social engineering in Hindi Moral Stories by Rajan Dwivedi books and stories PDF | सोशल इंजीनियरिंग

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सोशल इंजीनियरिंग

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मोनू ने साफ़ मना कर दिया| कहा, ‘मुझसे नहीं होगा ये नीच काम’|

बातचीत अवरुद्ध हो गयी| सन्नाटा पसर गया| दोनों को पता था कि बाबू राम कुमार सिंह उखड जायेंगे ये जवाब सुनकर|

बोले, ‘देखो! सरकारी नौकरी है... तन्खवाह भी बीस-पच्चीस हज़ार की है... आज मौके की बात है तो करवाए दे रहा हूँ... शुक्र है कि अफसर अपनी ही जाति का है, पहचान है तो ले-दे कर काम हो जा रहा है... चुपचाप नौकरी पकड़ लो, नहीं तो जिन्दगी भर चप्पल घिसोगे... जितने तुम काबिल हो वो मैं जनता हूँ| इस आवारागर्दी से बाज आओ... अपनी जिम्मेदारी समझो| सत्ताईस के हो गए हो कब तक हरामखोरी करोगे? जिस दिन मैंने आँख मूँद ली भूखे मरोगे... मांगे भीख भी न मिलेगी|’ राम कुमार सिंह ने आवेश में कहा|

बाबू राम कुमार सिंह पेशे से वकील है| अधीनस्थ सिविल कौर्ट में वकालत करते है| दंद-फंद करके रोज सौ-दो सौ रूपया झटक लेते है| पास ही एक गाँव के साधारण परिवार से आते है जहाँ उनकी थोड़ी सी खेती-बाड़ी भी है| जिससे खाने-पीने भर को अनाज मिलता रहता है| ऊपरी खर्च वकालत से निकल आता है| मोनू इन्ही का लड़का है, जो बेरोजगार है| एक लड़की भी है मोनू से बड़ी, जिसका विवाह हो चुका है| वह बाबू साहब की सारी बचत दहेज़ के रूप में लेकर उन्हें कर्ज में छोड़ ससुराल जा चुकी है| बाबू साहब अपनी बढती उम्र, गिरती सेहत और टूटती आमदनी से परेशान है| दूसरी ओर लड़का नालायक है, दिन भर आवारागर्दी करता है... काम का न काज का| उन्हें दिन-रात उसे किसी धंधे से लगाने की फ़िक्र है ऐसे में वो सफाई कर्मियों की भर्ती का ये अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते|

मोनू खामोश है| उसकी आँखों में घृणा के चिह्न है| सड़क बुहारते और नाली साफ़ करते कुछ ऐसी देहों की छवि उसकी आँखों में तैरने लगी जिसे आज भी लोग मनुष्य मानने को भी तैयार नहीं है| श्वानों पर भी सहजता से अपना प्रेम लुटाने और मुख चटाने तक को तत्पर इंसान हृदयहीन हो ऐसे देहों की छाया से भी घृणा करता है| अन्य सभी कुलीनों की भांति ही अस्थि-रक्त-मांस निर्मित इन मानव शरीरों को भंगी या जमादार उपनाम से नवाजा गया है जिन्हें आजकल सफाईकर्मी कहा जा रहा है| पर नाम बदलने मात्र से क्या होता है? इससे समाज में उसका स्थानतो नहीं बदलता| यदि कल हम पादुकाओं को पगड़ी कहना प्रारम्भ कर दे तो क्या वे शीश पर चढ़ जाएँगी? नहीं, उनकी नियति तो पैरों तले रौंदे जाना ही है| उसे वर्षों पुराना वह मंजर याद हो आया जब चन्द पैसों के लिए उसके पुराने घर के सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए भंगी टोला के कुछ युवक आये थे| पहले उन्होंने जम कर शराब पी और फिर मानवमल से भरे टैंक में जांघ तक गहराई में उतर कर अपने हाथों से फावड़े-बाल्टी-तसला आदि की मदद से पूरा टैंक साफ़ कर डाला| उसका मन घृणा से भर गया... बाबू जी ऐसे नीच काम की ओर धकेलना चाहते है उसे? उसकी आँखे नफरत से धधकने लगी|

