बिछोह
दूर-दूर तक हरियाली फैली थी। मंद-मंद हवा चल रही थी। इस हल्की हवा में पीपल के पत्ते एकदम मचल-मचल के हरहरा रहे थे जबकि सामने खड़ा आम कितना शांत गंभीर था, बस एक बार अपनी किसी डाल को आगे कर देता था और फिर वो डाल ऊँघती सी वापस अपनी जगह चली आती थी जबकि उस डाल पर लगे पत्ते हिलते तक न थे, बस अपनी-अपनी जगह सोए रहते थे।
खेतों के किनारे लगे ये पेड़-जंगल-झाड़ मवेशियों के चरने के कितने काम आते थे। राम दयाल की गायें भी चर रही थीं, कभी ज़मीन से जड़ सहित घास उखाड़कर चबातीं तो कभी किसी झाड़ी की पत्तियाँ चुन-चुनकर खातीं। उनके गले में लगी घंटियों की रुनझुन राम दयाल को कृष्ण कन्हैय्या की बंशी जैसी मोहिनी प्रतीत हो रही थी।
थोड़ी दूरी पर औरों की भी गाएं चर रही थीं, सबके चरने की जगहें तय थीं। मगर खेत की मेढ़ पर बैठा राम दयाल तो अपनी गायों को देख कर सुकून की आह भर रहा था। कैसी सुंदर-सफ़ेद, चिकनी-चौड़ी और हट्टी कट्टी, एकदम बैल जैसी। देह ऐसी चिकनी की मक्खी भी फिसल जाए। ऐसी सफ़ेद कि दूध के फेन जैसी। यों ही नहीं लोग उससे जलते हैं और उसकी गायों को देख लार टपकाते हैं। उसके रिश्तेदारों ने क्या-क्या साम-दाम-दंड-भेद नहीं रचे उसकी गायों को हथियाने।
गर्व से उसका सीना चौड़ा हो रहा था और मन ही मन वह अपनी पीठ थपथपा रहा था कि तभी कुछ हुआ। उसे अपनी पीठ पर किसी का फुँफकारना महसूस हुआ और उसके पीठ पर लटके गमछे में बँधे भुने चने को बड़े-बड़े दाँतों के नीचे चबाए जाने की कड़कड़ाहट हुई। खेत की मेड़ पर बैठा राम दयाल तुरंत चौंक कर पलटा और खड़ा हो गया।
अरे यह लाल रंग की गाय कब आकर उसके पीछे से उसका चबेना चबाने लगी, उसे पता ही नहीं चला। उसने उसे हाँककर भगाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि राम दयाल फिर चौंक उठा। यह तो अपनी लाली है। और कोई हो ही नहीं सकती। वही माथे के बीचों-बीच तिलक जैसी सफेदी। खुरों के ठीक ऊपर सफेद बाल। वही लहरदार पूँछ। वही पनियाली आँखें और आँखों में....आँखों में....अरे आँखों में चमक की जगह गहरी उदासी क्यूँ?
“अरे लाली! तू कहाँ चली गई थी रे? तूझे कहाँ- कहाँ नहीं ढूँढा? कितना ढूँढा तुझे? आस-पास के सात गाँव छान डाले। मगर तू तो भगवान की तरह अंतर्धान हो गई।”
लाली ने गर्दन झुकाई और राम दयाल की धोती थोड़ी सी चाटकर, थोड़ी सी चबाकर छोड़ दी। राम दयाल ने उसे गौर से देखा। उसका एक चक्कर सा लगाता हुआ वापस उसके सामने आ गया।
“ये क्या हाल बना रखा है? कितनी दुबली हो गई हो? क्या खाती रही इतने महीनों? देह पर कितना गोबर लगा है?” उसके कानों के ऊपर और अंदर की ओर लगे कीड़ों को चुन-चुनकर उसने हटाया और उसके दोनों गालों पर हाथ रखकर उसका मुँह उठाया।
“उफ़!! लाली!!”
