1 - कच्ची उम्र की पक्की नौकरी
स्कूल से आते ही उस दिन लड़का देर तक चिल्लाता रहा कि उसे पॉकेट मनी चाहिए ही चाहिए! क्योंकि उसके सभी सहपाठियों को उनके पिता पॉकेट मनी देते हैं। उसका माली पिता बड़ी मुश्किल से उसके लिए अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई के लिए खर्च जुटा पाते थे। वे अपनी असमर्थता से व्याकुल हो बिना खाए-पिए हताशा में घर से बाहर निकल बस स्टैंड की तरफ जाने वाली गली में बढ़ गए।
इधर हल्ला मचा कर, थक कर लड़का भी रूठा-सा, घर के सामने मैदान में आ गया। किनारे रखे बड़े पाईप पर बैठ सुबकने लगा। थोड़ी दूरी पर नगर निगम द्वारा रखे गए कचरे के कंटेनर के पास कचरा चुनती, कुछ-कुछ बीनती, बैठी लड़की जो उसी के हमउम्र और उसकी पड़ोसन भी थी, उसके सुबकने की आवाज सुन पास आकर खड़ी हुई।
"क्या हुआ रे, काहे रोता, किसी ने मारा है क्या?"
"मुझे स्कूल नहीं जाना है!"
"क्यों नहीं जाना? बस्ता लेकर स्कूल ड्रेस में तू साहेब जैसा बड़ा अच्छा लगता है!"
"साहेब जैसा, हुँह! खाली-पीली फोकटिया साहेब, सभी बच्चों को घर से पॉकेट मनी मिलता है, वे लोग सब साथ में बाहर जाते हैं। मैं वहां अकेला....!"
"अच्छा ये बात!" लड़की सयानी बनकर उसकी बात सुन फिर बोली,
"तुझे मालूम कि मैं कचरे बीन कर रोज साठ रूपए कमाती हूँ?"
"साठ रुपए रोज, इस कचरे से?" कहते हुए उसने कचरे के कंटेनर की ओर देखा।
"हाँ, ऐसे बहुत सारे कचरे के डिब्बे में जाकर काम की चीज ढूंढती, बोरा भरकर बीनती और कबाड़ी को तुलवा आती!"
"लेकिन मैं तेरे जैसे कचरा बीनने तो नहीं जा सकता!"
"तू मेरे लिए काम करें तो रोज के बीस रुपए तुझे दे सकती हूँ।"
"तेरे लिए काम.. मैं करूं? जा भाग इधर से, नहीं तो मार खाएगी!"
"मुझे मारेगा! अच्छा सुन, मास्टर बनकर पीटेगा तो पीट लेना, मार खा लूंगी।"
"मैं मास्टर!"
"तू रोज स्कूल में जो भी पढ़ कर आएगा, बस वही सब मुझे रोज पढ़ा देगा तो बदले में रोज के बीस रूपए दूंगी।"
"ट्यूशन पढ़ाने को बोल रही है, तो सीधे-सीधे बोल नहीं सकती! चल आज से ही पढ़ाना शुरू करता हूँ, यहीं रूक, अभी अपना बस्ता लेकर आता हूँ।" कहता हुआ हौसलों से भरा लड़का तेजी से अपने घर की ओर दौड़ पड़ा|
***
2 - जमीर की हिफाजत
जैसे ही हम दोपहर का खाना खाने बैठे कि वह सामने आकर खड़ी हो गयी|
“हो गया सब काम?”
“हाँ, बस आपकी ये थालियाँ रह गयी है मांजने को|”
“अच्छा ठीक है| ले साथ में रोटी तू भी खा ले|” दो रोटी प्लेट में थोड़ी सी सब्जी रख उसकी ओर बढ़ा दिया| उसने लपक कर प्लेट लिया और वहीँ फर्श पर बैठ कर खाने लगी| खाते-खाते बोली, “आज तो बहुत जोर की भूख लगी थी|”
“सुबह का खाया अब तक थोड़ी ना टिकेगा| काम करने आती हो तो साथ में टिफिन भी लेकर आया करो| कभी किसी ने खिलाया न खिलाया, कम से कम तेरा अपना टिफिन तो रहेगा ना|”
“हमारे घर सुबह खाना नहीं बनता है| सिर्फ रात को चावल बनता है|”
“तो दिन भर भूखी रहती हो?”
“भूखी कहाँ, कभी आपके यहाँ तो कभी दूसरी आंटी के यहाँ, किसी ना किसी के यहाँ खाना मिल ही जाता है|”
“लेकिन वो खाना तो बंधा बंधाया नहीं होता है| कभी किसी दिन इनमें से किसी ने नहीं दिया तो?”
