Darling in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | डार्लिंग

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डार्लिंग

डार्लिंग

ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म था। कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठंडी करदी थी। लेकिन जानों पर बाक़ायदा हमले होरहे थे और जवान लड़कीयों की इस्मत बदस्तूर ग़ैर महफ़ूज़ थी। हट्टे कट्टे नौजवान लड़कों की टोलियां बाहर निकलती थीं और इधर उधर छापे मार कर डरी डुबकी और सहमी हुई लड़कीयां उठा कर ले जाती थीं।

किसी के घर पर छापा मारना और उस के साकिनों को क़तल करके एक जवान लड़की को कांधे पर डाल कर ले जाना बज़ाहिर बहुत ही आसान काम मालूम होता है लेकिन “स” का बयान है कि ये महज़ लोगों का ख़्याल है। क्योंकि उसे तो अपनी जान पर खेल जाना पड़ा था।

इस से पहले कि मैं आप को “स” का बयान करदा वाक़िया सुनाऊं। मुनासिब मालूम होता है कि उस से आप को मुतआरिफ़ क़रादूं। स एक मामूली जिस्मानी और ज़हनी साख़्त का आदमी है। मुफ़्त के माल से उस को उतनी ही दिलचस्पी है जितनी आम इंसानों को होती है। लेकिन माल-ए-मुफ़्त से इस का सुलूक दिल-ए-बेरहम का सा नहीं था। फिर भी वो एक अजीब-ओ-ग़रीब ट्रेजडी का बाइस बन गया। जिस का इल्म उसे बहुत देर में हुआ।

स्कूल में “स” औसत दर्जे का तालिब-ए-इल्म था। हर खेल में हिस्सा लेता था। लेकिन खेलते खेलते जब नौबत लड़ाई तक जा पहुंची थी तो “स” इस में सब से पेश पेश होता। खेल में वो हर क़िस्म के ओछे हथियार इस्तिमाल कर जाता था। लेकिन लड़ाई के मौक़ा पर इस ने हमेशा ईमानदारी से काम लिया।

मुसव्विरी से “स” को बचपन ही से दिलचस्पी थी। लेकिन कॉलेज में दाख़िल होने के एक साल बाद ही उस ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि तालीम को ख़ैरबाद कह कर साईकलों की दुकान खोल ली।

फ़साद के दौरान में जब उस की दुकान जल कर राख हो गई तो उस ने लूट मार में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इंतिक़ामन कम और तफ़रीहन ज़्यादा, चुनांचे इसी दौरान में इस के साथ ये अजीब-ओ-ग़रीब वाक़िया पेश आया। जो इस कहानी का मौज़ू है। उस ने मुझ से कहा। “मूसलाधार बारिश होरही थी। मनों पानी बरस रहा था। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतनी तेज़-ओ-तुंद बारिश कभी नहीं देखी। मैं अपने घर की बरसाती में बैठा सिगरेट पी रहा था। मेरे सामने लूटे हुए माल का एक ढेर पड़ा था। बेशुमार चीज़ें थीं मगर मुझे इन से कोई दिलचस्पी न थी। मेरी दुकान जल गई थी। मुझे इस का भी कोई इतना ख़्याल नहीं था शायद इस लिए कि मैंने लाखों का माल तबाह होते देखा था...... कुछ समझ में नहीं आता, दिमाग़ की क्या कैफ़ीयत थी.... इतने ज़ोर से बारिश हो रही थी। लेकिन ऐसा लगता था कि चारों तरफ़ ख़ामोशी ही ख़ामोशी है और हर चीज़ ख़ुश्क है.... जले हुए मरुदण्डों की सी बू आरही थी। मेरे होंटों में जलता हुआ सिगरट था। उस के धोएँ से भी कुछ ऐसी ही बू निकल रही थी.... जाने क्या सोच रहा था और शायद कुछ सोच ही नहीं रहा था कि एक दम बदन पर कपकपी सी दौड़ गई और जी चाहा कि एक लड़की उठा कर ले आऊं। जूंही ये ख़्याल आया। बारिश का शोर सुनाई देने लगा और खिड़की के बाहर हर चीज़ पानी में शराबोर नज़र आने लगी...... मैं उठा, सामने लूटे हुए माल के ढेर से सिगरटों का एक नया डिब्बा उठा कर मैंने बरसानी पहनी और नीचे उतर गया।”

सड़कें अंधेरी और सुनसान थीं। सिपाहीयों का पहरा भी नहीं था। मैं देर तक इधर उधर घूमता रहा। इस दौरान में कई लाशें मुझे नज़र आईं। लेकिन मुझ पर कोई असर न हुआ। घूमता घामता में सिवल लाईन्ज़ की तरफ़ निकल गया। लुक फ्री हुई सड़क बिलकुल ख़ाली थी। जहां-जहां बजरी उखड़ी हुई थी। वहाँ बारिश झाग बन कर उड़ रही थी। दफ़अतन मुझे मोटर की आवाज़ आई। पलट कर देखा तो एक छोटी सी मोटर बीबी ऑस्टन अंधा धुंद चली आरही थी। मैं सड़क के ऐन दरमयान में खड़ा होगया और दोनों हाथ इस अंदाज़ से हिलाने लगा। जिस का मतलब ये था कि रुक जाओ।

मोटर बिलकुल पास आगई मगर उस की रफ़्तार में फ़र्क़ न आया। चलाने वाले ने रुख़ बदला। मैं भी पैंतरा बदल कर उधर हो गया। मोटर तेज़ी से दूसरी तरफ़ मुड़ गई। मैं भी लपक कर उधर होलिया। मोटर मेरी तरफ़ बढ़ी मगर अब उस की रफ़्तार धीमी होगई थी मैं अपनी जगह पर खड़ा रहा...... पेशतर इस के कि मैं कुछ सोचता मुझे ज़ोर से धक्का लगा और मैं उखड़ कर फुटपाथ पर जागरा। जिस्म की तमाम हड्डियां कड़कड़ा उठीं मगर मुझे चोट न आई। मोटर के ब्रेक चीख़े, पही्ये एक दम फ़स्ले और मोटर तैरती हुई सामने वाले फुटपाथ पर चढ़ कर एक दरख़्त से टकराई और साकित होगई। मैं उठा और उस की तरफ़ बढ़ा। मोटर का दरवाज़ा खुला और एक औरत सुर्ख़ रंग का भड़कीला मोमी रेनकोट पहने बाहर निकली। मेरी कड़ कड़ाई हुई हड्डियां ठीक होगईं और जिस्म में हरारत पैदा होगई। रात के अंधेरे में मुझे सिर्फ़ उस का शोख़ रंग रेनकोट ही दिखाई दिया। लेकिन इतना इशारा काफ़ी था कि इस मोमी कपड़े में लिपटा हुआ जो कोई भी है। सिनफ़-ए-नाज़ुक में से है।