मोनू को चुप देख बाबू जी फिर शुरू हुए, ‘सोचा था कुछ नही कर पाओगे तो वकालत ही करा देंगे किसी कॉलेज से जुगाड़ करके| काला कोट पहनकर चार पैसा तो कमा ही लोगे पर, तुम तो मुंशीगिरी के लायक भी नही निकले... आठ साल... पिछले आठ साल में पांच बार हाई स्कूल में फेल हुए हो, तुम क्या उखाड़ लोगे वो मुझे पता है... अपनी काबलियत से तो तुम इस लायक भी नहीं हो... समय की नब्ज़ पहचानो नहीं तो कहीं सड़क किनारे तरकारी बेचते या पंचर जोड़ते मिलोगे... तुमसे तो मजदूरी भी नहीं होगी, इस आवारगर्दी से पेट नहीं भरने वाला’ |

‘पर बाबू जी! कुछ तो सोचिये, मेरी नहीं तो अपनी इज्जत का ख्याल कीजिये| दोस्त-यार सब मजाक बनायेंगे... क्या मुंह दिखाऊँगा? लोग क्या कहेंगे कि वकील साहब का लड़का सफाईकर्मी है? गाँव-गाँव झाड़ू लगता है? क्या इज्जत बचेगी आपकी?’, मोनू ने लगभग हर शब्द चबाते हुए अधीरता से कहा|

‘तुम उसकी चिंता न करो... अपनी इज्जत मै बचा लूँगा| चोरी-डकैती में धराओगे या सड़क किनारे भीख मांगोगे तो न जायेगी मेरी इज्जत? क्या करोगे जिन्दगी में, कभी सोचा है? कहाँ से कमाओगे? इस लोफरई और चौराहेबाजी से मिलेगा रूपया? देखो!... जो समय है उसमे सवर्णों को नौकरी कितनी मुश्किल है... तुम्हे नही पता| और पता होगा भी कैसे? तुम्हारा किसी रेडियो या अखबार से कोई वास्ता तो है नहीं? यहाँ हजारों एम.ए., पी.एच-डी चपरासी की लाइन में लगे हैं... या दो-चार हज़ार के लिए यहाँ-वहां कलम घिस रहे हैं... नौकरी है कहाँ? और रही बात यार-दोस्तों की तो जेब में चार पैसा होगा तो दोस्त भी होंगे वर्ना सुरती मलोगे उनके लिए’, बाबू जी ने समझाया|

एक पल रूककर फिर बोले, ‘चिंता न करो, तुम्ही अकेले नहीं होगे ऊंची जाति के... ऐसे बहुत से लोग होंगे वहाँ, मैं दावे से कह सकता हूँ| हां सही है कि वहां वो लोग भी होंगे... पर वो कहाँ नहीं हैं... किस नौकरी में नहीं हैं... उनकी जाति का कोई जज आ जाये तो क्या हम वकालत छोड़ देंगे? हमें उनसे रिश्ता तो जोड़ना नहीं है? और फिर, तुम्हे झाड़ू लगाने की जरूरत ही क्या है? गावों में मजदूरों की कोई कमी है क्या? दिहाड़ी पर किसी मजदूर से काम करवाना और तनख्वाह तुम्हारी जेब में| जबतक चलता है चलाओ, जब पानी सर के ऊपर होगा तब देखा जाएगा| और अभी तुम्हें किस बात की चिंता है? अभी तो मै जिन्दा हूँ| यहाँ जिले से मैं सब संभाल लूँगा... दो-चार हजार में बिकते है पंचायत के अफसर, जुगाड़ सही बैठा तो घर से चलाना अपनी नौकरी|

बाबू राम कुमार सिंह की बात सच साबित हुई| जब परिणाम घोषित हुआ तो मोनू सहित अगड़े समाज के बहुत से युवाओं का चयन हुआ था सफाईकर्मी के रूप में| पिता की मदद से नौकरी सानंद चलने लगी| बाबू साहब ने नजदीकी ग्राम सभा में ही पोस्टिंग भी दिला दी थी| ग्राम प्रधान, सेक्रेटरी सभी पहचान के, कहीं कोई समस्या नहीं| महीने के महीने वेतन| हफ्ते-दस दिन में दिहाड़ी मजदूरों से साफ-सफाई करवाने में खर्चा ही कितना था, सो मोटी रकम जेब में बचने लगी| जेब में रुपये आये तो नई मोटर साईकिल, नई सजधज, नए यार-दोस्त... मोनू ने मन ही मन बाबू जी के निर्णय की प्रशंसा की|

