Jivan ko safal nahi sarthak banaye - 2 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग -२

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग -२

9. अनुभव

इंजी सुरेंद्र श्रीवास्तव एक अच्छे आर्किटेक्ट माने जाते हैं। उनके कुशल मार्गदर्शन में नगर की अनेक इमारतों का निर्माण संपन्न हुआ है। एक सहकारी बैंक का निर्माण भी उनके मार्गदर्शन में हो रहा था। एक दिन उस निर्माणाधीन इमारत के निरीक्षण हेतु जनप्रतिनिधिगण शासकीय अधिकारीयों के साथ पहुँचते हैं। वे अवलोकन के दौरान अपना सुझाव देते हैं कि भूकंप के दौरान सुरक्षा की दृष्टि से इमारत को अधिक मजबूती प्रदान करने हेतु समुचित प्रावधान कर दें ताकि किसी प्रकार की कोई समस्या भविष्य में निर्मित ना हो। यह सुनकर श्रीवास्तव जी ने अपनी सहमति व्यक्त करते हुये उचित निर्देश देकर उन सभी निरीक्षणकर्ताओं को प्रसन्न कर दिया। उन सभी के जाने के उपरांत श्रीवास्तव जी ने अपने निर्देश वापस लेकर पूर्व निर्धारित योजना अनुसार ही कार्य करने लगे।

श्रीवास्तव जी को विश्वास था कि भूकंप आने पर भी इमारत को कोई नुकसान नही पहुँचेगा उनसे जब कुछ लोगों ने पूछा कि आपने यह बात उन निरीक्षणकर्ताओं को क्यों नही बता दी ? वे विनम्रतापूर्वक बोले कि लोग अपने को ज्ञानवान बताने के लिये किसी भी विषय पर किसी भी समय मुफ्त में अपने विचार व्यक्त करते हुये सुझाव दे देते हैं मेरा सिद्धांत है कि जिसे ज्ञान ना हो और वह उस विषय पर सुझाव दे रहा हो तो उससे बहस करना व्यर्थ में अपना समय गँवाना है। उन निरीक्षणकर्ताओं में कोई भी आर्किटेक्ट नही था और उनको समझाने का प्रयास करना व्यर्थ था। यदि मैं उनके सुझाव के अनुसार कार्य करता तो लाखों रूपये का खर्च बढकर शासकीय धन का व्यर्थ ही अपव्यय होता इसलिये ऐसे अवसर पर उनकी हाँ में हाँ मिलाकर मैंने अपना पल्ला झाड़ लिया।

उस सहकारी बैंक का निर्माण पूर्ण होने के उपरांत अचानक ही एक दिन भूकंप आ जाता है, शासकीय अधिकारीगण एवं जनप्रतिनिधिगण जिन्होंने इमारत का निरीक्षण किया था और अपने सुझावों से आर्किटेक्ट को अवगत कराया था वे अपनी दूरदर्शिता के लिये मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि उन्होने इमारत को मजबूती प्रदान कर विपरीत परिस्थितियों में ध्वस्त होने से बचा लिया। इंजी सुरेन्द्र श्रीवास्तव भी तुरंत वहाँ पहुँचे और यह जानकर कि भूकंप के कारण इमारत को कोई नुकसान नही हुआ है, उनका आत्मविश्वास और भी अधिक बढ़ गया। उसी समय उन निरीक्षणकर्ताओं को वास्तविकता का पता होता है कि उनके सुझावों पर अमल ना करते हुये श्रीवास्तव जी ने अपनी पूर्वयोजना अनुसार ही कार्य किया है तो वे झेंपते हुये आर्किटेक्ट के अनुभव और निर्माण की रूपरेखा की प्रशंसा करते हुये चले जाते हैं।

10. प्रतिभा

लायंस इंडिया क्लब जो कि वर्तमान में अलायंस क्लब इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है, के वार्षिक समारोह में अंजनी और तेजल नामक गायक कलाकारों से मेरी मुलाकात यादगार बन गयी थी। वे नवविवाहित युगल थे और उन्होने अपने गीतों की प्रस्तुति देने हेतु मंच पर जाने के पहले मेरे पास आकर, यह कहकर कि आप हमारे पिता तुल्य है हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम आगे बढ़ सकें, मुझे भाव विभोर कर दिया था।