मैं जब उस की तरफ़ बढ़ा तो उस ने पलट कर मेरी तरफ़ देखा। बारिश के लरज़ते हुए पर्दे में से मुझे देख कर भागी। मगर मैंने चंद गज़ों ही में उसे जा लिया जब हाथ इस के चिकने ज़ीन कोट पर पड़ा तो वो अंग्रेज़ी में चलाई। “हेल्प हेल्प ”

मैंने उस की कमर में हाथ डाला और गोद में उठा लिया। वो फिर अंग्रेज़ी में चलाई “हेल्प हेल्प ही इज़ किलिंग मी” मैंने इस से अंग्रेज़ी में पूछा। “आर यू ए इंग्लिश वोमेन” फ़िक़रा मुँह से निकल गया तो ख़्याल आया कि ए की जगह मुझे एन कहना चाहिए था। इस ने जवाब दिया। “नौ”

अंग्रेज़ औरतों से मुझे नफ़रत है। चुनांचे मैंने उस से कहा “दन इट इज़ ऑल राईट।”

अब वो उर्दू में चिल्लाने लगी। “तुम मार डालोगे मुझे। तुम मार डालोगे मुझे।”

मैंने कोई जवाब न दिया। इस लिए कि मैं उस की आवाज़ से, उस की शक्ल-ओ-सूरत और उम्र का अंदाज़ा लगा रहा था। लेकिन डरी हुई हुई आवाज़ से क्या पता चल सकता था। मैंने इस के चेहरे पर से हुड हटाने की कोशिश की। पर इस ने दोनों हाथ आगे रख दिए। मैंने कहा। “हटाओ” और सीधा मोटर की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़ा खोल कर उस को पिछली सीट पर डाला और ख़ुद अगली सीट पर बैठ गया। गियर दुरुस्त करके सलफ़ दबाया तो इंजन चल पड़ा.... मैंने कहा “ठीक है।” हैंडल घुमाया। गाड़ी को फ़ुट पाथ पर से उतारा और सड़क में पहुंच कर अक्सलरीटर पर पैर रख दिया...... मोटर तैरने लगी।

घर पहुंच कर मैंने पहले सोचा कि ऊपर बरसाती ठीक रहेगी। लेकिन इस ख़्याल से कि लौंडिया को ऊपर ले जाने में झिक झिक करनी पड़ेगी। इस लिए मैंने नौकर से कहा। दीवान ख़ाना खोल दो। इस ने दीवानख़ाना खोला तो मैंने उसे घुप्प अंधेरे ही में सोफे पर डाल दिया। सारा रस्ता ख़ामोश रही थी। लेकिन सोफे पर गिरते ही चिल्लाने लगी। “डोंट किल मी...... डोंट किल मी प्लीज़।”

मुझे ज़रा शायरी सूझी। “आई वोंट किल यू...... आई वोंट किल यू डार्लिंग।”

वो रोने लगी। मैंने नौकर से कहा। चले जाओ। वो चला गया। मैंने जेब से दिया सिलाई निकाली। एक एक करके सारी तीलियां निकालें मगर एक भी न सुलगी। इस लिए कि बारिश में उन के मसालहे का बिलकुल फ़ालूदा होगया था। बिजली का करंट कई दिनों से ग़ायब था.... ऊपर बरसाती में टूटे हौले माल के ढेर में कई बैटरियां पड़ी थीं। लेकिन मैंने कहा। अंधेरे ही में ठीक है, मुझे कौन सी फोटोग्राफी करनी है...... चुनांचे बरसाती उतार कर मैंने एक तरफ़ फेंक दी और इस से कहा। “लाईए मैं आप का रेनकोट उतार दूं।”

मैं नीचे सोफे की जानिब झुका। लेकिन वो ग़ायब थी। मैं बिलकुल ना घबराया। इस लिए कि दरवाज़ा नौकर ने बाहर से बंद कर दिया था। घुप अंधेरे मैं इधर उधर मैंने उसे तलाश करना शुरू किया। थोड़ी देर के बाद हम दोनों एक दूसरे के साथ भिड़ गए और तिपाई के साथ टकरा कर गिर पड़े। फ़र्श पर लेटे ही लेटे मैंने उस की तरफ़ हाथ बढ़ाया जो गर्दन पर जा पड़ा। वो चीख़ी मैंने कहा। “चीख़ती क्यों हो...... मैं तुम्हें मारूंगा नहीं।”

उस ने फिर सिसकियां लेना शुरू करदीं। शायद उस का पेट ही था जिस पर मेरा हाथ पड़ा। वो दोहरी होगई। मैंने जैसा भी बन पड़ा उस के रेनकोट के बटन खोलने शुरू कर दिए। मोमी कपड़ा भी अजीब होता है जैसे बूढ़े गोश्त में चिकनी चिकनी झुर्रियां पड़ी हूँ। वो रोती रही और इधर उधर लिपट कर मुज़ाहमत करती रही। लेकिन मैंने पूरे बटन खोल दिए इसी दौरान में मुझे मालूम वो कि वो साड़ी पहने थी...... मैंने कहा ये तो ठीक रहा। चुनांचे मैंने ज़रा मुआमला देखा...... ख़ासी सुडौल पिंडली थी जिस के साथ मेरा हाथ लगा...... वो तड़प कर एक तरफ़ हट गई। मैं पहले ज़रा यूं ही सिलसिला कर रहा था। पिंडली के साथ जब मेरा हाथ लगा तो बदन में चार सौ चालीस वॉल़्ट पैदा होगए। लेकिन मैंने फ़ौरन ही ब्रेक लगा दिए कि सहज पक्के सौ मीठा हुए...... चुनांचे मैंने शायरी शुरू करदी।

“डार्लिंग। मैं तुम्हें यहां क़त्ल करने के लिए नहीं लाया...... डरो नहीं...... यहां तुम ज़्यादा महफ़ूज़ हो...... जाना चाहो तो चली जाओ। लेकिन बाहर लोग दरिंदों की तरह चीर फाड़ देंगे...... जब तक ये फ़साद हैं तुम मेरे साथ रहना...... तुम पढ़ी लिखी लड़की हो, मैं नहीं चाहता...... कि तुम गंवारों के चंगुल में फंस जाओ...... ”

उस ने सिसकियां लेते हुए कहा। “यू वोंट किल मी?”

मैंने फ़ौरन ही कहा। “नौ सर।”

वो हंस पड़ी......मुझे फ़ौरन ही ख़्याल आया कि औरत को सर नहीं कहा करते। बहुत ख़िफ़्फ़त हुई। लेकिन उस के हंस पड़ने से मुझे कुछ हौसला होगया। मैंने कहा। मुआमला पटा समझो, चुनांचे मैं भी हंस पड़ा। “डार्लिंग, मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर है।”

थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद उस ने मुझ से पूछा। “अगर तुम मुझे मारना नहीं चाहते तो यहां क्यों लाए हो?”