फिर अपना सिर उसके माथे पर रखा और धीरे से आँखें मूँद लीं। लाली हवा में पूँछ डुलाती रही।
आँखें मूँदते ही अठ्ठारह महीने पहले की सारी यादें फिर ताज़ा हो आईं, जब लाली किसी परिवार की तरह घर का एक हिस्सा हुआ करती थी।
******
उस दिन भी पौ फटने से पहले ही उठकर राम दयाल ने गायों के बाड़े में से गोबर काछ के हटाया था। गायों की पेशाब की गई जगह को राख से लीपकर, पूरा बाड़ा चिकना कर दिया था। कहीं कोई गंध नहीं, कहीं कोई गंदगी नहीं। लगता ही नहीं यह गायों की चरन है बल्कि किसी के घर की बैठक हो सकती है। उन्होंने दूध दुहने की तैयारी कर ली थी और आज बड़े उत्साह के साथ दूध दुहा जाने वाला था क्योंकि उन्होंने जो गायों की पूँछ के बाल इकठ्ठे कर रस्सी बनाने के लिए दिए थे, आज उसकी रस्सी बनकर आ गई है। अब गायों को नारियल की रस्सी के कड़क और चुभनेवाले रेशों की तकलीफ़ नहीं झेलनी पड़ेगी।
सबसे पहली बारी तो लाली की माँ की ही आती है, सुबह से लाली ने जो ऊधम मचा रखा है तो भला क्या किया जाए। रामदयाल ने चिल्लाकर चुन्नु को आवाज़ दी - ‘दूध दूहने वाली बाल्टी तो लाना’।
आवाज़ शायद अड़ोस-पड़ोस के आँगनों में भी पहुँच रही थी क्योंकि आवाज़ सुनते ही लक्ष्मीनारायण ने अपने हाथ की सुतली का बंडल छोड़ दिया। वह खटिया बीन रहा था। सुतली के ताने-बानों में से जो बंडल नीचे से डालकर कस रहा था और फिर ऊपर से निकालकर कस रहा था और ऊपर से फिर घुमाकर नीचे डालकर कस रहा था वह उसके हाथ से छूट गया और छूटते ही वहाँ का बना-बनाया ताना-बाना ढीला हो गया।
लक्ष्मीनारायण बहुत दिनों से यह खटिया बीनने की सोच रहा था। मगर अब अधिक देर नहीं कर सकता था। मझली लड़की का ब्याह जो पास आ रहा था और जल्द ही आँगन रिश्तेदारों से भरने वाला था। तब उसे एक नहीं कई खटियों की ज़रूरत पड़ेगी।
पर रामदयाल की बाल्टी के लिए पुकार सुनकर उसे इस खटिया से भी ज़्यादा ज़रूरी काम याद आ गया। खटिया ढीली हुई सो हुई, फिर से कस ली जाएगी मगर रामदयाल से लाली के लिए बातचीत करने का यही मौक़ा है। अलसुबह अपनी गाय दूहते हुए वह जितना मगन होता है उतना तो कोई माँ अपने बच्चे को दूध पिलाते समय भी नहीं होती।
लक्ष्मीनारायण खटिया छोड़ रामदयाल की गायों की चरन में जा घुसा। उसने देखा रामदयाल मग्नमन तुलसी के पद गाते हुए दोनों जाघों के बीच दूध की बाल्टी फँसाए हुए है और बड़ी ही सावधानी से नाख़ून बचाते हुए थनों को खींच-खींच बाल्टी में धार गिरा रहे हैं। एक-एक धार बाल्टी में झन्न से ऐसे गिर रही थी जैसे उनके भजन में ताल दे रही हो। गायों के गले की घंटी की रुनझुन भी जैसे सुर मिला रही हों और उनकी पूँछें जैसे मक्खी हाँकने के लिए नहीं बल्कि आनंदवश हवा में लहराने के लिए उठती हों।
ऐसा सुंदर समन्वय देख लक्ष्मीनारायण भी मंत्रमुग्ध हो गया और भूल बैठा कि पहले भी दो बार वह इसी काम के लिए आया था और रामदयाल ने साफ मना कर दिया था। इसी बीच चुन्नु ने लाली की रस्सी खोल दी और लाली कूदती-फाँदती-लहराती हुई अपनी माँ के थन से जा लगी।
“अरररे आराम से, आराम से..” कहते हुए रामदयाल दूध की बाल्टी लिए गाय से अलग हो गए। चुन्नू को दूध की बाल्टी पकड़ाते हुए उन्होंने गाय को घिसने के लिए कड़ुआ तेल भी चुन्नू से मँगवाया ताकि गायों की मालिश की जा सके।
चिकनी-चिकनी गाएं और बाल्टी में झाग भरा फेन देखकर लक्ष्मीनारायण फिर मचल उठा। और पिछली सब बातें भूलकर वह रामदयाल से फिर वही माँग कर बैठा।
रामदयाल फिर झल्ला के बोले –“कितनी बार कह चुका हूँ कि मेरी गाय बिकाऊ नहीं है।”
“गाय नहीं भैया, लाली दे दो, वह तो अभी बाछी है। ज़्यादा मँहगी भी नहीं होगी। तुम्हारा ज़्यादा नुक़सान नहीं करूँगा।”
“बहस का कोई फ़ायदा ...”
