तक़ी कातिब
वली मोहम्मद जब तक़ी को पहली मर्तबा दफ़्तर में लाया तो इस ने मुझे क़तअन मुतअस्सिर ना किया।
लखनऊ और वली के जाहिल और ख़ुद सर क़ातिबों से मेरा जी जला हुआ था। एक था उस को जा व बेजा पेश डालने की बुरी आदत थी। मौत को मूत और सोत को सूत बना देता था। मैंने बहुत समझाया मगर वो न समझा। उसको अपने अहल-ए-ज़बान होने का बहुत ज़ोअम था। मैंने जब भी उस को पेश के मुआमला में टोका उस ने अपनी दाढ़ी को ताव दे कर कहा। “मैं अहल-ए-ज़बान हूँ साहब....... इसके तीस सिपारों का हाफ़िज़ हूँ। एराब के मुआमला में आप मुझ से कुछ नहीं कह सकते।”
मैंने उसे और कुछ न कहा और रुख़स्त कर दिया।
उसकी जगह एक दिल्ली के कातिब ने ले ली....... और सब ठीक होगया मगर उस को इस्लाह करने का ख़बत था, और इस्लाह भी ऐसी कि मेरी आँखों में ख़ून उतर आता था। कोई मज़मून था। मैंने उस में ये लिखा। “उस के हाथों के तोते उड़ गए, उस ने ये इस्लाह फ़रमाई। उस के हाथ पांव के तोते उड़ गए।”
मैंने उस का मज़ाक़ उड़ाया तो वो ख़ालिस देहलवी लब-ओ-लहजा में बड़बड़ाता मुलाज़मत से अलाहिदा होगया।
रामपुर का एक कातिब था। बहुत ही ख़ुशख़त था मगर उस को इख़्तिसार के दौरे पड़ते थे। सतरें की सतरें और पैरे के पेरे ग़ायब करता था। जब उसको पूरा सफ़ा दुबारा लिखने को कहता तो वो जवाब देता। “इतनी मेहनत मुझ से न होगी साहब.......पोट में लिख दूंगा”
पोट में लिखवाना मुझे सख़्त नापसंद था चुनांचे रामपूरी कातिब भी ज़्यादा दिन दफ़्तर में न टिक सके।
वली मोहम्मद हैड कातिब जब तक़ी को पहली मर्तबा दफ़्तर में लाया तो उस ने मुझे क़तअन मुतअस्सिर न किया। ख़त का नमूना देखा। ख़ास अच्छा नहीं था। दायरों में पुख़्तगी ही नहीं थी। मैं ग़ुनजान लिखाई का क़ाइल हूँ। वो छदरा लिखता था। कमउमर था। अंदाज़-ए-गुफ़्तगु में अजीब क़िस्म की बौखलाहट थी बात करते वक़्त उस का एक बाज़ू हिलता रहता था। जैसे क्लाक का पेन्डोलम। रंग सफ़ैद था। बालाई होंट पर भूरे भूरे महीन बाल थे। ऐसा मालूम होता था कि इस ने ख़ुद किताबत की स्याही से ये हल्की हल्की मोंछें बनाई हैं।
मैंने उसे चंद रोज़ के लिए रखा। मगर उस ने अपनी शराफ़त, मेहनत और ताबेदारी से दफ़्तर में अपने लिए मुस्तक़िल जगह पैदा करली। वली मोहम्मद से मेरे ताल्लुक़ात बहुत बेतकल्लुफ़ थे। जिन्सियात के मुतअल्लिक़ अपनी मालूमात में इज़ाफ़ा करने के लिए वो अक्सर मुझ से गुफ़्तुगू किया करता था। इस दौरान में मोहम्मद तक़ी ख़ामोश रहता। औरत और मर्द के जिन्सी तअल्लुक़ का ज़िक्र खुले अल्फ़ाज़ में आता तो उसके कान की लवें सुर्ख़ हो जातीं। वली मोहम्मद जो कि शादीशुदा था, उस को ख़ालिस पंजाबी अंदाज़ में छेड़ता।
“मंटो साहब इस का मुर्दा ख़राब हो रहा है इस से कहिए कि शादी करले....... जब भी कोई फ़िल्म देख कर आता है। सारी रात करवटें बदलता रहता है।”
तक़ी आम तौर पर झेंपते हुए कहता “मंटो साहब झूट बोलता है।”
वली मोहम्मद की स्याह नोकीली मूंछें थिरकने लगीं “और ये भी झूट है मंटो साहब कि ये चाली बिल्डिंग की यहूदी छोकरियों की नंगी टांगें देख कर उन की नक़्शा कशी किया करता है।”