उनके गीतों एवं गजलों की प्रस्तुति की प्रशंसा हम सभी कर रहे थे और हमारे मन में उनके उज्जवल भविष्य की कामना थी। वे दोनो किसी अच्छी नौकरी की तलाश में थे और मुझसे मार्गदर्शन चाहते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आप दोनो को अपने जीवन में गायन के क्षेत्र में आगे बढ़कर बहुत नाम कमाना है इसके लिये आपको प्रतिदिन संगीत साधना के लिये काफी समय देना होगा तभी आपकी प्रतिभा उभर कर श्रोताओं को आकर्षित कर सकेगी इसलिये आपको नौकरी की तरफ अपना ध्यान ना देकर संगीत साधना के प्रति ध्यान को केंद्रित करना चाहिये। दोनो ने मेरी बात मान ली और नौकरी के विचार को अपने मानस पटल से हटा दिया।

जीवन मे जब किसी की प्रगति होनी होती है तो अवसर भी किसी ना किसी रूप में प्राप्त हो जाते है। उस समय के म.प्र. के एक मंत्री अजय सिंह जी के सौजन्य से विधान सभा के सदस्यों के बीच गायन के कार्यक्रम हेतु इन दोनो युवा कलाकारों को अवसर प्राप्त हो गया। इन्होने अपनी पूरी लगन, मेहनत एवं परिश्रम से अपनी प्रस्तुति दी जिसे सुनकर सारा सभागृह वाह वाह एवं तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा और इस कार्यक्रम के संयोजक अजय सिंह जी ने भी प्रसन्न होकर मुझे धन्यवाद दिया। इस कार्यक्रम के बाद दोनो कलाकारों को काफी मान सम्मान प्राप्त हुआ एवं धीरे धीरे उन्हें विभिन्न अवसरों पर बुलाया जाने लगा।

एक दिन मैंने उन्हें सुझाव दिया कि यदि आप लोग विदेश में अपनी प्रस्तुति दे तो स्वाभाविक रूप से आपकी प्रसिद्धि और भी अधिक बढ़ जायेगी। उन्हें मेरा सुझाव पसंद आया और उन्होने प्रयास करके लंदन में अपना कार्यक्रम आयोजित कर लिया। हम सभी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ और इसके बाद स्वदेश वापस आने पर उन्हें बडे़ बडे़ मंचों पर अपनी प्रस्तुति देने हेतु आमंत्रित किया जाने लगा। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होने अपना स्वयं का एक हारमनी नाम का म्यूजिकल ग्रुप बना लिया जिसके माध्यम से वे अपना कार्यक्रम देने लगे। इस प्रकार धीरे धीरे वे प्रगति के सोपान पर आगे बढते गये और उन्होनें स्वयं का अत्याधुनिक रिकार्डिंग स्टूडियो भी स्थापित कर लिया। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि यदि हमारा लक्ष्य सही हो और उसे प्राप्त करने के लिये मन में लगन और समर्पण हो तो अपनी मंजिल प्राप्त की जा सकती है।

11. आंतरिक ऊर्जा जगाइए

राजेश पाठक प्रवीण मंच के कुशल संचालक एवं साहित्यकार है। उनकी अपनी विशिष्ट प्रतिभा है। ये जब मंच संचालन करते हैं तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। राजेश पाठक बी.काम स्नातक हैं एवं इन्होंने पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है। ये वर्तमान में म.प्र.विद्युत मंडल में कार्यरत हैं। इनके पिताजी स्वर्गीय भवानी प्रसाद पाठक जो कि पोस्ट आफिस में पोस्ट मास्टर थे, चाहते थे कि राजेश पाठक भी उनके बड़े बेटे डा. गिरीश पाठक के समान डा. बने या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके इंजीनियर बने किंतु ऐसा नही हो पाया। इनके पिताजी हमेशा कहा करते थे कि राजेश तुम जिस क्षेत्र में सेवारत हो वहाँ निष्ठा और ईमानदारी से काम करते हुए अपने अंदर की प्रतिभा को इतना जाग्रत करो कि तुम्हारा नाम रोशन हो सके।