सवाल बड़ा बे ढब था। मैंने जवाब सोचना शुरू किया। लेकिन तैय्यार न हुवा मैं ने कहा जो मुँह में आए कह दो। “मैं तुम्हें मारना बिलकुल नहीं चाहता। इस लिए कि मुझे ये काम बिलकुल अच्छा नहीं लगता...... तुम्हें यहां क्यों लाया हूँ?...... इस का जवाब ये है कि मैं अकेला था।”

वो बोली। “तुम्हारा नौकर तुम्हारे पास रहता है।”

मैंने बग़ैर सोचे समझे जवाब दे दिया। “उस का क्या है वो तो नौकर है।”

वो ख़ामोश होगई। मेरे दिमाग़ में नेकी के ख़्याल आने लगे मैंने कहा। हटाओ चुनांचे उठ कर इस से कहा। “तुम जाना चाहती हो तो चली जाओ। उठो।”

मैंने उस का हाथ पकड़ा। वो उठ खड़ी हुई। एक दम मुझे उस की पिंडली का ख़्याल आगया और मैंने ज़ोर से उस को अपने सीने के साथ चिमटा लिया। उस की गर्मगर्म सांस मेरी ठोढ़ी के नीचे घुस गई। मैंने अटकल पच्चू अपने होंट उस के होंटों पर जमा दिए। वो लरज़ने लगी। मैंने कहा। “डार्लिंग डरो नहीं...... मैं तुम्हें मारूंगा नहीं।”

“छोड़ दो मुझे।” की आवाज़ में अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की कपकपाहट थी।

मैंने उसे अपनी गिरिफ़त से अलाहिदा कर दिया। लेकिन फ़ौरन ही अपने बाज़ूओं में उठा लिया। सड़क पर उसे उठाते वक़्त मुझे महसूस नहीं हुआ था। लेकिन उस वक़्त मैंने महसूस किया कि इस के कूल्हों का गोश्त बहुत ही नरम था...... एक बात मुझे और भी मालूम हुई वो ये कि उस के एक हाथ में छोटा सा बैग था। मैंने उसे सोफे पर लिटा दिया और बैग इस के हाथ से ले लिया। “अगर इस में कोई क़ीमती चीज़ है तो यक़ीन रखू यहां बिलकुल महफ़ूज़ रहेगी...... बल्कि चाहो तो मैं भी तुम्हें कुछ दे सकता हूँ।”

वो बोली। “मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

“लेकिन मुझे चाहिए”

इस ने पूछा। “क्या?”

मैंने जवाब दिया। “तुम।”

वो ख़ामोश होगई.... मैं फ़र्श पर बैठ कर उस की पिंडली सहलाने लगा। वो काँप उठी। लेकिन मैं हाथ फेरता रहा। उस ने जब कोई मुज़ाहमत न की तो मैंने सोचा कि मजबूरी की वजह से बेचारी ने अपना आप ढीला छोड़ दिया है। इस से मेरी तबीयत कुछ खट्टी सी होने लगी। चुनांचे मैंने उस से कहा। “देखो मैं ज़बरदस्ती कुछ नहीं करना चाहता। तुम्हें मंज़ूर नहीं है तो जाओ।”

ये कह कर मैं उठने ही वाला था कि उस ने मेरा हाथ पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया। जो कि धक धक कर रहा था। मेरा भी दिल उछलने लगा। मैंने ज़ोर से डार्लिंग कहा और इस के साथ चिमट गया।

देर तक चूमा चाटी होती रही। वो सिसकियां भर भर के मुझे डार्लिंग कहती रही। मैं भी कुछ इसी क़िस्म की ख़ुराफ़ात बकता रहा। थोड़ी देर के बाद मैंने इस से कहा। “ये रैन कोर्ट उतार दो.... बहुत ही वाहीयात है।”

उस ने जज़्बात भरी आवाज़ में कहा। “तुम ख़ुद ही उतार दो नां।”

मैंने उसे सहारा दे कर उठाया और कोट इस के बाज़ूओं में से खींच कर उतार दिया।

उस ने बड़े प्यार से पूछा। “कौन हो तुम?”

मैं उस वक़्त अपना हदूद अर्बा बताने के मूड में नहीं था। “तुम्हारा डार्लिंग!”

उस ने “यू आर ए नोटी ब्वॉय” कहा और अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं मैं उस का बुलाउज़ उतारने लगा तो इस ने मेरे हाथ पकड़ लिए और इल्तिजा की।

“मुझे नंगा ना करो डार्लिंग, मुझे नंगा ना करो।”

मैंने कहा। “क्या हुआ...... इस क़दर अंधेरा है।”

“नहीं, नहीं!”

“तो इस का ये मतलब है कि...... ” इस ने मेरे दोनों हाथ उठा कर चूमने शुरू कर दिए और लर्ज़ां आवाज़ में कहने लगी। “नहीं नहीं.... मुझे श्रम आती है।”

अजीब ही सी बात थी। लेकिन मैंने कहा। चलो हटाओ छोड़ो बुलाउज़ को। आहिस्ता आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा। मैं कुछ देर ख़ामोश रहा तो उस ने डरी हुई आवाज़ में पूछा “तुम नाराज़ तो नहीं होगए?”

मुझे कुछ मालूम ही नहीं था कि मैं नाराज़ हूँ या क्या कहूं। चुनांचे मैंने उस से कहा “नहीं नहीं नाराज़ होने की क्या बात है.... तुम बुलाउज़ नहीं उतारना चाहती हो, न उतारो.... लेकिन....” इस से आगे कहते हुए मुझे श्रम आगई। लेकिन ज़रा गोल करके मैंने कहा। “लेकिन कुछ तो होना चाहिए। मेरा मतलब है कि साड़ी उतार दो......। ”

“मुझे डर लगता है” ये कहते हुए उस का हलक़ सूख गया।

मैंने बड़े प्यार से कहा। “किस से डर लगता है।”

“उसी से...... उसी से।” और उस ने बिलक बिलक कर रोना शुरू कर दिया।

मैंने उसे तसल्ली दी कि डरने की वजह कोई भी नहीं। मैं तुम्हें तकलीफ़ नहीं दूंगा। लेकिन अगर तुम्हें वाक़ई डर लगता है तो जाने दो...... दो तीन दिन यहां रहो जब मेरी तरफ़ से तुम्हें पूरा इत्मिनान हो जाये तो फिर सही।

इस ने रोते रोते कहा। “नहीं नहीं। और अपना सर मेरी रानों पर रख दिया।”

मैं उस के बालों में उंगलीयों से कंघी करने लगा। थोड़ी ही देर के बाद उस ने रोना बंद कर दिया और सूखी सूखी हिचकियां लेने लगी। फिर एक दम मुझे अपने साथ ज़ोर के साथ भींच लिया और शिद्दत के साथ काँपने लगी। मैंने उसे सोफे पर से उठ कर फ़र्श पर बिठा दिया और......

