Swabhiman - Laghukatha - 20 in Hindi Short Stories by Harish Kumar Amit books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 20

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स्वाभिमान - लघुकथा - 20

लघुकथा 01 : चिन्दी-चिन्दी

साहब अभी-अभी मंत्री जी की कोठी से लौटकर दफ़्तर के अपने कमरे में आए थे। मंत्री जी ने साहब के विदेश जाने की फाइल पर हस्ताक्षर तो कर दिए थे, मगर ऐसा करने से पहले साहब को जैसे रुला ही दिया था। साहब को पिछले कई दिनों से मंत्री जी की चिरौरी तो करनी ही पड़ी थी, साथ ही कई नियमविरुद्ध काम कर देने की हामी भी भरनी पड़ी थी। साहब को विदेश जाने की ख़ुशी में अपने स्वाभिमान का हनन यूँ लग रहा था जैसे स्वादिष्ट मिठाई खाते हुए बीच में कुनैन की कड़वी गोली गई हो।

अनमने-से साहब अपनी कुर्सी पर बैठे यही सब सोच रहे थे कि तभी उनका चपरासी दो दिन की छुट्टी की दरख़्वास्त लेकर आया और उसे मंज़ूर कर देने की विनती करने लगा। छुट्टी मंज़ूर कर देना साहब के लिए कोई मुश्किल बात नहीं थी। उस चपरासी का काम किसी दूसरे ने देख लेना था, मगर मंत्री जी द्वारा किए गए वर्ताव की चुभन साहब के मन को बुरी तरह मथ रही थी। उन्होंने सरसरी निगाह से दरख़्वास्त की ओर देखते हुए रुखाई से कह दिया,"अभी नहीं। आजकल बहुत काम है ऑफिस में। बाद में कभी ले लेना छुट्टी।"

साहब को उम्मीद थी कि अब चपरासी भी वैसे ही उनकी चिरौरी करेगा जैसे उन्होंने मंत्री जी की है, लेकिन चपरासी बग़ैर कुछ कहे अपना काग़ज़ लिए वापिस मुड़ा और दरवाज़े की ओर जाने लगा। तभी साहब को किसी काग़ज़ को फाड़ने की आवाज़ सुनाई दी। साहब ने सिर उठाकर देखा - दरवाज़े तक पहुँचते-पहुँचते चपरासी ने अपनी दरख़्वास्त के कई टुकड़े कर दिए थे। साहब को लगा कि चिन्दी-चिन्दी दरख़्वास्त नहीं, उनका स्वाभिमान हुआ है।

***

लघुकथा 02 - मिठास और गर्मी

भूख के मारे बेचैनी बढ़ती जा रही थी। दस बजने वाले थे, पर अभी तक नाश्ते का कोई अता-पता नहीं था। यहाँ तक कि नाश्ता बनाये जाने की कोई आवाज़ भी सुनाई नहीं दे रही थी। जो आवाज़ विनोद बाबू को सुनाई दे रही थी, वह उनकी बहू, स्मिता, की थी जो दूसरे कमरे में अपनी किसी सहेली से पिछले एक घण्टे से बातेँ किए जा रही थी।

'पता नहीं कब तक चलनी हैं ये गप्पें! बहू को कह दूँ कि नाश्ता बना ले, भूख के मारे जान निकली जा रही है।' उनके मन में आया। फिर कुछ सोचकर काँपती टांगों से वे उठे और अपने कमरे से बाहर निकल गए।

कुछ देर बाद वे रसोई में थे। काँपते हाथों से उन्होंने फ्रिज का दरवाज़ा खोला तो सामने एक भगौने में रखा दूध नज़र आया। उन्होंने किसी तरह भगौना बाहर निकालकर स्लैब पर रखा और गिलास ढूँढने लगे। गैस का चूल्हा जलाकर दूध गर्म करने और उसमें चीनी मिलाने की हिम्मत तो उनमें थी नहीं। भगौने से दूध उण्डेलकर उन्होंने गिलास को पूरा भर लिया। कुछ दूध स्लैब पर बिखर भी गया। फिर भगौने को फ्रिज में रखने के बाद दीवार का सहारा लेकर वे घूँट-घूँट करके दूध पीने लगे। फीका और ठंडा दूध भी उन्हें बहुत ख़ास लग रहा था। उसमें उनके स्वाभिमान की मिठास और गर्मी जो घुली हुई थी।

***

लघुकथा 03 - उसूलों की मजबूरियाँ

गाड़ी चलाते हुए मेरा दिमाग़ लगातार सायं-सायं कर रहा था। सुबह से साहब के साथ ड्यूटी पर था। कभी एक मीटिंग के लिए किसी एक बिल्डिंग में और कभी किसी और मीटिंग के लिए दूसरी बिल्डिंग में आने-जाने में ही पूरा दिन बीता था। अब रात के 09 बजने वाले थे और साहब को एयरपोर्ट छोड़ने जा रहा था। मंत्री जी की बुलाई मीटिंग में काफ़ी वक़्त लग जाने के कारण साहब घर भी नहीं जा सके थे और उन्हें मीटिंग स्थल से सीधे ही एयरपोर्ट की ओर आना पड़ा था। उनकी अटैची भी मैं ही उनके घर से लेकर आया था जब वे मीटिंग में भाग ले रहे थे।

सुबह से दस बार रुक्मणी का फ़ोन चुका था कि घर आते वक्त मैं साहब से कुछ एडवांस लेकर ही आऊं। दरअसल उसकी बहन की शादी तय हो गई थी और किसी वजह से पाँच दिनों बाद ही शादी हो जानी थी। शगुन और दूसरे ख़र्चों के लिए दस हज़ार रुपयों की सख्त जरूरत थी।

एयरपोर्ट नज़दीक आता जा रहा था। साहब ने एक हफ़्ते बाद वापिस आना था। मैं असमंजस के झूले में झूल रहा था। आज तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, तो क्या आज अपने उसूल तोड़ दूं? सोच-सोचकर सिर घूमने लगा था। माथे पर पसीना भी चुहचुहाने लगा था। समझ नहीं रहा था कि क्या करूँ, क्या करूँ।

एयरपोर्ट अब सामने ही था। एकाध मिनट में साहब ने उतर कर चले जाना था। मैं अभी भी असमंजस के समन्दर में गोते लगा रहा था।

एयरपोर्ट के गेट के सामने मैंने गाड़ी रोकी और उतरकर साहब के उतरने के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया। फिर डिक्की से साहब की अटैची निकालकर पास पड़ी एक ट्रॉली पर रख दी। साहब अब एयरपोर्ट के अन्दर जाने के लिए तैयार थे।

चलने से पहले साहब ने मेरी ओर देखा और पूछने लगे,"शामसिंह, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं? कुछ परेशान-से लग रहे हो।"

साहब के साथ पिछले चार सालों से ड्यूटी कर रहा था, इसलिए वे काफ़ी हद तक मुझे समझने लगे थे।

साहब की बात सुनकर एकबारगी तो मेरे दिल में आया कि साहब से एडवांस की बात कर लूँ, पर तभी जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया, "सब ठीक है साब ! नमस्कार!"

साहब एयरपोर्ट के अंदर जा रहे थे तो मेरा बायाँ हाथ दाएँ हाथ की उँगली में पहनी सोने की पतली-सी अँगूठी को सहलाने लगा। बस इसी अँगूठी ने ही अब पार लगानी थी मेरी नैय्या !

***

सधन्यवाद,

हरीश कुमार 'अमित',