चाहत
सावन माह में चारों ओर फैली हरियाली मन को प्रफुल्लित कर रहीं थी। आनन्द और राकेश बगीचे में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। उनमें इस बात पर चर्चा हो रही थी कि जीवन कैसा होना चाहिए। राकेश ने कहा- मैं तो समझता हूँ कि जीवन एक दर्पण के समान होता है। हमारी सोच सकारात्मक होना चाहिए। प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है और उसका जीवन बिना संघर्ष के एवं बिना किसी सृजन के बेकार है। जीवन में सेवा सबसे बड़ा कर्म है।
वे अपनी बातचीत में व्यस्त थे तभी चौकीदार ने आकर राकेश से कहा- सर, एक महिला आपसे मिलने के लिये सुबह सात बजे से बैठी है। मैंने उसे बतलाया भी कि आज छुट्टी का दिन है तुम आफिस में कभी भी जाकर मिल लेना। परन्तु वह बिना मिले जाने को तैयार नहीं है। वह आपसे पांच मिनिट का समय चाहती हैं। उसे कोई बहुत जरुरी काम है। उसका कहना है कि उसे कलेक्टर साहब के रीडर ने भिजवाया है।
राकेश ने आनन्द की ओर देखते हुए पूछा- बताओ! क्या किया जाए?
आनन्द ने कहा- अभी तो तुम अच्छी-अच्छी बातें मुझसे कर रहे थे। उसकी बात पांच मिनिट में सुन लेने में क्या बुराई है? क्या पता वह किस जरुरी काम से सुबह-सुबह तुम्हारे पास आई हो?
राकेश ने उस महिला को वहीं ले आने को कह दिया।
एक सौम्य, शालीन और सादे कपड़े पहने हुए महिला ने प्रवेश किया।
राकेश ने उससे बैठने का आग्रह किया। वह संकोच के साथ पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठ गई। राकेश ने पूछा- कहिये आप क्या कहना चाहती हैं?
मेरा नाम सविता है। मैं नजदीक ही सुकरी गाँव में रहती हूँ। मेरा विवाह तीन वर्ष पूर्व ही हुआ था। मेरे पति आटो चलाते हैं। उसी से हमारा परिवार चलता है। अभी दो माह पहले उन्हें कुछ तकलीफ हुई। जाँच कराने पर पता लगा कि उनकी दोनों किडनी बेकार हो गईं हैं। इनके इलाज में हमारी सारी पूंजी खर्च हो गई और कर्ज भी हो गया है। हमारी थोड़ी सी जमीन थी वह भी बिक गई। घर में हम चार लोग हैं। इनके माता-पिता तथा मैं और ये। कमाई करने वाले यही एक हैं। इनके बीमार हो जाने से अब कमाने वाला कोई नहीं रह गया। मैं सुबह-सुबह आपके पास इसलिये आई हूँ कि मेरे पास आज इनके डायलेसिस के लिये भी रूपया नहीं है। भगवान जाने आगे क्या होगा। आज 12 बजे तक इनका डायलेसिस कराना है।
उसने आंसू पोछते हुए बतलाया- मैं कलेक्टर के पास मदद के लिये गई थी । जिस समय मैं उनकी राह देख रही थी उसी समय कलेक्टर के यहाँ उनके रीडर ने मुझे आपका पता देकर कहा कि- मैं आपसे मिलूँ। आपके माध्यम से मेरी समस्या का कुछ समाधान जल्दी निकल सकेगा। इसीलिये मैं आपके पास आई हूँ। मेरे आने से आपके कामों में जो खलल पड़ा उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
राकेश ने पूछा- आप मुझसे क्या चाहती हैं और मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ?