कमरे में दफ़ातन रोशनी की लकीरें तेर गईं। दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने पूछा कौन है? नौकर की आवाज़ आई। “लालटैन ले लीजीए।” मैंने कहा। “अच्छा।” लेकिन उस ने आवाज़ भींच कर ख़ौफ़ज़दा लहजे में कहा। “नहीं नहीं।”

मैंने कहा। “हर्ज क्या है। एक तरफ़ नीची करके रख दूंगा।” चुनांचे मैंने उठ कर लालटैन ली और दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया.... इतनी देर के बाद रोशनी देखी थी। इस लिए आँखें चुन्ध्या गईं। वो उठ कर एक कोने में खड़ी होगई थी। मैंने कहा “भई इतना भी क्या है। थोड़ी देर रोशनी में बैठ कर बातें करते हैं। जब तुम कहोगी उसे गुल कर देंगे।”

चुनांचे में लालटैन हाथ ही में लिए उस की तरफ़ बढ़ा। उस ने साड़ी का पल्लू सरका कि दोनों हाथों से चेहरा ढाँप लिया। मैंने कहा “तुम भी अजीब-ओ-ग़रीब लड़की हो.... अपने दूल्हे से भी पर्दा।”

ये कह मैं समझने लगा कि वो मेरी दूल्हन है और मैं उस का दूल्हा। चुनांचे इसी तसव्वुर के.... तहत मैंने उस से कहा। “अगर ज़िद ही करनी है तो भई करलो...... हमें आप की हर अदा क़बूल है।”

एक दम ज़ोर का धमाका हुआ। वो मेरे साथ चिमट गई। कहीं बम फटा था। मैंने उस को दिलासा दिया। “डरो नहीं.... मामूली बात है.... एक दम मुझे ख़्याल आया जैसे मैंने इस के चेहरे की झलक देखी थी। चुनांचे उस को दोनों कंधों से पकड़ कर मैं एक क़दम पीछे हट गया...... मैं बयान नहीं कर सकता। मैंने क्या देखा...... बहुत ही भयानक सूरत, गाल अंदर धँसे हुए जिन पर गाढ़ा मेकअप्प थपा था। कई जगहों पर से उस की तहा बारिश की वजह से उत्तरी हुई थी और नीचे से असली जिल्द निकल आई थी जैसे कई ज़ख़मों पर से फाहे उतर गए हैं...... ख़िज़ाब लगे ख़ुश्क और बेजान बाल जिन की सफ़ैद जड़ें दाँत दिखा रही थीं...... और सब से अजीब-ओ-ग़रीब चीज़ मोमी फूल थे जो उस ने इस कान से उस कान तक माथे के साथ साथ बालों में अड़से हुए थे...... मैं देर तक उस को देखता रहा। वो बिलकुल साकित खड़ी रही। मेरे होश-ओ-हवास गुम होगए थे। थोड़ी देर के बाद जब में सँभला तो मैंने लालटैन एक तरफ़ रखी और इस से कहा “तुम जाना चाहो तो चली जाओ!”

उस ने कुछ कहना चाहा। लेकिन जब देखा कि मैं उस का रेनकोट और बैग उठा रहा हूँ तो ख़ामोश होगई। मैंने ये दोनों चीज़ें उस की तरफ़ देखे बग़ैर उस को दे दीं। वो कुछ देर गर्दन झुकाए खड़ी रही। फिर दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गई।

ये वाक़िया सुना कर मैंने स से पूछा। “जानते हो वो औरत कौन थी?”

स ने जवाब दिया। “नहीं तो।”

मैंने उस को बताया। “वो औरत मशहूर आर्टिस्ट मिस “मीम” थी।”

“वो चिल्लाया। मसम?.... वही जिस की बनाई हुई तस्वीरों की मैं स्कूल में कापी किया करता था?”

मैंने जवाब दिया। “वही.... एक आर्ट कॉलिज की प्रिंसिपल थी। जहां वो लड़कीयों को सिर्फ़ औरतों और फूलों की तस्वीरकशी सिखाती थी.... मर्दों से उसे सख़्त नफ़रत थी।”

इज़्ज़त जहां को आप यक़ीनन जानते होंगे। कौन है जो इस लड़की के नाम से वाक़िफ़ नहीं। अगर आप सोशलिस्ट हैं और बंबई में रहते हैं तो आप ज़रूर इज़्ज़त से कई बार मुलाक़ात कर चुके होंगे और आप को ये भी मालूम होगा कि उस ने अपनी ज़िंदगी के कई बरस इश्तिराकीयत की तहरीक की नशर-ओ-इशाअत में सर्फ़ किए हैं और हाल ही में एक ग़ैर मारूफ़ आदमी से शादी की है।

इस ग़ैर मारूफ़ आदमी को मैं अच्छी तरह जानता हूँ। नासिर से मैं उस ज़माने का वाक़िफ़ हूँ जब मैं उस को नासो कहा करता था.... मुस्लिम यूनीवर्सिटी अलीगढ़ में वो मेरा हम-जमाअत था। मैं तो अपनी तालीम बीमारी और मुफ़लिसी के बाइस जारी न रख सका मगर वो सिर्फ़ मुफ़लिस था। उस ने बी ए का इम्तिहान किसी न किसी तरह पास कर लिया और बंबई की एक बहुत बड़ी मिल में मुलाज़िम होगया।

मैं उन दिनों बंबई ही में था। जब वो दिल्ली के एक कारख़ाने में काम करता करता बंबई आया और मिल में मुलाज़िम हुआ। इस दौरान में उस से मेरी कई मुलाक़ातें हुईं लेकिन अफ़सोस है कि चंद वजूह की बिना पर मैं बंबई में अपना क़ियाम जारी न रख सका और मुझे मजबूरन दिल्ली जा कर एक निहायत ही ज़लील मुलाज़मत इख़्तियार करना पड़ी।

ख़ैर! मैंने दिल्ली को दो बरस के बाद ख़ैर बाद कहा और बंबई शहर का रुख़ किया। जहां मेरे चंद अज़ीज़ दोस्तों के इलावा अब इज़्ज़त जहां भी रहती थी। मैं ख़ुद सोशलिस्ट हूँ। सोशलिज़्म पर मैंने सैंकड़ों मज़मून लिखे हैं मगर वो मज़ामीन जो मैंने इज़्ज़त जहां के क़लम से मुख़्तलिफ़ अख़बारों में पढ़े थे, मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर मुर्तसिम होगए थे। ख़ुदा के लिए कहीं ये ख़्याल न कीजीएगा कि मुझे उस से ग़ायबाना इश्क़ था। दरअसल मुझे उस लड़की या औरत को देखने और उस से मिलने का सिर्फ़ इश्तियाक़ था। अख़बारों और रिसालों में अक्सर उस की सरगर्मीयों का हाल पढ़ चुका था और मुझे इस से बेपनाह दिलचस्पी पैदा होगई थी। मैं चाहता था। उस से मिलूं, उस से बातें करूं और जिस तरह कॉलिज और स्कूल के नौ गिरफ्तार-ए-मुहब्बत लौंडे अपने रूमानों का ज़िक्र करते हैं। इसी तरह मैं उस से इश्तिराकीयत के साथ अपनी वालहाना वाबस्तगी का इज़्हार करूं।

