Him Sparsh - 3 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 3

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हिम स्पर्श - 3

वफ़ाई ने घूमकर अपने नगर को देखा। पूरा नगर हिम की चादर में लपेटा हुआ था। पूरी तरह से श्वेत था नगर। केवल श्वेत रंग, बाकी सभी रंग अद्रश्य हो गए थे। मकानों के मूल रंग हिम की श्वेत चादरों में कहीं छुप गए थे। लंबे क्षणों तक वह नगर को देखती रही। उसने अपनी आँखें क्षण भर बंध की और फिर खोल दी।

उसने केमरे को निकाला और नगर की असंख्य तस्वीरें लेने लगी। कभी दूर से, कभी समीप से, कभी इस कोने से तो कभी उस कोने से, संभवित प्रत्येक कोने से तस्वीरें ली। एक विडियो उतारा। पूरे नगर की 360 डिग्री वाली तस्वीरें खींची।

वफ़ाई ने अपने मोबाइल फोन से पहाड़ों के साथ, नगर के साथ, मार्ग के साथ, जम सी गई नदी के साथ, बहते बहते अटक से गए झरनों के साथ और जीप के साथ स्वयं की असंख्य तस्वीरें ली। किन्तु वफ़ाई का मन अभी भी भरा नहीं था। उसे लग रहा था कि इस नगर में लौटने में उसे लंबा समय लग सकता है। संभव है कि वह फिर कभी लौटे ही नहीं।

नगर के पास बहती नदी स्थिर थी। किन्तु वफ़ाई का मन स्थिर नहीं था।

यह स्थल, नगर, पहाड़, घाटी, नदी, झरने, हिम, इन सभी को वह ह्रदय से स्नेह करती थी। इन सब को छोडने पर वह विचलित थी। अपने अंदर इन सबको समेट कर वह जीप में बैठ गई।

वफ़ाई ने अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी। उसकी आँखों से निकले कुछ अश्रुओं ने भी अपनी यात्रा चालू कर दी। जीप का मार्ग हिम के कारण शीतल था किन्तु वफ़ाई के गालों पर चल रहे अश्रु उष्ण थे।

एक घंटे की यात्रा के पश्चात वफ़ाई को रुकना पड़ा। अश्रु तो कब के रुक गए थे। गगन स्वच्छ था। किन्तु मार्ग स्वच्छ नहीं था। हिम से मार्ग अवरुध्ध था।

नगर से घाटी की तरफ जाने का यही एक मार्ग था, जो हिम से आच्छादित था और बंध था। हिम की उस सागर को पार करना संभव नहीं था, अत: वफ़ाई ने जीप रोक ली और स्थिति को समझने का प्रयास करने लगी।

हिम को काट कर दूर करने में सेना के अनेक जवान लगे हुए थे।

वफ़ाई ने एक जेयन से पूछा,”मार्ग कब तक साफ हो जाएगा?”

“अभी भी एक से डेढ़ घंटा लग सकता है।“ सैनिक ने जवाब दिया।

वफ़ाई ने घड़ी देखि, 7.37।

“एक घंटा अथवा अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी होगी।“ वफ़ाई मन ही मन बोली।

वह घाटी को देखने लगी। जन्म से वह घाटी को देखती आई थी। और अब वह चोबिस की हो गई थी। इतने वर्षों से घाटी कहीं नहीं गई थी, बस वहीं खड़ी थी।

वफ़ाई इधर उधर घूमती रही। जीप को, मार्ग को और घड़ी को देखती रही। इस बार घड़ी में बज रहे थे 7:48।

समय गति नहीं कर रहा था। वफ़ाई चिंतित हो गई।

वफ़ाई के कानों पर किसी के हंसने की ध्वनि पड़ी। उसने चारों दिशाओं में देखा किन्तु वहाँ कोई नहीं था। उसने पुन: उस हास्य की तरफ ध्यान केन्द्रित किया, उसे पुन: वही हास्य सुनाई दीया।

“किस के हास्य की प्रतिध्वनि है यह?” वफ़ाई ने स्वयं से पूछा। बार बार हास्य की प्रतिध्वनि घाटियों में गूंजने लगी।