यह सुनकर उसकी आँखों से आंसू बहने लगे और बोली- मैं बहुत परेशान हो चुकी हूँ। दिन रात इनकी चिन्ता और घर की समस्याएं व तनाव मिलकर मुझे जीने नहीं दे रहे हैं। हालत बहुत खराब है। हर दूसरे दिन डायलेसिस हो रहा है। डाक्टरों का कहना है कि किडनी बदलने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मेरी ननद इनको किडनी देने तैयार है लेकिन उसके लिये मेरे पास धन नहीं है। इतना कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।
राकेश और आनन्द ने उसे सांत्वना दी और समझाते हुए पूछा कि इलाज में कितने धन की आवश्यकता है और उसके पास कितनी व्यवस्था है?
सरकार से मुझे ढाई लाख रूपये की सहायता मिल रही है जो सीघे मुम्बई के जे जे अस्पताल को दे दिया जाएगा। जे जे अस्पताल के डाक्टरों ने भी बिना किसी शुल्क के आपरेशन करने की सहमति दे दी है। इसके अतिरिक्त भी मैंने कुछ व्यवस्था की है लेकिन अभी भी पूरे इलाज में चार लाख रूपये कम पड़ रहे हैं। इसकी व्यवस्था कैसे हो इसी आशा में आपके पास आई हूँ।
उसकी बात सुनकर राकेश और आनन्द एक-दूसरे से चर्चा करने लगे। उन्होने उसे सान्त्वना देते हुए ढाढ़स बंधाया और उसे बताया कि मैं और आनन्द एक-एक लाख रूपये आपको दे देंगे किन्तु यह राशि अस्पताल के नाम से ही दी जाएगी। राकेश ने मुम्बई में अपने एक मित्र से चर्चा की और सविता से कहा- आपका काम हो जाएगा। धन की व्यवस्था हो गई है। मैं आपको मुम्बई का एक पता दे रहा हूँ। वे धन के साथ-साथ आपके रहने और खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था कर देंगे।
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सविता के प्रति राकेश और आनन्द दोनों के ही मन में सहानुभूति का भाव स्थान ले चुका था। वह अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए मुसीबत के समय में न केवल अपने पति के साथ खड़ी थी वरन उसकी जीवन रक्षा के लिये जी तोड़ मेहनत कर रही थी।
वे लगातार उसके पति के उपचार के विषय में जानकारी लेते रहते थे। एक दिन जब वे इस विषय पर बात कर रहे थे तब आनन्द ने कहा-
कठिनाइयों में
कठिनाइयों के करीब होते हुए भी
उन्हें कठिन मत समझो
कठिनाइयों को खत्म करने की शक्ति
हममें है
और हम
उन्हें खत्म करके
जीवन को एक नई दिशा
एवं नया आयाम दे सकते हैं।
सविता ने इस बात को पूरी तरह से सिद्ध कर दिया है। राकेश भी आनन्द की इस बात से सहमत था। वह बोला-तुम सच कहते हो। आज के समय में ऐसा समर्पण और ऐसी कर्मठता कम ही देखने को मिलती है। मैं तो उसकी बहिन का भी कायल हूँ जो अपने भाई के जीवन की रक्षा के लिये अपनी एक किडनी तक देने को तत्पर है। आज ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं।
देखो राकेश जीवन में ऐसा कोई नहीं है जिसे कोई चिन्ता न हो और ऐसी कोई चिन्ता नहीं है जिसका कोई समाधान न हो। चिन्ताओं का निवारण करते हुए आशा और निराशा के बीच झूलता हुआ पेण्डुलम के समान हमारा जीवन है। आशा से भरे हुए जीवन का नाम ही वास्तविक जीवन है। निराशा के निवारण का प्रयास ही जीवन संघर्ष है। जो इसमें सफल है वही सुखी और सम्पन्न है। दुख और निराशा है जीवन का अन्त। यही है जीवन का नियम और जीवन का क्रम। जीवन पथ प्रायः होता है अनजाना, संकटपूर्ण और कष्टों से भरा हुआ। हम होते हैं प्रायः दिग्भ्रमित, यदि सही मार्ग मिल गया तो हम अपने लक्ष्य तक सरलता से पहुँच जाते हैं, अन्यथा भटकने में ही समय नष्ट होता जाता है। इसलिये हमें सबके विचारों को सुनना चाहिए और अपने विवेक से निर्णय लेना चाहिये कि हमें कब, किसकी और कितनी सहायता करना है।