यद्यपि नौकरी घर से ही चल रही थी परन्तु किसी विभागीय बैठक में उपस्थित होने पर समस्या तब उत्पन्न होने लगी जब भंगी जाति के कुछ उत्साही नवयुवक सफाईकर्मियों ने अगड़ी जाति के सहकर्मियों से मित्रता करनी चाही| इससे नौबत मार-पिटाई की आ गयी| ऐसी ही एक घटना और हुई जब किसी ख़ुशी का इजहार करते हुए किसी दलित सहकर्मी ने मिठाई का डिब्बा अगड़ो की ओर बढ़ा दिया| बदले में उसे औकात में रहने की नसीहत के साथ ही सैकड़ों जातिसूचक गलियों का प्रति उपहार प्राप्त हुआ| कुछ मनबढों ने तो उसका कॉलर पकड़ कर घसीट लिया तो दूसरी ओर के लोग भी लामबंद होने लगे| जमकर गली गलौज हुई... अधिकारियों के बीच बचाव के बाद कहीं जाकर मामला शांत हुआ| संभवतः सभी अगड़े सफाईकर्मियों की समस्या एक ही थी... अपनी जातीय पहचान की रक्षा, इसीलिए शीघ्र ही उन्होंने अपना एक अघोषित समूह बना लिया और जल्दी ही अपना दबदबा भी कायम कर लिया| उनका अन्य सहकर्मियों से जो तथाकथित नीच जाति से थे कोई सामाजिक सरोकार नहीं था| यहाँ भी उनकी जातीय पहचान ही प्रबल बनी रही| वे वेतन बिल और अन्य सरकारी कागजों के अतिरिक्त बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, अहीर आदि ही बने रहे और मजाल क्या कि कोई नीच जाति का सहकर्मी उन्हें अपने में समझने की भूल कर बैठे| इनसे तो वे हाथ भी न मिलाते थे... अछूत जो है सदियों से| विभाग के बाहर छोटी-छोटी बातों में भी अपनी जातीय श्रेष्ठता के प्रदर्शन में लगी विभिन्न अगड़ी जातियों के लोगों में यहाँ एक गजब की एकता और सामंजस्य दिखाई पड़ने लगा जो संभवतः नीच जाति के लोगों के साथ तथाकथित नीच कार्य करते हुए भी अपने जातीय श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिए आवश्यक था| इनमे एकाध जो बहुत गरीब थे, को छोड़कर प्रायः सभी का सरोकार सिर्फ वेतन से था, काम सभी बाहरी मजदूरों से ही करवाते थे|

चार-छ: महीने में ही मोनू ने काम को भलीभांति व्यवस्थित कर लिया| उसने गाँव के ही तीन-चार मजदूरों की एक टोली बना ली जिनकी मदद से वह सारा काम निपटाता| सप्ताह में एकाध दिन जींस-टीशर्ट और स्पोर्ट्स शू पहने मोटर साइकिल पर सवार मोनू गाँव में चक्कर काटते दिखायी दे जाता| जो मजदूरों को निर्देश दे, ग्राम प्रधान को सलामी बजा कर घर लौट जाता| अफसरों को बाबू जी ने साध रखा था| गाँव के बेरोजगार युवाओं को उसे बिना काम मिलने वाला वेतन खटकता था| जो पैसे वो खेतों में कड़ी मेहनत के बाद भी नहीं कमा पाते थे उससे कही अधिक तो वह बिना किसी काम के ही कमा रहा था| वे उसके काम पर निगाह रखने लगे| उन्हें ईर्ष्या होने लगी|