राजेश जी को बचपन से ही सृजन का शौक था उन्होने लेखन के साथ साथ मंच संचालन की कला को अपनाया। शुरूआत में उन्हें कुछ कठिनाईयां आई परंतु कुछ समय के बाद वे इसमें दक्ष हो गये। इन्होंने अनेको कार्यक्रम में सफलता पूर्वक मंच संचालन किया तथा पाथेय प्रकाशन के माध्यम से साहित्यिक कृतियों का संपादन किया। पाठक जी कहते हैं कि उनके माता पिता का दिशा दर्शन हमेशा उनके जीवन में प्रेरणा स्त्रोत रहा है। यह उन्हीं का आशीर्वाद है कि आज संचालन के क्षेत्र में गौरव से उनका नाम लिया जाता हैं।

राजेश पाठक जी हमारी युवा पीढी के लिये उदाहरण है। यह जरूरी नही कि सभी विद्यार्थी डाक्टर या इंजीनियर बनकर ही जीवन पथ में आगे बढ़े। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे अंदर क्षमताएँ क्या हैं। हम इन्हें सही दिशा में विकसित करें तो उस क्षेत्र में सफल होगें। वे कहते हैं कि उन्होंने अपनी आंतरिक क्षमता और उर्जा का सदुपयोग किया। एक समय था जब वे 18 घंटे तक मेहनत करके अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए व्यस्त रहते थे। उनका कहना हैं कि कोई भी व्यक्ति अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा, समर्पणशीलता से ही जीवन में प्रगति कर सकता है। हमें जीवन को जीवटता के साथ जीते हुए सकारात्मक सृजन की दिशा में बढ़ना चाहिए।

12. आत्मबल

मानकुंवर बाई महाविद्यालय की प्राचार्या सुश्री आशा दुबे ने अपने कथन को लघु कहानियों का स्वरूप देकर इसे प्रस्तुत किया। मेरा पैतृक गांव बघराजी है मेरे पूर्वज वहाँ के मालगुजार थे। हम लोग कभी कभी गांव जाया करते थे। एक दिन बिहारी नामक किसान अपनी बैलगाड़ी पर सामान लादकर गांव लौट रहा था, तभी उसकी बैलगाड़ी दलदल में फँस गई। उसके सभी प्रयासों के बावजूद भी बैलगाड़ी बाहर नही निकल सकी। गांव के लोग वहाँ से निकलते और बिहारी की हालत देख, व्यंग्य से मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते थे। उसके उद्दंड और दुष्ट स्वभाव के कारण किसी ने भी उसकी सहायता नही की । जब यह जानकारी गांव के ही दूसरे किसान महीपाल को मिली तब अपने शत्रु के प्रति भी उसका सद्भाव जाग्रत हो उठा और उसने घटना स्थल पर जाकर अपने हृष्ट पुष्ट बलवान बैलों की सहायता से बिहारी की गाड़ी को दलदल से बाहर निकाल लिया। बिहारी महीपाल के स्वभाव को देखकर पानी पानी हो गया। अब वह शत्रुता छोडकर उसका मित्र बन गया। सद्भाव, शत्रुता का अंत और मित्रता का सूत्रपात करता है।

डा. आशा दुबे ने मुझे बताया कि उनकी कक्षा में एक ऐसी छात्रा थी जो मासिक परीक्षाओं में बड़ी मुश्किल से उत्तीर्ण हो पाती थी। वार्षिक परीक्षा में जब उसे सर्वप्रथम स्थान मिला तो सब लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी अयोग्य छात्रा सर्वप्रथम कैसे आ गई ? इसने जरूर नकल की होगी और इस प्रकरण की छानबीन के लिए कालेज में एक जाँच समिति बैठा दी। उस समिति द्वारा जब उस छात्रा की मौखिक परीक्षा ली गयी तब यह देखकर सब लोग बहुत आश्चर्यचकित हुए कि उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किये। कालेज में अब तो सर्वत्र उसी की चर्चा हो रही थी। एक सहेली के पूछने पर अपनी गौरवपूर्ण सफलता का रहस्य बताते हुए उस छात्रा ने कहा कि मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया था कि मैं वार्षिक परीक्षा में अवश्य प्रथम स्थान प्राप्त करूँगी। मैंने मन लगाकर एकाग्रचित्त होकर मेहनत की, कठिनाईयों से निराश नही हुई और अपने अध्ययन में जुटी रही। मेरी सफलता मेरे दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है। सच है दृढ़ संकल्पित व्यक्ति के लिए जीवन में कुछ भी असंभव नही है।