तक़ी की नाक की चोंच पर पसीने के क़तरे नमूदार हो जाते “मैं तो....... मैं तो ड्राइंग सीख रहा हूँ।”
वली मोहम्मद उसे और छेड़ता “ड्राइंग चेहरे की सीखो.......ये किस ड्राइंग हिसटर ने तुम से कहा कि पहले नंगी टांगों से शुरू करो।”
मोहम्मद तक़ी क़रीब क़रीब रो देता, चुनांचे मैं वली मोहम्मद को मना करता कि वो उसे न छेड़ा करे। इस पर वली मोहम्मद कहता। “मंटो साहब, मैं इस के वालिद साहब से कह चुका हूँ आप से भी कहता हूँ कि इस लौंडे की शादी करा दीजीए, वर्ना इस का मुर्दा बिलकुल ख़राब हो जाएगा।”
मोहम्मद तक़ी के बाप से मेरी मुलाक़ात हुई। दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग थे। नमाज़ रोज़े के पाबंद। माथे पर महिराब। झंडी बाज़ार में वली मोहम्मद की शिरा तक में घी की एक छोटी सी दुकान करते थे। मोहम्मद तक़ी से उन को बहुत मोहब्बत थी। बातें करते हुए आप ने मुझ से कहा “तक़ी दो बरस का था कि उस की वालिदा का इंतिक़ाल होगया....... ख़ुदा उसको ग्रीक-ए-रहमत करे। बहुत ही नेक बीबी थी। मंटो साहब यक़ीन जानीए उस की मौत के बाद अज़ीज़ों और दोस्तों ने बहुत ज़ोर दिया कि मैं दूसरी शादी करलूं मगर मुझे तक़ी का ख़्याल था। मैंने सोचा हो सकता है कि मैं उसकी तरफ़ से ग़ाफ़िल होजाऊं। चुनांचे दूसरी शादी के ख़्याल को मैंने अपने क़रीब तक न आने दिया और उसकी परवरिश ख़ुद अपने हाथों से की। अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल-ओ-करम है कि उस ने मुझ गुनहगार को सुर्ख़रु किया। ख़ुदा उस को ज़िंदगी और नेकी की हिदायत दे!”
मोहम्मद तक़ी अपने बाप के इस ईसार की हमेशा तारीफ़ किया करता। “बहुत कम बाप इतनी बड़ी क़ुर्बानी कर सकते हैं। अब्बा जवान थे। अच्छा खाते थे। चाहते तो चुटकियों में उन को अच्छी से अच्छी बीवी मिल जाती, लेकिन मेरी ख़ातिर उन्हों ने तजर्रुद की ज़िंदगी बसर की। इतनी मोहब्बत और इतने प्यार से मेरी परवरिश की कि मुझे माँ की कमी महसूस ही न होने दी।”
वली मोहम्मद भी तक़ी के बाप का मोतरिफ़ था। मगर उसे सिर्फ़ ये शिकायत थी कि मौलाना ज़रा सनकी हैं। “मंटो साहब आदमी बहुत अच्छा है कारोबार में सोला आने खरा है। तक़ी से बहुत प्यार करता है....... लेकिन ये प्यार....... मैं अब अपने एहसासात किन अलफ़ाज़ में पेश करूं... इस का प्यार हद से बढ़ा हुआ है....... यानी वो इस तरह प्यार करता है जिस तरह कोई हासिद आशिक़ अपने माशूक़ से करता है।”
मैंने वली मोहम्मद से पूछा। “तुम्हारा मतलब?”
वली मोहम्मद ने अपनी मूंछों की नोकें दरुस्त कीं “मतलब वतलब मैं नहीं समझा सकता। आप ख़ुद समझ लीजीए।”
मैंने मुस्कुरा कहा। “भाई तुम ज़रा वज़ाहत से काम लो, तो मैं समझ जाऊंगा।”
वली मोहम्मद ने सुर्खियां लिखने वाले क़लम को कपड़े के चीथड़े से साफ़ करते हुए कहा। “मौलाना सनकी हैं....... मुझे मालूम नहीं क्यों। तक़ी कहता है कि पहले उन के प्यार और उन की शफ़क़त का ये रंग नहीं था जो अब है....... यानी पिछले चंद बरसों से आप ने अपने फ़र्ज़ंद अर्जुमंद से पूछ गछ का लामतनाही सिलसिला शुरू कररखा है....... मुतनाही ठीक इस्तिमाल है न मंटो साहब?”