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सविता अपने पति और ननद के साथ ट्रेन में मुम्बई जा रही थी। वह बहुत थकी हुई थी और ट्रेन छूटने के कुछ समय बाद ही अपनी बर्थ पर आँख मूंद कर लेट गई। उसके विचारों में उसका बचपन आ गया।
वह सपनों में परियों की कथाएं और नानी की कहानियाँ सुनकर अपनी आँखों में प्यार अनुभव करती हुई सपनों के संसार में खो गई। ट्रेन में हल्का सा झटका लगने पर उसकी नींद खुल गई और वह आसपास सबको देखकर पुनः आँख बन्द कर सो गई। वह जीवन और मृत्यु का चिन्तन कर रही थी और इसी में खो कर उसे लगा कि मृत्यु जैसे उसके पति को छूकर निकल गई हो। मृत्यु के इस अहसास ने उसे ईश्वर के प्रति विश्वास में और वृद्धि कर दी। अब वह अपने गाँव को याद कर रही थी। नदी किनारे बसे हुए उसके गाँव में लोग कितने सीधे सरल और सच्चे हैं। वह अपने पति के इलाज के लिये उनसे निवेदन कर रही है किन्तु उसे कोई भी सहयोग देने के लिये आगे नहीं आ रहा है। वह राकेश और आनन्द के विषय में सोचती है कि वे लोग कितने भले हैं। उसके पति का इलाज चालू हो गया है और उसके पति को आपरेशन थियेटर में ले गए हैं और तभी उसकी नींद खुल जाती है।
वह पति के पास जाती है और देखती है कि दवाओं का समय हो गया है। वह उनका हालचाल पूछती है और दवाएं देती है। दिन ढल चुका था। वह ननद के साथ भोजन करती है। उसकी ननद उसे समझाती है कि चिन्ता मत करो ईश्वर जो करेगा सो अच्छा ही करेगा। तुम प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक पति की सेवा में व्यस्त हो। तुम्हारी नियति है कि जब तक सांस है तब तक आस है और तुम्हें प्रयासरत ही रहना है। हमारा लक्ष्य है कि किसी भी प्रकार जगदीश अच्छा हो जाए। यह सच है कि जीवन में सभी की सभी मनोकामनाएं पूरी नहीं होतीं। लेकिन जो अपने लक्ष्य को पाने के लिये सच्चे मन से परिश्रम करते हैं अपने धन, धैर्य और कर्म में समन्वय रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं उन्हें एक दिन सफलता अवश्य मिलती है। तुम देखना जगदीश बिल्कुल अच्छा हो जाएगा। तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं जाएगी। ईश्वर तुम्हारी मदद अवश्य करेगा। भोजन के बाद दोनों अपनी-अपनी बर्थ पर सोने चले जाते हैं। उनके मन में यह चिन्ता थी कि मुम्बई में क्या होगा? वे कहाँ रूकेंगे? कैसे इलाज होगा? इलाज के बाद क्या होगा? आदि।
मुम्बई पहुँचने पर जब वह ट्रेन से उतरती हैं तो उन्हें एक आदमी उनके नाम की तख्ती लिये घुमता हुआ दिखलाई देता है। वे लोग उसके साथ हो जाते हैं। वह उन्हें ले जाकर अस्पताल के पास ही एक धर्मशाला में ठहरा देता है। वह उन्हें अपना नम्बर भी देता है और कहता है कि आप लोग निश्चिन्तता के साथ अपना कार्य कीजिये और किसी भी प्रकार की आवश्यकता हो तो वे उसे फोन कर दें वह सारी व्यवस्था कर देगा।
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वे दूसरे दिन प्रातः अस्पताल पहुँचे। उन्हें डा.माथुर की प्रतीक्षा थी। डा. माथुर को ही उसका उपचार करना था। सविता को चिन्तित देखकर जगदीश ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- हम चिन्तन में खोकर भूत, वर्तमान व भविष्य का मन्थन करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि जो समय बीत गया वह खत्म हो गया। जो वर्तमान में हो रहा है वह हमारा प्रारब्ध है और भविष्य की नकारात्मक सोच से परेशान होना हमारी विवेकहीनता है। जीवन में जो हो रहा है और जो भविष्य में संभावित है तुम उसे रोक नहीं सकती। तुम केवल एक दर्शक के समान हो उसे बदलने का अधिकार या ताकत तुममें नहीं है फिर उसे सोच-सोचकर दुखी क्यों होती हो। हम सही समय पर सही निर्णय लेकर आपरेशन के द्वारा किडनी प्रत्यारोपण करवा रहे हैं। जिससे हमारा शरीर सुरक्षित रह सके। तुम अपने मन में किसी प्रकार की आशंका मत रखो। जो भगवान की मर्जी है वही होगा। यह भी भरोसा रखो कि सब ठीक होगा। वह इस प्रकार की बातें कर ही रहा था तभी डा. माथुर का आगमन होता है।
अपना क्रम आने पर सविता और उसकी ननद, जगदीश को लेकर डा. माथुर के पास गये। उन्होंने गहराई से उसकी जाँच की और उसकी जाँच रिपोर्ट्स को चैक किया। फिर वे बोले आपको इनकी और किडनी डोनेट करने वाले की कुछ जाँचें और करवाना है। मैं लिखकर दे रहा हूँ। इनकी रिपोर्ट भी शाम तक मिल जाएंगी। कल इनकी किडनी का प्रत्यारोपण किया जाएगा। वे उसे समझाकर बतलाते हैं कि आपरेशन के उपरान्त भी मरीज को कोई संक्रमण न हो सके इसलिये दो माह तक आपको विशेष ध्यान देना होगा। आप किसी को भी उनके पास तक नहीं जाने दीजियेगा। स्वयं भी आप उनके पास मास्क लगाकर ही जाइयेगा।
सविता उनसे कहती है- डाक्टर साहब! हम लोग बहुत गरीब लोग हैं आप सब की सहायता से ही इस कार्य को कर पा रहे हैं।
डाॅ. माथुर ने उससे कहा- आप निश्चिन्त रहिए। हम लोग अपनी पूरी कोशिश करेंगे और मुझे पूरा विश्वास है कि आप लोग यहाँ से खुशी-खुशी घर जाएंगे। मुझे आप लोगों के विषय में सारी जानकारी हो चुकी है। आपकी लगन, आपके परिश्रम और आपकी सेवा भावना के कारण ही हमारे अस्पताल के पूरे स्टाफ ने यह निश्चय किया है कि हम लोग आपसे किसी प्रकार का शुल्क नहीं लेंगे। हमारी अस्पताल के डाक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ अच्छी सेवा प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। हम प्रयास ही कर सकते हैं। परिणाम तो ऊपर वाले पर ही निर्भर है। आपकी ननद जो अपनी किडनी दान कर रही हैं वह भी बहुत ही प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय है।
कल की ही बात है, एक सम्पन्न आदमी की किडनी का प्रत्यारोपण हम लोगों ने किया है। उसकी पत्नी बार-बार हम लोगों से कह रही थी कि धन की चिन्ता न करें। धन चाहे जितना लग जाए पर मेरे पति के जीवन की रक्षा हो जाए। मैंने उन्हें भी समझाया था कि धन से आदमी के प्राणों का कोई संबंध नहीं है। अगर धन से जान बचती होती तो दुनिया का कोई धनवान कभी न मरता। लेकिन ऐसा नहीं है। आप भरोसा रखिये मैं और मेरे सभी सहयोगी पूरे मन से आपके पति की जान बचाकर उसे स्वस्थ्य बनाने के लिये कटिबद्ध हैं।
