“यह कोई सरल बात नहीं है, जीत। मुझे चित्र बनाना बिलकुल नहीं आता। यह मेरे लिए संभव..”
वफ़ाई ने बात अधूरी छोड़ दी। जीत ने कोई प्रतिभाव नहीं दिये।
“जीत, चित्रकारी ही क्यों? दूसरा कुछ क्यों नहीं? मुझे तस्वीरें लेना आता है, वह पर्याप्त है।“ वफ़ाई ने विरोध प्रकट किया।
“चित्र बनाना और तस्वीरें लेना भिन्न बात है।“
“मैं ऐसा नहीं मानती। दोनों एक ही है और दोनों के परिणाम भी समान ही है। अत: चित्रकारी सीखने की कोई अवश्यकता नहीं है।“
“दोनों समान कैसे हैं, बता सकती हो?”
“जब हम किसी द्र्श्य, वस्तु, व्यक्ति, स्थान अथवा क्षण को देखते हैं तब उसे सदा के लिए कैद कर लेना चाहते हैं। ठीक है ना?” वफ़ाई ने जीत को निहारा जो वफ़ाई को देख रहा था, ध्यान पूर्वक सुन रहा था।
जीत ने पलकों से वफ़ाई की बात का समर्थन किया।
“तो उसे सदा के लिए स्मरण में रखने के भिन्न भिन्न उपाय है।“
“जैसे?”
“कवि शब्द का प्रयोग करते हैं और उस पर सुंदर कविता रचते हैं। गीतकार गीत लिखता है तो लेखक कहानी के माध्यम से, संगीतकार संगीत की धुन से, नृत्यकार नृत्य से, शिल्पकार शिल्प बनाकर, फ़िल्मकार पर्दे पर द्र्श्य सजाकर, उसे अभिव्यक्त करता है। उसी प्रकार चित्रकार चित्र बनाकर उसे व्यकत कर देता है। और तसवीरकार केमरे के लेंस के माध्यम से उन को कैद कर लेता है।
अंतत: हम सब समान कार्य करते हैं। केवल माध्यम भिन्न भिन्न होता है। एक ही भाव को हम विभिन्न मंच से भिन्न भिन्न रूप में विश्व के समक्ष रखते हैं। किन्तु उद्देश्य समान होता है, परिणाम भी समान ही होता है।“ वफ़ाई ने लंबी दलील रखी।
“वफ़ाई, मैं तुम्हारे इस तर्क से सहमत हूँ। किन्तु, इन सभी में और तस्वीर लेने में एक मूलभूत तफ़ावत है जो तुम भूल रही हो।“ जीत ने अपना पक्ष रखा।
“यह सब कला के भिन्न भिन्न रूप ही हैं तो भिन्न ही होंगे। यह समान नहीं हो सकते। जीत, तुम जानते हो कि विविधता ही सौन्दर्य है। क्ला के यह रूप हमें आकृष्ट करते हैं क्यों कि वह सब भिन्न है। यही सुंदरता है, यही विस्मय है, और यही हमारी रुचि का कारण भी यही है। यह सब कला है।“
“तस्वीर लेना तो कला नहीं है।”
“जीत, एक और बात। प्रत्येक कलाकार विशेष होता है, प्रत्येक कला विशेष होती है। दो चित्रकार अथवा दो सर्जक भी भिन्न होते हैं, विशेष होते हैं। यदि दोनों एक सी कला को प्रस्तुत करेंगे तो भी वह भिन्न भिन्न रूप से और विशेष रूप से करेंगे। जैसे सब कुछ एक दूसरे से भिन्न और विशेष है, वैसे ही तस्वीर कला भी अन्य कला से भिन्न है।“
“किन्तु तस्वीर कला...’
