यह कोई उस समय की बात है जब मैं नवी कक्षा का छात्र था। किराये के जिस मकान में हम रहते थे वहाँ से मेरा स्कूल कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर था। स्कूल उस समय ज्यादातर विद्यार्थी पैदल ही आया-जाया करते थे। कुछ के पास साइकिलें थी। तब सड़कों पर इतनी भीड़-भाड़ तथा ट्रैफिक नहीं था जितना कि आज देखने को मिलता है। स्कूल का समय प्रातः 9 बजे से सायं 4 बजे तक था।
उस दिन अच्छी धूप खिली हुई थी जो एक सुखद अनुभव दे रही थी। छुट्टी की घंटी बजते ही छात्र कक्षाओं से शोर मचाते हुए दौड़ते हुए ऐसे बाहर की ओर भागते थे जैसे मानो उन्हें जबरदस्ती कैद करके बिठा रखा हो। सभी लोग अपनी-अपनी मस्ती में पीठ पर बैग लटकाये चेहरे पर अत्यंत ख़ुशी की चमक लिए स्कूल से बाहर निकलते हुए दिखाई देते थे। कुछ सीनियर छात्रों के हाथों में ही किताबें-कापियाँ पकडे हुए ही दिखती थी। बैग लेजाना वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे।
उस दिन जब मैं स्कूल से छुट्टी के बाद अपने घर जा रहा था तो रास्ते में लगभग अाधा किलोमीटर की दूरी पर एक भीड़ दिखाई दी! शायद कोई मजमा लगा हुआ था और कोई तमाशा चल रहा था! मन में उत्सुकता जगी और मैं भी चलकर उस भीड़ भरे तमाशे में शामिल हो गया! क्या देखता हूँ एक मदारी जिसने अपने बैल को भलीभांति चमकीली चादर, कौड़ियों के गहनों एवं गोटे की चुनरियों से अच्छी तरह सजा रखा था तथा सींग भी रंगे हुए थे, के साथ तमाशा दिखा रहा था।
सड़क के एक ओर गोल घेरे में लोगों की भीड़ जमा थी और बीच में मदारी बैठा था जबकि बैल चारों ओर गोल घेरे में लोगों को सूंघते हुए चक्कर काटते हुए घूम रहा था। मदारी बैल को "नंदी" कहकर सम्बोधित कर रहा था। वह मदारी के निर्देशों का यथावत पालन कर रहा था और लोग उसके चक्कर लगाने एवं सूंघने पर हर्षित होते हुए छूने का भी प्रयास कर रहे थे जबकि कुछ लोग डर के मारे एकदम पीछे हो जाते थे। बच्चे जब तब तालियाँ पीट देते थे। मदारी की आवाज़ निरंतर हवा में गूँज रही थी। मदारी ने पुकारा- "अच्छा तो नंदी कुछ बाबू साहेब लोग अभी-अभी तुम्हारा करतब देखने नए-नए आये हैं, उन्हें प्रणाम करो।" कहते ही नंदी ने अपनी गर्दन नीचे करली।
मदारी फिर बोला- "एक बार सभी लोगों के पास जाकर सबका आशीर्वाद लो।" मदारी के कहते ही गोल घेरे में घुमते हुए अपनी पहुँच में आ रहे लोगों के पास जाकर अपने मुंह से छूते हुए अपनी गर्दन बार-बार झुकाते हुए आगे बढ़ रहा था मानो सच-मुच आशीष ले रहा हो। सभी लोग उत्सुकता से बेजुबान नंदी के करतब देख रहे थे।
फिर मदारी की आवाज़ गूंजी- "अच्छा तो नंदी अब ये बताओ कि यहाँ सभी लोग तुम्हे अच्छे लगे?" नंदी ने फिर अपनी गर्दन नीचे झुकाकर हिलाते हुए दो-तीन बार हाँ का इशारा कर दिया और फिर एक बार तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल में जान आगयी। फिर नंदी को इस प्रकार के अनेक निर्देश मिलते रहे जिनके जवाब कभी अपनी गर्दन नीचे-ऊपर हिलाकर "हाँ" में तथा कभी बाएं-दाएँ हिलाकर "ना" में जवाब दे रहा था और लोगों की वाहवाही लूट रहा था।
इस बीच कुछ लोग खुश हो-होकर बीच में बिछी चादर में दस-बीस-पचास पैसे के सिक्के उछाल देते थे। कुछ लोग चले जाते थे और कुछ लोग नए आ जाते थे। फिर मदारी की आवाज़ हवा में गूंजी-"अच्छा तो नंदी यह बताओ कि तुम्हे सच्चे इंसान की पहचान है?" नंदी ने "हाँ" में अपना सिर हिलाया।
"क्या तुम नंदी यहाँ पर बिलकुल सच्चे इंसान से मिलवा सकते हो?" इस प्रश्न के जवाब में नंदी ने "हाँ" का इशारा किया और एक ओर धीरे-धीरे बढ़ते हुए घेरा तोड़कर बाहर थोड़ी दूरी पर एक घर के दरवाजे पर जहाँ एक औरत अपनी गोद में एक नन्हे शिशु को लेकर तमाशा देख रही थी, उसके पास जाकर खड़ा होकर अपने मुंह से शिशु को छूने की कोशिश करते हुए अपने स्वामी के अगले निर्देश की प्रतीक्षा करने लगा, मानो कह रहा हो कि यहाँ खड़े इतने लोगों में एकमात्र सच्चा इंसान यही एक बच्चा है।
उस महिला ने भी नंदी की गर्दन पर हाथ फेर कर दुलार दिया। इतने में नंदी को आवाज़ लगी तो वह फिर वापस अपनी जगह घेरे के अंदर आगया। वहाँ कड़ी भीड़ भी बेजुबान नंदी की चालाकी और बुद्धिमानी देखकर दंग रह गयी! कई लोगों ने प्रसन्न होकर दिल खोलकर सिक्के उछाल दिए मानों नंदी को इनाम दे रहे हों। मैंने भी एक सिक्का नंदी के नाम पर उछाल दिया। मदारी की आवाज अभी भी निरंतर गूँज रही थी और अंत में फिर सभी को प्रणाम करवाया गया और खेल की इतिश्री हुई।
यह घटना मेरे मस्तिष्क में एक अमिट छाप छोड़ गयी जो आज भी एकदम ताजा है जो जब भी मुझे याद आती है तो जो बात मुझे तब गहराई से समझ नहीं आयी थी, आज उस बेजुबान पशु का इशारा शत-प्रतिशत कितना खरा उतरता है। आज के दौर में इंसान धीरे-धीरे सच्चाई से कितना दूर होता चला जा रहा है। आज के हालात सभी जगह जो दिखाई देते हैं, उनमे सच्चाई तो नाम मात्र को भी देखने को नहीं मिलती। ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे! ।
—नागेंद्र दत्त शर्मा
बद्रीपुर रोड, लेन-1, जोगीवाला, देहरादून-248005.