मेरी एक अभिन्न मित्र बहुत बीमार थी चिकित्सीय परामर्श पर उसके स्वास्थ्य लाभ हेतु एक अलग कमरे में रखा गया था। वह अपनी खिड़की के बाहर एक वृक्ष की डाली को प्रतिदिन ध्यानपूर्वक देखा करती थी। धीरे धीरे उस डाली में पत्तिया झड़कर केवल एक पत्ती शेष रह गई। मेरी बीमार सहेली को ऐसा लगा कि उस पत्ती के झडते ही उसका जीवन भी समाप्त हो जाएगा। यह बात उसने मुझे बताई, मैंने एक अच्छे चित्रकला में पारंगत चित्रकार को जब अपने मित्र की इस वेदना से अवगत कराया तब उसने अपनी हार्दिक सद्भावना से प्रेरित होकर रातों रात उस शुष्क डाली को अपनी चित्रकला के कौशल से हरा भरा बना दिया। मेरी उस बीमार मित्र ने उस डाल को जब सुबह हरा भरा देखा तो उसका आत्मविश्वास और मनोबल अचानक जाग उठा। उसकी उदासी समाप्त हो गई और वह स्वस्थ्य होने लगी। इसका निष्कर्ष यह है कि हम अपने मनोबल और आत्मविश्वास के सहारे उल्लासपूर्ण एवं सफल जीवन जी सकते हैं।

13. सद्विचारों की नींव

श्री अखिलेश कुमार शुक्ल एक इन्जीनियर हैं। उनके प्रपिता पं. रविशंकर शुक्ल मध्य प्रान्त जिसे तब सी. पी. एण्ड बरार कहा जाता था, के मुख्य मंत्री थे। उनके पिता श्री ईश्वरीचरण शुक्ल एक प्रसिद्ध ई. एन. टी. सर्जन थे। श्री अखिलेश शुक्ल 1970 में इन्जीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद एच. ई. एल. भोपाल में काम करने लगे।

श्री शुक्ल ने 1976 में विख्यात अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी में कुवैत में काम करना प्रारम्भ किया। कुवैत में उनका काम अच्छा जम गया। उनका परिवार भी उनके साथ था। उस समय भारत अपनी उन्नति के शिखर से दूर था। उनकी पत्नी और बच्चे सब वहाँ के माहौल में ढल चुके थे। कुवैत विश्व के सबसे अमीर देशो में से एक था। सभी तरह की वैश्विक सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध थीं। अब कुवैत ही उनका घर बन चुका था। उनकी आय भी बहुत अच्छी थी। उनके और उनके परिवार के सभी सदस्य कुछ वर्षों तक और वहाँ रहना चाहते थे। श्री शुक्ल जीवन के चालीस वसन्त पार कर चुके थे।

अचानक 1988 में उनके जीवन में एक दोराहा आया। उनके पिता का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। उन्हें देखभाल की आवश्यकता थी। उनके चाचा लोगों ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अब अपने देश वापिस आकर अपने पिता की देखभाल करना चाहिए और यहीं पर काम करना चाहिए। यह समय उनके लिये किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। एक ओर परिवार के सदस्य थे जो एक वैभवशाली जीवन जी रहे थे जबकि दूसरी ओर भारत में उनके परिवार की जीवनशैली सादा जीवन उच्च विचारों वाली थी। प्रश्न था कि क्या वे इस परिवर्तित जीवनशैली को स्वीकार कर पाएंगे? एक समस्या और भी थी कि अनेक वर्षों तक कठिन परिश्रम करके जो काम और नाम कुवैत में कमाया है उसे छोड़कर भारत में फिर नये सिरे से काम जम सकेगा और क्या उसमें वैसी ही सफलता मिल सकेगी? इसके साथ ही यह भी कि जब पिता को उनकी आवश्यकता है तब क्या वे उनकी अनदेखी कर दें?

