Swabhiman - Laghukatha - 46 in Hindi Short Stories by Surinder Kaur books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 46

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स्वाभिमान - लघुकथा - 46

स्वाभिमान का दीपक

इलाहाबाद से रांची के लिए खुली ट्रेन तेज गति से आगे की ओर भाग रही थी। खिड़की से बाहर देख रहे पांडे जी के दिमाग का पहिया बाहरी दृश्यों के साथ- साथ पीछे की ओर जाने लगा।सीट पर साथ में बैठी पत्नी से बोले-जानती हो! पिछले सप्ताह जब तुम्हें और मुन्ने को वापस लाने के लिए मैं इसी ट्रेन से इलाहाबाद रहा था तो ट्रेन में मैंने 10-11 वर्ष के एक बच्चे को भीख मांगते हुए देखा।

लंबे बिखरे बाल, बुझा चेहरा, गंदे कपड़े....

बीच में ही टोकते हुए पत्नी बोली- " इसमें कौन-सी हैरानी वाली बात है? ट्रेन में तो ऐसे दृश्य

" आम" होते हैं।

हां तुम ठीक कहती हो पर, मुझे वो बच्चा बात व्यवहार से किसी सभ्य घर का लग रहा था। मुझे लगा कि ज़रूर किसी मुसीबत में होगा।

पता नहीं मेरे अंदर इतनी करुणा कहां से गई कि मैंने उसे पचास का नोट दे दिया।

जहां वो अपनी फटी जेब में सिर्फ दुत्कार डाल रहा था, वहां पचास रुपए पाकर, उसकी आंखों में जल उठे दीपक से मैं अंदर तक रौशन हो गया।

जाने से पहले उसने दोनों हाथ इस तरह से जोड़े मानों मेरा एहसान हथेलियों में क़ैद कर रहा हो।

इलाहाबाद से नानी के लाड- प्यार को छोड़कर आया मुन्ना उदास बैठा था, अचानक खिलौने वाले की आवाज सुन कर वह चहक उठा...

पांडे जी ने खिलौने वाले को पास बुलाया।

मोटे- से डंडे के साथ बड़े सलीके से उसने रंग - बिरंगे,थोड़े से खिलौने टांग रखे थे। मुन्ने की जिद पर उसनेे बांस की पतली डंडी पर लगी मोटे रंगीन कागज़ से बनी चरखी मुन्ने को थमा दी। खिड़की से आती ठंडी हवा से मुन्ने की उमंग को उड़ाती चरखी तेजी से घूमने लगी।

पांडे जी ने दाम पूछा तो वह उसी अंदाज में हाथ जोड़कर बोला--" साब जी! दाम से कहीं ज्यादा आपने मुझे सप्ताह भर पहले इसी ट्रेन में दे दिया था""

पहचाना नहीं मुझे ?

पांडे जी ने गौर से देखा- बालों को समेट कर ऊपर से केसरिया दसतार सजाए, साफ़- सुथरे कपड़ों में वह पंजाबी सरदार बच्चा बहुत प्यारा लग रहा था....

पांडे जी ने उसे अपने पास बैठाया।

आंखों के सवाल पढ़ कर वह खुद ही जवाब देने लगा--

" हमारी खिलौनों की दुकान थी, एक आतंकी हमले ने मम्मी- पापा दोनों की जान ले ली।

जिंदगी ने मुझे भी खिलौना बना कर पटक दिया। किसी सगे ने नहीं पूछा साब जी!

क्या करता? कुछ पूंजी जमा करने के लिए बस दो दिन ही भीख मांगी थी,आपने बहुत मदद की साब जी !"

फिर स्वाभिमान से खिलौनों की तरफ ईशारा कर के बोला-- उसी पूंजी से थोड़ा - सा सामान खरीद कर, यह देखो साब जी !

वह बोलता ही जा रहा था जैसे कि उसे कोई अपना मिल गया हो...

अभी गुरुद्वारे की शरण में हूं, वहीं के निशुल्क केंद्र से खिलौने बनाने सीख रहा हूं।

मम्मी- पापा कहते थे कि कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने चाहिए, मेहनत और ईमानदारी से किया गया कोई भी काम छोटा नहीं होता।

इस बार हैरान होने की बारी पत्नी की थी.....