हम दोनों सैगल से लेकर कार्ल मार्क्स तक इश्तिराकी फ़लसफ़े की नश्व-ओ-इरतिका की बातें करते। लेनिन, लरात्सकी और इस्टालन के मुख़्तलिफ़ नज़रियात पर गुफ़्तुगू करते। मैं हिंदूस्तान की सोशलिस्ट तहरीक के बारे में अपने ख़्यालात का इज़हार करता। वो भी अपने ख़्यालात मुझे बताती। मैं उसे उन नौजवानों की कहानियां सुनाता जो कार्ल मार्क्स की किताब महज़ इस लिए बग़ल में दबाये फिरते हैं कि उन्हें दूसरों पर रोब गांठना मक़सूद होता है। मैं उसे अपने एक दोस्त की दास्तान सुनाता जिस के पास सोशलिज़्म पर हर वो किताब जो अंग्रेज़ी ज़बान में छप चुकी है। मौजूद है मगर वो सोशलिज़्म की अलिफ़ ब से भी वाक़िफ़ नहीं वो कार्ल मार्क्स का नाम इस तरह लेता है जिस तरह लोग अपने क़रीबी रिश्तेदार म्यूनसिंपल कमिश्नरों का लेते हैं। मैं इज़्ज़त को बताता कि इस के बावजूद वो मुख़लिस आदमी है जो सोशलिज़्म के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ भी सुनने को तैय्यार नहीं।

फिर मैं उस से उन लड़कों और लड़कीयों के मुतअल्लिक़ बातचीत करता जो सोशलिज़्म सिर्फ़ इस लिए इख़्तियार करते हैं कि उन्हें एक दूसरे से मिलने और जिन्सी तअल्लुक़ात पैदा करने का मौक़ा मिले। मैं उसे बताता कि पच्चास फीसदी लड़के जो सोशलिस्ट तहरीक में शामिल होते हैं शहवत ज़दा होते हैं। अपनी हम-जमाअत लड़कीयों को वो यूं देखते हैं जैसे उन की निगाहें सदीयों की भूकी प्यासी हैं और अक्सर लड़कीयां जो इस तहरीक में शामिल होती हैं। सरमायादारों की हंगामापसंद बेटियां होती हैं अपनी ज़िंदगी में हादिसे पैदा करने के लिए ये सोशलिज़्म पर चंद इबतिदाई किताबें पढ़ने के बाद इस तहरीक की सरगर्म कारकुन बन जाती हैं। इन में से कुछ तो आहिस्ता आहिस्ता जिन्सी ख़्वाहिशात के ख़राबे की शक्ल इख़्तियार कर लेती हैं और कुछ आज़ादी की आख़िरी हदूद पर पहुंच कर एक ऐसी जज़बाती चीज़ बन जाती हैं जो मुल्क के नाम निहाद लीडरों के खेलने के काम आती रहती है।

ग़रज़ ये कि इज़्ज़त जहां से हिंदूस्तान की इश्तिराकी तहरीक के अवाक़िब-ओ-अवातिफ़ पर सैर हासिल बहस करने का ख़ूब लुत्फ़ आता। उस के मज़ामीन से में उस की ज़हानत और बेबाक ख़्याली मालूम कर चुका था। मुझे यक़ीन था कि वो मेरी हमख़याल होगी।

बंबई आकर मुझे एक दोस्त के हाँ ठहरना पड़ा। क्योंकि मकान और फ़र्नीचर का बंद-ओ-बस्त करते करते मुझे कई रोज़ ख़ार होना था। बीवी को में दिल्ली ही छोड़ आया था। उस से मैंने कह दिया था कि जूंही मकान मिलेगा। मैं तुम्हें बुला लूंगा।

मेरे सब दोस्त कुंवारे हैं और फ़िल्म डायरेक्टर औरतों के मुतअल्लिक़ आप का फ़लसफ़ा बहुत ही दिलचस्प है। आप चूँकि स्टूडीयो में किसी ऐक्ट्रस या ऐक्टर की लड़की से तअल्लुक़ात पैदा नहीं करना चाहते हैं। इस लिए ज़रूरत के वक़्त मुख़्तलिफ़ दलालों के ज़रीये से एक लड़की मंगवा लेते हैं। रात भर उसे अपने पास रखते हैं और सुबह होते ही उसे रुख़स्त कर देते हैं। शादी इस लिए नहीं करते कि उन के ख़्याल के मुताबिक़ बीवी उन से कभी ख़ुश नहीं रहेगी। भाई में फ़िल्म डायरेक्टर हूँ। दिन को शूटिंग करूंगा तो दिन भर बाहर रहूँगा रात को शूटिंग करूंगा तो रात भर बाहर रहूँगा। दिन को काम करने के बाद रात को और रात को काम करने के बाद दिन को आराम करना ज़रूरी है। बीवी मुझ से अपने सारे हुक़ूक़ तलब करेगी मुझे बताओ एक थका हुआ आदमी ये सारे हुक़ूक़ कैसे पूरे कर सकता है। हर रोज़ एक नई लौंडिया अच्छी है नींद आगई तो उस से कहा जाओ सौ रहो। अगर उस की सोहबत से तंग आगए तो टैक्सी का किराया दिया और चलता किया। औरत बीवी बनते ही एक बड़ा फ़र्ज़ बन जाती है। मैं चूँकि फ़र्ज़शनास हूँ इस लिए शादी का बिलकुल क़ाइल नहीं।

जिस दोस्त के हाँ में ठहरा हुआ था एक दिन मैं और वो टैक्सी में बैठ कर एक लड़की ढ़ूढ़ने गए। दलाल जो उस का पुराना वाक़िफ़ था। एक के बजाय दो दखशनी छोकरीया ले आया। मैं बहुत सिटपिटाया। मगर फ़ौरन ही मेरे दोस्त ने कहा। “तुम घबराओ नहीं। एक और दो में फ़र्क़ ही क्या है?”

टैक्सी वापिस घर की तरफ़ मुड़ी हम सब यानी मैं, मेरा दोस्त फ़िल्म डायरेक्टर और वो दो काशटा पोश लड़कीयां तीन सीढ़ीयां तै करके तीसरी मंज़िल पर पहुंचे। फ़्लैट का दरवाज़ा मैंने खोला। क्या देखता हूँ कि सामने ही एक कुर्सी पर नासिर बैठा बड़े इन्हिमाक से मेरा उर्दू टाइपराइटर देख रहा था और इस के पास ही एक ऐनक लगी औरत बैठी थी जब उस ने मुड़ कर हमारी तरफ़ देखा तो मैं पहचान गया.... इज़्ज़त जहां थी।

मेरा दोस्त उन अजनबियों को देख कर बहुत परेशान हुआ। लेकिन दोनों दखशनी छोकरीया अंदर कमरे में दाख़िल हो चुकी थीं। इस लिए उस ने पर्दापोशी की ज़रूरत बेकार समझी।

मैंने अपने दोस्त से नासिर का तआरुफ़ कराया। नासिर ने जवाब में हम दोनों से अपनी बीवी को मुतआरिफ़ कराया। मैं उन के पास बैठ गया और अपने दोस्त से जो अब सिगरेट सुलगा रहा था। इज़्ज़त जहां का मज़ीद तआरुफ़ कराने की ख़ातिर। “ये हिंदूस्तान की बहुत बड़ी इश्तिराकी ख़ातून हैं। तुम ने इन के मज़ामीन ज़रूर पढ़े होंगे।”

