दीवाली के दिए
छत की मुंडेर पर दीवाली के दीए हाँपते हुए बच्चों के दिल की तरह धड़क रहे थे।
मुन्नी दौड़ती हुई आई। अपनी नन्ही सी घगरी को दोनों हाथों से ऊपर उठाए छत के नीचे गली में मोरी के पास खड़ी होगई....... उस की रोती हुई आँखों में मुंडेर पर फैले हुए दियों ने कई चमकीले नगीने जड़ दिए....... उस का नन्हा सा सीना दिए की लो की तरह काँपा, मुस्कुरा कर उस ने अपनी मुट्ठी खोली, पसीने से भीगा हुआ पैसा देखा और बाज़ार में दिए लेने के लिए दौड़ गई।
छत की मुंडेर पर शाम की ख़ुनुक हवा में दीवाली के दिए फड़फड़ाते रहे। सुरेंद्र धड़कते हुए दिल को पहलू में छुपाए चोरों की मानिंद गली में दाख़िल हुआ और मुंडेर के नीचे बेक़रारी से टहलने लगा..... उस ने दियों की क़तार की तरफ़ देखा। उसे हवा में उछलते हुए ये शोले अपनी रगों में दौड़ते हुए ख़ून के रक़्सां क़तरे मालूम हुए..... दफ़अतन सामने वाली खिड़की खुली.... सुरेंद्र सर-ता-पा निगाह बन गया। खिड़की के डंडे का सहारा लेकर एक दोशीज़ा ने झुक कर गली में देखा और फ़ौरन इस का चेहरा तिमतिमा उठा।
कुछ इशारे हुए। खिड़की चूड़ीयों की खनकनाहट के साथ बंद हुई और सुरेंद्र वहां से मख़मोरी की हालत में चल दिया।
छत की मुंडेर पर दीवाली के दिए दुल्हन की साड़ी में टिके हुए तारों की तरह चमकते रहे।
सरजू कुम्हार लाठी टेकता हुआ आया और दम लेने के लिए ठहर गया। बलग़म उस की छाती में सड़कें कूटने वाले इंजन की मानिंद फिर रहा है ....... गले की रगें दमे के दौरे के बाइस धौंकनी की तरह कभी फूलती थीं कभी सिकुड़ जाती थीं। उस ने गर्दन उठा कर जगमग जगमग करते दीयों की तरफ़ अपनी धुँदली आँखों से देखा और उसे ऐसा मालूम हुआ कि दूर.... बहुत दूर.... बहुत से बच्चे क़तार बांधे खेल कूद में मसरूफ़ हैं। सरजू कुम्हार की लाठी मनों भारी होगई बलग़म थोक कर वह फिर चियूंटी की चाल चलने लगा।
छत की मुंडेर पर दीवाली के दिए जगमगाते रहे।
फिर एक मज़दूर आया। फटे हुए गिरेबान में से उस की छाती के बाल बर्बाद घोंसलों की तीलियों के मानिंद बिखर रहे थे। दियों की क़तार की तरफ़ उस ने सर उठा कर देखा और उसे ऐसा महसूस हुआ कि आसमान की गदली पेशानी पर पसीने के मोटे मोटे क़तरे चमक रहे हैं। फिर उसे अपने घर के अंधियारे का ख़याल आया और वो इन थिरकते हुए शालों की रोशनी कनखियों से देखता हुआ आगे बढ़ गया।
छत की मुंडेर पर दीवाली के दिए आँखें झपकते रहे।
नए और चमकीले बूटों की चरचराहट के साथ एक आदमी आया। और दीवार के क़रीब सिगरेट सुलगाने के लिए ठहर गया। उस का चेहरा अशर्फ़ी पर लगी हुई महर के मानिंद जज़्बात से आरी था। कालर चढ़ी गर्दन उठा कर उस ने दियों की तरफ़ देखा। और उसे ऐसा मालूम हुआ कि बहुत सी कठालियों में सोना पिघल रहा है। उस के चर चराते हुए चमकीले जूतों पर नाचते हुए शोलों का अक्स पड़ रहा था। वो उन से खेलता हुआ आगे बढ़ गया।
छत के मुंडेर पर दीवाली के दिए जलते रहे।
जो कुछ उन्हों ने देखा, जो कुछ उन्हों ने सुना, किसी को न बताया। हवा का एक तेज़ झोंका आया। और सब दिए एक एक करके बुझ गए|