“अच्छा भैया गाय की कीमत पर बाछी दे दो। बेटी की शादी है तो कुछ भी कीमत चुकाऊँगा। लड़के वालों ने तुम्हारी गाएं देखी हैं। अब दहेज में वैसी ही गाय माँग रहे हैं।”
“देखो! मैं तो पहले भी तुम्हारी कोई मदद करने वाला नहीं था। वो तो तुम्हारी भौजी का कमला पर इतना लाड़ है कि उसकी ज़िद थी तो मैंने लड़के वालों के ठहरने का इंतज़ाम अपने घर पर कर दिया था। मगर इसका ये मतलब नहीं कि वे कमला को देखने की बजाय मेरी गाएं देख जाएं। मैं अपनी बूढ़ी गाय तक किसी को नहीं देता, मरी हुई तक को खुद दफनाता हूँ। जिंदा बाछी की तो बात ही क्या। मुझे गोल-मोल बात करनी नहीं आती। पहले भी मना कर चुका हूँ। फिर मना कर रहा हूँ, एकदम साफ़-साफ़।”
सही है रामदयाल को जब मरी हुई गायों की चमड़ी से मिलने वाला पैसा नहीं ललचा सका तो फिर और किसी लालच की क्या बिसात?
“पहले की बात दूसरी थी। पहले मुझे तुम्हारी गाएं अच्छी लगी थीं, इसलिए अपने लिए माँग रहा था। अब बेटी की शादी का सवाल है। फिर एक घर की बेटी तो सारे गाँव की बेटी होती है। और फिर भौजी का उसपर लडकपन से स्नेह रहा है और...”
रामदयाल की चढ़ती त्यौरियाँ देख लक्ष्मीनारायण ज्यों का त्यों रुक गया और आगे कुछ न बोल पाया। मगर तब तक रामदयाल का गुस्सा अपनी बाढ़ तोड़ चुका था।
“तुम्हारी बेटी सारे गाँव की बेटी है। और मेरा बेटा कुछ नहीं। तुम...तुम....तुम्हें यहाँ बैठने दे रहा हूँ इसका यह मतलब नहीं कि मैं सब भूल गया हूँ या मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है। मैं कुछ नहीं भूला हूँ। समझे न!”
लक्ष्मीनारायण पाँव झटककर चौकी से उठ खड़ा हुआ और रामदयाल ने चौकी के पाए से सटाकर रखे लोटे को उठाया और वहीं बैठे-बैठे गुस्से से अपने लाल मुँह को धोने में व्यस्त हो गए।
“जो हुआ, ठीक नहीं हुआ। मगर कितनी बार कह चुका हूँ कि उसमें मेरा कोई हाथ नहीं था।”
लक्ष्मीनारायण कुछ देर उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। मगर रामदयाल ने उत्तर देने की बजाय मुँह में पानी भरा और कुल्ला करते हुए मुँह का पानी एक ओर फेंक दिया। वह जानते थे कि अगर उन्होंने अपने गुस्से को नहीं दबाया तो लड़ाई होने से कोई नहीं रोक पाएगा इसलिए केवल पानी के छींटों से ही अपने को शांत कर रहे थे।
लक्ष्मीनारायण चला गया तो रामदयाल देर तक शून्य में निहारते रहे, तब तक जब तक चेहरे का पानी सूख नहीं गया और चुन्नू ने आकर नाश्ता करने के लिए नहीं कहा। देर हो रही थी इसलिए गायों की मालिश करने की बजाय केवल उन्हें सानी देकर छोड़ दिया और खुद खाना खाने अंदर चले गए।
अंदर जाते हुए उन्होंने अंदरूनी कमरों से आ रही सावित्री और चुन्नू की आवाज़ें सुनी और सुनकर दु:ख से उनका सिर भारी होकर झुक गया।
“अम्मा! अम्मा! सुन न अम्मा!”
