Him Sparsh - 16 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 16

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हिम स्पर्श - 16

मौन अभी भी व्याप्त था। वफ़ाई को यहाँ छोड़कर कैप्टन को गए दो घंटे से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। दोपहर हो चुकी थी। सूरज माथे पर आ गया था। दोनों के मन उद्विग्न थे किन्तु धीरे धीरे शांत होते जा रहे थे। फिर भी कोई किसी कुछ नहीं बोला।

“जीत, मुझे भूख लगी है और मैं कुछ खाना चाहती हूँ। कुछ मिलेगा क्या?” अंतत: वफ़ाई ने मौन के साम्राज्य को तोड़ा।

वफ़ाई तूलिका हाथ में लिए चित्रकारी में व्यस्त था। उसने वफ़ाई के शब्दों की उपेक्षा की। वफ़ाई ने अपने शब्द दोहराए, जीत ने भी उपेक्षा दोहराई।

वफ़ाई जीत के समीप गई और उसके कान में चिल्लाई,”मुझे भूख लगी है और मैं खाना चाहती हूँ। क्या कोई मुझे सुन रहा है?” वफ़ाई ने स्मित किया। जीत पूर्ण रूप से पिघल गया, स्मित का उत्तर स्मित से दिया।

“यदि तुम्हें खाना हो तो तुम्हें पकाना पड़ेगा। पका लो और खा लो। मेरी रसोई बनाना मत भूलना।“ जीत ने सस्मित कहा।

“तुम्हारा खाना कौन बनाता है?” वफ़ाई ने पूछा।

“कोई नहीं। मैं स्वयं बनाता हूँ।“

“तो फिर तुम कैसे अपेक्षा करते हो की मैं खाना बनाऊं? और हाँ, मैं तो अतिथि हूँ, मेरा ध्यान रखना तुम्हार नैतिक दायित्व है, जीत।‘

“ठीक है। मैं फिर से तुम्हारे साथ लड़ाई करना नहीं चाहता। वहाँ फ्रिज में कुछ खाना पड़ा है उसे खा लो।“जीत ने फिर से स्मित दिया और चित्रकारी में व्यस्त हो गया।

फ्रिज में वफ़ाई को खाना और कुछ फल मिले। उसे लेकर जीत के समीप आकर बोली,”तुम कुछ लोगे?”

जीत ने स्मित के बदले में खाना मांगा। वफ़ाई ने स्मित भी दिया, खाना भी दिया। मौन होकर दोनों भोजन का आनंद लेने लगे।

मरुभूमि मौन थी। हवा मौन बह रही थी, मौन गगन देख रहा था, बादल भी मौन यात्रा कर रहे थे, रेत मौन पड़ी थी, मार्ग मौन थे, पंखी भी मौन उड़ रहे थे। सब कुछ मौन था, शांत था। केवल दोनों के मन अशांत थे। दोनों बात करना चाहते थे, एक दूसरे को जानना चाहते थे किन्तु कोई भी बात नहीं कर रहा था। दोनों प्रतीक्षा कर रहे थे कि सामनेवाला बात प्रारम्भ करे। दोनों मौन थे अत: दोनों अशांत थे।

दोनों चित्र को बिना किसी उद्देश्य से देख रहे थे। चित्र शांत एवं मौन था। किन्तु चित्र में बसे आकार शांत नहीं थे, वह कुछ कह रहे थे।

चित्र में एक तरफ एक पर्वत था, झरना था, नदी थी, घाटी थी, काला घना जंगल था, हिम था, बादलों से भरा काला गगन था तो दूसरी तरफ मरुभूमि थी, एकांत से भरा मार्ग था, रेत थी, खुल्ला गगन था एवं सपाट और सुखी धरती थी। चित्र की दोनों बाजुओं में स्पष्ट विरोधाभास था। एक मात्र समानता थी कि दोनों तरफ एक एक व्यक्ति था।

रेत पर खड़ा व्यक्ति हिम पर खड़े व्यक्ति की तरफ अपना हाथ बढ़ाकर खड़ा था तो हिम पर खड़ा व्यक्ति दुविधा में था कि उस हाथ से हाथ मिलाएँ अथवा नहीं।