अन्त में विजय पारिवारिक संस्कारों की हुई और श्री शुक्ल ने भारत आकर अपने पिता का संबल बनने का निर्णय लिया। वे भारत आ गये। उनके आने से उनके पिता को जो प्रसन्नता हुई थी उसे उन्होंने अनुभव तो किया है किन्तु उसका वर्णन करने में वे अपने आप को असमर्थ पाते हैं। यहाँ आकर उन्होंने नये सिरे से अपना काम प्रारम्भ किया। कड़ी मेहनत की। ईश्वर की कृपा और बुजुर्गों के आशीर्वाद से उन्हें यहाँ भी सफलता मिली। उनका काम भी सुचारू रुप से चलने लगा और समाज में भी उन्हें एक प्रतिष्ठित स्थान मिला।

उनका कहना है कि यदि जीवन में सद्विचारों की नींव पर निर्णय लिये जाएं तो सफलता और खुशहाली निश्चित ही प्राप्त होती है।

14. निर्जीव सजीव

जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह करते रहे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में शासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आश्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम की चर्चा करते रहते थे।

पेड़ भी निर्जीव नही सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।

एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में बैठे वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा में झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी।

समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने शयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।

गाँव वालों ने दोनो का एक दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण को देखते हुए निर्णय लिया कि उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ इसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग शामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत शरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनो की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी प्रेरणास्पद हैं। यदि हमें प्रकृति को बचाना है तो वृक्षों से प्रेम करना होगा।

15. सफलता का नींव

एक शाला में कक्षा बारहवीं के छात्रों को अध्यापक महोदय जीवन में लक्ष्य, उद्देश्य एवं संगठित होकर कार्यरत रहने से प्राप्त सफलता के विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। उन्होनें चींटी का उदाहरण देकर बताया कि एक तिलचट्टा मरा हुआ पड़ा था वहाँ पर कुछ ही समय बाद हजारों की संख्या में चींटियाँ आ गई और एक लंबी कतार बनाकर उसके मृत शरीर को धीरे धीरे खिसकाकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास कर रही थी जहाँ पर वे लंबे समय तक उसे आहार के रूप में ग्रहण कर सकें।

यदि हम इस घटना का चिंतन करें तो हम उनका लक्ष्य व उद्देश्य समझ सकते हैं वे अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण लगन के साथ इतनी समर्पित थी कि उन्हें उनके रास्ते से विमुख नही किया जा सकता था यदि आप कोई अवरोध भी करने का प्रयास करेंगे तो वे उसके आस पास से आगे बढने का अपना रास्ता निकाल लेती है। वे हर चुनौती का सामना संगठित होकर करने के लिये तैयार रहती है। वे अपनी जान दे देंगी परंतु अपने कर्तव्य से विमुख नही होगी। मैं आपको एक दूसरा उदाहरण हंसों का दे रहा हूँ आप कभी भी किसी भी हंस को अकेला उड़ते हुये नही देखेंगे। ये जब भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं तो अपने समूह में ही रहकर एक साथ अपना स्थान बदलते हैं। ये जब उडान भरते हैं तो इनका आकार इस प्रकार का रहता है कि हवा की गति का दबाव सबसे सामने रहने वाले हंसों पर पडता है और वह हंस कुछ समय तक इसका सामना करता है और थक जाने पर पीछे होकर दूसरे हंसों को आगे कर देता है, इस प्रकार यह क्रिया सतत चलती रहती है जब तक कि वे गंतव्य तक ना पहुँच जाए।

इन दो उदाहरणों से हमें समझना चाहिये कि जीवन में उद्देश्य पूर्ण लक्ष्य का निर्धारण करके संगठित होकर पूर्ण लगन, परिश्रम एवं समर्पण रखकर क्रियाशील रहना चाहिये। जीवन में यही सफलता का आधार है।