“क्या है?”
“मैंने न, दादा को न, अंधेरे में न, अपने आप से बातें करते सुना है।”
“अच्छा! क्या-क्या सुना है?”
“वो न, रात को अंधेरे में दंड-बैठक लगा रहे थे और कह रहे थे - देखा नरेन! तू एक हज़ार दंड लगाता था न! मैंने आज तुझे पछाड़ दिया। - लेकिन अम्मा। नरेन तो पापा का नाम है न! और वो तो यहाँ है नहीं। फिर दादा किस से बात कर रहे थे?”
दमयंती ने जब रामदयाल के आगे पानी का लोटा और खाने की थाल रखी तो रामदयाल अपने दिल के दर्द को और देर अंदर न रख पाए।
“दमयंती! सोचा नहीं था कि अपना बेटा इतना नालायक निकलेगा। मैंने तो हमेशा उसे लड़ना सिखाया था। ताकतवर ही बनाया था। तो कायर कैसे निकल गया? अपनी ज़िम्मेदारियों से भला कोई ऐसे भागता है? और संन्यास लेना भी था तो शादी से पहले लेता? चुन्नू और सावित्री का क्या होगा हमारे बाद?”
दमयंती नज़रें फेरती हुए बोली “कहा तो था उसने। तुमने सुना कहाँ?”
गुस्से में तमतमाते रामदयाल ने हाथ के लोटे को पंजे से कसकर भींचते हुए कहा “उसने कुछ नहीं कहा था। जो वो कह रहा था वो उसकी ज़ुबान से लक्ष्मी बोल रहा था।”
“लक्ष्मी को क्या दोष देते हैं, भला अपना नरेंद्र कोई बच्चा थोड़े न था, जो किसी के कुछ भी कह देने से मान लेता। अपना भला-बुरा सोचना सबका अपना काम होता है।”
“क्यूँ न दोष दूँ उस लक्ष्मीनारायण को जो खुद अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग के साधु हो गया और जब साधु की ज़िंदगी कठिन लगी तो फिर सवाधु हो गया। हर बात में तो नरेंद्र उसकी ही सलाह को दौड़े जाता था। उसी के घर जा-जाकर बिगड़ गया।”
“अब तुम लक्ष्मी को दोष दो चाहें नरेन्द्र को, मेरा बेटा तो गया न!”
थाली पर झुके-झुके रामदयाल लगभग अपने आपसे ही फुसफुसाते हुए से बोले “क्या पता दमयंती? लक्ष्मी की तरह वो भी लौट आए। आख़िर हम भी तो ज़्यादा दिन जीने से रहे। फिर सावित्री और चुन्नू...”
“राम की माया, राम ही जाने। तुम तो जल्दी-जल्दी खाना खाओ नहीं तो दिन चढ़ जाएगा और देखो गाएं भी आवाज़ दे रही हैं तुम्हें, दुआर से।”
रामदयाल जब खाना खाकर बाहर आए तो फिर घर की बाहर वाली खिड़की से गुज़रते हुए अंदर दमयंती और सावित्री की आवाज़ें सुन ठिठक गए और नम आँखों से चरन की और बढ़ गए।
“अम्मा! आप तो खुद दुखी हो उनके जाने से, यहाँ तक कि रात-रात भर आँसूँ नहीं थमते। मैंने सुनीं हैं आपकी सिसकियाँ। फिर बाबूजी को इतना कुछ कैसे सुना दिया?”