वफ़ाई उन सभी आकारों को ध्यानपूर्वक देखती रही और उसके अर्थ को समझने का प्रयास करने लगी। उसने देखा कि एक तरफ रेत है तो दूसरी तरफ हिम है।

“रेत पर खड़ा व्यक्ति जीत है जो मुझे अपनी मित्रता का आमंत्रण दे रहा है। और मैं हिम पर खड़ी विचार रही हूँ कि उस आमंत्रण का स्वीकार करूँ अथवा उसकी उपेक्षा करूँ?” वफ़ाई ने स्वयं से बात की।

“ओह, कितना सुंदर है यह!” वफ़ाई बोल पड़ी। उसने तीन चार बार आँखें बंध की फिर खोली, वह उठी, चित्र के समीप गई, तूलिका उठाई, रंगों में डुबोई, और रेत की तरफ से बढ़े हाथ से हिम पर खड़े व्यक्ति का हाथ जोड़ दिया। चित्र कुरूप हो गया, उसने अपना सौन्दर्य खो दिया। वफ़ाई व्यथित हो गई।

जीत ने वफ़ाई की प्रत्येक क्रिया को देखा और वह जो कर रही थी वह उसे करने दिया। चित्र को कुरूप होते हुए जीत ने देखा किन्तु वफ़ाई को नहीं रोका।

जीत भी चित्र के समीप गया,”मुझे यह तूलिका देंगी?”

वफ़ाई ने तूलिका दे दी। जीत ने उसको रंगों में भिगोया और कुछ ही क्षण में उसने चित्र को फिर से सुंदर बना दिया। रेत के हाथ में हिम का हाथ था।

वफ़ाई आनंदित हो गई।

“कितनी सरलता से तुमने इसे फिर से सुंदर बना दिया।“ वफ़ाई ने जीत की प्रशंसा की।

“यह तो जीवन की भांति है।“ जीत ने गगन की तरफ देखते हुए कहा।

“वह कैसे?” वफ़ाई ने रुचि दिखाई।

“जीवन भी सरल एवं सुंदर ही होता है, किन्तु अवांछित रंगो को उसमें भरकर हम उसे जटिल बना देते हैं। यदि हम जीवन के चित्र से उन रंगों को हटा दें तो वह भी सुंदर बन जाता है।“जीत ने तूलिका को अपने स्थान पर रख दी ।

“चलो हम भी वर्तमान के इन क्षणों को सुंदर बना दें।“ वफ़ाई ने जीत को आमंत्रित किया।

दोनों झुले के समीप गए, वफ़ाई झूले पर बैठ गई, जीत खड़ा रहा। वफ़ाई ने अपने विषय में सब कुछ बता दिया.... उसका नगर, उसका पर्वत, उसकी नौकरी, हिम से रेत तक की यात्रा, सेना क्षेत्र में भूल से घुस जाना, आदि।

सब कुछ कहने के पश्चात वफ़ाई रुकी, जीत को देखने लगी। जीत बड़ी ही रुचि से वफ़ाई को सुन रहा था, वफ़ाई को जानने का प्रयास कर रहा था, वफ़ाई की उपथिति को अनुभव कर रहा था। वफ़ाई आनंदित थी।

“जीत, मेरे विषय में अब और कुछ नहीं कहना है मुझे। अब तुम बताओ अपने विषय में।“ वफ़ाई ने जीत को स्मित देते हुए झूले को रोका। वह चित्र के समीप जा खड़ी हो गई, जीत के शब्दों की प्रतिक्षा में उसे निहारती रही।

जीत मौन था। वफ़ाई के पर्वत अभी भी उसके मन में थे। वह उस पर्वत की हवा एवं उसके हिम को कुछ और समय तक अनुभव करना चाहता था अत: वह मौन था।

वफ़ाई उत्सुक थी जीत को लेकर,”जीत, अब तुम कुछ कहो, तुम्हारी बारी है अब। तुम्हारे विषय में जानने को मैं उत्सुक...”

“वफ़ाई, वह सब फिर कभी बताऊंगा।“

“इस क्षण क्यों नहीं?”