“जीत, दो तसवीरकार भी भिन्न है, विशेष है। यदि एक ही क्षण पर एक ही द्र्श्य की तस्वीर को एक ही कोने से मैं और तुम लेते हैं तो भी दोनों भिन्न सर्जन होंगे। और तुम कहते हो...“ वफ़ाई अविरत रूप से बोलती रही।
“मैंने सुना है कि बोलती हुई लड़की को कोई रोक नहीं सकता। लगता है सच ही सुना है।“जीत ने ठहाका लगाया। वफ़ाई ने उसका साथ दिया। कुछ क्षण दोनों हँसते रहे फिर सब कुछ शांत हो गया, मौन हो गया, कुछ अंतराल के लिए।
“वफ़ाई, तुम कुछ मुद्दों पर बात कर रही थी।“जीत ने टूटी हुई बात को जोड़ने का प्रयास किया। किन्तु वफ़ाई शांत रही, बात करने के कोई संकेत नहीं दिये।
“मैंने यह भी सुना है कि लड़की के मौन को भी आप तोड़ नहीं सकते।”जीत फिर से हंसने लगा।
“चुटकुला बुरा तो नहीं था, जीत।“ वफ़ाई भी हंसने लगी, मौन टूट गया।
“तो तुम फिर से बात करोगी।“
“अवश्य। मैं बात करना चाहती हूँ, मेरा पक्ष रखना चाहती हूँ। और...”
“और वह सब तस्वीरें भी।“
“हाँ जीत, अब यह खुल्ला रहस्य है। मैं मेरे आशय को छुपाना नहीं चाहती। मैं तस्वीर की कला जानती हूँ और अब कोई नई कला नहीं सीखना चाहती हूँ। बस, मुझे मेरी सारी तस्वीरें लौटा दो।“ वफ़ाई ने अपने आशय को स्पष्ट कर दिया।
“वफ़ाई, तस्वीरें लेना कोई कला नहीं है, ... ।“जीत बात पूरी कह ना सका।
“मुझे लगता है कि कला के विषय में तुम्हारा ज्ञान मर्यादित है। पहले अपना ज्ञान बढ़ाओ फिर दलीलें करना।“ वफ़ाई ने कहा।
“ओह, अवश्य। किन्तु मैंने यह भी सुना है कि लड़कियां कभी पूरी बात, पूरे शब्द अथवा पूरा विचार सुनती ही नहीं और दलीलें करने लगती है, पक्ष विपक्ष में बोलने लगती है। लगता है यह भी सच ही कहा है किसी ने। पहले पूरा सुन तो लो।“ जीत ने स्मित दिया।
“तूम कहना क्या चाहते हो? तुम्हारे पूरे शब्द, पूरे विचार है क्या? चलो तुम उसे पूरा प्रस्तुत कर दो, तब तक मैं सुनती रहूँगी और कुछ नहीं बोलुंगी।“ वफ़ाई ने व्यंग किया। उसने आँखें बंध कर ली और जीत के समीप खड़ी हो गई।
जीत ने वफ़ाई के सान्निध्य और सामीप्य को अनुभव किया। बंध आँखें और मीठे रोष से भरी वफ़ाई की वह मुद्रा मनोहर थी। जीत उसे मौन रहकर कुछ क्षण निहारता रहा। वह अपने पक्ष में दलील करना भूल गया। वह नि:शब्द रहा। लंबे समय तक वफ़ाई ने कुछ नहीं सुना तो उसने आँखें खोल दी।
जीत उसे उत्कट भाव से देख रहा था। वफ़ाई को वह विचित्र सा लगा। वह जीत की द्रष्टि के डर से दूर जा खड़ी हो गई। जीत अभी भी वहीं देख रहा था जहां कुछ क्षण पहले वफ़ाई खड़ी थी। वफ़ाई जीत की द्रष्टि से बाहर थी। उसने गहरी सांस ली।
“जीत कोई गहन विचार अथवा ध्यानमग्न है और किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित है। और वह बिन्दु मैं नहीं हूँ।“
“जीत, जीत। तुम कहाँ हो?” वफ़ाई चिल्लाई। जीत का ध्यान भंग हुआ और वफ़ाई को निहारने लगा।
“जीत, तुम तस्वीर कला पर कुछ कह रहे थे। क्या कह रहे थे? कहो।“ वफ़ाई ने जीत को जागृत किया।
“हाँ। मेरा मत है कि तसवीर खींचने की कला के सिवा अन्य सभी कलाओं में कलाकार उसके सर्जन में जुड़ा रहता है, उसमें अपना हस्तक्षेप करता है। जब तस्वीर खींचते हैं तो कलाकार वहाँ नहीं होता है। केमरे के काँच ही सब काम करते है, तुम तो केवल बटन दबाते हो, बाकी सब काम केमरा ही कर लेता है। तस्वीर के सर्जन में तुम्हारी कोई भूमिका अथवा तुम्हारे भाव का कोई खास महत्व नहीं रहता। यहाँ तुम केवल एक साधन के माध्यम से तस्वीर खींचते हो कोई कला का सर्जन नहीं करते हो। तुम्हारी इसमे क्या भागीदारी? तुम्हारी कल्पना के रंग कहाँ इसमें?