“ठीक इस्तिमाल हुआ है....... हाँ ये पूछगछ का सिलसिला किया है?”
“यही तुम रात को देर से क्यों आए?....... सफ़ैद गली में क्या करने गए थे। वो यहोदन तुम से क्या बात कररही थी?....... इतने फ़िल्म क्यों देखते हो....... पिछले हफ़्ते तुम ने किताबत की उजरत में से चार आने कहाँ रखे?....... वली मोहम्मद से तुम बाई कलिमा के पोल पर बैठे क्या बातें कररहे थे?....... क्या वो तुम्हें वरग़ला तो नहीं रहा था कि शादी करलो।”
मैंने वली मोहम्मद से पूछा। “वरग़लाना क्या हुआ?”
“मालूम नहीं....... लेकिन मौलाना समझते हैं कि तक़ी का हर दोस्त उसे शादी के लिए वरग़लाता है....... मैं उस को वरग़लाता तो नहीं लेकिन ये ज़रूर कहता हूँ और अक्सर कहता हूँ कि जान-ए-मन शादी करलो वर्ना तुम्हारा मुर्दा ख़राब हो जाएगा....... और मंटो साहब मैं आप को ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि लड़के को एक अदद बीवी की अशद ज़रूरत है।”
चार पाँच बरस गुज़र चुके थे। मोहम्मद तक़ी की मूंछों के भूरे बाल अब महीन नहीं थे हर रोज़ दाढ़ी मूंडता था। टेढ़ी मांग भी निकालता था और दफ़्तर में जब जज़्बात के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू छिड़ती तो वो क़लम दाँतों में दबा कर ग़ौर से सुनता। औरत और मर्द के जिन्सी तअल्लुक़ का ज़िक्र खुले अल्फ़ाज़ में होता तो उसके कानों की लवें सुर्ख़ न होतीं....... मोहम्मद तक़ी को बीवी की ज़रूरत हो सकती थी।
एक दिन जबकि और कोई दफ़्तर में नहीं था और अकेला तक़ी तख़्त पर दीवार के साथ पीठ लगाए पर्चे की आख़िरी कापी मुकम्मल कर रहा था। मैंने उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल का ग़ौर से मुआइना करते हुए पूछा। “तक़ी तुम शादी क्यों नहीं करते?”
सवाल अचानक किया गया था। तक़ी चौंक पड़ा। “जी?”
मेरा ख़्याल है “तुम शादी करलो।”
तक़ी ने क़लम कान में अड़सा और किसी क़दर शर्मा कर कहा। “मैंने अब्बा से बात की है।”
“क्या कहा उन्हों ने?”
तक़ी तफ़सील से कुछ कहना चाहता था, मगर न कह सका “जी वो....... कुछ नहीं....... वो कहते हैं अभी इतनी जल्दी क्या है?”
“तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
“जो उन का है।”
इस जवाब के बाद गुफ़्तुगू का सिलसिला मुनक़ते होगया। तक़ी ने पर्चे की आख़िरी कापी मुकम्मल की और उसे जोड़ कर चला गया।
चंद दिन के बाद वली मोहम्मद ने तक़ी की मौजूदगी में मुझ से कहा। “मंटो साहब। कल बड़ा लफ़ड़ा हुआ....... मौलाना और तक़ी में धीं पटास होते होते रह गई।”
वली मोहम्मद यूं तो उर्दू बोलता था। लेकिन पंजाबी और बंबई की उर्दू के कई अल्फ़ाज़ मज़ाह पैदा करने के लिए इस्तिमाल करने का आदी था।
तक़ी ने उसकी बात सुनी और ख़ामोश रहा।
वली मोहम्मद ने अपनी थिरकती हुई नोकीली मूंछों को आँखों का ज़ावीया बदल कर देखा, फिर उस ज़ावीए को बदल इस ने तक़ी की तरफ़ देखा और मुझ से कहा “लड़के को एक अदद बीवी की अशद ज़रूरत है, लेकिन बाप इस ज़रूरत को मानता ही नहीं....... इस ने बहुत समझाया मंटो साहब मगर मौलाना ने एक न सुनी....... मंटो साहब ये क्या मुहावरा है एक न सुनी....... मौलाना ने सुनी तो हज़ार थीं। लेकिन सुनी अन सुनी करदीं....... ये मुहावरे भी ख़ूब चीज़ हैं!....... और मौलाना भी....... अपने वक़्त के एक लाजवाब मुहावरे हैं।”
तक़ी भुन्ना कर मुझ से मुख़ातब हुआ “मंटो साहब इस से कहीए ख़ामोश रहे।”
वली मोहम्मद बोला। “मंटो साहब इस से कहीए कि मौलाना के सामने ख़ामोश रहा करे....... वो शादी की इजाज़त नहीं देते। ठीक है....... बाप हैं वो इस का नफ़ा नुक़्सान सोच सकते हैं।”
बाप बेटे की चख़ ज़रूर हुई थी। तक़ी ने मौलाना से दरख़ास्त की थी कि वो उसकी शादी किसी अच्छे घराने में कर दें ये सुन कर वो चिड़ गए और तक़ी के दोस्तों पर बरसने लगे। “तुम्हारे दोस्तों ने तुम्हारी जड़ों में पानी फेर दिया है....... जब मैं तुम्हारी उम्र का था। मुझे मालूम ही नहीं था कि शादी ब्याह किस जानवर का नाम है?”