“दो कारण है इसके। एक, मैं कुछ समय तक पर्वत को अनुभव करना चाहता हूँ, यदि मैं मेरी मरुभूमि तक की यात्रा कहने लगा तो मेरे मन और ह्रदय से वह पर्वत ओझल हो जाएगा जो मैं नहीं चाहता।

दुसरा, हम दोनों को भूख लगी है, चलो कुछ खाना बनाते हैं।“ जीत कक्ष की तरफ बढ़ा, वफ़ाई भी।

खाना बनाते समय दोनों के बीच मौन - पर्वत का मौन, घाटी का मौन और मरुभूमि का मौन- व्याप्त रहा।

भोजनोपरांत वफ़ाई झूले पर जा बैठी, जीत चित्र के समीप खड़ा हो गया। वफ़ाई ने अपने आँख और कान को जीत पर केन्द्रित किया। सभी ध्वनि अद्रश्य हो गए, गहन शांति व्याप्त हो गई। जीत ने अपने अधरों को धीरे से खोला और शब्दों को प्रवाहित होने दिया।

“वफ़ाई, यह स्थान मेरा घर नहीं है। कुछ महीनों पहले तक मैंने कच्छ देखा नहीं था। मैं मुंबई से हूँ। मैं विज्ञान का अनुस्नातक हूँ। एक बड़ी उत्पाद इकाई का मैं प्रभारी था। मेर बड़ा नाम था। मुझे अच्छा वेतन और अच्छी सुविधाएं उपलब्ध थी। दो वर्ष के अंदर ही मालिक ने उसे बेच दिया, मैंने खरीद लिया। मैं मालिक बन गया।“ जीत रुका, आँखें बंध की, गहरी सांस ली, आँखें खोल दी।

वफ़ाई और अधिक जानना चाहती थी, जीत को पूरी रुचि से देख रही थी, सुन रही थी। वफ़ाई कुछ समय धैर्य रखते हुए जीत की आगे की बात की प्रतीक्षा करने लगी। जीत की मौन मुद्रा लंबी खींच गई।

“जीत, क्या हुआ? यह सब तो बीती बात थी। यह बताओ कि उसके बाद क्या हुआ? यहाँ कैसे आ गए? कब आए यहाँ? यहाँ कैसे बीत रही है? यह चित्रकला, यह रंग...” वफ़ाई ने रुचि व्यक्त की।

“एक वर्ष तक कारोबार अच्छा चला और व्यापार में लाभ होने लगा। कुछ सन्मान भी मिले। वह क्षण मेरे और मेरे साथियों के लिए गर्व के थे। फिर अचानक मैंने यह सब छोड़ देने का निश्चय कर लिया। मैंने कारोबार बेच दिया, मुंबई छोड़कर इस मरुभूमि में आ बसा।“ क्षण भर रुका जीत । फिर आगे कहने लगा,” यह स्थान मुझे पसंद आ गया, पूरा जीवन यहीं व्यतीत करने का निश्चय कर लिया था। तो मैंने इसे खरीद लिया। सेना ने मेरे इस मकान खरीदने पर विरोध किया था। किन्तु, किसी भी तरह मैं सेना को मनाने में सफल रहा और सेना ने सम्मति प्रदान कर दी। मुझे इस मकान के मालिक बनाने में कैप्टन सिंघ ने भरपूर सहयोग दिया। मैं उसका सम्मान करता हूँ। वह कभी भी इस तरफ निकलते हैं, मुझे अवश्य मिलकर ही जाते हैं। हम दोनों अच्छे मित्र हैं।“

“ओह। यही कारण होगा की कैप्टन सिंघ तुम पर विश्वास करते हैं और मुझे तुम्हारी शरण में छोड़ गए।“

“वफ़ाई, मैं कोई साधू-संत नहीं हूँ कि तुम मेरे शरण में आ कर रहो।“

“मेरा तात्पर्य वह नहीं था... मैं तो कहना चाहती थी कि ...” वफ़ाई शब्दों में उलझ गई।

“अरे रे, मैं तो बस यूं ही। चलो छोड़ो।“ जीत ने स्मित के सहारे स्थिति को संभाल लिया।