Bhagwan Ram par yah kaisi siyasat ? in Hindi Magazine by Ritesh kashyap books and stories PDF | भगवान राम पर यह कैसी सियासत ?

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भगवान राम पर यह कैसी सियासत ?

जिस देश ने सभी को सहर्ष स्वीकारा चाहे वह शक हो या हूण हो, चाहे केरल में कोई व्यापारी जो व्यापार करने के दृष्टिकोण से भारत आया हो उसका धर्म इस्लाम ही क्यों ना हो उसकी पूजा पद्धति अलग ही क्यों न हो, उसके बाद ईसा मसीह के अनुयाई ही क्यों ना हो किसी से कोई भेद नहीं किया आज वही इस देश के असली नायक को नायक नहीं मान पा रहे।

संत कबीर दास जो खुद एक मुस्लिम होते हुए एक दोहा लिखा था

कबीर निरभै राम जपु, जब लगि दीवै बाति। तेल धटै बाती बुझै, (तब) सोवैगा दिन राति॥

कबीरदास जी का कहना था कि जब एक शरीर रूपी दीपक में प्राण रूपी वर्तिका विद्यमान है अर्थात् जब तक जीवन है, तब तक निर्भय होकर राम नाम का स्मरण करो। जब तेल घटने पर बत्ती बुझ जायेगी अर्थात् शक्ति क्षीण होने पर जब जीवन समाप्त हो जायेगा तब तो तू दिन-रात सोयेगा ही अर्थात् मृत हो जाने पर जब तेरा शरीर निश्चेतन हो जायेगा, तब तू क्या स्मरण करेगा ?

भारत की भूमि को सदैव देवभूमि माना जाता रहा है और यह सिर्फ भारत के लोग ही नहीं अपितु पूरा विश्व मानता रहा है। बावजूद इसके इस देश के कुछ लोग या यूं कहें कुछ समूह भारत के खून में बह रहे हम सभी के आदर्श भगवान श्री राम की आस्था पर चोट मारने से नहीं कतराते हैं।
आज भगवान राम को सिर्फ हिंदुओं की आस्था से जोड़कर देखा जाता है।
भगवान राम सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है इस बात को सामूहिक रूप से प्रचार-प्रसार भी किया जाता रहा है। अब विचारणीय बात यह है कि इस बात के प्रचार से अंततः लाभ किसे होना है और उस लाभ का क्या होगा जिसमें हमारी सांस्कृतिक मूल्यों की कोई जगह नहीं होगी।
भारत के इतिहास के साथ छेड़छाड़ तो एक षड्यंत्र के रूप से किया ही जा रहा है मगर ऐसे कुछ इतिहास जो पाषाण पर अंकित हो चुके हैं उसे मिटाना इतना आसान नहीं होगा।
आज से 500 साल पूर्व गोस्वामी तुलसीदास के मित्र अब्दुल रहीम खान-ए-खाना अपने ही वक्तव्य में कहा है की रामचरितमानस हिंदुओं के लिए ही नहीं मुसलमानों के लिए भी आदर्श है।

रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण,
हिन्दुअन को वेदसम जमनहिं प्रगट कुरान'

अब इस बात को अगर किसी से पूछा जाए कि अब्दुल रहीम या कबीर दास ने ऐसा क्यों कहा तो स्पष्ट जवाब आएगा कि अब्दुल रहीम या कबीर दास तो काफिर थे और ऐसा कहने वालों के चेहरे पर किसी प्रकार का शिकन भी नहीं होगा।

इतिहास के झरोखों से अगर कुछ बातों को और निकाला जाए तो शायद किसी की आंख में लाल मिर्ची जरूर लगेगी और छटपटाहट स्पष्ट दिखाई देगा।