दूसरे दिन जब जगदीश को आपरेशन के लिये ले जाया जा रहा था उस समय राकेश, राकेश की पत्नी और उसका मित्र विष्णु भी वहाँ उपस्थित थे। सभी सविता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे। सविता को चिन्ता तो थी लेकिन सभी उपस्थित लोगों को देखकर उसके अन्दर एक आत्म विश्वास जागृत हो गया था कि उसके पति स्वस्थ्य हो जाएंगे। वह अपनी ननद के स्वास्थ्य के लिये भी ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी। दो-ढाई घण्टे के बाद डा. माथुर ने आकर आपरेशन की सफलता सूचना दी। दोनों मरीजों को सघन चिकित्सा कक्ष में स्थानान्तरित किया जा चुका था और उनकी पूरी देखरेख की जा रही थी।
डा. माथुर ने आपरेशन के बाद की सावधानियों और व्यवस्थाओं के संबंध में सविता को समझाया और उसके परिश्रम की सराहना भी की। सविता ने भी डाक्टर साहब और पूरे अस्पताल के लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके निर्देषों का पालन करने की सहमति दी।
डा. माथुर जा चुके थे। वहाँ उपस्थित लोग भी जाने को तत्पर थे तभी उनमें से एक युवक ने आकर सविता से कहा-
मैं एक समाजसेवी संस्था की ओर से आपके पास आया हूँ। मेरा नाम विनोद है। मैं प्रतिदिन सुबह शाम आकर देख लिया करूंगा। आप मेरा नम्बर ले लीजिये, अस्पताल से भी आपको मेरा नम्बर मिल सकता है। आप जब भी मुझे फोन करेंगी मैं कुछ ही समय में आपके पास पहुँच जाउंगा।
सविता देख रही थी कि जब से वह आया था सभी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। खास तौर से बीमारी और उपचार के विषय में तो वह काफी गम्भीर था। विनोद भी बाकी सदस्यों के साथ अस्पताल से विदा हो जाता है।
अब अस्पताल में सविता अकेली रह गई थी। वह सघन उपचार कक्ष के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी भगवान को याद करती हुई अपने पति और ननद के स्वस्थ्य होने की कामना कर रही थी। बीच-बीच में वह आती-जाती नर्सों से और अन्य कर्मचारियों से उनका हाल जानती रहती थी। शाम को लगभग छैः बजे के आसपास विनोद आता है। वह अपने साथ एक थर्मस, गिलास-कप आदि लिये हुए था। सविता अकेली बाहर कुर्सी पर बैठी हुई थी। वह पास की ही दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता है। वह पूछता है-
अब उन लोगों का क्या हाल है?
अस्पताल में भीतर तो रहने नहीं देते हैं। मैं बीच में दो बार उन्हें देखने भीतर गई थी। ड्यूटी डाक्टर ने बतलाया कि स्थिति ठीक है और चिन्ता की कोई बात नहीं है।
विनोद ने थर्मस से चाय भरकर सविता को भी दी और स्वयं भी ली। उसने बतलाया कि यहाँ से जाने के बाद उसने डाक्टर माथुर से बात की थी।
क्या कह रहे थे?
उनका कहना है कि यदि तीन साल पहले इनका ठीक से उपचार होता तो यह स्थिति नहीं आती।
इनको तकलीफ तो रहती थी। उपचार भी करवाते थे किन्तु हमें यह लगता था कि मामूली पेट दर्द है। फिर दवाओं से आराम भी लग जाता था। जब तकलीफ बढ़ गई तो बड़े डाक्टर को दिखलाया। हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बड़े डाक्टरों की फीस भी अधिक होती है। इसलिये भी थोड़ी सी लापरवाही हो गई।
डा. माथुर कह रहे थे कि ऐसे केसेज में सत्तर प्रतिशत तक तो मरीज ठीक हो जाते हैं किन्तु तीस प्रतिशत मामलों में किडनी प्रापर रिस्पान्स नहीं करती है और स्थिति बिगड़ भी जाती है।
आप सब लोगों की सहायता से मैं जितना कर सकती हूँ कर रही हूँ। आगे भगवान की मर्जी।
आपके परिवार से और कोई साथ नहीं आया?
