Him Sparsh - 6 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 6

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हिम स्पर्श - 6

“उत्सव सम्पन्न हो गया। इसका अर्थ है कि लोग जा चुके हैं। लोगों के द्वारा बनाया गया कृत्रिम विश्व मिटा दिया गया है, जो केवल एक भ्रम था। मूल और वास्तविक वस्तुएं तो अभी भी है।“ वफ़ाई स्वयं से बातें करने लगी। इस प्रकार से एकांत को पराजित करने लगी।

“कौन सी वस्तुएं वास्तविक है?”

“यह मरुस्थल, गगन, पवन, रेत, सूर्य, चन्द्र, मरुस्थलके रूप, उसका आकार, यहाँ कि हवा......”

“हाँ, यह सब तो है जो कभी निराश नहीं करते।“

“तो मैं यह सब जो वास्तविक है उसका आनंद लूँगी, अकेली। लोग नहीं है तो क्या हुआ?”

“तो तुम्हें यहाँ रुकना होगा, वफ़ाई।“वफ़ाई के अन्तर्मन ने उसे आदेश दिया।

“तो रुक जाती हूँ यहाँ।“ वफ़ाई ने निश्चय कर लिया।

वफ़ाई ने चारों तरफ द्रष्टि डाली। मरुस्थल फैला हुआ था, हर तरफ। जहां तक द्रष्टि जा सकती थी वहाँ तक मरुस्थल ही था। क्षितिजों तक फैला हुआ था अनंत मरुस्थल!

श्वेत मरुस्थल। सूर्य की किरणों जैसा श्वेत। वफ़ाई कि आँखें विस्मय से भर गई। अब तक केवल दिशाओं तक फैले हुए श्वेत हिम को देखने की आदत थी। प्रथम बार क्षितिज तक फैली अन्य किसी वस्तु को वफ़ाई की आँख देख रही थी जो हिम की भांति श्वेत ही थी।

श्वेत हिम! श्वेत मरुस्थल! मरुस्थल के रूप ने वफ़ाई का मन मोह लिया।

“वा....ह..। अद्भूत अनुपम, अजोड़। तुम सबसे भिन्न हो, प्रिय मरुस्थल। मैं तो तुम्हारे प्रेम में पड गई।“

दिशाओं तक फैले मरुस्थल को पवन के माध्यम से वफ़ाई ने स्नेह भेजा।

वफ़ाई ने अपनी बाहें खोली,“हे मरुस्थल, मेरे आलिंगन का स्वीकार करो। मेरी मित्रता का स्वीकार करो। मेरे स्नेह का स्वीकार करो।“ वफ़ाई का स्नेह दिशाओं में फ़ेल गया। दिशाएँ विचलित हो गई, प्रवाहित हो गई। क्षितिज तक फ़ेल गई। क्षितिज उत्तेजना से उष्ण हुई हवा वफ़ाई को छु कर बह गई।

“मेरे स्नेह को स्वीकार करने के लिए मैं तुम्हारा धन्यवाद करती हूं, मेरे मित्र। हे मरुस्थल, आज से तुम मरे नए पुरुष मित्र हो।“ वफ़ाई ने सारे मरुस्थल को सुनाई दे ऐसे कहा।

“नया? तो पुराना पुरुष मित्र कौन है?” मरुस्थल ने पूछा।

“हे मित्र। अभी अभी तो मित्रता हुई है और अभी से ऐसे सवाल? मैं यहाँ रुकने वाली हूँ, तुम्हारे साथ कुछ समय के लिए। हो सकता है कुछ दिनों के लिए। धीरे धीरे तुम्हें सब ज्ञात हो जाएगा। धैर्य रखो।“ वफ़ाई ने मरुस्थल की तरफ श्रुंगारिक स्मित किया। मरुस्थल ने भी जवाबी स्मित दिया। ठंडी हवा का एक टुकड़ा वफ़ाई को छु गया, ह्रदय तक अंदर उतर गया।

“हम खूब बातें करेंगे, एक बार मुझे रात्रि व्यतीत करने का कोई ठिकाना तो ढूंढ लेने दो।“

वफ़ाई ने दूर तक देखा, दूर दूर तक कुछ भी नहीं था। वह जीप में कूद पड़ी और मरुस्थल की अज्ञात दिशा में एक घर की खोज में निकल पड़ी।