ये सुन कर तक़ी ने डरते डरते कहा। “लें....... आप की शादी तो चौदह बरस की उम्र में हुई थी।”
मौलाना ने उसे डाँटा “तुम्हें क्या मालूम है?”
तक़ी ख़ामोश होगया....... वो बहुत ही कमगो और फ़रमांबर्दार क़िस्म का लड़का था। दो चार मर्तबा उस ने बेतकल्लुफ़ गुफ़्तुगू की और उस के खुलने का मौक़ा दिया तो मुझे मालूम हुआ कि उसको बीवी की वाक़िअतन ज़रूरत है। उस ने मुझ से एक रोज़ झेंपते हुए कहा “मेरे ख़्यालात आजकल बहुत परागनदे रहते हैं। वली मोहम्मद शादीशुदा है। वो जब अपनी बीवी के साथ बाहर जाता है तो मेरे दिल को जाने क्या होता है....... आप ने एक दफ़ा एहसास कमतरी के मुतअल्लिक़ बातें की थीं....... मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैं अनक़रीब इस का शिकार होने वाला हूँ। मगर क्या करूं। अब्बा मानते ही नहीं। मैं शादी की बात करता हूँ तो वो चिड़ जाते हैं....... जैसे....... जैसे शादी करना कोई गुनाह है....... वो अपनी मिसाल देते हैं कि देखो तुम्हारी माँ के मरने के बाद अब तक मैंने शादी नहीं की....... लेकिन मंटो साहब....... इस मिसाल का मेरे साथ क्या तअल्लुक़ है.......उन्हों ने शादी की अल्लाह को ये मंज़ूर नहीं था। कि उन की बीवी ज़िंदा रहती उन्हों ने बहुत बड़ी क़ुर्बानी की जो मेरी ख़ातिर दूसरी शादी न की....... लेकिन वो चाहते हैं कि मैं कुँवारा ही रहूं”
“मैंने पूछा क्यों?”
तक़ी ने जवाब दिया “मालूम नहीं मंटो साहब....... वो मेरी शादी के बारे में कुछ सुनने के लिए तैय्यार ही नहीं....... मैं उन की बहुत इज़्ज़त करता हूँ। लेकिन कल बातों बातों में जज़्बात से मग़्लूब हो कर मैं गुस्ताख़ी कर बैठा।”
“क्या?”
