धर्म की समकालीन परिभाषा कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है| सितम्बर अक्टूबर माह में पहले गणपति के लिए और फिर दुर्गा-पूजा के नाम पर जो आयोजन हो रहे हैं उनमें कितना धर्म है और कितना अधर्म यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है|
मेरा एक प्रिय प्रश्न है - इस देश को धार्मिक बनाने के लिए कितने मंदिरों की आवश्यकता है? पंडाल भी अस्थाई मंदिर ही हैं और उनका योगदान देश को धार्मिक बनाने में होता ही होगा| इस विषय पर बने रहते हुए यही प्रश्न दूसरी तरह से पूछना पड़ेगा - इस देश को गणपति और दुर्गा पूजा के कितने पंडालों की आवश्यकता है क्योंकि समय के साथ आज यह हाल है कि हर पचास या सौ मीटर पर पंडाल दिखने लगे हैं | कुछ जगह तो सड़क के दोनों और आमने सामने पंडाल सजे होते हैं | क्या टेक्नोलॉजी इस स्तर पर भी पहुँच गयी है कि सड़क के दायीं और के गणपति और सड़क के बायीं और के गणपति के आशीर्वाद में फर्क बता सकती है|
तमाम पंडाल सड़क के किनारे या बीच में अतिक्रमण द्वारा स्थापित होते हैं| शायद ही इनमें से किन्ही लोगों ने इसकी संबद्ध विभागों से अनुमति ली होगी| यदि अनुमति होगी भी तो उसमे जिस आकार का पंडाल स्वीकृत होगा उससे ज्यादा बड़ा स्थान मौके पर घेर रखा होता है| पुलिस या अन्य विभाग भी क्या करें - जब इलाके के नेता, व्यापारी और अन्य प्रभावशाली व्यक्ति आकर खड़े हो जाएंगे तो सही और गलत की परिभाषा बदलने में कितना समय लगेगा| और फिर अगर लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस लग गयी तो स्थिति और भी भयावह हो जाएगी इसलिए बेहतर है कि धारा में बहते रहो|
पंडालों में मूर्ति तो स्थापित होगी ही लेकिन प्रतियोगिता तो इस बात की है कि किसकी प्रतिमा ज्यादा पैसे में बनी है, ज्यादा भव्य है और ज्यादा ऊँचे आकार की है | खबर भी ऐसी ही फैलती है कि फलाने जगह के गणपति ने दो करोड़ के गहने पहने हुए हैं और यह सुन कर भक्त उस पंडाल में उमड़ पड़ते हैं| क्यों? क्या सादी मिट्टी के बने गणपति कम आशीर्वाद देंगे या बीस फिट ऊंची दुर्गा पांच फिट वाली दुर्गा के मुकाबले ज्यादा कृपा करेंगी? प्रश्न यह भी है कि इन भव्य पंडालों के निर्माण में होने वाला खर्च कहाँ से आता है? पंडालों की भव्यता चुनाव के वर्ष में अचानक बढ़ कैसे जाती है? किसी ने बताया कि सारा आयोजन कैश यानि कि ब्लैक में होता है| अब यह चमत्कार तो कलयुग में ही संभव है कि काले धन से सच्चे भगवान के दर्शन हो सकते हैं|
इन पंडालों में रौशनी का लाजवाब इंतज़ाम होता है, मुख्य प्रतिमा तो जगमग होती ही है साथ ही आसपास कई मीटर दूर तक रंग बिरंगी लाइट्स की व्यवस्था रहती है | इन सबके लिए बिजली की सप्लाई कहाँ से हो रही होती है? यह सब भी स्थानीय प्रतिभा के प्रयोग से कटिया डाल कर या अवैध कनेक्शन द्वारा संभव हो पाता है |
इतना सब इंतज़ाम हो और लोगों को पता भी न चले तो क्या फ़ायदा? इसके लिए एक बढ़िया ऑडियो सिस्टम भी लगाया जाता है जो कई किलोमीटर तक भजनों की रिकार्डिंग प्रसारित कर सके| अब अगर ८० डेसिबेल से ऊपर की ध्वनियों को नियम शोर मानता है तो यह नियम की गलती है| रात ग्यारह बजे के बाद यदि आप इसके प्रयोग पर ऐतराज करते हैं तो समझ लें वरना लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती है और वह आपके लिए ठीक न होगा| नियम क़ानून की बात अगर जाने भी दें तो यह तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा कि इलाके के बुजुर्ग और परीक्षाओं की तैयारी में लगे बच्चे और नौजवान रात भर में इसके आयोजकों को कितना आशीष देते होंगे|
