Swabhiman - Laghukatha - 14 in Hindi Short Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 14

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स्वाभिमान - लघुकथा - 14

राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता

विषय :- स्वाभिमान

तेवर

"अरे रमा आज काम पर आने में देर कर दी।"

रमा के घर में कदम रखते ही अम्मा जी ने पूँछा।

"हाँ आज मेरी बिटिया सलोनी का जन्मदिन है। बस उसके लिए ही कुछ बना रही थी। इसलिए देर हो गई।"

"कितनी बड़ी है तुम्हारी बिटिया ?"

"वो आठ साल की हो गई।"

"अच्छा तो पिंकी के जितनी है।"

रमा फौरन अपने काम में जुट गई। कुछ महीने ही हुए थे उसे यहाँ काम करते हुए। पर वह मन लगा कर काम करती थी। इससे अम्मा जी बहुत खुश रहती थीं।

शराब की लत रमा के पति को निगल गई। उसके ऊपर अपनी बच्ची को पालने की ज़िम्मेदारी आ गई। वह चाहती थी कि उसकी बेटी सलोनी पढ़ लिख कर आगे बढ़े। इसलिए वह दिन रात मेहनत कर उसे पढ़ा रही थी।

रमा अपनी मेहनत पर यकीन करती थी। मेहनत से जो मिलता उसमें संतुष्ट रहती थी। किसी से कुछ मांगना उसे पसंद नहीं था।

रमा अपना काम समाप्त कर चलने को हुई तो अम्मा जी ने उसे रुकने को कहा। भीतर से एक पैकेट ला कर उसे पकड़ा दिया।

"यह क्या है अम्मा जी ?"

"अरे पिंकी का फ्राक है। अपनी बिटिया को पहनाना। खुश हो जाएगी।"

उनकी बात सुन कर रमा खामोश हो गई। उसे असमंजस में देख कर अम्मा जी ने कहा।

"अरे निकाल कर देख ले। पिंकी ने सिर्फ दो एक बार पहनी है। पर मेरी पोती के नखरे तो तुझे मालूम हैं। अब नज़र से उतर गई है। इसलिए पहनती नहीं है।"

रमा ने धीरे से कहा।

"अम्मा जी मैं रात दिन मेहनत करती हूँ ताकि सम्मान से अपनी बच्ची को पाल सकूं। मैं अपनी बच्ची को उतरे हुए कपड़े नहीं पहनाती।"

उसकी बात सुनते ही अम्मा जी की त्यौरियां चढ़ गईं।

"तेवर तो देखो महारानी के। औकात धेले की नहीं पर घमंड बहुत है।"

रमा ने पैकेट वहीं रख दिया। बिना कोई जवाब दिए घर चली गई।

***

भीख

रमेश ट्रेन से उतरा। उसके पास एक सूटकेस व एक बैग था। वह सोंच रहा था कि खुद ही किसी तरह खींच कर बाहर ले जाए। क्यों कुली पर पैसे बर्बाद करे। तभी पीछे से आवाज़ आई।

"साहब आपका सामान उठा लूँ।"

रमेश ने मुड़ कर देखा सामने अघेड़ उम्र का एक कुली था। लेकिन जिस चीज़ पर उसकी निगाह अटक गई वह थी उसकी कटी हुई बांह। रमेश पहले ही कुली ना करने का मन बना चुका था। ऊपर से इस कुली की एक ही बांह थी।

"लेकिन सामान ज्यादा है...."