“तो और क्या करूँ बहू? वो ऊपर से जितने सख़्त दिखते हैं, अंदर से उतने ही टूटे हुए हैं। अगर मैं भी टूट गई तो..तो..तो बस बिखर ही जाएंगे। बहुत चाहते थे नरेंद्र को। बचपन से ही अपने पास रखते थे, खिलाते-पिलाते-पढ़ाते और कुश्ती सिखाते थे। जितना मैंने किया है, उससे कहीं ज़्यादा उन्होंने नरेंद्र की देखभाल की है।”
*****
कड़क धूप में सबकी गाएं यहाँ-वहाँ चर रही थीं और सब ग्वाले सुस्ताने लगे थे। एक झपकी रामदयाल भी लेने लगे। आँख झपकते-झपकते नींद भी आ ही गई। मीठी नींद ले रहे थे कि लाली की माँ ने रँभाना शुरू कर दिया।
रामदयाल ने अधमुँदी पलकों से देखा तो लाली कहीं दिखाई नहीं दी। उन्होंने फिर आँखें मूँद लीं। सोचा तो यही कि होगी इधर-उधर।
मगर गाय के रँभाने ने ज़्यादा देर आँख बंद नहीं रहने दिया। रामदयाल अपना गमछा झाड़ते हुए पुआल पर से उठ गए और पेड़ की छाँव पीछे छोड़, बाहर धूप में निकल आए। नज़र घुमाकर देखा तो लाली कहीं दिखाई नहीं दी। धूप में तपती पगडंडियों पर यहाँ से वहाँ नज़र दौड़ाई पर कुछ हासिल न हुआ। फिर माथे पर थोड़ी शिकन सी हुई। सोचा झाड़ियों के आस-पास कहीं छिपी होगी। कहीं किसी कटीली झाड़ी में तो नहीं फंस गई। राम दयाल ने इधर-उधर चर रही गायों के बीच डोलना शुरू किया, झाड़ियों के चक्कर काटे।
दूसरों की गायों में खोजना शुरू किया तो दूसरों ने पूछना भी शुरू किया। जैसे-जैसे खोज आगे बढ़ी वैसे-वैसे लोग जुड़ते चले गए पर लाली कहीं नहीं मिली।
किसी ने सुझाया कि जंगल में तालाब है, उसमें गिरी होगी तो गाँव के सब होनहार तैराक डुबकी लगा कर हार गए। कुछ ने गाँव के कुँए तो किसी ने नहर में हाथ-पाँव मारे। फिर सबने मिल-जुलकर निष्कर्ष निकाला कि कोई जानवर ही उठा ले गया होगा, हाँलाकि अब तक ऐसा कुछ देखने सुनने में आया नहीं।
रामदयाल जैसे-जैसे घर लौट रहे थे सुबह की याद ताज़ा होती जा रही थी। हो न हो लक्ष्मीनारायाण की करतूत है। अपनी गायों को बाँधने लगे तो यह सोच जैसे छूत की तरह लाली की माँ को भी लग गई। वह अपनी सींगे बचाकर रामदयाल को कोंचने लगी। रामदयाल ने महसूस किया कि वो उसे लक्ष्मीनारायण के घर की तरफ ढकेल रही थी।
अब तो उनका शक़ और मज़बूत हो गया। दुनिया में उनके सारे दुखों की एक ही जड़ है। वे भनभनाते हुए सीधे उस जड़ के घर पहुँच गए। बहुत हो-हल्ला-हंगामा मचा। बूढ़े मगर मज़बूत रामदयाल ने अपने दस साल छोटे भाई की गर्दन पकड़ ली। अलग्योझे के बाद से जहाँ कदम तक नहीं रखा था, वहाँ भीतर तक घुस आए, वो भी औरतों वाले घर में। लक्ष्मीनारायण की तीनों बेटियों और घूँघट काढ़ी पत्नी ने बहुत कोशिश की कि लक्ष्मीनारायण को छुड़ा लें, मगर रामदयाल के पंजों की तनी हुई नसें आधे पल को भी ढीली न हुईं।
मगर रामदयाल के सिर पर खून सवार था। बात सिर्फ लाली की होती तो शायद इतना नहीं होता। रामदयाल तो यहाँ सारे इतिहास का हिसाब चुकता करने में लगे थे। हंगामे की बीच जो सारा मुहल्ला इकठ्ठा हो गया उसे भी समझ में नहीं आया कि केवल एक बछड़ी को गायब करने, गायब भी नहीं, गायब करने के शक़ पर कोई बड़ा भाई अपने छोटे भाई के ख़ून का प्यासा कैसे हो सकता है?