पंडालों के लगते ही कुछ चमत्कार होने शुरू हो जाते हैं| बिजली विभाग जिसके पास स्ट्रीट लाइट लगाने और उनको सप्लाई देने के लिए बजट और बिजली नहीं होती है अचानक से इसमें सक्षम हो जाती है | अगर यह चमत्कार साल भर चले तो अँधेरे के कारण होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में काफी कमी संभव है लेकिन वह करते नहीं हैं शायद लोगों की जान बचाना धार्मिक कृत्य में शामिल नहीं होगा|
अच्छा पंडालों के सामने, आगे पीछे बड़े बड़े होर्डिंग लगे होंगे जिसमें उन सभी के नाम और तस्वीरें छपी होंगी जिन्होंने इस पंडाल के आयोजन में जन, बल, छल या धन से सहयोग किया होता है | जाहिर है कि इन लोगो ने गुप्त दान जैसी किसी परंपरा के बारे में नहीं सुन रखा होगा | हमारे शास्त्रों में बस यूं ही लिखा होता है कि किसी की मदद करो दान करो तो उसका गुणगान करना अच्छा नहीं माना जाता है |
पंडाल के आसपास कई प्रकार के लोग नियमित रूप से खड़े होने लगते हैं | स्थानीय प्रभाव रखने वाले ये लोग इस दौरान साफ़ सुथरे कपड़े पहने होते हैं और बेहद दर्शनीय लगते हैं | चमत्कार यह भी है कि सामान्य दिनों में इलाके के भद्र जन इन्हीं लोगों को बदमाश, गुंडा और लुच्चा जैसे विशेषणों से नवाजते हैं | लेकिन जब यही भद्र जन पंडाल में सपरिवार आते हैं तो यही लुच्चे आगे बढ़कर स्वागत करते हैं, पैर छूते हैं तो भद्र जन कहते देखे जाते हैं कि बड़ा नेक लड़का है, बड़ा सोशल है |
भीड़भाड़ होते ही तीन चौथाई सड़क पर कब्ज़ा हो जाता है और शाम को ऑफ़िस से पिटे पिटाये लौटते लोग नयी नवेली दुल्हन की तरह सकुचाते सिकुड़ते शेष एक चौथाई सड़क से निकलते रहते हैं | कई बार तो एक क्षण को पंडाल के सामने ठहर कर प्रतिमा को प्रणाम करते है और पीछे वाले के हॉर्न या गाली की आवाज़ पर तुरंत आगे बढ़ जाते हैं | वे जानते हैं कि प्रतिवाद करने से लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं| इतना भक्ति भाव फैलता कि पूछिए नहीं | जाहिर बात है कि स्थानीय निकाय और सड़क के अन्य विभागों का भी मानना है कि सड़क बनाने का मुख्य उद्देश्य तो पंडाल और जुलूस निकालना है ट्रैफ़िक का क्या है इधर से नहीं तो दो किलोमीटर दूर से निकल जाएगा |
इन पंडालों से देश की जीडीपी में कितना इज़ाफा होता है आप उस योगदान की तो कल्पना ही नहीं कर सकते हैं | अब देखिए पडालों से बचने के लिए हर गाड़ी एक या दो किलोमीटर अतिरिक्त गाड़ी चलेगी तो कितने का पेट्रोल डीजल बिक जाएगा, फिर सड़क जाम के दौरान वह कितना तेल यूं ही फूंक देगा, कितना प्रदूषण फैलाएगा पता ही नहीं चलेगा | गाड़ी चलाने में अतिरिक्त सावधानी बरतते-बरतते उसको टेंशन हो जाएगा तो वह डाक्टर के पास जाएगा, महंगी दवा खरीदेगा, रोड और मेडिकल इंश्योरेंश खरीदेगा| रात भर भोंपू की आवाज़ से वह अगले दिन काम पर चिड़चिड़ा होकर जाएगा और यही सब फायदे बाकी लोगों में भी वितरित करेगा | है न जीडीपी का फायदा|
देश की धार्मिक जनता की भक्ति इन अस्थाई मंदिरों या पंडालों में भी खूब उमड़ती है| खबरों में आता है कि चढ़ावे की ये रकम लाखों और करोड़ों में हो सकती है | अब यह रकम कोई पे टी एम् के माध्यम से तो प्राप्त नहीं होती है इसलिए यह भी कैश यानि कि ब्लैक में होती है | क्या आय-कर विभाग कभी इन तक भी पहुँचेगा कि इन तमाम पैसों का क्या हुआ? कई बार यह पंडाल उन जगहों पर लगते हैं जहां कुछ दिन पहले और कुछ दिन बाद कूड़ा फेंका जाता है | पहली ध्यान देने वाली बात यह है कि भगवान की स्थापना हम किसी साफ़ सुथरी जगह या पहले से स्थापित मंदिरों में क्यों नहीं कर सकते| फिर इस प्रकार के आयोजनों से प्राप्त होने वाला धन हम साफ़ सफाई के कामों के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल करते हैं - अगर हमारे नगर ही इनसे साफ़ हो जाएं तो अगले बरस गणपति जल्दी भी आएँगे और खुशी खुशी रहेंगे| नहीं?