तक़ी ने इंतिहाई नदामत के साथ कहा। “मैं मिन्नत समाजत करते करते और समझाते समझाते तंग आगया था....... कल जब उन्हों ने मुझ से कहा कि वो मेरी शादी के मुतअल्लिक़ कुछ सुनने को तैय्यार नहीं तो मैंने ग़ुस्से में आकर उन से कह दिया....... आप नहीं सुनेंगे तो मैं अपनी शादी का बंद-ओ-बस्त ख़ुद करलूंगा।”
मैंने इस से पूछा। “ये सुन कर उन्हों ने क्या कहा।”
“अभी अभी घर से निकल जाओ....... चुनांचे कल रात में यहां दफ़्तर ही में सोया।”
मैंने शाम को वली मोहम्मद के ज़रीये से मौलाना को बुलवाया....... चंद जज़्बाती बातें हुईं तो उन्हों ने तक़ी को गले लगा कर रोना शुरू कर दिया। फिर शिकवे होने लगे। “मुझे मालूम नहीं होता कि ये लड़का जिस की ख़ातिर मैंने तजर्रुद बर्दाश्त किया एक रोज़ मेरे साथ ऐसी गुस्ताख़ी से पेश आएगा। मैंने माओं की तरह उसे पाला पोसा आप सूखी खाई पर इस के लिए ख़ुद अपने हाथों घी में गूँध गूँध कर पराठे पकाए....... ”
मैंने बात काट कर कहा। “मौलाना, ये कब आप के इन एहसानात को नहीं मानता। आप की तमाम क़ुर्बानियां इस के दिल-ओ-दिमाग़ पर नक़्श हैं। आप ने इतना कुछ किया। क्या आप उस की शादी नहीं कर सकते। माँ बाप की तो सब से बड़ी ख़्वाहिश ये होती है कि वो अपनी औलाद को फलता फूलता देखें। आप के घर में बहू आएगी। बाल बच्चे होंगे। दादा जान बन कर आप को पुर फ़ख़्र मुसर्रत न होगी?....... मेरा ख़्याल है तक़ी को ग़लतफ़हमी हुई है कि आप शादी के ख़िलाफ़ हैं।”
मौलाना लाजवाब होगए। रूमाल से अपनी आँखें ख़ुश्क करने लगे। थोड़े तवक्कुफ़ के बाद बोले। “पर कोई ऐसा रिश्ता होतो....... ”
आप हाँ कर दीजीए। “सब ठीक हो जाएगा।”
वली मोहम्मद ने ये कुछ ऐसे अंदाज़ में कहा। “चलीए अंगूठा लगाईए। मौलाना बदल गए। लेकिन ऐसी जल्दी भी क्या है?”
इस पर मैंने बुज़ुर्गों का अंदाज़ इख़्तियार करते हुए कहा। “कार-ए-ख़ैर में देर नहीं होनी चाहिए....... आप औरों को छोड़ीए, ख़ुद अपनी पसंद का रिश्ता ढूँढिए....... माशा अल्लाह डूंगरी में सब लोग आप को जानते हैं....... यहां बंबई में पसंद न हो तो अपने पंजाब में सही। कौन सा गाले कोसों दूर है।”
मौलाना ने सर हिला कर सिर्फ़ इतना कहा। “जी हाँ!”
मैंने तक़ी के कांधे पर हाथ रखा “लो भई तक़ी....... फ़ैसला होगया। मौलाना को तुम ज़िद्दी बच्चों की तरह अब तंग न करना....... मैं ख़ुद इस मुआमले में इन की मदद करूंगा।”
ये कह कर मैं मौलाना से मुख़ातब हुआ। “यहां कुछ ख़ानदान हैं। उन से मेरी जान पहचान है। मैं अपनी बीवी से कहूंगा वो लड़कीयां देख लेगी।”
तक़ी ने हौले से कहा। “आप की बहुत मेहरबानी।”
कई महीने गुज़र गए मगर तक़ी की शादी की बातचीत कहीं भी शुरू न हुई। वली मोहम्मद इस दौरान में उसे बराबर उकसाता रहा। वो अपने बाप के पीछे पड़ा। नतीजा ये हुआ कि एक रोज़ मौलाना मेरे पास आए और कहा “सांगटी स्टरीट की तीसरी गली में नुक्कड़ की बिल्डिंग में....... शायद आप जानते ही हूँ....... यूपी का एक ख़ानदान रहता है....... ”
मैंने फ़ौरन कहा। “आप कहीए....... मैं जानता हूँ!”
मौलाना ने पूछा “कैसे लोग हैं?”
“बेहद शरीफ़”
“जो सब से बड़ा भाई है। उसकी बड़ी लड़की। मैंने सुना है ख़ासी अच्छी है!”
“मैं पैग़ाम भिजवा देता हूँ।”
मौलाना घबरा गए “नहीं नहीं....... इतनी जल्दी नहीं....... ये भी तो देखना है कि लड़की शक्ल-ओ-सूरत की कैसी है?”
