Swabhiman - Laghukatha - 52 in Hindi Short Stories by Vinita Rahurikar books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 52

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स्वाभिमान - लघुकथा - 52

1 - स्वाभिमान

“क्या भाई साहब आपके लिए रिश्तों से बढकर पैसा हो गया? कैसा जमाना आ गया है. सब अपने स्वार्थ में ऐसे डूबे हैं की किसी की परेशानियों से तो लेना-देना ही नहीं रहा...खा थोड़े ही न रहा हूँ आपका पैसा कर दूँगा वापस. हद है इतनी बार आपको बताया लेकिन आप हैं की तकाजे पर तकाजा किये ही जा रहे हैं...”

अरविन्द ने बेहद कडवे और अपमानजनक स्वर में कहकर खटाक से फ़ोन काट दिया तो रवि तिलमिला गया. तीन साल हो गये चचेरे भाई को उसने दो लाख रूपये आड़े वक्त में उधार दिए थे लेकिन अब वो है की हर बार बहाना बनाकर अब तो अपमान करने पर उतर आता है पैसा मांगने पर.

तभी आगे चौराहे पर सिग्नल लाल हो गया तो रवि ने स्कूटर रोक दी.

“साहब ये पेन ले लो न.. बोहनी हो जाएगी...” एक लड़का आकर मिन्नत करने लगा.

रवि ने अपनी भुनभुनाहट में उसे टालने के लिए अनदेखा किया लेकिन वह लगातार मिन्नत करता रहा तो रवि ने उसे डांटने के लिए उसकी तरफ देखा. सैट-आठ साल के उस लडके का एक हाथ कोहनी के नीचे से कटा हुआ था. उसी हाथ पर लटके थैले में उसने पेन भर रखे थे. रवि को दया आ गयी. उसने तीन-चार पेन लिए और सौ रूपये उसे पकड़ा दिए.

“मैं अभी सत्रह रूपये खुल्ले करके आपको देता हूँ.” कहते हुए लड़का एक तरफ चला गया.

जब तक लड़का खुल्ले पैसे लेकर आता तब तक सिग्नल हरा हो गया और रवि ने स्कूटर आगे बढ़ा दी. लड़का तेजी से भागती गाड़ियों के बीच से भागते हुए रवि के पीछे आने लगा. तीसरे सिग्नल पर जब दुबारा गाड़ी रुकी तब लड़का हाँफते हुए आया और रवि को पैसे पकड़ाए.

“तू पागल है क्या? कितना मना किया तुझे की पैसे वापस मत कर रहने दे लेकिन तू भागती गाड़ियों के बीच दौड़ा चला आ रहा है. चोट लग जाती तो..” रवि बोला.

“मैं मेहनत की खाता हूँ साहब. मुफ्त का ही पैसा खाना होता तो भीख नहीं मांग लेता...” लडके के चेहरे पर स्वाभिमान की दृढ़ छाया थी.

***

2 - रंगमंच

हाथ-पैर जोडती दीपा रोते हुए गिडगिड़ा रही थी लेकिन रमेश का हाथ नहीं रुक रहा था. धुआँधार गालियाँ देता हुआ वह उसपर लगातार डंडे बरसाए जा रहा था. बस्ती के सभी लोग अपने-अपने काम में व्यस्त थे. वहाँ के रंगमंच पर यह तो आये दिन का दृश्य था. दो-एक लोगों ने रमेश को एखाद बार-

“अरे अब बस भी कर..”

“जाने दे अब...” जैसे जुमले कहे और इधर-उधर हो लिए.

औरतें क्या कहती, वे भी पिटती रहती हैं अपने पतियों से. पुरुष क्या कहते, कल को वे भी शराब पीकर और पैसों की माँग करके अपनी औरतों को पीटेंगे.

की तभी रमेश का डंडा गलती से पास सोये कुत्ते भूरे पर पड़ गया. नींद में पहले तो भूरा बिलबिलाकर जोर से किंकियाया, फिर रमेश के हाथ में डंडा डेक, सारा माजरा समझकर दांत निपोरकर गुर्राया और रमेश के पैर में जोर से काट खाया.

दर्द से कराहते रमेश के हाथ से डंडा छूट गया. दीपा कभी रमेश को देखती कभी भूरे को. दीपा भले ही भूरे को कितना भी डांट-मार ले लेकिन आज तक भूरे ने कभी उस पर पलटवार तो क्या गुर्राया तक नहीं. जानवर भी अपना पेट भरने वाले का स्वाभाविक सम्मान करता है. लेकिन रमेश जैसे मनुष्य...

दीपा ने डंडा उठाया और तड़ातड़ रमेश पर बरसाने लगी-

“पशु में भी स्वाभिमान की भावना होती है, वह भी बेवजह किसी की मार नहीं खाता. कान खोलकर सुन ले मैं अपना कमाती हूँ तेरा दिया नहीं खाती. आज के बाद हाथ उठाया तो मुझसे बुरा कोई न होगा.”

बस्ती के लोग अपना काम छोड़कर जमा हो गये. उस रंगमंच पर यह एक नया अप्रत्याशित दृश्य विधान था. पुरुषों के माथे पर पसीना छलछला आया, वहीं स्त्रियों के कसे हुए जबड़े और तनी हुई मुठ्ठियाँ उनमे स्वाभिमान के जागकर नये आत्मविश्वास का संचार कर रही थीं.