मेरे दोस्त को इश्तिराकीयत से कोई दिलचस्पी नहीं थी। मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो इस नाम ही से नावाक़िफ़ था। उस ने दोनों लड़कीयों को दूसरे कमरे में जाने का इशारा किया और हम सब से मुख़ातब होकर कहा। “माफ़ फ़रमाईएगा। मैं अभी हाज़िर हुआ।”

इज़्ज़त जहां की आँखें उन लड़कीयों पर जमी हुई थीं। वो उन के लिबास, वज़ा क़ता, ग़रज़ कि हर चीज़ का अच्छी तरह जायज़ा ले रही थी। जब वो दोनों दूसरे कमरे में चली गईं और मेरे दोस्त ने जुर्रत-ए-रिंदाना से काम लेकर दरवाज़ा बंद कर दिया। तो वो मुझ से मुख़ातब हुई।

“आप से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई...... नासिर हर रोज़ मुझ से कहते थे कि चलो चलो.... पर मैं इन दिनों कुछ ज़्यादा मसरूफ़ रही.... और...... आप तो अब यहीं तशरीफ़ ले आए हैं न?...... मकान बुरा नहीं!”

उस ने कमरे के चारों तरफ़ देख कर ख़ुशनूदी का इज़हार किया।

मैंने कहा। “जी हाँ अच्छा है.... हवादार है।”

“हवादार तो ख़ाक भी नहीं.... ”

“बीच का दरवाज़ा खुला हो तो बहुत हवा आती है।”

“हाँ शायद पहले आरही थी।”

देर तक मैं और नासिर और इज़्ज़त जहां इधर उधर की बातें करते रहे मगर मैं महसूस कर रहा था कि इज़्ज़त के दिल में खुदबुद हो रही है। मेरा दोस्त जल्दी हाज़िर होने का वाअदा करके दो लड़कीयों के साथ दूसरे कमरे में क्या कर रहा था?...... ग़ालिबन वो यही मालूम करने के लिए बेक़रार थी। निस्फ़ घंटा गुज़रने पर उस ने बड़े तकल्लुफ़ के साथ मुझ से कहा। “एक गिलास पानी पिलवा दीजीए।”

फ़्लैट के दो रास्ते हैं एक सामने से। एक पीछे। मैंने दरवाज़ खुलवाना मुनासिब ख़्याल न किया। चुनांचे दूसरे रास्ते से गिलास में पानी लेकर आगया। कमरे में दाख़िल होते ही मैंने देखा कि मियां बीवी दोनों खुसर फुसर कर रहे हैं।

इज़्ज़त जहां ने गिलास मेरे हाथ से ले लिया और कहा। “आप ने बहुत तकलीफ़ की।”

“जी नहीं...... इस में तकलीफ़ की बात ही क्या है।”

पानी पी कर उस ने ऐनक के मोटे शीशों के पीछे अपनी आँखें सकोड़ें और बनावटी लहजे में कहा। “इस फ़्लैट के ग़ालिबन दो रास्ते हैं।”

“जी हाँ।”

कुछ देर फिर इधर उधर की बातें होती रहीं। इस के बाद गुफ़्तुगू का रुख़ बदल कर इश्तिराकीयत की तरफ़ आगया और मैं और इज़्ज़त दोनों सुर्ख़ होगए। मैंने बातों बातों में इश्तिराकीयत के मुतअल्लिक़ अपने नुक़्ता-ए-नज़र को वाज़ह किया।

“इश्तिराकी कहते हैं कि तमाम इंसानी इदारे मिसाल के तौर पर मज़हब, तारीख़, सियासत वग़ैरा सब हमारे मआशी हालात से असर पज़ीर हो कर मारिज़-ए-वजूद में आते हैं। मौजूदा निज़ाम-ए-मईशत जिस में अमीर और ग़रीब का इमतियाज़ है और जिस में पैदावार के तमाम आलात एक महदूद ऊंचे तबक़े के हाथ में हैं उन्हें सिर्फ़ ज़ाती फ़ायदे के लिए इस्तिमाल करता है ये एक मुज़िर और तबाहकुन इदारा है जिसे हमेशा के लिए ख़त्म करदेना चाहिए...... जब इस का ख़ातमा हो जाएगा तो आप के ख़्याल के मुताबिक़ इश्तिराकी दौर शुरू होगा। जिस में तमाम आलात पैदावार...... यही हमारे मआशी हालात पर हावी हैं अवाम के क़बज़े में आजाऐंगे।”

इज़्ज़त जहां ने मेरी ताईद की। “जी हाँ।”

“अवाम की क़ुव्वत और हुकूमत की नुमाइंदा एक ख़ास जमाअत-ए-हामिला होगी। जिसे इश्तिराकी हुकूमत कहा जाएगा।”

इज़्ज़त जहां ने फिर कहा। “जी हाँ।”

लेकिन यहां ये बात काबिल-ए-ग़ौर है कि इश्तिराकी निज़ाम में भी तमाम क़ुव्वत एक महदूद तबक़े के हाथ में होगी। ये नुमाइंदा जमात इश्तिराकीयों के फ़लसफ़े के मुताबिक़ तमाम लोगों की बहबूदी को मदार-ए-अमल बनाएगी। इस जमात को ज़ाती अग़राज़ और शख़्सी मुनाफ़ा से कोई वास्ता ना होगा इस के अग़राज़ अवाम के मक़ासिद के मुताबिक़ होंगे। लेकिन.... सीने पर हाथ रख कर वसूक़ से कौन कह सकता है कि ये महदूद जमात जो बज़ाहिर अवाम की नुमाइंदा जमात होगी। कुछ अर्से के बाद सरमाया दारों की तरह हर क़िस्म के ज़ुलम-ओ-सितम ढाएगी.... क्या ये लोग ग़ासिब नहीं हो सकते...... कुछ अर्से की हुकूमत के बाद क्या उन के दिल में ज़ाती अग़राज़ पैदा नहीं होंगी?”

इज़्ज़त जहां मुस्कुराई। “आप तो बाकू नैन के भाई मालूम होते हैं।”

मैंने जोश के साथ कहा। “मानता हूँ कि कार्ल मार्क्स के साथ सारी उम्र लड़ने के बावजूद बाकूनैन किसी नुक़्ता मुफ़ाहमत पर नहीं पहुंच सका और अपने इख़लास के बावजूद किसी मुदल्लिल और मुनज़्ज़म फ़लसफ़े की बुनियाद नहीं डाल सका। लेकिन उस का ये कहना झूट नहीं है कि डेमोक्रेसी भी एक बड़ी जमात के दूसरी छोटी जमात पर जाबिराना निज़ाम-ए-हुकूमत का नाम है। मैं ऐसे दौर-ए-सियासत का क़ाइल हूँ जिस का समाज हर क़िस्म की हुकूमत और दबाओ से आज़ाद हो।”

इज़्ज़त फिर मुस्कुराई। “तो आप अनार कज़म चाहते हैं जो एक नाक़ाबिल-ए-अमल चीज़ है। आप का बाकू नैन और कर वीटो केन दोनों मिल कर इसे क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं बना सकते....?”