“कौन हो तुम? कहाँ हो? इस प्रकार से हंस क्यूँ रहे हो?” वफ़ाई विचलित हो गई।

“हा॰॰॰ हा॰॰॰” उस हास्य की प्रतिध्वनि पुन: गूंजने लगी।

“छुपे मत रहो, यदि साहस हो तो सामने आओ...” वफ़ाई ने आव्हान किया।

“वफ़ाई, मैं तो तुम्हारे सामने ही हूँ, मुझे पहचानो।“ उसने कहा।

“मैं तुम्हें देख नहीं पा रही हूं। कौन हो तुम? कहाँ हो तुम?” वफ़ाई चारों तरफ उसे ढूँढने लगी।

“मैं पहाड़ हूँ, तुम्हारा मित्र।“ उसने कहा।

वफ़ाई ने पर्वत की तरफ देखा। उसे अनुभव होने लगा कि पर्वत हंस रहा है।

“ओ॰॰॰ह॰ तो तुम हो...” वफ़ाई ने स्मित किया, पहाड़ को नीचे से ऊपर तक देखा। उस पर देवदार के वृक्ष खड़े थे। देवदार की शाखाओं पर एवं पत्तों पर हिम थी। देवदार श्वेत हो गए थे। बहती शीतल पवन देवदार की शाखाओं को कंपित कर रही थी। ऐसा लगता था कि कोई वृध्ध ठंड से कांप रहा हो। “मन करता है कि दौड़ जाऊं और सभी देवदार पर कंबल ओढा दूँ।“

अपने ही विचार पर वह हंस पड़ी। “एक ही कंबल इतने सारे देवदार को मैं कैसे ओढा पाउंगी?”

बादलों से सूरज निकल आया। श्वेत तथा उष्ण सूर्य किरणें पूरे पहाड़ पर बिखर गई। चारों दिशाओं में सौदर्य निखर उठा। श्वेत हिम पर श्वेत सूर्य किरणें पर्वत को प्रकाशवान करने लगी।

श्वेत रंग के साम्राज्य में वफ़ाई कि आँखों ने किसी और रंग को पकड़ लिया। वह उसे ध्यान से देखने लगी।

“अरे... यह तो नीला फूल है, कितना सुंदर है?” वह स्वयं से बातें करने लगी,”वाह... यह तो केसर का फूल है.... नीला पौधा... केसर का पौधा... वसंत ऋतु का पहला पुष्प।“ वह आनंद से उछल पड़ी,”मित्र पर्वत, तेरे ह्रदय पर वसंत ने आगमन कर दिया है।“

वफ़ाई को लगा की पहाड़ उसके शब्दों का प्रतिभाव दे रहा है, जैसे वह वफ़ाई से बातें करना चाहता हो, जैसे वह वफ़ाई को स्मित दे रहा हो।

“यह समय तो वसंत के स्वागत का है और तुम मुझे छोडकर जा रही हो? हे सखी, कहाँ जा रही हो?” पर्वत ने पूछा।

“मित्र, मुझे किसी कार्यवश जाना पड रहा है, किन्तु मैं शीघ्र लौट आऊँगी।“

“ओह, कब तक लौट आओगी?” पर्वत ने गहरी सांस ली।

“अति शीघ्र। तब हम खूब बातें करेंगे। “

“तुम्हारी यह यात्रा, यात्रा में मिलने वाले व्यक्ति, यात्रा के अनुभव, घटनाएँ…. आदि सब सुनने के लिए मैं उत्सुक हूं।“ पहाड़ ने कहा।

“तब हम घंटों तक बातें करेंगे। तुम तो जानते हो कि तुम ही मेरे एक मात्र मित्र हो जो सदैव मेरे शब्दों को सुनते रहते हो, कभी भी, कहीं भी, लंबे समय तक। मैं बोलती रहती हूँ और तुम सुनते रहते हो।“

“हाँ, मुझे अभी भी याद है जब तुम पहली बार मुझ से बातें करने आई थी तब तुम चार पाँच साल की थी। तब तुम्हारे पास शब्द थे, भाव भी थे किन्तु भाषा नहीं थी।“

“तब तो मैं शब्दों से पूरा वाक्य भी नहीं बना सकती थी।“

“फिर भी मैं तुम्हारे भावों को समज जाता था।“

“किन्तु अब मैं बच्ची नहीं हूँ, तुम्हें ज्ञात है ना?”