“मैं अपनी बीवी के ज़रीया से मालूम करलूंगा।”
मेरी बीवी ने उस लड़की को देखा तो पसंद किया। क़बूलसूरत थी। तालीम ऐंटरैंस तक थी तबीयत की बहुत ही अच्छी थी। ये सब खूबियां मौलाना से बयान करदी गईं। वो लड़की के बाप से मिले जहेज़ और हक़ महर के मुतअल्लिक़ बातचीत हुई। ये इब्तिदाई मराहिल बख़ैर-ओ-ख़ूबी तय होगए। तक़ी बहुत ख़ुश था। लेकिन तीन महीने गुज़र गए और बात वहीं की वहीं रही। आख़िर एक रोज़ मालूम हुआ कि लड़की वालों ने मज़ीद गुफ़्तगु से इनकार कर दिया है क्योंकि वो तक़ी के बाप की मैन मीख़ से तंग आचुके हैं। बार बार वो उन से जा जा कर ये कहता था। देखिए लड़की के जहेज़ में इतने जोड़े हूँ बर्तनों की तादाद ये हो। लड़की ने अगर मेरी हुक्मउदूली की तो उस की सज़ा तलाक़ होगी। फ़िल्म देखने हरगिज़ न जाएगी। पर्दे में रहेगी।
मैंने जब इन बेजा बातों का ज़िक्र तक़ी से किया। तो वो अपने बाप की तरफ़ होगया।
“नहीं मंटो साहब। लड़की वाले ठीक नहीं। अब्बा का ये कहना ठीक है कि वो मुझे रन मुरीद बनाना चाहते हैं।”
मैंने कहा ऐसा है “तो छोड़ो....... किसी और जगह सही।”
तक़ी ने कहा। “अब्बा कोशिश कर रहे हैं।”
मौलाना ने डूंगरी में अपने एक वाक़िफ़ कार के ज़रीये से बातचीत शुरू की सब कुछ तय होगया। निकाह की तारीख़ भी मुक़र्रर होगई। मगर एक दम कुछ हुआ और सब कुछ ढह गया....... लड़की वालों को तक़ी पसंद था, लेकिन जब मौलाना से अच्छी तरह मिलने-जुलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ तो वो पीछे हट गए। और लड़की का रिश्ता किसी और जगह पक्का कर दिया। तक़ी ने फिर अपने बाप की तरफदारी की और मुझ से कहा। “ये लोग बड़े लालची थे मंटो साहब....... एक दौलतमंद का लड़का मिल गया तो अपनी बात से फिर गए....... अब्बा शुरू ही से कहते थे कि ये लोग मुझे ईमानदार मालूम नहीं होते। लेकिन में ख़्वाहमख़्वाह उन के पीछे पड़ा रहा। कि जल्दी मुआमला तय कीजीए।”
कुछ अर्से के बाद तीसरी जगह कोशिश शुरू हुई। यहां भी नतीजा सिफ़र। चौथी जगह बातचीत शुरू हुई तो तक़ी ने मुझ से कहा। “मंटो साहब, वो लोग आप से मिलना चाहते हैं।”
“बड़े शौक़ से मिलें।”
मैं उन से मिला। आदमी शरीफ़ थे। मौलाना से उन की चंद मुख़्तसर बातें हुईं। मैंने तक़ी की तारीफ़ की। मुआमले तय होगया। लेकिन चंद ही दिनों में गड़बड़ पैदा होगई। लड़की के बड़े भाई ने किसी से सुना कि मौलाना दुकान पर अपने एक दोस्त से कह रहे थे। लड़की मेरे कहने पर ना चली तो में तक़ी की दूसरी शादी कर दूँगा। वो ये सुन कर मेरे पास आया। मैंने मौलाना को बुलवाया। उन से पूछा तो दाढ़ी पर हाथ फेर कर कहने लगे। “मैंने क्या बुरा कहा.... में ऐसी बहू घर में नहीं लाना चाहता जो मेरा कहा ना माने....... में तक़ी की शादी इस लिए कर रहा हूँ कि मुझे आराम पहुंचे।”
अजीब-ओ-ग़रीब मंतिक़ थी। मैंने पूछा “आप को आराम ज़रूर पहुंचना चाहिए। मगर आप की ये मंतिक़ मेरी समझ में नहीं आई....... ऐसा मालूम होता है कि ख़ाविंद और बीवी का रिश्ता आप की समझ से बालातर है।”
मौलाना ने किसी क़दर ख़फ़गी के साथ कहा “मैं ख़ाविंद रह चुका हूँ मंटो साहब....... आप के ख़्यालात मेरे ख़्यालात से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं....... आप के साथ काम करके मुझे अफ़सोस है मेरे लड़के के ख़्यालात भी बदल गए हैं।” ये कह कर वह तक़ी से मुख़ातब हुए। “सुना तुम ने....... में ऐसी लड़की घर में लाना चाहता हूँ जो मेरी और तुम्हारी ख़िदमत करे।”
इस के बाद देर तक बातें होती रहीं। उन से जो मैंने नतीजा निकाला वो मैंने तक़ी को बताया दिया। “देखो भई....... बात ये है कि तुम्हारे वालिद साहब तुम्हारी शादी नहीं करना चाहते....... यही वजह है कि वो हर बार कोई न कोई शोशा छेड़ देते हैं। कोई न कोई बहाना ढूंढ निकालते हैं ताकि मुआमला आगे न बढ़ने पाए।”