मैंने उस की बात काट कर कहा। “इश्तिराकीयत के पास भी कोई क़ाबिल-ए-अमल फ़लसफ़ा नहीं था। लोग उसे दीवानों का एक धुँदला सा ख़्वाब समझते थे। मगर उन्नीसवीं सदी में कार्ल मार्क्स ने उस को एक काबिल-ए-अमल मुआशरती निज़ाम की सूरत में पेश किया.... मुम्किन है अनार कज़म को भी कोई कार्ल मार्क्स मिल जाये।”

इज़्ज़त जहां ने बंद दरवाज़े की तरफ़ देखा और जैसे उस ने मेरी बात सुनी नहीं मुझ से पूछा। “आप के दोस्त वाअदा करके गए थे अभी आए नहीं?”

मैंने बेहतर समझा कि उसे सब कुछ बता दूं। “उन्हों ने तकल्लुफ़ बरता था। वर्ना उन का मक़सद यही था कि वो नहीं आयेंगे।”

इज़्ज़त जहां ने बड़े भोलेपन से कहा। “क्यों?”

मैं नासिर की तरफ़ देख कर मुस्कुराया। जो अब हमारी गुफ़्तुगू में दिलचस्पी लेने लगा था। “दो लड़कीयां उस के साथ हैं उन्हें छोड़कर वो ऐसी ख़ुश्क महफ़िल में कैसे आसकता है?”

इज़्ज़त ने ये सुन कर मुझ से दरयाफ़्त किया। “ये दो लड़कीयां फ़िल्म ऐक्ट्रस थीं?”

“जी नहीं।”

“दोस्त होंगी?”

“जी नहीं.... आज ही जान पहचान हुई है।”

इस के बाद आहिस्ता आहिस्ता मैंने सारी बात बता दी और जिन्सियात के बारे में अपने दोस्त का नज़रिया भी अच्छी तरह वाज़िह कर दिया। बड़े ग़ौर से मेरी तमाम बातें सुन कर इस ने फ़तवा देने के अंदाज़ में कहा। “ये अनार कज़म की बदतरीन क़िस्म है। आप के दोस्त के ख़्यालात अगर आम हो जाएं तो दुनिया में एक अंधेर मच जाये। औरत और मर्द के तअल्लुक़ात सिर्फ़.... सिर्फ़ बिस्तर तक महदूद हो जाएं और क्या?.... ये आप के दोस्त जो कोई भी हैं ये औरत को क्या समझते हैं.... डबल रोटी, केक या बिस्कुट...... ज़्यादा से ज़्यादा काफ़ी या चाय की एक गर्म प्याली। पी और झूटे बर्तनों में डाल दी। लानत है ऐसी औरतों पर जो ये ज़िल्लत बर्दाश्त करलेती हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि ज़िंदगी में जिन्सियात को इतनी एहमीयत क्यों दी जाती है। क्या आप के ये दोस्त बग़ैर औरत के ज़िंदा नहीं रह सकते। उन्हें हर रोज़ औरत की ज़रूरत क्यों महसूस होती है?”

मैंने अपने ज़ाती ख़्याल का इज़हार। “औरत की ज़रूरत हर मर्द को उम्र के एक ख़ास हिस्से में महसूस होती है। उस को बाअज़ ज़्यादा एहमीयत देते हैं बाअज़ कम। मेरा दोस्त उन बाअज़ लोगों में से है जो उस को रोज़मर्रा की एक ज़रूरत समझते हैं। अगर खाना पीना और सोना अहम तो उस के नज़दीक औरत भी उतनी ही अहम और ज़रूरी है। हो सकता है कि वो ग़लती पर हो मगर उस ने अपनी इस कमज़ोरी की कभी पर्दापोशी नहीं की।”

इज़्ज़त जहां के लहजे में और ज़्यादा तल्ख़ी पैदा होगई। “पर्दापोशी नहीं की। तो इस के ये मानी हुए कि वो रास्ती पर हैं। फ़ाहिशाएं खुले बंदों अपना जिस्म बेचती हैं तो इस का ये मतलब नहीं कि उन का वजूद फ़ित्री है। चूँकि हमारा निज़ाम बिलकुल ग़लत और ग़ैर फ़ित्री है। इसी लिए हमें ये चकले नज़र आते हैं। चूँकि आप के दोस्त का निज़ाम-ए-एसबी तंदरुस्त नहीं।

यही वजह है कि वो औरत और रोटी में कोई फ़र्क़ नहीं समझते। रोटी के बग़ैर इंसान ज़िंदा नहीं रह सकता। लेकिन इस जिस्मानी तअल्लुक़ के बग़ैर यक़ीनन ज़िंदा रह सकता है!”

मैंने कहा। “जी हाँ ज़िंदा रह सकता है। इस में ज़िंदगी और मौत का सवाल ही कहाँ पैदा होताहै। हर मर्द को औरत दस्तयाब नहीं होसकती। लेकिन जिस को दस्तयाब हो सकती है। वो उसे अपनी ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी में शामिल कर लेता है।”

नासिर को अब इस गुफ़्तुगू से भी कोई दिलचस्पी न रही थी। चुनांचे उस ने अपनी बेज़ारी का इज़हार कर ही दिया। “हटाओ यार इस क़िस्से को.... बहुत वक़्त होगया और हमें यहां से पूरे उन्नीस मेल दूर जाना है.... चलो इज़्ज़त चलें।”

इज़्ज़त ने अपने ख़ाविंद की बात सुनी उन सुनी करदी और मुझ से कहा। “कुछ भी हो मगर आप के दोस्त असल में बहुत ही बदतमीज़ हैं। यानी इतना भी किया कि यहां हम तीन आदमी बैठे हैं और आप दूसरे कमरे में...... लाहौल वला क़ुव्वा..... ”

नासिर को नींद आरही थी। “अरे भई ख़ुदा के लिए अब सिलसिले को ख़त्म करो.... चलें!”

