी कहाँ उतर पा रही थी दीपशिखा?तो क्या वह स्वार्थी है, सिर्फअपने ही बारे में सोचती है? सहसा वह सुलोचना से लिपटकर सुबकपड़ी- “माँ..... मुझे लेकर दुखी मत रहना..... मैंने अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया है| माँ, मैं खुद की रही कहाँ?” “ईश्वर तुम्हें सही राह दिखाये दीपू|” कहकर सुलोचना ने अपनी बिटिया को कलेजे से ऐसे भींचा मानो ईश्वर के दियेइस तोहफ़े को नज़र न लगे किसी की|

मुम्बई लौटकर ज़िन्दग़ी को ढरल्ले पर आ जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं| कुछ दिन अवसाद में बीते सखी सहेलियों के साथ के बावजूद..... सुलोचना का चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता| बार-बार वह अप्रश बोध से ग्रसित हो जाती, कई सवाल दिमाग़ में मँडराते, क्योंवह उन्हें खुश नहीं रख पा रही हैं क्याकर डाले ऐसा कि माँ के ख़ामोश होठ मुस्कुराने लगें?

“स्टूडियो क्यों नहीं आ रही हो? सब काम रुका पड़ा है|” फोन शादाब का था जबकि शेफ़ाली और मुकेश को वह तबीयत ख़राब होने के बहाने से टाल चुकी थी| शेफ़ाली तो क्या टलती..... आ धमकी घर- “यह क्या चेहरा बनालिया है, हुआक्या है तुझे?”

उसने सब कुछ बयान कर दिया..... शेफ़ाली हँस पड़ी- “इतनी सी बात? एक बार मुकेश से मिल ले, सब ठीक हो जायेगा, बेचारा मजनू बना तेरे घर और स्टूडियो की सड़कें नापरहा है|”

तैयार होकर दोनों स्टूडियो पहुँची..... फिर ढेरों सवाल..... कहाँथी? क्या हो गया था? प्रदर्शनीके दिन नज़दीक आ रहे हैं और आप जनाब.....

मुकेश दूर खड़ाबेहद उदास नज़र आ रहा था|

“अब आ गई हूँ न! काम पे लग जाती हूँ| तुम सब भी तो कलाकार हो, जानते नहीं कलाकारअपने मूडसे ही काम कर पाते हैं|”

“ओऽऽऽ” दोस्तों के समवेत स्वर ने दीपशिखा के चेहरे पर मुस्कान ला दी| मुकेश को मानो ज़िन्दग़ी मिल गई| वह दीपशिखा के नज़दीक स्टूल पर बैठ गया| कैनवास पर इब्न-ब-तूता था|

“यार..... येइब्न-ब-तूता तुम्हारी थीम में फिट नहीं बैठ रहा..... इसे बनाकर अलग रख दो और थीम को कॉन्सन्ट्रेट करो|” मुकेश के कहने पर शेफ़ाली ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई.....

“ओ.के. बाबा..... लो इब्न-ब-तूता ये गया कोने में, बस|” दीपशिखा ने अधूरी पेंटिंग सचमुच कैनवास से उतार कर कोने में टिका दी|उसकी इस हरकत पर सब खुशी से चीख़ सा पड़े- “ये हुई न बात|”

“ओ.के. नो बहस..... अबहम काम पर लगें?” और दीपशिखा ने ब्रश उठाया|

बाकी लोग अपने-अपने स्टूडियो में चले गये| मुकेशतल्लीनता से दीपशिखा को देखे जा रहा था| शेफ़ालीको लगा इस वक्त उसका यहाँ मौजूदरहना ठीक नहीं- “चलो, मैंचलती हूँ| दीदी को आज शॉपिंगकरनी है| रूठ गईं तो मनाना मुश्किल हो जायेगा|”

दीपशिखासमझ गई..... उसकी सखी में गज़ब की समझ है| वह उसके चेहरे के भाव पढ़ लेती है और कभी उसे निराशनहीं करती| उसके जाते ही दीपशिखा मुकेश से अपनी थीम पर चर्चा करने लगी|

“मैं चाहती हूँ मुकेश कि चित्र ऐसे बनाऊँ जो केवल आँखों से ही दिखाई न दें बल्किभावों के द्वारा महसूस भी किये जा सकें|”

“मसलन?”