मौलाना ख़ामोश अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे। तक़ी ने मुझ से पूछा “क्यों....... ये मेरी शादी क्यों नहीं करना चाहते।”
मेरे मुँह से बेइख़्तियार निकल गया। “मौलाना का दिमाग़ ख़राब है।”
मौलाना को इस क़दर तैश आया कि मुँह में झाग भर कर वाही तबाही बकने लगे। मैंने तक़ी से कहा “जाओ, मौलाना को किसी ज़हनी शिफ़ाख़ाना में ले जाओ....... और मेरी ये बात याद रखू। जब तक इन का दिमाग़ दरुस्त नहीं होगा। तुम्हारी शादी हर्गिज़ हर्गिज़ नहीं करेंगे। उन के दिमाग़ की ख़राबी का बाइस वो क़ुर्बानी है जो इन्हों ने तुम्हारे लिए की।”
मौलाना ने तक़ी का बाज़ू ज़ोर से पकड़ा और मुझे सलवातीं सुनाते चले गए। वली मोहम्मद मेरे पास बैठा सब कुछ ख़ामोशी से सुन रहा था। इतनी देर वो अपनी नोकीली मूंछों के वजूद से बिलकुल ग़ाफ़िल रहा। जब मौलाना और तक़ी चले गए तो उस ने आँखों का ज़ावीया दरुस्त करके उन की तरफ़ देखा और कहा। “मुर्दा ख़राब होरहा है बेचारे का....... लेकिन मंटो साहब आप ने बावन तौला और पाओ रत्ती की बात कही....... मुहावरा दरुस्त इस्तिमाल हुआ है न?”
“तुम ने मुहावरा दरुस्त इस्तिमाल है। लेकिन अफ़सोस है कि मौलाना की तबीयत साफ़ करते हुए मैंने मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ इस्तिमाल नहीं किए।”
“बड़ा मलऊन आदमी है!” वली मोहम्मद ने ये कह कर अपनी मूंछ का हटीला बाल बड़े ज़ोर से उखेड़ा और बड़ी संजीदगी इख़्तियार कर के मुझ से पूछा। “मंटो साहब, क्या मतलब था आप का इस से कि मौलाना के दिमाग़ की ख़राबी का बाइस वो क़ुर्बानी है जो उस ने तक़ी के लिए की। बात ज़रूर बावन तौला और पाओ रत्ती की है लेकिन पूरी तरह मेरे ज़हन में बैठी नहीं।”
मैंने उस को समझाया बीवी की मौत के बाद एक वक़्ती जज़्बा था जिस के तहत मौलाना ने तजर्रुद के दिन गुज़ारने का तहय्या किया। ये जज़्बा अपनी तिब्बी मौत मरा तो आप के लिए दो सोग होगए, एक बीवी की मौत का, दूसरा इस जज़्बे की मौत का....... वक़्त गुज़रता गया और मौलाना नीम के करेले बनते गए....... मुझे तो भई वली मोहम्मद बहुत तरस आता है ग़रीब पर....... एक शख़्स जिस ने पच्चीस बरस तक अपने और औरत के दरमयान एक दीवार हाइल रखी हो, वो किस तरह अपने जवान बेटे के पहलू में एक जवान औरत देख सकता है....... और वो भी नज़रों के बहुत क़रीब!”
दूसरे दिन तक़ी न आया। वली मोहम्मद के हाथ उस ने किताबत का बल भिजवा दिया जो अदा कर दिया गया....... तक़ी को बहुत अफ़सोस था कि मैंने उसके बाप को बुरा भला कहा। “मैंने वली मोहम्मद से कह दिया मुझे कोई अफ़सोस नहीं....... तक़ी को मालूम होना चाहिए था कि उस का बाप ज़हनी और रुहानी तौर पर बीमार है। लेकिन मुझे ये अफ़सोस ज़रूर है कि उस ने काम छोड़ दिया है।”
वली मोहम्मद ने तक़ी से वापस आने को कहा। “मगर वो ना माना। उस ने किसी और दफ़्तर में मुलाज़मत न की और दुकान पर बैठ कर घी बेचने लगा। वली मोहम्मद ने जब ज़ोर दिया तो इस ने वहीं किताबत का काम भी शुरू कर दिया।
मैं एक काम से दिल्ली चला गया। तीन चार महीने वहां रह कर बंबई लौटा। तो वली मोहम्मद ने प्लेटफार्म ही पर ये ख़बर सुनाई कि तक़ी की शादी एक हफ़्ता पहले बख़ैर-ओ-ख़ूबी हो चुकी है। मुझे यक़ीन ना आया लेकिन वली मोहम्मद ने क़ुरआन की कसम खा कर कहा “मंटो साहब, मैं झूट नहीं कहता....... निकाह के छुवारे मैंने सँभाल कर रखे हुए हैं। जिस की शादी ना होती हो। इस के लिए अकसीर साबित होंगे”
मैंने तक़ी को बुलाया, “मगर वो न आया।”
तक़रीबन डेढ़ महीने के बाद एक दिन अलस्सुबह वली मोहम्मद आया। उसकी नोकीली मूंछें थिरक रही थीं। कहने लगा मंटो साहब। “कल धीं पटास होगई बाप बेटे में। तक़ी अपनी बीवी को लेकर चला गया कहीं।”
“कहाँ?”