रमेश के स्वर में व्याप्त संदेह बता रहा था कि तुम्हारी एक बांह नहीं है। फिर कैसे उठाओगे।

कुली उसका संदेह भांप गया। लेकिन वह भी यूं ही मैदान छोड़ने वाला नहीं था। वह बोला।

"कई सालों से ऐसे ही काम कर रहा हूँ साहब। कभी किसी को कोई शिकायत नहीं होने दी। आपको भी नहीं होगी।"

रमेश सोंच में पड़ गया। वह तो कुली ना करने के मूड में था। पर अब इस कुली का हौंसला देख कर मना भी नहीं कर पा रहा था। वह धीरे से बोला।

"ठीक है ले चलो।"

कुली ने जिस कुशलता से सारा सामान उठाया उसे देख कर रमेश दंग रह गया। वह तेजी से सामान लेकर आगे आगे चल रहा था। पीछे चलते हुए रमेश सोंच रहा था कि यह आदमी तारीफ के काबिल है। एक बांह नहीं है फिर भी बोझ उठाता है। वरना कई लोग सही सलामत होते हुए भी काम नहीं करना चाहते हैं। पता नहीं कितना कमा पाता होगा।

स्टेशन के बाहर पहुँच कर कुली ने अपनी मज़दूरी मांगी 70 रुपए। रमेश ने उसे सौ रुपए दे दिए।

"साहब मेरे पास छुट्टे नहीं हैं।"

रमेश ने उसके कटी बांह को देख कर कहा।

"रख लो काम आएंगे।"

"नहीं साहब मैं अपने परिवार को पालने लायक कमा लेता हूँ। आप मुझे मेरी मज़दूरी ही दें।"

उसकी आवाज़ से साफ झलक रहा था कि रमेश ने उसके आत्मसम्मान को आहत किया है। उसने पैसे वापस लेकर उसे उसकी मज़दूरी दे दी।

***

रीचार्ज

राजेश बाबू कई दिनों के बाद पार्क में आए थे। पार्क में आ कर टहलना उनका रोज़ का नियम था। लेकिन पिछले कुछ दिन स्वास्थ ठीक नहीं रहा। वह पार्क नहीं आ सके।

पार्क में आने का कारण महज़ टहलना ही नहीं होता था। यहाँ वह अपने मित्र दुर्गाप्रसाद के साथ कुछ देर सुख दुख की बातें कर मन हल्का कर लेते थे। पत्नी थी नहीं। बेटा बहू काम काजी थे। अतः दो बोल बोलने के लिए कोई भी नहीं था। हलांकि राजेश बाबू सोशल मीडिया पर सक्रिय रूप से सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहते थे। किंतु मन की कुछ बातें दुर्गाप्रसाद से ही कह पाते थे। अतः पिछले दो दिनों से उनका मन पार्क में आने को व्याकुल था।

राजेश बाबू को देख कर उनके मित्र दुर्गाप्रसाद खुश हो गए। आगे बढ़ कर उनके गले लग गए। हालचाल लेने के बाद उन्होंने उनसे पूँछा।

"क्या बात है आजकल आप ऑनलाइन भी नहीं आ रहे हैं। भाई आपकी नई पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार है। आप समकालीन मुद्दों पर बहुत अच्छा लिखते हैं।"

राजेश बाबू ने सकुचाते हुए कहा।

"वो रीचार्ज खत्म हो गया था। इसलिए..."

"अरे तो रीचार्ज कराया क्यों नहीं?"

"भाई इस बार दवाओं पर कुछ अधिक खर्च हो गया। बजट गड़बड़ा गया। आप तो जानते हैं कि थोड़ी सी पेंशन है। उस छोटी सी पेंशन में सब हिसाब फिक्स है। खर्चा बढ़ा तो हिसाब बिगड़ गया।"

उनके मित्र कुछ सोंच कर बोले।

"आपने सारी ज़िंदगी तो मेहनत की है। उसी का नतीजा है कि आज आपका बेटा अच्छा कमाता है। आप उससे कहिए कि महीने में कुछ मदद किया करे।"

राजेश बाबू ने गंभीरता से जवाब दिया।

"देखो भाई मैंने वो किया जो मेरा फर्ज़ था। अब फर्ज़ निभाने की बारी उसकी है। अगर वह अपना फर्ज़ समझ कर कुछ दे तो मैं ना नहीं कहूँगा। किंतु अपने खर्चों के लिए उसके सामने हाथ नहीं फैलाऊँगा।"

***