परिवार में इनके और मेरे माता-पिता हैं। सभी वृद्ध और कमजोर हैं इसलिये उन्हें साथ लाना उचित नहीं था। मेरे ननदोई घर पर बच्चों के साथ हैं और वे अपना परिवार देख रहे हैं। उन्हें यहाँ की जानकारी मैं देती रहती हूँ।
आप कहीं नौकरी करती हैं?
नहीं! मैं घर पर ही रहती हूँ और घर की देखभाल करती हूँ।
आपको देखकर लगता है कि आप काफी पढ़ी-लिखी हैं?
मैंने एम. एससी. और एमसीए किया है। मैं जाब तलाश कर रही थी तभी मेरी इनसे मुलाकात हो गई। ये भी पोस्ट ग्रेजुएट हैं। परिवार की परिस्थितियों के कारण और नौकरी न मिलने के कारण ये आटो चलाने लगे। मेरे घर वालों को इनके आटो चलाने पर बहुत एतराज था। वे हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे। हम लोगों ने लव मैरिज की थी। हमारा अन्तर्जातीय विवाह हुआ था, इस कारण से परिवारों में वैसे संबंध नहीं हैं जैसे होना चाहिए। आपके परिवार में कौन-कौन हैं?
मेरे यहाँ आभूषण निर्माण का काम होता है। मैं, मेरा बड़ा भाई और पिता जी मिलकर अपना व्यवसाय देखते हैं। मैं व्यापार के साथ-साथ परिवार को भी देखता हूँ। इसके साथ-साथ समाजसेवा भी करता हूँ। इसमें मेरे पिता जी का भी सहयोग रहता है। आप यदि मेरी बात को अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ?
कहये!
अस्पताल में रिश्तेदारों को सिर्फ शाम को ही मिलने दिया जाता है। आपको अभी दो-तीन माह यहाँ रहना पड़ेगा। बाकी समय में आप क्या करेंगी। यदि आप कहें तो मैं आपके लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ। इससे आपका समय भी अच्छे से निकल जाया करेगा और इलाज भी चलता रहेगा।
दो-चार दिन देख लें। इनकी हालत थोड़ा सुधर जाए तो मन हल्का हो जाएगा। आप यदि मेरे लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकें तो यह मेरे ऊपर आपका बड़ा उपकार होगा।
विनोद कुछ देर वहाँ और रूकता है। वह जगदीश को देखने भी जाता है और उसकी हालत की भी जानकारी लेता है। उसके बाद वह चला जाता है।
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दूसरे दिन विनोद दोपहर में लगभग 12 बजे आया। उसने सविता से जगदीश के हालचाल जानने के बाद भीतर जाकर उसे देखा और ड्युटी डाक्टर से उसके विषय में बात की। फिर वह सविता के पास आया। उसने सविता को खुशखबरी देते हुए बतलाया कि अस्पताल के नजदीक ही उसने एक फर्म में सविता के लिये नौकरी की बात की है। उसने यह भी बतलाया कि वह जब भी चाहे काम प्रारम्भ कर सकती है।
विनोद ने जब उससे उसके खाने के विषय में पूछा तो पता चला कि अभी उसने भोजन नहीं किया है तब वह उसे किसी होटल में चलने के लिये कहता है। सविता के लिये मुम्बई एक अपरिचित नगर था। उसे कदम-कदम पर किसी सहारे की आवश्यकता थी। वह सहमति दे देती है।
विनोद उसे पास ही एक अच्छे होटल में ले गया। सविता ने जब होटल की भव्यता और सुन्दरता देखी तो उससे कहा- मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी अच्छी होटल नहीं देखी।
मुम्बई बहुत बड़ी है। यह हमारे देश की आर्थिक एवं सांस्कृतिक राजधानी है। अगर आप यहाँ नौकरी करती हैं तो धीरे-धीरे आप मुम्बई के रंग में ढल जाएंगी और यहीं की होकर रह जाएंगी। यह नगर इसी तरह से महानगर बना है। यहाँ के अधिकांश लोग बाहर से आकर ही यहाँ बसे हैं।