“मालूम नहीं” ये कह कर आँखों का ज़ावीया बदल कर वली मोहम्मद ने अपनी नोकीली मूंछों को देखा “कुछ समझ में नहीं आता मंटो साहब....... लड़ाई का बाइस मालूम नहीं होसका....... मौलाना बिलकुल ख़ामोश हैं....... ”
मौलाना बहुत देर तक ख़ामोश रहे और उन का बेटा मोहम्मद तक़ी भी। बंबई में वली मोहम्मद और उस के साथीयों ने तक़ी को बहुत तलाश किया। मगर उस का कोई सुराग़ न मिला।
बहुत दिनों के बाद दिल्ली से मुझे तक़ी का एक ख़त वसूल हुआ। “लिखा था....... बहुत दिनों से सोच रहा था कि आप को ख़त लिखूं और हालात से आगाह करूं। मगर जुर्रत साथ न देती थी....... मैं आप से दरख़ास्त करता हूँ कि ये ख़त किसी और को न दखाईएगा।
आप ने मेरे वालिद के मुतअल्लिक़ जो कुछ कहा था ठीक निकला। मैंने आपकी बातों का बुरा माना था। इस लिए कि मुझे असलीयत का इल्म नहीं था जो मुझे शादी के बाद मालूम हुई।
मेरे वालिद का दिमाग़ वाक़ई दरुस्त नहीं। हो सकता है पहले ठीक हो। लेकिन मेरी शादी के बाद तो क़तअन उनकी दिमाग़ी हालत दरुस्त न थी। उन की यही कोशिश थी कि मैं अपनी बीवी से दूर रहूं। मुझ और इस में दूरी पैदा करने के लिए वो अजीब-ओ-ग़रीब तरीक़े ईजाद करते थे। जो एक दीवाना ही कर सकता है। मैंने बहुत देर तक बर्दाश्त किया....... मुझे तमाम वाक़ियात बयान करते हुए बहुत श्रम महसूस होती है....... एक रोज़ मेरी बीवी ग़ुसलख़ाने में नहा रही थी। आप ने दरवाज़े में से झांक कर देखना शुरू कर दिया....... मैं और क्या लिखूं....... समझ में नहीं आता। उन के दिमाग़ को क्या होगया है। ख़ुदा उन की हालत पर रहम करे।
मैं यहां दिल्ली में हूँ और बहुत ख़ुश हूँ।”
मैं ये ख़त पढ़ रहा था कि वली मोहम्मद आया। इस के पास तक़ी का एक ख़त था। मेरी तरफ़ बढ़ा कर उस ने कहा। “ये ख़त तक़ी ने दिल्ली से अपने बाप को लिखा है....... सिर्फ़ चंद अल्फ़ाज़ हैं।”
मैंने पूछा “क्या?”
वली मोहम्मद ने कहा “पढ़ लीजीए।”
मैंने ये अल्फ़ाज़ पढ़े। “क़िबला वालिद साहब....... मैं यहां ख़ैरीयत से हूँ....... आप ने मेरा घर आबाद किया है....... मेरी ख़्वाहिश है कि आप भी अपना घर आबाद करलें....... ”
.......वली मोहम्मद ने आँखों का ज़ावीया बदल कर अपनी नोकीली मूंछों को देखा और कहा।
“मंटो साहब....... लड़का होशयार होगया है....... लेकिन मौलाना तो अपनी बात पक्की कर चुके हैं।”
“कहाँ”
वली मोहम्मद की मूंछें थिरकीं “एक घी बेचने वाली से....... पांचों घी में और सर कड़ाही में....... मुहावरा ठीक इस्तिमाल किया न मंटो साहब।”
मैं हंस पड़ा।
यकुम जुलाई1950-ई-