“मुझे ज्ञात है, वफ़ाई। अब तुम एक यौवना हो, बड़ी हो गई हो। अब तुम्हारे पास शब्द भी है, विचार भी है, वाक्य भी है और भाव भी है। बस थोड़ा सा अंतर हो गया है इन भावों में। अब तुम शृंगारिक बातें भी सोचती हो, है ना?” पर्वत ने कहा।

“हे पुरुष, क्या मनसा है तुम्हारी? तुम तो नटखट से होते जा रहे हो। क्या तुम मेरे प्रेमी हो?” वफ़ाई ने एक तरफ तो पर्वत को अपने शब्दों से छेड़ा तो स्वयं ही लज्जा से प्रेमिका की भांति लाल हो गई। पहाड़ ने उस भावों को पकड़ लिया।

“मेरी मनसा तुम्हें इस यात्रा पर जाने से रोकना है।“

“क्यूँ? तुम मुझे कैसे रोकोगे?” वफ़ाई ने थोड़ा रोष दिखाया।

“तुमने इस यात्रा का आयोजन तीन चार दिनों से कर के रखा है किन्तु मुझे वह बताने का कष्ट तक नहीं किया है तुमने। इस बात पर मैं गुस्सा हूँ।“

“प्रत्येक बात तुम्हें बताना आवश्यक है क्या?”

“हां। मैं ही तो एक मात्र मित्र हूँ तुम्हारा। मुझे ज्ञात है कि इस अभियान को लेकर तुम गुस्से में हो। ठीक कह रहा हूँ ना मैं?”

“हां हूं। और यही कारण है कि मैंने इस विषय पर किसी से बात नहीं की है। तुम से भी नहीं। मैं गुस्सा हूँ।“

“ललित से? तुम्हारे मुख पर के रोष को मैं देख भी सकता हूँ और अनुभव भी कर सकता हूँ। मैं भी तो रोष में हूँ। उसे भी तो देख लो।“

“हे श्रीमान, आप क्यूँ गुस्सा हो? और मैं उसे कैसे देखूँ?” वफ़ाई ने प्रश्नार्थ मुद्रा में अपने दोनों हाथ पहाड़ की तरफ फैला दिये।

“पिछले दो तीन दिनों से हो रही बरफ वर्षा ही मेरे रोष का रूप है। वास्तव में मेरे रोष के कारण भारी हिम ने तुम्हारा मार्ग रोके रखा है। यह मेरी योजना है, प्रिय सखी वफ़ाई।“ पहाड़ ने कहा।

“तो यही कारण है इस मौसम में इतनी तीव्र हिम वर्षा की? मैं नहीं मानती तुम्हारी यह बात।“

“वह तुम्हारी समस्या है। किन्तु जब तक मैं नहीं चाहुं तुम यहाँ से जा नहीं सकती।“

“वह कैसे? तुम मुझे किसी भी तरह रोक नहीं सकते।“ वफ़ाई ने रोष दिखाया।

“मार्ग पर की हिम जब तक हटेगी नहीं, तुम जा नहीं सकोगी।“

“सैनिक लगे हुए हैं उसे हटाने में और शीघ्र ही वह मार्ग साफ हो जाएगा। फिर तुम कुछ नहीं कर पाओगे, मित्र।“

“तुम देखना चाहोगी कि मैं क्या कर सकता हूँ?”

“हाँ, मैं तुम्हारा आव्हान करती हूँ। जो करना हो करके दिखाओ।“

“ठीक है, पीछे घूमकर मार्ग को देखो।“

वफ़ाई मार्ग की तरफ घूमी। सहसा ताजी और तीव्र हिम वर्षा होने आगी। मार्ग जो कुछ साफ किया गया था वह भी फिर से हिम से ढंक गया। सैनिकों ने काम रोक दिया। मार्ग पुन: बंध हो गया।

वफ़ाई रोषित हो गई। वह नीचे झुकी और एक बड़े पत्थर को उठाया, अपनी तमाम शक्ति एकत्र की और पहाड़ की तरफ उस पत्थर को उछाल दिया।

“यह सब रोक लो। मेरे साथ, मेरी भावनाओं के साथ मत खेलो।“ वफ़ाई के हाथ से छूटा पत्थर घाटी की गहराइयों में जा गिरा।

“शांत हो जाओ। मैं तुम्हें यात्रा पर जाने दूंगा किन्तु मेरी एक शर्त है।” पहाड़ ने प्रस्ताव रखा।

“”क्या है?” वफ़ाई ने शुष्कता से जवाब दिया।

“ललित ने तुम्हारे साथ जो भी किया वह तुमे मुझे बताना होगा। उसके बाद तुम जा सकती हो। “

“ठीक है, तो सुनो।“ वफ़ाई ने सहमति दी।