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सविता ने दूसरे दिन ही नौकरी पर जाना प्रारम्भ कर दिया। विनोद उसे लेकर उस फर्म तक गया था और वहाँ उसके मालिक से उसका परिचय करवा आया था। अब सविता की दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गई थी। वह सुबह तैयार होकर अस्पताल जाती। वहाँ से निकल कर अपने काम पर चली जाती और फिर शाम को अस्पताल पहुँच जाती। शाम को विनोद आता था तो रात्रि का भोजन वे प्रायः साथ-साथ ही किया करते थे। वहाँ से विनोद उसे उसके गेस्ट हाउस में छोड़कर फिर अपने घर जाता था। उनके बीच संबंध प्रगाढ़ होते जा रहे थे। विनोद प्रायः उसके लिये उपहार आदि लाता रहता था। सविता उसको अस्वीकार नहीं कर पाती थी। जगदीश दिनों-दिन अच्छा होता जा रहा था। सविता उसकी ओर से निश्चिन्त होती जा रही थी और विनोद के रुप में उसे एक अच्छा और विश्वसनीय साथी मिल गया था जिससे वह अपने सारे सुख-दुख और मन की बातें खुल कर कह लेती थी। विनोद मन ही मन सविता के प्रति झुकता जा रहा था।
एक दिन रात्रि के भोजन के दौरान विनोद ने सविता से पूछा कि वह जीवन में क्या बनना चाहती थी। सविता ने एक ठण्डी सांस भरकर कहा- जीवन में किसी की सभी हसरतें कहाँ पूरी होती हैं। फिर उनकी चर्चा करने से क्या फायदा?
उसकी बात सुनकर विनोद भावुक हो गया। उसे लगा जैसे उसने सविता के किसी मर्म स्थान पर हाथ रख दिया है। वह उसे समझाते हुए बोला-
जिन्दगी में सभी हसरतें
पूरी नहीं होतीं
और नहीं बनती हैं
भविष्य का आधार।
हम समझ नहीं पाते
हसरतें हैं
हमारे जीवन का दर्पण।
हसरतों को पूरा करने के लिये
करना पड़ता है
बहुत परिश्रम।
धन, ज्ञान, कर्म और भाग्य का समन्वय
बनता है
सफलता का आधार।
यदि हम करते रहें
निरन्तर प्रयास
तो हमारी सभी हसरतें
एक दिन
निश्चित ही होती हैं पूरी।
वह भावुक होकर कहता है- जीवन में सब कुछ पाया पर एक दिन यह काया मिटकर केवल धर्म और कर्म की स्मृतियां ही रह जाएंगी। हमें अपने जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य को समझना चाहिए। भाग्य है एक दर्पण के समान और पौरूष है उसका प्रतिबिम्ब। दोनों का जीवन में सामन्जस्य हो तभी जीवन की सम्पूर्णता होकर सफलता मिलती है। जीवन में एक दिन सभी को अनन्त में विलीन होना है। अतएव भगवान द्वारा प्रदत्त इस जीवन का पूरा-पूरा उपभोग कर लेना चाहिए। वह सविता के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना में बह रहा था। सविता उसकी बातों को सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
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जगदीश को दो दिनों से ज्वर आ रहा था। डाक्टर उसका उपचार कर रहे थे किन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। आज डाक्टरों ने बतलाया कि ट्रांसप्लान्ट की गई किडनी सही रिस्पान्स नहीं कर रही है। वे सविता को अपने रिश्तेदारों को बुला लेने के लिये कहते हैं। इस स्थिति से सविता काफी असहज हो गई थी। उसने अपने सास-ससुर को खबर कर दी थी। दूसरी ओर उसकी ननद बिलकुल सामान्य हो गई थी। उसे रिलीव किया जा रहा था। जगदीश की हालत बिगड़ती ही जा रही थी।
