Swabhiman - Laghukatha - 39 in Hindi Short Stories by Savita Mishra books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 39

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स्वाभिमान - लघुकथा - 39

1 - "फ़ांस"

"आज रिटायर हो गया सुगन्धा | "

"अरे! कैसे-क्यों ? तबियत तो ठीक है न ! अभी आपकी नौकरी के तो चार महीने बाकी हैं |"

"नहीं रे ! 'प्यार' से रिटायर हुआ हूँ |"

"आप भी! इस बुढ़ापे में भी प्यार की सूझ रही! अब तो नाती-पोतों से प्यार करने के दिन आ गए हैं।" पत्नी लजाते हुए बोली।

"अरे पगली! उन्हीं की बात कर रहा हूँ। आज बराम्दे में आकर मेरी गोद से चिक्कू को लगभग छीन के ले गयी बहू |" आवाज दिल के घाव को बयां कर रहे थे।

"खाना खिलाने ले गयी होगी, आपको लगा होगा छीन रही है । जिद्दी है चिक्कू! आसानी से कहाँ सुनता है।"

"बहलाओ नहीं, वह बड़बड़ा रही थी कि न प्यार देते हैं , न रुपये देंते हैं ! बस गुजरे जमाने की शिक्षा देते रहते हैं |"

"...."

"आपकी तरह कोई खैरात वाले में नहीं, 'इंग्लिश मीडियम स्कूल' में पढ़ रहा है | बड़ी मुश्किल से मैंने उसे कुकुर से डॉगी बोलना सिखाया है। अब बिलारी...!" पत्नी को उसकी बातें बताते हुए उनकी आँखे नम हों आयीं।

पति के आँखों से निकले आँसू पत्नी के दिल में घाव कर गए। मन ही मन बहू को इसका करारा जवाब देने की ठान ली।

थोड़ी ही देर में बहू का चचेरा भाई आया तो पोते ने तुतलाकर बोला- "नवत्ते अंतल !"

बहू अपने चचेरे भाई से मिली तो वह बच्चे की तारीफ में कसीदे पढ़ गए। बोले - "लाडो! यह अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव तो बिल्कुल नहीं है ।"

सुनते ही सास के मुख से बात एकलव्य के तीर जैसी निकली और बहू के दिल में जा चुभी- "यह खैरात में पढ़ने वाले की शिक्षा का असर है।"

***

2 - अहमियत

"मानव के लिए मैं बहुत ज्यादा इंपॉर्टेंट हूँ |” छूरी मीठे शब्दों में बोली तो चापड़ ने तमतमाते हुए कहा “क्यों री! तू पिद्दी-सी होकर भी ऐसे कैसे बोल सकती है ! आजकल मेरी जरूरत ज्यादा पड़ती है |”

“नहीं ! नहीं ! आज भी शाकाहारियों की संख्या अधिक है, इसलिए मैं ही काटने के काम आने वाली सबसे जरूरी चीज हूँ मानव के लिए |”

“तुम भूल रही हो! दुनिया में मांसाहारी ही बढ़ रहे हैं। बल्कि मैं तो यकीन से यह कह सकता हूँ कि कुछ होटलों में शाकाहारियों को झांसे में रखकर मांस परोसा जा रहा है। कहने का मतलब यह कि मेरा ही उपयोग अधिक से अधिक होता है। तुम मेरे सामने नगण्य हो।”

अब तक चुप बैठा रामपुरी बोल पड़ा– “तुम दोनों खामख्वाह बहस में पड़े हो ! आजकल आदमी, आदमी का दुश्मन बन बैठा है। इसलिए तुम लोगों की जरूरत हो या न हो ! लेकिन आज के मानव के लिए सबसे बड़ी जरूरत हूँ मैं।”

तभी एक आदमी स्टॉल की तरफ आता दिखा | सब चुप्पी साध लिए | आदमी ने पहले छूरियों पर नजर दौड़ाई फिर चापड़ पर उसकी नजरें ठहरी | चापड़ छुरी की ओर व्यंग्य से देख मुस्कुरा दिया | चापड़ को उठा-उठाकर देखने के बाद वह आदमी रामपूरी को देखने लगा | उसको हाथ में लेकर सेल्फी भी ले डाली | गर्वान्वित हो रामपुरी दोनों की ओर देखता हुआ उस आदमी की कमर में घुसने को बेताब हो उठा |

अचानक से उस आदमी ने जोर से उसको उसकी जगह पर पटक दिया | फिर सलाद-सब्जी काटने वाली चाकूओं का सेट लेकर चल दिया | छूरियों ने उन दोनों की ओर व्यंग्य भरी मुस्कान फेंकी फिर इठलाती हुई उस आदमी के साथ चल पड़ीं |

***

3 - अशक्त नहीं

शीशे में अपने आप को निहारते हुए खुद को ही धित्कार बैठे वह |

"अरे!, मैं रोज शेव करके, नहा-धोकर अब तक तैयार हो जाता था | ये रिटायर होते ही क्या हो गया मुझे ! मैं कमजोर और आलसी कैसे हो गया | बूढ़ा समझ सरकार ने भले रिटायर कर दिया हो, पर अभी तो मैं जवान दिख रहा हूँ |” शीशे में अपने चेहरे को कभी दाए कभी बाए घुमाकर देखते हुए वह बुदबुदाए |

“डीआईजी बनकर न सही, किन्तु समाज-सेवी बनकर तो मैं समाज की सेवा कर ही सकता हूँ|" भुनभुनाकर वह कुछ सोचने लगे |

“सबसे बड़ी सेवा किसी भूखे का पेट भरना है, क्यों न इसी से शुरुआत हो।” कहकर उत्साहित हो वह पहले के जैसे ही फुर्ती से तैयार हुए । फिर रोटी-सब्जी के पैकेट बनवाकर चल पड़े एक नये कर्म-पथ पर । हर कदमताल के साथ जवानो-सा ज़ोश उनके चेहरे पर शुक्लपक्ष के चाँद-सा बढ़ता जा रहा था |

सविता मिश्रा ‘अक्षजा’