Swabhiman - Laghukatha - 11 in Hindi Short Stories by Anuradha Saini books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 11

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स्वाभिमान - लघुकथा - 11

  • लघुकथा- 'पहचान'
  • अपने बलात्कारियों को पहचान कर उन्हें सजा दिलाने वाली दामिनी के इन्टरव्यू का आज कई टी.वी.चैनल्स पर सीधा प्रसारण होना था |

    वह भी टी.वी.चला गंभीर मुद्रा में सोफे पर बैठ गया |

    " यही है वो दामिनी जी जिन पर पूरे देश को नाज है | हम इनकी हिम्मत, बहादुरी, धैर्य और जज्बे की प्रशंसा करते है |"

    मुँह पर कपडा बाँधे बैठी दामिनी ने भी सिर हिला आभार व्यक्त किया |

    "ये वही दामिनी जी है जिन्हें उन हैवानों ने अपनी हवस का शिकार बनाया था , जिनके तन को ही नही बल्कि मन को ,जीवन की उमंगो को और सुन्दर भविष्य के सपनो को भी वासना के भूखे वे लोग नोंच- नोंचकर खा गये थे |"

    " जी हाँ, ये वही दामिनी जी है जिन्हें उन दरिंदो ने कहीं मुँह दिखाने लायक छोड़ा था जिनकी पहचान ही खत्म कर दी गई थी उन शैतानो के द्वारा और........"

    "क्षमा चाहती हूँ श्रीमान", इन्टरव्यूकर्मी को बीच मे ही टोकते हुये वह गरज पड़ी |

    "उन्होंने मेरे तन को नोंचा था, मेरे आत्मसम्मान को तो छू तक पाये थे वे लोग और मुँह छिपाने लायक बलात्कारी होते है कि बलात्कार पीडितायें |"

    कहते हुये उसने मुँह पर कसकर बँधे दुपट्टे को झटके से नीचे गिरा अपनी पहचान सार्वजनिक कर दी |

    वह ताली बजाता इससे पहले ही असंख्य तालियों की गड़गड़ाहट उसके कानों में गूँज गई और वह कह उठा,

    "आई एम प्राउड ऑफ यू माय डॉटर |"....

    ***

    2.लघुकथा -स्वयंसिद्धा

    माँ ने बताया था उसे, उस रोज पूरा घर उसके जन्म को लेकर बेसब्र था | कमर पर हाथ बाँधें बाबूजी बार-बार कमरे के बाहर चक्कर काट रहे थे | उन्हें बेटी चाहिये थी सो इसी चाहत में वह अधीर हुएे जा रहे थे | माँ खुद भी अथाह दर्द में थी पर कुल दीपक पाने की चाहत उन्हे उतना ही मजबूत बनाये हुये थी|

    कुछ समय बाद जब किलकारियाँ गूंजी तो दरवाजे के बाहरे सभी 'कुल दीपक' या 'लक्ष्मी' दोनो मे से कौन ? के कयास लगा रहे थे और तभी दाई बच्चा लेकर बाहर आई |

    उम्मीद के विपरीत उसके चेहरे पर मायूसी और सहानुभूति के भाव थे बख्शीश तक माँग पाई थी वह | दादी ने उसे लगभग झपटते हुये लिया और देखते ही नीचे पटक दिया |

    "हाय री ! ये क्या......ये कैसे हो सकता है?..... नही नही....... हमारे घर ... ये कैसे पैदा हो सकता है ?" कहते हुये दादी पछाड़ खा-खा खूब रोयी थी | उत्सव मातम मे तब्दील हो चुका था |

    संघर्षों भरे उसके जीवन की अब शुरूआत थी | उसकी पहचान छुपा दी गई और एक निश्चित दायरे में रहने की सख्त हिदायत के साथ उसपर बंदिशे थोपने के कयास होने लगे थे मगर माँ ने बताया था उसे कि वह बचपन से ही बहुत ढ़िठ थी | किसी की बात नही मानती थी | स्कूल जाने की जिद्द की तो फिर ऐसी पढ़ी कि बस पढ़ती चली गई | सब उसे ढ़िंठ कहकर ही तो बुलाते थे |

    लोग जितनी कुटिल और व्यंग्यात्मक हंसी हँसते अपनी पहचान और स्वाभिमान पाने का उसका लक्ष्य उतना ही प्रबल होता चला जाता |

    तभी ट्रिन ट्रिन.. ....करती फोन की घंटी की आवाज ने उसका ध्यान टेबल पर रखी माँ की तस्वीर से हटाया तो वह वर्तमान में लौट आई |

    "हैलो मानबी जी,देश की पहली किन्नर कॉलेज प्रिंसिपल बनने पर आपको ढेर सारी बधाईयां|"

    और वो अपने ढिंठपन पर मुस्कुराभर दी |

    ***

  • लघुकथा - 'सोसल वरकर '
  • "क्या तुम भी गरीबी के चलते.....?"