एक घंटे से भी अधिक समय से जीप चलती रही किन्तु वफ़ाई को कोई उचित स्थान नहीं मिला। मार्ग में उसे रेत मिली, बिना मनुष्य की धरती मिली, गहन एवं साफ आकाश मिला, ऊष्मा भरी हवा मिली, अंत हिन मौन मिला, कहीं कहीं कोई वृक्ष मिले, सुखी धरा मिली, अज्ञात मार्ग मिला, रंगीन एवं रंगविहीन क्षण भी मिले। इन सब ने वफ़ाई को अपनी तरफ आकर्षित किया किन्तु उसे कोई आश्रय स्थान नहीं मिला। वह चलती रही, खोज करती रही।

“एक घर ढूँढना कितना कठिन होता है ज्ञात है तुम्हें? अरे, भरे पूरे नगर में जहां बस्तियाँ बसी है वहाँ भी एक घर नहीं मिल पाता और तुम इस मरुस्थल में घर ढूंढ रही हो।“

“यदि सारा विस्तार ऐसा ही रहेगा तो रात कहाँ और कैसे बीतेगी? क्या मुझे लोगों से बसे नगर की तरफ लौट जाना चाहिए?” वफ़ाई ने स्वयं से प्रश्न किए।

“सबसे सरल उपाय है यह। किन्तु, ऐसे तो तुम मरुस्थल से भाग रही हो। ऐसे में मरुस्थल को जानोगी कैसे? समझोगी कैसे? अनुभवोगी कैसे?“

“किन्तु कुछ तो...”

“किन्तु, परंतु आदि शब्द का प्रयोग कायर व्यक्ति करते हैं। क्या तुम...”

“नहीं, मैं कायर नहीं हूँ। मैं मरुस्थल में ही रहूँगी, रात भर। और यदि कुछ नहीं मिला तो जीप के अंदर सारी रात बिता दूँगी किन्तु मरुस्थल से दूर नहीं भागूंगी।“ वफ़ाई ने अपने आप को वचन दिया। वह जीप चलाती रही।

मरुस्थल के एक कोने में कहीं दूर वफ़ाई की आँखों ने किसी आकृति को पकड़ लिया। उसने उसे दो तीन बार देखा।

“मुझे विश्वास है कि वह स्थान उपयोगी हो सकता है, जिस की मैं खोज में थी वह यही है।“ उसने जीप रोक दी और बाहर आ गई।

उस ने दूरबीन निकाला, आँखों पर रखकर उस घर जैसे लगने वाले स्थान पर ध्यान केन्द्रित किया।

“यहाँ कोई मानवीय संकेत नहीं मिल रहे हैं। मकान खाली सा लगता है। वहाँ जा कर देखती हूं।“

वफ़ाई जा पहुंची।

वफ़ाई ने घर का निरीक्षण किया।

“मकान के दो कक्ष हैं किन्तु द्वार तो है ही नहीं। खिड़कियाँ तो है किन्तु उसके भी द्वार नहीं है। सदा से खुले रहने वाले द्वार एवं खिड़कियाँ। यह कैसा घर है?”

“यह घर नहीं मकान है।“

“नहीं, यह तो खंडहर लग रहा है।“

वफ़ाई ने आस पास देखा।

“कोई नहीं है यहाँ। बस एकांत बसा है, एक अकेला एकांत। सब कुछ शांत है। कोई ध्वनि नहीं, कोई हलचल नहीं। एक भयावह शांति का अस्तित्व है यहाँ।“ वफ़ाई विचलित हो गई।

“ऐसी शांति से तुम अपरिचित तो नहीं हो, वफ़ाई।“

“क्या?”

“तुम्हें ऐसी शांति का परिचय है। पहाड़ों में तुम सदैव ऐसी शांति से मिलती रही हो। तीव्र, गहन और घुमावदार घाटियों में ऐसी ही गहरी और अनंत शांति को तुम प्रत्येक दिन मिलती रही हो। क्या तुम उसे भूल गई?”

‘उन क्षणों को मैं कैसे भूल सकती हूँ?”

“तो फिर तुम ऐसे भयभीत क्यूँ हो?”

“नहीं, मैं भयभीत नहीं हूँ। मैं पहाड़ी लड़की हूँ, तुम्हें ज्ञात होगा।“

“वफ़ाई, मुझे सब ज्ञात है। बस, आज रात यहीं रुक जाओ।“

“ठीक है, मैं यहीं रुकूँगी।“ वफ़ाई मकान में प्रवेश कर गई।