इज़्ज़त भुन्ना गई। “अरे वाह.... अरे वाह.... ये तो आहिस्ता आहिस्ता मेरे ख़ाविंद ही बन बैठे हैं।”

ये सुन कर मुझे बेइख़्तियार हंसी आगई। नासिर भी हंस दिया। हम दोनों हंसे तो इज़्ज़त जहां के होंटों पर भी मुस्कुराहट आगई।

“और किया.... ये आहिस्ता आहिस्ता ख़ाविंद बनना ही तो है। यानी मुझ पर रोब जमाया जा रहा है।”

इस के बाद नासिर और इज़्ज़त थोड़ी देर और बैठे और चले गए। पहली मुलाक़ात ख़ासी दिलचस्प रही। हिंदूस्तान की इश्तिराकी तहरीक के बारे में गो मुफ़स्सल तौर में इज़्ज़त जहां से गुफ़्तुगू न कर सका। लेकिन फिर भी उस ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया और मैंने सोचा कि उस से आइन्दा मुलाक़ातें बहुत ही फ़िक्र ख़ेज़ होंगी।

मैंने अपना फ़्लैट ले लिया। दिल्ली से बीवी भी आगई तो इज़्ज़त एक बार फिर आई। दोनों पहली ही मुलाक़ात में सहेलियां बन गई। चूँकि इज़्ज़त जहां को हर रोज़ अपने दफ़्तर जाने के लिए शहर आना पड़ता था। इस लिए शाम को घर लौटते हुए अक्सर हमारे हाँ आजाती थी। मैं चाहता था कि वो मेरे पास बैठे और हम हीगल, कार्ल मार्क्स, अंजुल, बाकू नैन, करो पट्टू केन और तरातस्की के मुतअल्लिक़ बातें करें और सोशलिज़्म के हर दौर को सामने रख कर अपने ख़्यालात का इज़हार करें। मगर मेरी बीवी और वो दोनों दूसरे कमरे में जा कर पलंग पर लेट जाती थीं और जाने क्या क्या बातें शुरू कर देती थीं। अगर कभी में सोशलिज़्म पर स्टालन की मौजूदा जंगी पालिसी के असर का ज़िक्र छेड़ता तो वो मेरी बीवी से सफ़ैद ऊन का भाव पूछना शुरू करदेती। अगर मैं ऐम। एन। राय की रिया कारी की बात करता तो वह ख़ानदान फ़िल्म के किसी गीत की तारीफ़ शुरू कर देती थी और अगर मैं उसे अपने पास बिठा कर रूस के मौजूदा जंगी निज़ाम पर गुफ़्तुगू करने में कामयाब हो जाता तो वो थोड़ी ही देर के बाद उठ के बावर्चीख़ाने में चली जाती और मेरी बीवी का हाथ बटाने की ख़ातिर प्याज़ छीलने में मशग़ूल हो जाती।

दिन भर वो पॉटरी के दफ़्तर में काम करती थी। शाम को थकी हुई घर पहुंचती थी जो दफ़्तर से बीस पच्चीस मेल दौर था। इलैक्ट्रिक ट्रेन में एक एक घंटे का सफ़र उस को दिन में दो दो मर्तबा करना पड़ता था। आते और जाते हुए। इस का ख़ाविंद मिल में मुलाज़िम था। महीने में पंद्रह दिन उसे रात को डयूटी देना पड़ती थी। लेकिन इज़्ज़त ख़ुश थी। मेरी बीवी से कई मर्तबा कह चुकी थी। शादी का मतलब सिर्फ़ बिस्तर नहीं और ख़ाविंद का मतलब सिर्फ़ रात का साथी नहीं। दुनिया में इंसान सिर्फ़ इसी काम के लिए नहीं भेजा गया म......। और मेरी बीवी उस की इस बात से बहुत मुतअस्सिर थी।

इज़्ज़त जहां अपना काम बहुत ख़ुलूस से कर रही थी। यही वजह है कि मुझे उस की बे-एतिनाईआं बुरी मालूम नहीं होती थीं वो मुझ से ज़्यादा मेरी बीवी के पास बैठना और उस से बातचीत करना पसंद करती थी। मुझे इस का मुतलक़न ख़्याल नहीं था। बल्कि में सोच रहा था कि वो बहुत जल्द मेरी बीवी को जो मुतवस्सित तबक़े के सरमाया दारों की ज़हनीयत रखती थी। अपनी हमख़याल बना लेगी।

एक रोज़ का ज़िक्र है। मैं अपने दफ़्तर से जल्द वापस आगया। ग़ालिबन दो अमल होगा मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा मेरी बीवी के बजाय नासिर ने खोला में सीधा अपने मेज़ की तरफ़ बढ़ा। चूँकि हस्ब-ए-आदत मुझे अपना बैग रखना था। नासिर सामने मेरे पलंग पर कम्बल ओढ़ कर लेट गया। इधर सोफे पर इज़्ज़त जहां लेटी थी।

नासिर ने कहा। “भई मुझे बुख़ार होरहा है।”

मैंने इज़्ज़त जहां की तरफ़ इशारा करके पूछा। “और आप......?”

इज़्ज़त ने जवाब दिया। “जी नहीं। मैं ऐसे ही लेटी हूँ।”

“रुक़य्या कहाँ है?”

इज़्ज़त ने जवाब दिया। “दूसरे कमरे में सौ रही हैं।”

“ये क्या.... हर एक सो रहा है।” मैंने अपनी बीवी को आवाज़ दी। “रुक़य्या....रुक़य्या”

अंदर से नींद भरी आवाज़ आई। “जी!”

“अरे भई इधर आओ.... कब तक सोई रहोगी?”

रुक़य्या आँखें मलती आई और इज़्ज़त के पास सोफे पर बैठ गई। नासिर कम्बल ओढ़े लेटा रहा। मैं अपनी बीवी के पास कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर गहिरी नींद के मुतअल्लिक़ बातें होती रहीं। क्योंकि रुक़य्या हमेशा घोड़े बेच कर सोने की आदी है। इस के बाद इज़्ज़त और मेरी बीवी के दरमियान करोशीए और सिलाइयों की बातें छिड़ गईं। इसी दौरान में चाय आगई। नासिर ने लेटे लेटे एक प्याली पी ली। मैंने बुख़ार दूर करने के लिए उसे असपरो की दो टिकियां दीं जो उस ने ले लीं।

डेढ़ दो घंटे तक ये लोग बैठे रहे। इस के बाद चले गए।

रात को सोने के लिए जे मैं पलंग पर लेटा तो हस्ब-ए-आदत मैंने ऊपर के तकीए को दुहरा किया। क्या देखता हूँ कि निचले तकीए का ग़लाफ़ ही नहीं है। रुक़य्या से जो मेरे पास खड़ी अपने कपड़े तबदील कर रही थी मैंने पूछा। “इस तकीए पर ग़लाफ़ क्यों नहीं चढ़ाया।”

रुक़य्या ने ग़ौर से तकीए की तरफ़ देखा और हैरत से कहा। “हाएं, सचमुच ये ग़लाफ़ किधर ग़ायब होगया.... हाँ...... वो आप के दोस्त...... ”

मैंने मुस्कुरा कर पूछा। “क्या नासिर ले गया?”

“क्या मालूम?” रुक़य्या ने रुक रुक कर कहा। “हाय कितनी श्रम की बात है...... मैंने अभी तक ये बात आप को बताई ही नहीं थी...... मैं अंदर सौ रही थी और वो आप के दोस्त और उस की बीवी......लानत भेजिए। बड़े बदतमीज़ निकले.... ”

दूसरे रोज़ तकीए का ग़लाफ़ पलंग के नीचे से मिला जिस को चूहों और काकरोचों ने जगह जगह से धुन डाला था और असपरो की दो टिकियां जो मैंने नासिर को बुख़ार दूर करने के लिए दी थीं। वो भी पलंग के नीचे से मिल गईं|