***

3 - विरासत

“इतनी रात तक कहाँ थी? कुछ घर की इज्जत की प्रवाह है की नहीं. तुम्हे हज़ार बार कहा है न की अँधेरा होने से पहले घर लौट आया करो.” बेटी के घर में कदम रखते ही पिता कठोर स्वर में बोले.

“आशा के घर बैठ कर प्रोजेक्ट पूरा कर रही थी पिताजी, कल जमा करना है कॉलेज में.” बेटी नम्रता से जवाब देकर अंदर चली आई माँ के पास. तब भी पिता का बुरा-भला कहना रुका नहीं था.

“ये क्या है माँ, भैया कितनी भी देर से आये उसे तो पिताजी कभी कुछ नहीं कहते, और मुझसे ऐसे पूछताछ की जाती है जैसे की मैं पढ़ी करके नहीं बल्की कोई पाप करके आ रही हूँ.” बेटी पास आकर भुनभुनाई “ मेरे हर कदम पर या तो सवाल उठते हैं या नसीहतें दी जाती हैं.”

“क्या करें बेटी ये दौर ही कुछ ऐसा है की बाहर दिखावे के लिए शिक्षा, आधुनिकता और समानता का चकाचौंध उजाला है लेकिन अंदर तो आज भी वही आदिम अँधेरा छाया है. बेटे को कुछ कहने से पहले अपना बुढ़ापा दिखने लगता है. इसलिए बेटे को विरासत में नाम, मकान, पहचान सब मिलता है लेकिन बेटियों के हिस्से आज भी डर, असुरक्षा, अपराधबोध, कमजोर व्यक्तित्व आता है. पल-पल उनके स्वाभिमान को तोड़ा जाता है.” माँ एक गहरी साँस लेकर बोली.

“नहीं माँ, मैं अपनी वसीयत खुद अपने हाथ से लिखूँगी अपने साहस और हिम्मत से और अपनी आने वाली नस्लों को एक निर्भय और गौरवशाली जीवन की नींव सौपूंगी विरासत में.” बेटी दृढ स्वर में बोली.

अतीत की औरत मुग्ध होकर देख रही थी, वर्तमान की स्त्री भविष्य की वसीयत में स्वाभिमान से भरपूर जीवन विरासत में लिखने के लिए आत्मविश्वास की सुनहरी कलम थाम चुकी है.

***

4 - सबक

“रुको पूर्वी. जरा इधर तो आओ एक मिनट....”

पूर्वी ट्रेडमिल से उतर कर ट्विस्टर पर जा रही थी तभी जिम के एक ट्रेनर जिमी ने उसे रोका.

“जी सर कहिये क्या हुआ?” पूर्वी ने पूछा.

जिमी ने इधर-उधर देखा. आसपास कोई नहीं था. उसने अपना मोबाईल निकला और पूर्वी को एक विडियो क्लिप दिखने लगा. पूर्वी सन्न रह गयी. आज जिम आने के बाद एक्सरसाईज शुरू करने के पहले जब वह चेंगिंग रम में कपड़े बदल रही थी तब जिमी ने वहाँ मोबाईल छुपाकर उसका विडियो बना लिया था.

“कल दोपहर को डेढ़ बजे घर आ जाना और जो मांगू वो चुपचाप दे देना नहीं तो ये विडियो सबको दिखा दूँगा और सोशल मिडिया पर भी पोस्ट कर दूँगा....” जिमी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी.

“कल क्यों सर जो आप चाहते हो वो मैं अभी दे देती हूँ आपको.” पूर्वी बोली फिर जोर से चिल्लाकर सबसे बोली “सब लोग सुनो... ये जिमी सर ने कपड़े चेंज करते हुए मेरा विडियो बना लिया है. अब ये चाहते हैं की मैं इनकी माँग पूरी करूं. आज जो मेरे साथ किया इसने कल वो बाकि सबके साथ करेगा.”

सभी लडकियाँ और दुसरे ट्रेनर वहाँ इकठ्ठे हो गये.

“अब तुम लोग ही बोलो मुझे क्या करना चाहिए.” पूर्वी ने पूछा.

“करना क्या चाहिए, चल इसके कपड़े उतारकर इसका ही विडियो सोशल मिडिया पर पोस्ट करना चाहिए ताकि आगे से कोई लडकियों के सम्मान को ठेस पहुँचाने की हिम्मत न करे.” एक लडकी बोली.

“चेंजिंग रूम में अकेले में कपड़े बदलना कोई गुनाह तो नहीं है जो लडकियाँ डर जाएँ. गुनाह तो इसने किया है. डरना तो इसे चाहिए.” दूसरी बोली.

“ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए की ये हाथ चूड़ी पहनने के साथ ही डम्बल भी उठाते हैं और अपने स्वाभिमान की रक्षा करना भी जानते हैं.” एक ने हाथ में डम्बल उठाते हुए कहा “चलो इसका विडियो बनाओ ताकि आगे से कोई हमारी प्राइवेसी और इज्जत से खिलवाड़ करने की कोशिश न करे.”

आधे घंटे बाद लहुलुहान जिमी हवालात में था.

***

डॉ विनीता राहुरिकर