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सविता के सास-ससुर मुम्बई पहुँच गये थे। जगदीश के उपचार के लिये डाक्टर लगातार प्रयास कर रहे थे किन्तु वे उसे नहीं बचा सके। जगदीश इस दुनियां को छोड़कर चल दिया। सविता इस घटनाक्रम से लगभग टूट चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सभी की सलाह पर जगदीश का अंतिम संस्कार वहीं मुम्बई में ही किया गया। सविता वहां से छुट्टी लेकर अपने सास-ससुर के साथ अपने गृह नगर आ गई। मृत्यु के बाद के सारे काम हो जाने के बाद उनके परिवार के सामने फिर आजीविका की समस्या खड़ी हो गई थी। परिवार की सहमति से ही सविता वापिस मुम्बई रवाना हो गई। वहां उसने अपनी पुरानी सेवाएं पुनः प्रारम्भ कर दीं। वह नियमित रुप से अपने सास-ससुर को भी खर्च भेजती रहती है।
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उस दिन शाम को जब विनोद उसके पास आता है तो वह कुछ चिन्तित सा था। वह सविता को समुद्र के किनारे घुमाने ले जाता है। वहाँ वे एक चट्टान पर बैठे थे। तभी विनोद उससे कहता है- मेरी समझ में नहीं आ रहा मैं तुमसे अपने मन की यह बात कैसे कहूँ?
कौन सी बात?
विनोद कुछ रूककर कहता है मैं चाहता हूँ कि मैं और तुम जीवन भर एक दूसरे के साथ रहें। यदि तुम स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूँ।
उसकी बात सुनकर सविता अवाक रह जाती है। वह कहती है- यह सही है कि आप एक बहुत अच्छे इन्सान हैं। ईश्वर ने आपको सब कुछ दिया है। मेरी और आपकी कोई बराबरी नहीं है। मैंने जगदीश से प्रेम विवाह किया था। वही मेरा पहला और अंतिम प्यार था। मैंने आपको कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा। मेरे ऊपर मेरे माता-पिता और सास-ससुर की जिम्मेदारी है। यही कारण है कि मैं पुनः मुम्बई वापिस आ गई हूँ। आपने मुझे जो काम दिलवा दिया है उसी से कमाकर मैं उनकी सेवा करुंगी। मैं आजीवन आपकी आभारी रहूंगी कि आपने निस्वार्थ भाव से एक अपरिचित परिवार का इतना ध्यान रखते हुए सेवा,सुश्रुषा प्रदान की, और अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया कि जगदीश अच्छा हो जाए। पर मेरा दुर्भाग्य है कि अथक प्रयासों के बाद भी हम उसे बचा नही सके।
मेरे ऊपर दो परिवारों की जवाबदारी आ गयी है। मेरे माता पिता जिन्होने मुझे जन्म दिया और दूसरे मेरे सास ससुर जिन्होने विवाह के बाद मुझे अपनी बेटी के समान रखा। इन सभी का मेरे अलावा और कोई नही हैं। मुझे ही इन सबकी देखभाल अकेले ही करनी होगी, मैं अपनी जवाबदारी से विमुख होकर विवाह कर लूँ , यह मेरे लिए संभव नही है। मैं भारतीय सभ्यता,संस्कृति एवं संस्कारों में पली हूँ। और मैं आजीवन उनके देखभाल में अपना समय देना चाहती हूँ। आप मुझे गलत मत समझयिगा।
मैं तो आपके सुखद व संपन्न भविष्य की प्रभु से हमेशा प्रार्थना करती रहूँगी। अब मेरी और आपकी राहें अलग अलग हो रही है।
विनोद कुछ उत्तर नहीं देता। उसका सिर कुछ झुका हुआ था। सविता भी मौन थी। कुछ देर बाद दोनों उठकर चल पड़े। पश्चिम में सागर में सूरज डूबता चला जा रहा था।