सन् 1860 में प्रकाशित रामायण के उर्दू अनुवाद की लोकप्रियता का यह आलम रहा है कि आठ साल में उसके 16 संस्करण प्रकाशित करना पड़े। वर्तमान में भी अनेक उर्दू रचनाकार राम के व्यक्तित्व की खुशबू से प्रभावित हो अपने काव्य के जरिए उसे चारों तरफ बिखेर रहे हैं।

मुस्लिम शासक जहाँगीर के ही जमाने में मुल्ला मसीह ने 'मसीही रामायन' नामक एक मौलिक रामायण की रचना की गई, पाँच हजार छंदों वाली इस रामायण को सन् 1888 में मुंशी नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित भी किया गया था।

अब्दुल रशीद खाँ, नसीर बनारसी, मिर्जा हसन नासिर, दीन मोहम्मद्‍दीन इकबाल कादरी, पाकिस्तान के शायर जफर अली खाँ आदि प्रमुख रामभक्त रचनाकार रहे हैं।

अगर भगवान राम हमारी संस्कृति धरोहर के हिस्सा नहीं होता तो पहली बार अकबर के जमाने में (1584-89) वाल्मीकि रामायण का फारसी में पद्यानुवाद ना हुआ होता। शाहजहाँ के समय 'रामायण फौजी' के नाम से गद्यानुवाद ना हुआ होता।

मुस्लिम के सबसे बड़े देश इंडोनेशिया में रामकथा की सुरभि को सहज देखा जा सकता है। दरअसल भगवान राम धर्म या देश की सीमा से मुक्त एक विलक्षण ऐतिहासिक चरित्र रहे हैं। मगर यही बात हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों को समझ नहीं आ रही।

फरीद, रसखान, आलम रसलीन, हमीदुद्‍दीन नागौरी, ख्वाजा मोइनुद्‍दीन चिश्ती आदि कई रचनाकारों ने राम की काव्य-पूजा की है।

कवि खमीर खुसरो ने तो तुलसीदासजी से 250 वर्ष पूर्व अपनी मुकरियों में राम को नमन किया है।

अभी कुछ साल पहले की बात है. इंडोनेशिया के शिक्षा और संस्कृति मंत्री अनीस बास्वेदन भारत आए थे. इस यात्रा के दौरान उनके एक बयान ने खास तौर पर सुर्खियां बटोरीं. अनीस का कहना था, ‘हमारी रामायण दुनिया भर में मशहूर है. हम चाहते हैं कि इसका मंचन करने वाले हमारे कलाकार भारत के अलग-अलग शहरों में साल में कम से कम दो बार अपनी कला का प्रदर्शन करें. हम तो भारत में नियमित रूप से रामायण पर्व का आयोजन भी करना चाहेंगे।'

अब ऐसे तथ्यों को जो इतिहास में अंकित हैं उन्हें बदला तो नहीं जा सकता इसीलिए अब वैसे लोगों को जिन्होंने भारत की संस्कृति भारत के आदर्श भगवान श्रीराम को अपनाया अब उन्हीं के समाज के लोग स्वीकारने से गुरेज कर रहे हैं।

इन सब चीजों के पीछे मूल कारण क्या है यह किसी से छिपा नहीं है । यह विषय सिर्फ हिंदू और मुसलमानों का रहा ही नहीं। यह विषय तो सियासत और राजनीति का हिस्सा बन चुका है जिसमें उनका समर्थन करने के लिए राजनीतिक दल जिसमें हर धर्म के लोग खुले तौर पर दिखाई देते रहते हैं।
कुछ लोगों को तो यह कहने में भी शर्म नहीं आती की भगवान राम एक काल्पनिक पात्र थे। उन लोगों को इस बात का पूरा भान है कि इस कृत्य से वे भारत के सांस्कृतिक मूल्यों बहुत बड़ा आघात कर रहे हैं । उन्हें तो लगता है कि ऐसा करने से ही उनके समर्थकों की वृद्धि होगी मगर उन्हें यह समझ नहीं आ रहा की ऐसा करने से इस समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ?