Swabhiman - Laghukatha - 49 in Hindi Short Stories by VIRENDER VEER MEHTA books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 49

Featured Books
Categories
Share

स्वाभिमान - लघुकथा - 49

राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता

विषय स्वाभिमान

१ तन्हा आसमान

'इस समय कौन आ सकता है?' डोर-बेल की आवाज पर सोचते हुए निशि ने दरवाजा खोला, सामने रवि था। वर्षों बाद पति को देख वह समझ नही सकी कि वह क्या करे? खामोशी से रास्ता देते हुए अंदर आ गयी और एक मेहमान की तरह उसके लिए नाश्ते का इंतजाम करने लगी।

"कुछ भी नही बदला सात वर्ष में, यहां तक कि मेरे हाथ का लगाया बगीचा भी।" नाश्ते के बीच रवि मुस्काने की कोशिश करता हुआ बोला।

उसकी कही बात पर वह मुस्करा भी नहीं सकी। बस सोचती रही कि किसी अपने के बदलने के बाद बाकी और कुछ बदलना भी कोई मायने रखता है क्या।

चाय से खाने तक दोनों के बीच अधिकाशंत: सन्नाटा ही पसरा रहा। वर्षों से पिता की कमी महसूस करती बेटी की आँखो में जरूर इक मोह का दीया जलने लगा था।.....

"निशी! मैं घर वापिस लौटना चाहता हूँ।" आखिर चलते हुये रवि ने हिम्मत की।

अनायास ही निशी के जहन में वर्षों पहले उस रात की बातें कोलाहल करने लगी।.....

"निशी, मैं 'ग्रीन कार्ड' का ये 'चान्स' 'मिस' नही करूँगा। मैं जा रहा हूँ मारिया के साथ।"

"ऐसा कैसा कर सकते हो तुम रवि?" अपनी पत्नी और चार वर्ष की बेटी को छोडकर....।"

"क्यूँ नहीं कर सकता निशी!" उसकी बात काट चुका था वह। "तुम कामकाजी स्त्री हो, अकेली भी रह सकती हो, केवल मैं ही तो जा रहा हूँ। मेरा नाम, मेरा घर, मेरी बेटी सब कुछ तो तुम्हारे साथ रहेगा ही ना!"

..... बीतें बातें सोचते सोचते निशी का चेहरा कठोर हो चुका था।

"रवि, एक पिता, और इस घर के मालिक बनकर तुम जब चाहो, लौट सकते हो। लेकिन एक पति के रूप में तुम्हारी वापसी अब सम्भव नही होगी।" कहते हुये वह दरवाजे से पलट चुकी थी।

***

२ विरासतों का इतिहास

"अगर आप अनंथया न ले, तो एक बात कहना चाहता हूँ।" आधुनिक पत्रकारिता के 'रणबांकुरों' में से एक, देश के कर्णधारों की जश्न-ए-शाम में 'प्रधान जी' के आदेश को सुनकर बोल उठा।

हाल ही के चुनावों में मिली जीत के बाद जनता में हुयी उनकी जय-जयकार की ख़ुशी में; आज उन्होंने हारे हुए साम्राज्य की विरासत और इतिहास को नए ढंग से स्थापित करने का आदेश दिया था, जिसे सुनकर वह खामोश नहीं रह पाया था।

"हाँ-हाँ, क्यूँ नहीं? कहो क्या कहना चाहते हो?" गर्व से भरा चेहरा मुस्करा रहा था।

"श्रीमान, आपकी इस बेपनाह जीत के बाद सारी प्रजा आपके साथ है और पूरा सरकारी तंत्र भी आप के ही आधीन है, फिर इसे तहस-नहस करके बिना वजह इतनी बर्बादी और सरकारी धन का दुरूपयोग किसलिये?"