“तो मांग लेती हूँ| सब अच्छे हैं आपकी तरह, दे देती हैं|”
“घर पर तुम्हारा एक छोटा भाई भी है ना? वो तो काम पर नहीं जाता है, उसको भी भूख लगती होगी| उसके खाने का क्या?”
“मेरी मम्मी खाना बनाने जाती है, वहीँ से उसके लिए खाना मांग कर लाती है|”
“रोज मांगकरss... लाती है?”
“हाँ, वे लोग भी अच्छे हैं, दे देते हैं|”
“लेकिन तुम लोग तो घरों में काम करके अच्छा-ख़ासा कमा लेती हो, फिर मांगती क्यों हो? मेहनत करने वालों के लिए मांग कर खाना अच्छी बात नहीं है| और फिर माँगने पर तुम्हें दो ही रोटी देंगे| उससे पेट थोड़ी न भरता होगा| अपने घर में पका कर खाने से ही पेट भरता है|”
“घर का किराया, बापू की दवाई के बाद गल्ला खरीदने को रुपये नहीं बचते हैं| हम एक बार में पांच किलो चावल खरीदते हैं उसी को महीने भर किसी तरह चलाते हैं|”
“सुनो, तुम मेरे घर की डस्टिंग के साथ-साथ कुछ उपरी काम भी कर दिया करो, उसके बदले में मैं हर महीने तुम्हें दस किलो चावल खरीद कर दिया करुँगी| फिर तुम अपने घर में दोनों वक्त खाना बनाना, भर पेट खाना ताकि मांग कर खाना न खाना पड़े|”
***
3 - अंतराल के बाद
ना होली, ना दीवाली। उसने कहा था, "जितनी बार आप प्रकाशित होगी उतनी बार मैं आपसे इनाम लूंगा।"
"तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर!" हँसकर स्वीकार लिया था।
आज चिट्ठियाँ बढ़ाते हुए जैसे ही पोस्टमैन ने उसकी ओर देखा उसने नजरें झुका ली।
पार्सल, लिफाफे और पोस्टकार्ड, हाथ में रख उसे तौलने लगी और मन में गुनने लगी।
देश भर के लगभग सभी स्थापित पत्र-पत्रिकाओं की उसने सदस्यता ले रखी थी। नियमित ढ़ेरों डाक आतें हैं ।
उसका डाकघर का चक्कर, रचनाएँ भेजने का सिलसिला। और यकीन, कि एक दिन उसके लेखन को भी साहित्य सरोकार में स्थान मिलेगा।
वैसे स्थान मिलने का आमंत्रण कई बार मिला था लेकिन वह तो सिद्धांतों से समझौता होता!
खुशामद के बल पर, ना!
चारूलता ने कितनी बार कहा,
"मेरे पहचान में कई सम्पादक हैं,कहो तो....!"
"नहीं!" उसे इंकार था।
"हर महीने कम से कम तीन- चार पत्रिकाओं में छपने लगोगी!" चारूलता ने दबाब देते हुए फिर से कहा।
"ऐसे छप जाने से लाभ?" उस वक्त स्वाभिमान तने हुए छाते-सा था।
लेकिन...!
..... आज तक, इन दो वर्षों में सिर्फ तीन बार प्रकाशित हो पायी थी, वो भी स्थानीय पत्रिका में। जबकि उसके साथी लेखकों ने जितनी मेहनत की उसके मुकाबले कहीं अधिक सफलता पाई।
उन सबका सहभागिता के आधार पर निरंतरता से प्रकाशित होना। पुस्तक लोकार्पण और सम्मान। लगातार पुस्तकों का चर्चा में रहना। समीक्षा, चर्चा-विमर्श में उनके नामों का बार-बार उल्लेख।
सोचते-सोचते एकाएक वह झुँझला उठी। चिठ्ठियों को टटोला। दो पोस्टकार्ड भी शामिल थे। उनमें सहभागिता के आधार पर पुस्तक प्रकाशन हेतु आमंत्रण प्रेषित था।
पोस्टमैन की ओर देखा। वह अब तक वहीं खड़ा था।
"कुछ कहना है?"
"नहीं!" सायकिल पर सवार हो गया और कुछ आगे बढ़कर उसने कहा, "मन छोटा न करें, मेरा मन कहता है अगली बार आप जरूर छपेंगी।"
सुनते ही अंगुलियाँ काँपी। पोस्टकार्ड को कस कर पकड़ा। सिकुड़ कर बंद हो चुका स्वाभिमान अब तने हुए छाते सा हो चुका था।
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कान्ता रॉय