गाँव इकठ्ठा हुआ। पंचायत बैठी। वाद-प्रतिवाद हुआ। रामदयाल ने बिना-सोचे समझे लक्ष्मीनारायण पर लाली को चुरा लेने आ आरोप मढ़ दिया। लक्ष्मीनारायण ने पूरी पंचायत के सामने साबित कर दिया कि वारदात के दो घंटे पहले से लेकर, दो घंटे बाद तक वह पनवाड़ी की दुकान के सामने पीपल के चबूतरे पर ताश खेल रहा था और उसे एक नहीं सैकड़ों लोगों ने देखा था जो गवाही दे देंगे।
रामदयाल का आरोप निराधार, निर्मूल साबित हुआ। साथ ही लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि बछिया को कोई जानवर उठा ले गया है जिसका मतलब है कि लाली इस दुनिया में नहीं है और इसका यह भी मतलब है कि रामदयाल पर लक्षणा का दोष लगता है।
रामदयाल गए थे इस पंचायत में किसी और पर दोष लगाने पर इस क्षेत्र के रीति-रिवाज़ों के मुताबिक गाय-बछ्ड़ी मर जाने पर उसके पालक को पाप लगता है कि उसने ठीक से देखभाल नहीं की।
इस पाप के प्रायश्चित के लिए रामदयाल को घर-घर घूमना पड़ा। बिना मुँह खोले अपनी झोली पसारनी पड़ी। कुछेक बुज़ुर्ग गृहस्वामिनियों को याद था कि लक्षणा के दोष वाले भिक्षुक मूक रहकर भिक्षा मांगते हैं तो उन्होंने दान दे दिया। मगर कई जगह तो रामदयाल को झिड़की खानी पड़ी। यजमान के दरवाज़े पर रामदयाल अपनी झोली पसारे खड़े रह गए मगर द्वार पर खड़ी गृहस्वामिनी के लाख पूछने पर भी वे बता नहीं सकते थे कि उन्हें भिक्षा चाहिए।
पिछले दो दशकों से किसी के घर यों ही गाय ने दम नहीं तोड़ा था। इसलिए लोगों को ठीक-ठीक याद भी नहीं कि कैसे यह पाप लगता है और इसका प्रायश्चित कैसे होता है। लोगों को ये याद ही नहीं रहा कि यह पाप तो तब लगता है जब गाय या बछ्ड़ी खूँटे से बँधी-बँधी मर जाती है। दूसरी विडंबना यह भी कि घर-घर घूमकर भी रामदयाल को भिक्षा नहीं मिल रही थी क्योंकि बोलकर वे माँग नहीं सकते थे और लोगों ने वर्षों से ऐसी भिक्षा के बारे में सुना ही नहीं था, सुना भी था तो याद नहीं था, तो समझ ही न पाए कि उनके द्वार पर खड़ा यह बूढ़ा आदमी चाहता क्या है?
खैर, ये जो भी हुआ उसने रामदयाल को तोड़कर रख दिया। एक आदमी जिसे अपने गौपालन पर गर्व था उसे ही इस प्रकार का पाप लगना किसी ईमानदार आदमी पर चोरी का आरोप लगाने जैसा था। नरेंद्र के जाने के बाद उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना, बोलना-बतियाना कम कर दिया था। लेकिन भिक्षा के लिए दूसरे के दरवाज़े पर यों झोली फैलाकर चुपचाप खड़े रहना उनके अहम को बुरी तरह से चोट पहुँचा रहा था।
किसी-किसी दिन तो भूखे पेट या आधे पेट सोना पड़ा। रामदयाल को नरेंद्र की याद आई। वह भी तो....
रामदयाल अपना प्रायश्चित पूरा कर चुके तो एक पंडित जी को इसकी खबर लगी और उन्होंने बताया कि रामदयाल ने तो नाहक इतना दुख झेला, उन्हें कोई दोष नहीं लगा क्योंकि बछिया खूंटे से थोड़े न बंधी थी। पंचों की अज्ञानता से उसे इतने दु:ख उठाने पड़े। मगर अब तो जो होना था, हो गया।
किंतु इस प्रायश्चित के दौरान उन्हें उन कठिनाइयों का आभास हो चला जिससे नरेंद्र रोज़ गुज़रता होगा। जिस जीवन को वो भगौड़े का जीवन समझते थे वो दरअसल कितना साहस, कितना बलिदान मांगता था? उन्हें यह भी ज्ञान हो गया उनका नरेंद्र अपने संन्यासी जीवन की कठिनाइयों से भागनेवाला नहीं है और अब लौटकर नहीं आएगा।
मन ही मन उन्होंने उसे भावभीनी विदाई देते हुए जपना शुरु किया “जहाँ भी रहो, खुश रहो। जहाँ भी रहो, खुश रहो। जहाँ भी....”