"बहुत खूब! अच्छा प्रश्न किया है तुमने।" भावी शासक की आखें चमक रही थी। "किसी भी विपक्ष या पूर्ववर्ती सरकार को केवल चुनाव में ही शिकस्त देना पूरी जीत नहीं होती। पूरी जीत होती है, उसे आगे भी कायम रखना। और इसके लिये सबसे पहले उनके किये कार्यों और इतिहास को भी बदलना जरूरी होता है क्योंकि....." अपनी बात पूरी करते हुए उनकी नजरें सहज ही पत्रकार के चेहरे पर जा टिकी थी। "..... क्यूंकि पत्रकार महाशय, नाम और इतिहास ही किसी विरासत के गौरव होते हैं और जब-जब लोगों को उनके इतिहास का गौरव पुकारता है, वे संघटित होकर फिर से उठ खड़े होते हैं।"

अनायास ही 'रणबांकुरे' के होठों पर मुस्कान आ गयी। "विरासतों के नाम और इमारतों को तो नष्ट किया जा सकता है श्रीमान लेकिन लोगों के अंदर छिपे स्वाभिमान के भाव को नहीं.... कभी नहीं!"

***

३ बेशकीमती उपलब्धियां

.....हैलो, हैलो सर! जिस 'अनआईडिंफाईड आबजेक्ट' पर हम कई वर्षों से काम कर रहे हैं उसकी क्लीयर पिक्चर ए पी ए 10 के भेजे चित्रों में आ गयी है और वो...." 'नासा' के नियंत्रण कक्ष में मानिटर डिस्प्ले पर फ्लैश होते सन्देश पर नजर पड़ते ही अस्सी वर्षीय वयोवृद्ध वैज्ञानिक वेंकटेश्वरमन ने अपनी आखें स्क्रीन पर जमा दी। उन्हें उन झिलमिलाते रंगो का रहस्य सामने आने की आशा पूरी होती दिखाई दी जिसकी उम्मीद वे वर्षों से लगाए बैठे थे। ".... और सर वह एक 'ह्यूमन बॉडी' है जिस पर झिलमिलाते रंग और कुछ नहीं सिर्फ उसपर लिपटे कपड़े के रंग है।"

"तुम मुझे फ़ौरन चित्र भेजो।" उन्होंने बेसब्र होते हुए उत्तर दिया।

क्षण भर में ही चित्र फ़्लैश होने लगे और स्क्रीन की ओर देखते-देखते वेंकटेश्वरमन की आँखे नम होने लगी थी। धुंधली होती स्क्रीन पर एक और अनसुलझी दास्तान उभरने लगी थी। चालीस वर्ष पहले ऐसे ही एक दिन स्क्रीन पर फ़्लैश होते शब्द उनकी आखों के सामने चमकने लगे थे।

"......अटेंशन… अटेंशन आल्स, प्लीज्! मेरा यान अपने मिशन से भटक कर अंतरिक्ष के अंधकार को चीरता हुआ अंतहीन दिशा की ओर बढ़ रहा है और किसी भी क्षण, किसी भी 'पार्टिकल' से टकराते ही इसका अनगिनित टुकड़ो में बिखर जाना तय है। अपनी मृत्यु का मुझे डर नहीं लेकिन नष्ट होते यान के साथ इस मिशन की अमूल्य उपलब्धियां और मेरे देश का गौरव नष्ट हो जाए, ये मुझे स्वीकार नहीं। लिहाजा मैं अपनी सभी उपलब्धियों और प्यारे तिरंगे के साथ यान से बाहर अनंत खुले अंतरिक्ष में निकल रहा हूँ। मैं जानता हूँ, यहाँ मैं हमेशा एक पार्टिकल की तरह विधमान रहूँगा और एक दिन मेरा वतन मुझे तलाश कर ही लेगा। अलविदा हिन्दुस्तान.....!”

'तिरंगे' में लिपटे उसके शरीर पर शान से झिलमिलाते रंग देख अनायास ही वेंकटेश्वरमन के हाथ सैल्यूट के लिये उठ गये थे।

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

(सभी लघुकथाएं स्वरचित मौलिक व प्रसारित हैं।)