16. चयन

रमेश आज डाक्टर की उपाधि पाकर बहुत खुश था। उसके मन में यह विचार आ रहा था कि अब वह गांवों में जाकर गरीब जरूरतमंद लोगों की सेवा करके अपने जीवन के ध्येय व उद्देश्य को पूरा करने की दिशा में कार्यरत हो सकेगा। वह अपने पुराने दिनों की ओर स्मरण कर सोच रहा था कि वह जब दसवीं कक्षा में उत्तीर्ण हो गया था और उसे भविष्य में विज्ञान या कामर्स विषय में से किसी एक विषय का चयन करना था, उसके परिवारजनो का कहना था कि व्यापारिक पृष्ठभूमि होने के कारण कामर्स लेना उसके लिए हितकारी रहेगा परंतु वह स्वयं विज्ञान विषय में आगे पढ़ने हेतु लालायित था।

छात्रों को भविष्य में विषयों के चयन में क्या चुनना चाहिये इस संदर्भ में प्रधानाध्यपक महोदय ने अपने अधीनस्थ अध्यापकों की मदद से सभी छात्रों एवं उनके अभिभावकों को आमंत्रित करके उनके विचारों को जानने का प्रयास किया। इसमें सामंजस्य स्थापित करने के लिये अध्यापकों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी उन्होंने सभी को समझाया कि शिक्षा जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग है और आपके भविष्य का निर्धारण इसी पर निर्भर है। यदि आपने विषय के चयन में गलती कर दी तो आप अरूचि के कारण उस से दूर होते जाऐंगे एवं अपेक्षित सफलता से वंचित रहेंगे। अभिभावकों को अपने बच्चों की रूचि में विशेष ध्यान देना चाहिये और उन्हें अपने विचारों को बच्चों पर नही थोपना चाहिये। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि अभिभावक भी सजग हो गये और उन्होने स्नेह पूर्वक अपने बच्चों से उनकी रूचि जानने का प्रयत्न करने लगे। रमेश के माता पिता भी उसकी विज्ञान विषय में गहरी रूचि देखकर उन्होने अपना निर्णय बदल दिया और विज्ञान विषय के लिये सहमति प्रदान कर दी। उसी का यह सुफल है कि वह चिकित्सक बन सका। यह घटना अभिभावकों को प्रेरणा देती है कि उन्हें अपने बच्चों की अभिरूचि के अनुसार ही आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए।

17. हृदय परिवर्तन

रमेश एक व्यापारी था जो अपनी पत्नी और पाँच वर्षीय बच्ची के साथ रहता था। एक दिन रात के तीसरे पहर में एक चोर उनके घर में घुस आया। वह बच्ची जाग रही थी और उसके माता पिता गहरी नींद में सो रहे थे। बच्ची उस चोर को देखकर उससे बोली तुम्हें जो चाहिये हो ले जाओ, मैं चाबी दे देती हूँ परंतु मेरे माँ पिताजी को कुछ मत करना। उनको नींद से मत उठाना, इतना कहकर उसने अपनी माँ के तकिये के नीचे से चाबी निकालकर चोर के हवाले कर दी। चोर ने रूपये, जेवरात इत्यादि इकट्ठे कर लिये तभी वह बच्ची बोली कि मेरे पास टाफी और चाकलेट भी हैं यह भी ले जाओ अपने बच्चों को दे देना। यह सुनकर वह चोर ठिठका और अपने अतीत में खो गया। उसे उस दिन की याद आने लगी जब इसी उम्र की उसकी बच्ची बीमार थी और वह गरीबी के कारण उसका उचित इलाज नही करा पाया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी। उसकी अकाल मृत्यु के कारण वह आक्रोश में चोरी का धंधा अपनाकर अमीर बनने की ख्वाहिश रखने लगा। उस बच्ची के शब्दों ने उसे भीतर तक हिला दिया और वह सब सामान वही पर छोडकर बच्ची के सिर पर हाथ फेरकर चुपचाप घर से वापस चला गया।