*****
लाली को मरा हुआ मानकर अब तक सब लोग भुला चुके थे। मगर आज लाली ने खुद को प्रकटकर रामदयाल के रोम-रोम में एक नई स्फूर्ति जगा दी।
लाली के माथे से सिर उठाते हुए रामदयाल की आँखें नम हो आईं। उसके वापस लौट आने के आगे उन पाँच दिनों का प्रायश्चित मामूली प्रतीत हुआ। वे सारी कठिनाइयाँ, अपमान और अवमाननाएँ पल में आँखों से बहकर समाप्त हो गईं।
मगर अभी लाली से विलाप-मिलाप पूरा भी नहीं हुआ था कि एक हट्टे-कट्टे आदमी ने प्रकट होकर लाली को ले जाना चाहा। रामदयाल ने रोकना चाहा तो अड़ गया कि लाली उसकी है।
रामदयाल को वह आदमी जाना-पहचाना सा लगा। मगर उनका सारा ध्यान लाली पर था। इतने महीनों बाद मिली लाली को रामदयाल ऐसे कैसे चले जाने देते। तुरंत अपने कंधे पर लटक रहे गमछे को झाड़कर, उसमें बँधा गुड़-चबेना धरती पर बिखरा दिया और उसी गमछे को लाली की गर्दन में लपेटकर पगहे की तरह कसकर बाँध लिया।
उस आदमी ने ऊँची कड़कदार आवाज़ में रामदयाल को हड़काकर, डरा-धमकाकर लाली को हासिल करने की चेष्टा की। रामदयाल भी कहाँ पीछे हटने वाले थे। उन्होंने उतनी ही कड़कदार आवाज़ में उसको हड़काया। बात बिगड़ने लगी। दोनों अब चीख-चीखकर अपना दावा करने लगे।
हो-हल्ला सुनकर आस-पास के लोग इकठ्ठे हो गए। सब दोनों को समझाने-बुझाने में लगे थे। मगर मसला हल नहीं हो रहा था। रामदयाल कहते कि यह उनकी गाय है। लोगों को लगता कि उनकी गाएं तो साफ-सुथरी और स्वस्थ होती हैं। भला यह मैली-कुचैली, मरियल सी गाय रामदयाल की कैसे हो सकती है। कहीं रामदयाल सठिया तो नहीं गए हैं।
लेकिन वहीं लालजी का कहना है कि गाय उसकी है। हाँ वो लक्ष्मीनारायण का बड़ा दामाद, लालजी ही तो है जिसकी गाँव के बाहर आटे की चक्की है। लेकिन इस गाय को उसके पास भी किसी ने नहीं देखा था तो लालजी का दावा भी कमज़ोर लग रहा था।
लोगों को क्या पता कि लालजी ने आटे की चक्की के पास ही एक कमरे में डेढ़ साल से लाली को गोबर और कीचड़ के बीच बंद करके रखा था। आज? आज कैसे छूट गई? यह कोई नहीं जानता कि लाली को आज एक मक्खी ने इतनी तेज़ काटा की वह तड़पकर अपना पूरा दम लगा बैठी और पगहे से अलग हो गई। दरवाज़े की उखड़ी हुई कुंडी को बनवाने की हुज्जत लालजी ने कभी उठाई ही नहीं।
फिर क्या था? जबतक लालजी खाली कमरा देख पाते तबतक लाली आधे रास्ते तक पहुँच चुकी थी।
लेकिन अब यह फैसला कैसे हो कि लाली का सही मालिक कौन है? लालजी के पास डेढ़ साल से रह रही है तो उसे पूरा भरोसा है कि उसी की है। मगर रामदयाल उसे अपने गमछे से बांधे हुए हैं और छोड़ ही नहीं रहे हैं।
जब शाम ढलने लगी और रामदयाल लाली को छोड़ने के लिए राज़ी ही न हुए तो लोगों को पंचों को भी वहीं बुला लाना पड़ा और वहीं जंगल के किनारे, खेतों में खड़े-खड़े ही पंचायत हुई। पंच भी आपस में उलझे हुए थे कि करें तो क्या करें?