उस बच्चे की आंखों में जलते स्वाभिमान के दीपक से दोनों पिघल गए।।

***

स्वाभिमान

कार्यालय में प्रवेश करते ही आज चिराग ने बड़ी गर्मजोशी के साथ अपने दोस्त मयंक से हाथ मिलाया तो मयंक ने चहक कर पूछा-- क्या बात है यार !

सप्ताह भर से इस बुझे- बुझे चिराग में आज इतनी चमकती हुई रोशनी की वजह क्या है?

जरा मैं भी तो सुनूं.. ‌‌‌...

चिराग खुश हो कर बोला- दरअसल यार!

एक सप्ताह हुआ गांव से बाबू जी आएं हैं, हमारे पास कुछ दिनों के लिए। जब से आए हैं हम पर कुछ ज्यादा ही अधिकार जमा रहे हैं।

हर दिन कुछ कुछ नुकता- चीनी,टोका- टोकी करते ही रहते हैं कि ये मत करो,खड़े हो कर पानी मत पीओ,रात में केला खाओ, गाड़ी धीरे चलाओ, खाते समय मोबाइल पर नहीं खाने पर ध्यान दो, वगैरह- वगैरह।

तंग चुका था यार इस टोका- टोकी से, पत्नी का मूड भी उनकी बातें सुन कर बिगड़ा रहता था....

चिराग ने फिर छाती चौड़ी कर दंभ भरा और कहा-- कल रात मैंने भी ऐसा करारा जवाब दिया कि उन्हें चुप करा दिया...

मयंक ने चिराग के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-- " ये तुमने ठीक नहीं किया यार! "

उनकी उम्र तक पंहुचोगे तो समझ पाओगे...

तुमसे डर कर नहीं,बाबू जी इसीलिए चुप हो गये कि उनका" स्वाभिमान" बचा रहे।।

***

नारी का स्वाभिमान

" हरेक नारी में स्वाभिमान होना चाहिए,किस बात में वह कम है पुरूषों से, नारी को अपने स्वाभिमान की रक्षा स्वयं करनी चाहिए, किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह नारी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाए।"

नारी शक्ति पर एक जोरदार भाषण देकर, मालती जैसे ही माइक से हटी तो तालियों की गड़गड़ाहट से उसका स्वागत हुआ।

आज नारी स्वाभिमान पर एक महासभा थी।

नारी शक्ति मोर्चा की अध्यक्षा होने के नाते मालती को वहां बुलाया गया था।

श्रोताओं से भरे सभागार में, अपने भरे हुए दिल को शब्दों के रास्ते से खाली कर, मालती स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी।

सभा समाप्ति पर मालती ने बहुत दिनों पर मिली अपनी एक सहेली से आग्रह किया कि चलो आज मेरे घर ! कुछ देर साथ बैठते हैं।

घर पंहुच कर मालती ने दरवाज़े की घंटी बजाई, वंदना थोड़ा पीछे ही खड़ी हो गई।

दरवाजा खोलते ही पति बिफर पड़े----

" गई अपना ज्ञान बघार कर, बेवकूफ तो हम हैं जो भूखे बैठे तुम्हारी राह देख रहे हैं, घर तो संभलता नहीं और चलीं हैं जनाब दुनियां सुधारने....."

पीछे से सासू मां भी मालती के स्वाभिमान पर हथौड़े मार रहीं थीं।

मालती बिल्कुल शांत, बिना एक शब्द बोले, अपने स्वाभिमान का पल्लू कमर में खोंस कर अंदर चली गई।

वंदना लौट आई अपने स्वाभिमान का आंचल मजबूती से पकड़, बाहर से ही....

अगले दिन फोन पर वंदना कुछ पूछे, इसके पहले ही मालती ने अभिमान से जवाब दिया--

" मेरे स्वाभिमान की हत्या हो कर भी यदि मेरे परिवार में सुख-शांति की जान बच जाती है तो इसमें हर्ज ही क्या है" ।।

***

डॉ सुरिंदर कौर नीलम