Swabhiman - Laghukatha - 43 in Hindi Short Stories by Shobha Rastogi books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 43

Featured Books
Categories
Share

स्वाभिमान - लघुकथा - 43

लघुकथा-1

पुन: भगत सिंह

“सुनो ! तुम मुझे तुम्हारे वियोग के गहरे अहसास में अर्धचेतन-सा छोड़ गए थे। अपना जीवन स्वाहा करने की मंशा लिए मैंने जाना कि नवांकुर फूट गया है। तब से अब तक पल-पल, क्षण क्षण तुम्हे नैनों में बिठा तुम्हारे फूल को सींचा। आज तुम्हारा बेटा वृक्ष बन गया है। उसे समझाओ न, तुम्हारी राह पर न चले। उसे भी तुम्हारी तरह फौजी बनने का चाव है। उसी पथ का पथिक बन उड़ जाना चाहता है मुझसे दूर। डरती हूँ… कहीं वह भी तुम्हारी तरह…न-न… नहीं, मैं उसे कोई फौजी- वौजी नहीं बनने दूँगी। पहले मेरा पति और अब मेरा ही लाल ?… और भी माँओं के बेटे हैं शहादत के लिए…।” माँ-माँ पुकारता नमन उसके नजदीक आया तो वह झट आँचल से आँसू पौंछने लगी।

“ओह माँ ! फिर ये नमकीन पानी ?…मेरा दुश्मन…।”

“तुझे क्या ? अपनी माँ से अधिक मातृभूमि जो प्यारी है तुझे। एक बात सुन ले… मैं तुझे फ़ौज में जाने नहीं दे रही।”

“माँ ! भगत सिंह की माँ भी बिलकुल तुम्हारी तरह थी। भोली। मासूम। उसने भी शायद यही कहा होगा। आप ऐसा क्यों सोचती हो कि मैं भी पापा की तरह…।”

“बस्स चुप।” ऊँगली धर दी माँ ने बेटे के लबों पर।

“माँ ! सभी माँएँ यही कहेंगी तो भारत माँ किसे पुकारेगी ? उसके तार-तार होते मान को देख सकोगी आप ?” बेटे की आँखों में भगत सिंह खड़ा था जिसकी एक किरण ने माँ की ममता पर लटके जाले साफ़ कर दिए। रौशन हो गयी हृदय गली।

माँ ने न्यौछावर कर दिया एक बार फिर अपने भगत सिंह को।

***

लघुकथा -- 2

मुट्ठी भर धूप

कमरा बुहारती सतिया चुप थी आज। आँखें नम थीं। लपालप बोलने वाली के होठों पर टेप ?

दिशा से न रहा गया – “क्या है री ? आज मौन व्रत ? वो भी तेरा ? तेरी बोलती चुप्पी ?”

“ कछु न दिदिया।”

“न-न… है कुछ ?” पूछते ही तरबतरा गया चेहरा । दोनों टंकी खुल गईं।

“ फिर मारा तेरे मरद ने ?”

“हाँ, दिदिया… दारू वास्ते हम पइसा नाई दे रहे। बच्चन के टूसन काजे जोड़े रहे। दो बोल बोल दिए, बस्स…।”

“बोलती ही क्यूँ है तू ? औरत कितना ही करे… बोल नहीं सकती। मुझे ही देख। तेरे साहब के आगे होंठ सी के रहती हूँ। क्या करे… घर जो चलाना है।”

“का घर औरत का ही होय करे ? मर्दन का कोई लेन- देन नहीं ? झाड़ू-पौंछा, रसोई-बर्तन, बाज़ार-हाट, बच्चा-बुजुर्ग, तीज-त्यौहार, रस्म-नेग…ई सब महरारू के पल्ले? मरद मस्त… तोपर भी चौधरी ?” एक ही रौ में बोले जा रही थी सतिया।

“धरती धरती ही रहती है। असमान नहीं बन सकती।” दिशा का घुटा दर्द तड़पा।

“कौन हम आसमान के चाँद तारे चाहे रही… मुट्ठी भर धूप और हवा भी नाही…।”

“ झाड़ू से बिस्तर तक बना सकता है मर्द औरत को।”

“ई सब के इलावा थोड़ी धूप की सेंक और बयार की ठंडक भी बनना चाहे है औरत… मैं ई हवा और ताप बन के ही रहूँगी।”

दोनों की अधमुंदी निस्तेज आँखें एक ही प्रश्न और प्रत्युत्तर में एक क्षीण आस की किरण देख रही थीं। किरण… जो निकलेगी… अवश्य निकलेगी।

***

लघुकथा-3

सेलिब्रेशन

आईने के समक्ष खुद को निहारा उसने। यूँ तो रोज ही खड़ा करती स्वयं को इसमें संवेदना रहित। टोटल औपचारिक। आज आँधी की उडान जोरों पर थी। अपनी आँखों में झाँका तो आँसुओं की नमकीन बर्फ जमी पड़ी मिली। रात के तीन बजे थे। आज वह जल्दी फारिग हो गयी।

महिला दिवस का सेलिब्रेशन जो करना था। कुछ घंटे स्वतंत्रता का उद्घोष। अपने शरीर के अनगिनत पड़ावों को देखा। जगह जगह राहगीरों के रुकने के निशान मौजूद थे। पिकनिक मनाई थी पुरुषों ने उसकी देह पार्क में। ठर्रा और व्हिस्की की बोतलों के ढक्कन उसकी गोलाइयों के ओपनर से ही खोले गए थे। खाने पीने की चीजों के खाली पाउच-सी रिसती उसकी नसें, सिगरेट के टोटे, मिली जुली सुगंध -दुर्गन्ध में जलते लवों की मुहर से आबाद थी उसकी संगमरमरी देह। नर नाखूनों से बनी आड़ी तिरछी ज्यामितीय आकृतियाँ। कहीं कहीं फफोले थे ग़मगीन दुनिया का गम छिपाए। बीच बीच में आदम बत्तीसी के प्यार की स्टेम्प। इन सब पर नज़र फेरते हुए उसकी दृष्टि एक जगह रुक गयी जहाँ उस किसी ने सहलाया भर था। अपनी भाव नदिया को उसकी आँखों में उंडेलने की हलकी-सी कोशिश की थी। वह कोमल अहसास उसके अन्दर कहीं गहरे सुरक्षित था। अट्टहास किया उसने। चलो इसी शानदार सुनहरी याद की केवल एक किरण को ओढ़ महिला दिवस मनाएँ…

***

शोभा रस्तोगी