“मसलन कि मैं उन रंगों को बिखेरूँ जो अभिव्यक्ति से गूँथे हों..... काला रंग महज़ काला न दिखे..... एक भरी पूरी चंद्रविहीन रात दिखे..... रात का सन्नाटा दिखे..... दृश्य की बेचैनी दिखे..... सुनहले रुपहले रंग..... महज़ सुहावनापन न दें बल्कि एहसासकरायें दिन की समाप्ति का, सूरजकेडूबने का, पंछियों के घोंसलों में लौटने का..... मुकेश में रंगों के साथ-साथ भावों को भी उतारना चाहती हूँ|”

“तुम कर पाओगी ऐसा..... क्योंकि तुम एक कवयित्री हो..... तुमबिंदु से रंगों को निकालकर अभिव्यक्तिदोगी..... दीप, करो ऐसा, तुममें वो जज़्बाहै|”

जाने क्या हुआ..... कौन सा बोध..... कौन से अनागत का संकेत कि दीपशिखा सिहर उठी| उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा| ब्रश हाथ से छूट गया और वह मुकेश की बाँहों में समा गई| वह कहना चाहती थी किहाँ, मैं कर पाऊँगी ऐसा..... वह कहना चाहती थी कि कर पाने में उसे उसका साथ देना होगा..... पर इस साथ की चाहत में दीपशिखा के आगे एकशून्य खुलता गया और उसने घबराकर आँखें मींच लीं|

अंकुरग्रुप ऑफ़ आर्ट की प्रदर्शनी मुम्बई में चर्चा का विषय बन गई| प्रतिदिन अखबारों में छपने लगा..... संभ्रांत घरों के और कला के पारखियों की शामेंप्रदर्शनी मन रखे चित्रों की चर्चा में गुज़रती रहीं| कुछ चित्रों को छोड़कर लगभग सभी चित्र बिक गये|दीपशिखा का बीएस एक चित्र नहीं बिका जो उसने आर्ट गैलरी को उपहार में दे दिया|सभी बेहद खुश थे| शुक्रवार की रात प्रदर्शनी ख़त्महुई और शनिवार इतवार मनाने को कोई माथेरान गयातो कोई खंडाला..... मुकेश और दीपशिखा महाबलेश्वर चले गये| दाई माँ को समझाकर कि “चिंता मत करना, सोम की सुबह मैं लौट आऊँगी|”

“पीपलवाली कोठी से फोन आया तो?” दाई माँ को जवाब चाहिए था|

“हाँ, तो कह देना, अब इतने दिन लगकर काम किया है तो दो दिन दोस्तों के साथ वीक एंड मनाएँगे और क्या?”

दाई माँ के पल्ले बात पड़ी नहीं..... अमीरों की अपनी जीवन पद्धति..... इतने साल पीपलवाली कोठी में गुज़ारकर न वे समझ पाई हैं और न समझना चाहतीं| वैसे भी वे इन दिनों नाती के ख़यालों में मगन रहतीहैं| महेशचंद्र से कहकर ऊन मँगवाया हैऔरछोटे-छोटे मोज़े, टोपे, स्वेटर बुनने में लगी रहती हैं| अब उधर ठंड भी तो कितनी पड़ती है|

महाबलेश्वरकेवो दो दिन..... वक़्त मानो ठहर सा गया था दीपशिखा और मुकेश के दरम्यान- “यू नो दीप ज़िन्दग़ीकितनी पेचीदा है?”

दीपशिखा के हाथों में मुकेश का एक हाथ था और दूसरे हाथ से वह उसकेबालों से खेल रहा था|नाव झील की सतह पर आहिस्ता-आहिस्ताडोल रही थी| मल्लाह की मौजूदगी कोई महत्व नहीं रखती| उसे पता है इसरोमेंटिक जगह मेंप्रेमी या नये शादीशुदा जोड़े ही अधिक आते हैं| पतवार की छप..... छप में मल्लाह के गीत की लय अजब समाँ बाँध रही थी|दीपशिखा ने उसके होठों पर हथेली रख दी- “नहीं, कुछ मत कहो..... वक़्त को यूँ ही बहने दो|”

मुकेश देर तक दीपशिखा की सपनीली आँखों में देखता रहा..... देखता रहा कि सपनों का हुजूम वहाँ करवटें बदल रहा है कि उन आँखों में ऐसा कुछ है जो और कहीं नहीं दिखता जबकि वह कहना चाहता था कि ज़िन्दग़ी उन्हें खूबसूरत लगती है जो उसे तर्क की नज़र से देखते हैं और उन्हें भयानक जो उसकी आलोचना करते हैं|

“दीप..... ज़िन्दग़ी के मायने बताओगी?”