अन्य सभी कला में विचार से लेकर कला के सर्जन की एक प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में कलाकार स्वयं को जोड़ता है और सारी प्रक्रिया का हिस्सा बना रहता है। उसका जुड़ना ही मुख्य बात है। जिस स्तर पर कलाकार अपने सर्जन से जुड़ता है वह स्तर ही उस सर्जन को साधारण से विशेष बनाता है।“जीत ने कहा।
वफ़ाई ने उसे पूरे ध्यान से सुना।
“किसी लड़की का मौन इस संसार का सबसे सुंदर अनुभव है।“जीत धीरे से बोला। वफ़ाई ने वह शब्द भी सुने किन्तु मौन ही रही।
“मैंने अपनी बात कह दी है, सम्पन्न कर ली है। मैं तुम्हारे धैर्य की प्रशंसा करता हूँ। तुम अब बोल सकती हो।“जीत ने स्मित दिया।
“मैं सहमत हूँ कि तस्वीरें खींचने में तसवीरकार की भूमिका मर्यादित रहती है। फिर भी मेरा द्रढ़ मन्तव्य है कि वह कला है, कला ही है। तस्वीरें लेना, क्षणों को कैद करना होता है, अत: यह क्षणों का खेल होता है। कला की इस प्रक्रिया में अल्प क्षणों के लिए ही सही पर कलाकार की भूमिका है। अल्प भी सुंदर होता है।“
“अपनी भूमिका को बढ़ाओ।“
“वह कैसे?”
“अल्प से व्यापक हो जाओ, चित्रकारी सीख लो। इसके दो लाभ होंगे। एक, नई कला सीखने को मिलेगी। दूसरा, तुम्हें तुम्हारी तस्वीरें मैं लौटा दूंगा। विशेष में किसी सर्जन का संतोष एवं आनंद भी मिलेगा।“
“विचार तो सुंदर है। किन्तु मैंने कभी चित्र नहीं रचे, ना ही कभी किसी चित्र में रंग भरे। एक सीधी रेखा तक नहीं होती मुझसे। मेरे लिए यह चित्रकला सीखना असंभव है।“ वफ़ाई ने कहा।
“तो क्या? मैं यह सब तुम्हें सीखा दूंगा, मेरा विश्वास करो।“ जीत ने आश्वस्त किया।
“धन्यवाद, जीत। किन्तु यह प्रक्रिया अधिक लंबी होगी और मैं यहाँ लंबे समय तक रह नहीं सकती। कृपा करके मुझे छोड़ दो, मुक्त कर दो।“
“कितने दिनों तक तुम यहाँ हो?”
“एक अथवा दो दिनों तक।“
“किन्तु पुर्णिमा को अभी बाईस दिन बाकी है।“
“मैं पुर्णिमा तक प्रतीक्षा नहीं कर सकती। मुझे शीघ्रता से यहाँ से चले जाना है। मैं यहाँ से भाग जाना चाहती हु, पर्वतों में लौट जाना चाहती हूँ। जीत, बस तुम मुझे मेरी तस्वीरें लौटा दो।“
“तो फिर तुम उसे भूल जाओ। मैं तुम्हें वह कभी नहीं लौटाऊंगा।“ जीत ने कह दिया।
वफ़ाइं क्रोधित हो गई और कक्ष में दौड़ गई। बाकी का समय मौन हो गया। कोई किसी से कुछ नहीं बोला।