इस घटना कुछ दिनों पश्चात् वह बच्ची अपने माता पिता के साथ नदी में नौका विहार का आनंद ले रही थी। अचानक ना जाने कैसे नौका असंतुलन के कारण पलट गयी और वह बच्ची पानी में डूबने लगती है। वह चोर व्यक्ति संयोग से उस दिन नदी किनारे स्नान कर रहा था। यह दृश्य देखकर वह तेजी से तैरता हुआ उस बच्ची के पास तक पहुँच जाता है और उसे अथक प्रयासों द्वारा डूबने से बचाकर किनारे तक ले आता हैं। इस दौरान उस चोर के पेट में पानी भर जाने के कारण उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगती हैं। वह बच्ची की ओर देखते हुये मुस्कुराकर अपनी पुरानी यादों में खो जाता है उसी समय वह बच्ची भी उसके माथे को सहलाती है। वह बच्ची से कहता है कि बेबी तुम्हारे उस दिन के कथन एवं व्यवहार ने मेरा हृदय परिवर्तित कर दिया था। मैंने चोरी छोड़कर परिश्रम करके जीवन यापन प्रारंभ किया है। आज मैं खुष हूँ कि जो भी कमा रहा हूँ ईमानदारी से अपने श्रम से प्राप्त कर रहा हूँ। मुझे अब किसी प्रकार का भय नही होता, क्योंकि मैं ईमानदारी के पथ पर चल रहा हूँ।

18. समाधान

रागिनी एक संभ्रांत परिवार की पढी लिखी, सुंदर एवं सुषील लडकी थी। उसका विवाह एक कुलीन परिवार के लडके राजीव के साथ संपन्न हुआ था। उसके माता पिता आश्वस्त थे कि उनकी बेटी उस परिवार में सुखी रहेगी परंतु उसके विवाह के कुछ माह बाद ही उसे दहेज के लिये प्रताड़ित किया जाने लगा और उसकी यह पीडा प्रतिदिन उस पर हो रहे अन्याय एवं अत्याचार से बढती जा रही थी। उसका पति भी प्रतिदिन नशे का सेवन कर उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगा था जिससे वह बहुत दुखी थी। एक दिन तो हद ही हो गई जब उसके पति ने उस पर हाथ उठा दिया। उसके पडोसी भी उसके प्रति सहानुभूति रखते हुये उसे सलाह देते थे कि वह यह बात अपने माता पिता को बताये एवं पुलिस की मदद भी प्राप्त करे परंतु रागिनी समझती थी कि इससे कुछ समय के लिये राहत तो मिल सकती है परंतु यह स्थायी समाधान नही है।

जब उस पर अत्याचार की पराकाष्ठा होने लगी तो उसने गंभीरतापूर्वक चिंतन मनन करके एक कठोर निर्णय ले लिया जो कि सामान्यतया भारतीय नारी के लिये चुनौतीपूर्ण था उसका पति प्रतिदिन की आदत के अनुसार शाम को नशा करके घर आया और रागिनी को ऊँची आवाज में डाँटता हुआ उस पर हाथ उठाने लगा तभी रागिनी ने उसका हाथ अपने हाथ से जोरो से पकड लिया और जब उसने दूसरा हाथ उठाने का प्रयास किया तो रागिनी ने अपनी पूरी शक्ति और ताकत से उसके इस प्रहार को रोककर उसे जमीन पर पटक दिया। वह साक्षात रणचंडी का अवतार बन गयी थी। वह समाज को यह बताना चाहती थी कि नारी अबला नही सबला है और वह अत्याचार का प्रतिरोध भी कर सकती है। अब उसने पास ही में पडे एक डंडे से राजीव पर प्रहार कर दिया। राजीव डंडे की चोट से एवं अपनी पत्नी के इस रौद्र रूप को देखकर दूसरे कमरे की ओर भाग गया। यह एक सत्य है कि नशा करने वाले व्यक्ति का शरीर अंदर से खोखला हो जाता है वह ऊँची आवाज में बात तो कर सकता है परंतु उसमें लडने की षक्ति खत्म हो जाती है। राजीव की बहन उसे बचाने हेतु बीच में आयी परंतु वह भी डंडे खाकर वापस भाग गयी।