“मुझे नहीं पता मुकेश..... मेरे लिए ज़िन्दग़ी ईश्वर का दिया वो कालखण्ड है जिसमें मुझे आसमान छूना है और पाताल की गहराईयाँ तलाशनी हैं|”

नाव किनारे लग चुकी थी| मुकेश ने मल्लाह को रुपिए दिये तो उसने झुककर सलाम ठोंका|पास ही स्ट्रॉबेरी का स्टॉल था| लाल-लाल स्ट्रॉबेरी मानो आमंत्रण दे रही थी| मुकेश स्ट्रॉबेरी ख़रीद लाया जिसे खाते हुए दोनों होटल की ओर लौटने लगे|

होटल का एक ही कमरा, एक ही बिस्तर..... एक दूसरे पर कुर्बान दीपशिखा और मुकेश..... खिड़की पर लगे सुनहले और कत्थई परदों की धीमे धीमे हिलती झालर साक्षी थी दोनों के मिलाप की, हवाओं की चंचल तरंग साक्षी थी दोनों के समर्पण की जो बार-बार उन परदों को छेड़ रही थी|दो रातें..... हसीन, नशीलीऔर बहकती दो रातें संग-संग गुज़ार कर जब दोनों मुम्बई लौटे तो दीपशिखाकानिखरा-निखरा खूबसूरत चेहरा देख दाई माँ आश्वस्त हुईं- जब गई थी बिटिया रानी तो थकी-थकी लगती थी, अब थकान का कहीं नामोनिशान न था| वह दीपशिखा की लाई पत्तेदार गाजरें, स्ट्रॉबेरी जैम और स्ट्रॉबेरी से भरा पैकेट थाम किचन की ओर मुड़ी- “चाय बनाएँ बिटिया?”

“नहींकॉफ़ी..... कुछ खाने को भी दो, बड़ी भूख लगी है|”

ज़िन्दग़ी ने रफ़्तार पकड़ ली| छै: महीने गुज़रते देर न लगी| मुकेश भारीउधेड़बुन मेंथा| पापा का हुक्म थाफौरन घर आ जाओ, ममा ने उड़ती उड़ती ख़बर दी थी उसे कि कोई लड़की पसंद की है उन्होंने..... वह पसंद कर ले, हामी भर दे तो शादी की तारीख़ पक्की कर ली जाए|मुकेश का काम में मन नहीं लग रहा था..... क्या करे? दीपशिखा के संग सम्बन्ध बन चुके हैं..... एक तरफ़ यथार्थ है दूसरी तरफ़ यूटोपिया| एक ओर सच्चाई है तो दूसरी ओर स्वप्न..... वह किस सिरे को पकड़े..... दोनों में से एक सिरा तो छूटेगा ही जबकि उसके लिए दोनों सिरे महत्त्वपूर्ण हैं| पापा-ममा को ही समझाना पड़ेगा|सुबह उसने दीपशिखा को फोन किया- "कुछ दिनों के लिए घर जा रहा हूँ| इस बीच तुम अधिक से अधिक पेंटिंग बना लो ताकि लौटकर भोपाल में प्रदर्शनी प्लान कर सकें|”

“अरे..... अचानक| और ज़्यादा पेंटिंग मतलब तुम देर से लौटोगे?” दीपशिखा उदास हो गई|

“नहीं दीप..... जल्दी लौटूँगा..... तुम्हारे बिना क्या रह पाऊँगा मैं..... अब तुम्हारी आदत हो गई है मुझे|”

“सिर्फ़ आदत..... प्रेम नहीं?”

“तुम भी न..... प्रेम से ही तो ज़रुरत उपजती है|आदतउपजती है|”

“बातें बनाना खूब आता है तुम्हें? जाओ, जल्दी लौटना| मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी|”

स्टूडियो सूना-सूना लग रहा था|हालाँकि सभी संगी साथी थे| बातें भी अमूमन वैसी ही पर मुकेश की कमी के शून्य ने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया था| दिल में प्यार और बदन में उसके बदन का, छुअन का एहसास..... एक नये दौर से गुज़र रही थी दीपशिखा| उसकी नज़रों में कैद थे महाबलेश्वर के हरे भरे जंगल, बलखाते ऊँचे-नीचे रास्ते, रास्तों पर पसरा सन्नाटा..... सन्नाटे में उसकी और मुकेश की पहचल..... शांत मंथर झील..... झील पर तैरती नावें और मल्लाह के गीत..... वह कैनवास में खुद को पिरोने लगी| पहले लहरें उभरीं जो गति की प्रतीक हैं| जीवन गति ही तो है..... जैसे लहरें अपने साथ बहुत कुछ लाती भी हैं और ले भी जाती हैं| लहरों को उसने कितने कोणों से उकेरा और हर चित्र में लहरों का सौंदर्य नए-नए रूपों में नज़र आने लगा| ओह, कितना रोमांचक है..... एक लहर शरीर में भी समा गई है, मुकेश की छुअन की लहर जो माथे से पैर के अँगूठों तक दौड़ गई थी जब मुकेश के होठ उस पर फिसले थे|