दो पंचों का मानना था कि गाय रामदयाल की हो ही नहीं सकती तो दो पंचों का मानना था कि लालजी की नहीं हो सकती। एक पंच बेचारे दुविधा में थे कि किसका साथ दें? अब राजा विक्रमादित्य की तरह यह फैसला तो नहीं दे सकते कि गाय को काटकर आधा-आधा बांट दिया जाए क्योंकि इस देश में इंसान को काटना उतना बड़ा पाप नहीं है जितना गाय के लिए बोल तक देना।
जाने एक ओर होकर पंचों ने देर तक क्या खुसर-फुसर की? लोग-बाग भी हैरत में पड़े सोचते रहे कि आखिर गाय किसको मिलेगी और पंच किस बुनियाद पर यह फैसला लेंगे? लोगों में भी दो मत थे। पंचों की तरह यहाँ भी एक गुट का कहना था कि गाय रामदयाल की है तो दूसरे का कि लालजी की है। जबकि कुछ ऐसे भी लोग थे जो केवल तमाशा देखना चाहते थे कि देखें क्या होता है? दिनभर ताश खेलने वाले गाँव के कुछ सटोरियों ने तो आज ताश की जगह इस बात पर बाज़ी लगाई है कि गाय किसको मिलती है?
पंचों ने काफी देर माथापच्ची के बाद वापस लोगों के बीच स्थान ग्रहण किया और अपना फैसला सुनाया।
“गाय ही तय करेगी कि उसका मालिक कौन है?”
सब हैरान-परेशान कि पंचों ने ये क्या फैसला सुनाया? इसका क्या अर्थ? भला गाय कैसे तय करेगी? उसके मुँह में कौनसी ज़बान है यह तय करने के लिए? मगर पंचों ने अपनी बात स्पष्ट की।
“गाय को छोड़ दिया जाए। गायों को अपने घर का रास्ता बखूबी याद रहता है। इसलिए जिसके द्वार पर जाकर खड़ी होगी, यह गाय उसी की होगी।”
लालजी का चेहरा खुशी से चहक उठा और रामदयाल को सदमा लगा कि भला यह क्या फैसला हुआ? डेढ़ साल की बिछुड़ी हुई गाय को अपने घर का रास्ता भला क्या याद होगा? जबकि लालजी खुश कि गाय जहाँ से अभी-अभी छूटी है वहाँ तो वह बड़ी आसानी से पहुँच जाएगी।
रामदयाल गाय को छोड़ने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। मगर पंचों का फैसला तो परमेश्वर का माना गया है। भला इसकी अवहेलना कैसे की जा सकती है? पंचों ने एक बार और कड़ाई से कहा तो रामदयाल को अंतत: गाय छोड़नी पड़ी।
गाय ने चलना शुरू किया तो लगभग आधा गाँव उसके पीछे हो लिया। लेकिन जैसे-जैसे गाय ने गाँव का बाहरी रास्ता छोड़ गाँव के भीतर के रास्ते की ओर जाना शुरू किया लालजी के चेहरे से खुशी गायब हो गई क्योंकि उसकी चक्की तो गाँव के बाहर है, जहाँ उसने गाय को बाँधा था।
लालजी की केवल खुशी गायब हुई थी क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि गाय इतने बड़े गाँव की इतनी सारी गलियाँ पहचान नहीं पाएगी और कहीं गलियों में जाकर भटक जाएगी और फिर पंचों को अपने फैसले पर दुबारा सोचना पड़ेगा।
लेकिन वहीं दूसरी ओर रामदयाल की आशा बलवती होती गई। जैसे-जैसे लाली गाँव में रास्ते खोजती हुई चलती जा रही थी रामदयाल की निराशा छटती जा रही थी और लालजी धीरे-धीरे भीड़ के पीछे खिसकते जा रहे थे।
और अंतत: बिना भटके या रास्ता भूले लाली सीधे उसी स्थान पर पहुँच गई जहाँ डेढ़ साल पहले उसकी माँ को बाँधा जाता था। जिस सहजता और अपनेपन से उसने सीधे चरन में जाकर मुँह डाल दिया, रामदयाल के आँसू टपक पड़े।
***************