यह घटना देखकर मुहल्ले वाले राजीव के घर के सामने इकट्ठे होने लगे और महिलाओं का तो मानो पूरा समर्थन रागिनी के साथ था, रागिनी एक स्वाभिमानी महिला थी जिसने अपने माता पिता के पास ना जाकर एक मकान उसी मोहल्ले में किराए पर ले लिया। वह स्वावलंबी बनना चाहती थी, वह पाककला में बहुत निपुण थी उसने इसका उपयोग करते हुये अपनी स्वयं की टिफिन सेवा प्रारंभ कर दी। शुरू शुरू में तो उसे काफी संघर्ष एवं चुनौतियों का सामना करना पडा परंतु धीरे धीरे सफलता मिलती गयी।

आज वह एक बडी दुकान की मालिक है जिसमें सौ से भी अधिक महिलाएँ कार्य कर रही हैं। उसकी प्रगति देखकर राजीव और उसका परिवार मन ही मन शर्मिंदा होने लगा और अपनी हरकतों के कारण पूरे मुहल्ले में सिर उठाने के लायक भी नही रहा। हमें जीवन में संकट से कभी घबराना नही चाहिये। जीवन में कभी भी चिंता करने से समस्याएँ नही सुलझती है समाधान पर ध्यान केंद्रित कर इस दिशा में कर्म करना चाहिये।

19. जब जागो तब सवेरा

शहर में हरिप्रसाद एक प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। उनके एक मित्र ने उन्हें उकसा कर शेयर मार्केट के मुनाफे के विषय में समझा दिया। अब वे प्रतिदिन शेयर की सट्टेबाजी में रम गये और लाखों के नफ़ा नुकसान में उन्हें मजा आने लगा। वे जब तक यह समझ पाते कि शेयर मार्केट में प्रतिदिन खरीद एवं बिक्री में कोई मुनाफा नही कमा सकता तब तक बहुत देरी हो चुकी थी और वे बहुत बडी पूंजी गंवा चुके थे। वे यह बात भूल गये कि वे स्वयं सबको शिक्षा देते थे कि व्यक्ति को जुआ कभी नही खेलना चाहिये जिसका अंत सिर्फ बरबादी ही होता है और उनके साथ भी यही हुआ।

कुछ ही माह में उनके इस शौक ने उन्हें करोडो़ रूपये का घाटा पहुँचा दिया उन्हे जब होष आया तब तक वे काफी नुकसान उठा चुके थे एवं दिवालिया होने की कगार पर आ गये थे। उन्होने तुरंत ही इस काम से तौबा कर ली और शहर के एक रेस्टारेंट को जोकि घाटे में चल रहा था उसे बहुत कम किराए पर लेकर वे इस व्यवसाय में कूद पड़े। उन्होंने अपनी मेहनत, लगन व चतुराई से इसे शहर का सर्वश्रेष्ठ रेस्टारेंट बना दिया। वहाँ पर शहर के गणमान्य लोग, शासकीय अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि इत्यादि आने लगे। हरिप्रसाद इन लोगों से धीरे धीरे मित्रता करके व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के काम अधिकारियों से करवाकर अपना कमीशन लेने लगा। इससे उसे बहुत आर्थिक लाभ हुआ और वह पहले से भी ज्यादा संपन्न व्यक्ति बन गया।

हरिप्रसाद ने एक बार गीता जी पर साप्ताहिक प्रवचन बहुत उत्साह,प्रेम एवं श्रद्धा से अपने घर पर आयोजित किया जिसमें कर्म, धर्म एवं व्यापार से संबंधित विषय पर मार्गदर्शन दिया गया था इसे सुनकर उसे अपने द्वारा अवैधानिक कार्यो से होने वाली आय को उचित आय ना मानकर उन्होने पूर्णतः बंद कर दिया। उन्हें अपने द्वारा किये गये इन गलत कार्यों पर ग्लानि होने लगी। उन्होने व्यापार संबंधी परामर्श देने हेतु व्यापारिक परामर्श केंद्र की स्थापना की जिसका उद्देश्य व्यापार से संबंधित कठिनाईयों के निराकरण हेतु परामर्श देना था उनका मत था कि यदि सही समय पर सही सलाह मिल जाए तो कठिनाईयों का हल आसान हो जाता है। इस परामर्श केंद्र में ईमानदारी और नैतिकता के साथ व्यापार करने की विधि समझायी जाती थी। हरिप्रसाद को इस कार्य के माध्यम से बहुत आंतरिक संतुष्टि एवं शांति मिलने लगी।