सरकारी नौकरी और स्थायी आय देखकर जब उसका विवाह संपन्न हुआ तो बाबू जी ने भी राहत की सांस ली| सब कुछ सही चल रहा था कि सरकार बदल गयी| बदले निजाम में स्वच्छता एक प्रमुख कार्य बन गया| प्रायः उपेक्षित रहने वाला यह विषय अब सबकी नजर में था| गाँव-गाँव में सफाई की बात होने लगी| विकास का शब्द सबकी जुबान पर चढ़ गया| तेजी से विकास के लिए कई गाँवों को माननीयों द्वारा गोद लिया गया जिसकी निगरानी जिले के बड़े अधिकारियों को सौपी गयी| मोनू का गाँव भी इसमें शामिल था| इससे उसका काम बढ़ गया| आये दिन अधिकारियों का ग्राम-भ्रमण और स्थलीय निरीक्षण कार्यक्रम होने लगा| ऐसा ही एक निरीक्षण कार्यक्रम जिलाधिकारी महोदय द्वारा किया जाना तय हुआ| ग्राम के ही प्राथमिक विद्यालय में सारी व्यवस्था की गयी| निरीक्षण कराने हेतु सभी अधीनस्थ अधिकारी और कर्मचारी चुस्त-दुरुस्त हो गए और सारी व्यवस्था चाक-चौबंद कर ली गयी| विद्युत् आपूर्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आवास, बाजार-हाट, सड़क, तालाब, नाली, खडंजा, हैंडपंप, शौचालय सबकी समीक्षा होने के बाद जिलाधिकारी महोदय जब जनता को संबोधित कर सरकारी योजनाओं का बखान कर रहे थे तभी कुछ युवकों ने गाँव में सफाईकर्मी के न आने की शिकायत की| पर स्वछता तो ठीक-ठाक दिख रही थी| लोगों ने बताया की यह कार्य मजदूरों के द्वारा कराया जाता है न कि सफाई कर्मी द्वारा स्वयम| इससे डी0एम0 साहब नाराज हो गए| उन्होंने सफाई कर्मी को उपस्थित होने का फरमान जारी कर दिया| झक सफ़ेद पैंट-कमीज और पॉलिश्ड जूते पहने मोनू भीड़ में से बाहर आया| उसे देखकर ही वह सारा माजरा समझ गए| कड़कदार आवाज में पूछा, ‘तुम मजदूरों से काम करवाते हो?’

‘नहीं साहब... वो क्षेत्र काफी बड़ा है... इसलिए कभी-कभी उनकी मदद लेता हूँ’, मोनू ने अपनी सफाई में कहा|

‘तो तुम सफाई का काम खुद करते हो’, उन्होने एक बार फिर पूछा|

‘जी साहब’, जवाब दिया मोनू ने|

- ये झूठ है,

- झूठ बोलता है ये साहब!,

- इसने आज तक झाड़ू न पकड़ी,

- जरा साहबी तो देखो इसकी,

भीड़ में से कई आवाजें एक साथ आने लगी|

डी0एम0 साहब ने सबको शांत कराते हुए कहा, ‘तो चलो, विद्यालय का शौचालय अभी साफ करो... मेरे सामने’|

भीड़ ने जोर की ताली बजाई|

मोनू किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा| करे तो क्या करे? ये उसके जातीय सम्मान को चोट पहुचने वाली बात थी| किसी ऊंची जाति का युवक शौचालय साफ़ करे... ये तो डूब मरने वाली बात थी| ये तो उसने न सोचा था| उसकी आँखों में उसके बाप-दादा का चेहरा घूम गया| उनकी वर्षो से कमाई इज्जत एक झटके में मिटटी हो जाएगी| क्या करे? सबकी निगाह उसी पर है| सामने डी0एम0 और सारा अधिकारी वर्ग खड़ा है| कोई रास्ता नहीं सूझ रहा| भाग जाए? छोड़ दे नौकरी? नौकरी छोड़ने के ख्याल के साथ ही उससे जुड़े वेतन का भी ख़याल हो आया| सोचने लगा उसकी जिम्मेदारियां बढ़ी हुई है| इतना पैसा वह कैसे कमा पायेगा? यहाँ तो तनख्वाह है... जिन्दगी भर के लिए पेंशन है| क्या करे? उसने सोचा जातीय पहचान कर्म की मोहताज है क्या? एक बार झाड़ू उठाने से क्या वह जातिच्युत हो जाएगा...अछूत हो जायेगा... नहीं| उसने जूते खोले, पैंट का पांयचा ऊपर मोड़ा, आस्तीन मोडी और बोला, ‘इसमें कौन सी बड़ी बात है? क्या हमारे घरों में शौचालय नहीं होता? अपने घर में भी तो हम खुद ही साफ़ करते है... काम कोई छोटा-बड़ा नहीं होता’| झाड़ू-बाल्टी उठाते हुए वह शौचालय की ओर चल पड़ा पत्रकारों ने भी अपने कैमरे सम्हाल लिए और उसके पीछे चल पड़ी वहां जमा सारी भीड़|

समाप्त|