    "... .... "

    "तो क्या जबरदस्ती.......? "

    " अरे नाहि ! नाहि ! "

    " तो फिर यहाँ कैसे ? "

    " याद नही मैम साहब, जबहूँ होस संभाले है तबहू से ईह पर है |"

    " क्या तुम जानती हो समाज में तुम जैसे लोगो को क्या कहकर बुलाते है?" एक समाजसेविका होने के दंभ में मेरी गर्दन तन गई |

    ........ वह चुप रही |

    "प्रोस्टिट्यूट सुना है ?" मैने अपनी आवाज को धीमा करते हुये कहा |

    " का तो पता नही मैम साहब पर....हाँ, 'वेश्या' कहत बहुतन को सुना है |" उसके मुँह से ये शब्द सुनते ही मेरे पूरे बदन में सिहरन सी दौड पड़ी | मैने सहानूभुति दिखाते हुए उससे सवाल पूछना जारी रखा |

    "तो बुरा लगता होगा जब कोई तुम्हें ऐसे बुलाता होगा ? "

    "बुरा काहे मैम साहब ?, बुरा तो बुरा करवे वाले को लगई हमका नाहि |"

    "तुम्हें याद है, तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हारा नाम क्या रखा था ?"

    "हीहीहीही...." वह कुछ व्यंग्यपूर्वक हँसी और बोली "हमार कोई एक नाम थोडे ही होत है जो हमका याद रहत |" उसने विस्मय से चौड़ी होती मेरी आँखो को पढ़ लिया था शायद | " का होत है जब हमका मोटे साहब के साथ रात गुजारनी होय तो सुबई हमार नाम मोटी होय जात है, जबऊ कोय तोंद वाले के साथ रात गुजारनी होय तो हमार नाम भी का नाम संग तोंदी होय जात और जबहुँ कभी लिच्चड़ संग रात बीतानी पड़ जात तो हमार नाम भी लिच्चडी होय जात |"

    " लिच्चड .....?" मैने अनभिज्ञता जाहिर की|

    " पैसा नही देत !" उसके चेहरे पर कुछ नफरत के भाव तैर गये और उसके चेहरे से निकल कुछ भाव मेरे चेहरे पर भी पड़े |

    "ओह ! तो बाहर निकलना चाहोगी तुम इस दलदल से ?" वह मुझसे सहयोग मांगेगी मुझे पूरा यकीन था |

    " बाहर...? बाहर काहेको मैम साहब ? अपनी ठौर छोड़ भला कोई जावत है ?" उसका यह जवाब मेरी उम्मीदों से परे था और उसके शब्द भी मुझे कुछ कठोर जान पड़े |समझाईश के क्रम में मैने कहना जारी रखा |

    " बाहर निकलकर तो देखो कितने सारे काम है करने को, तुम कोई अच्छा काम क्यों नही करती? "

    "अच्छा काम ! तो ईहा भी करत मैम साहब | तोहार मालूम नाही मैम साहब, जब दाढ़ी वाले साहब आवत है तो कहत कि हमरी गोद में बहुते सुकून पात है और खूब रोवत है बेचार | की मेहरारू तो बहुतई पहले ऊपर पहुँच गई पर यहीं रै गवत | आदमी जात लुगाई बिन कैईसन दिन गुजारन करीं, बहू बेटा कैईसन जान सकत! हमरा पास आई तो खूब प्यार करत ऊका |"

    कहते हुये उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव गये |

    "और रोउणू पतलो, छै-छै बहनन के ब्याह और करजा उतारन में जवानी लूट गवत, अब ब्याह होत तो हमरे पासई जात है पैसा भी कम ही लेत हम,और कभी-कभार नाहि भी लेत |" बताते हुये उसके चेहरे पर हमदर्दी के भाव जाग उठे |

    और हाँ मैम साहब ! एक साहब और आवत था हमरे पास..... पर अब नही आवत |" कहते हुये वो रूँआसी हो उठी | मेरा ध्यान उसके चेहरे से हटकर उसकी आँखों पर जा पहुँचा जो शायद कुछ नम थी |

    उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुये मैने उसे विश्वास दिलाया "अब नही आते , पर क्यों ?

    "हमई कसम दिलवई के वादा ले लिये थे कि अब कबहुँ ना मिलई |"

    " पर क्यों? " मैने उत्सुकतावश जानना चाहा |

    "बहुतई दुखी था इक रोज जब हमरे पास आया था , बहुतई पैसा वाला था पर कौनो औलाद नही था ऊके, मेहरारू रोज ताना देव करी कि कौनो तोहार में कमी है लिये औलाद का मुँह नही देखन | हम टेम चार महिना पेट से रहीन तब बताय करी हमका कि नामर्द हेई |" यह बात बताते हुये उसकी आवाज फुसफुसाहट में बदल गई | उसे आज भी उसकी गोपनीयता की फिक्र थी और उस पर जताये उस व्यक्ति के भरोसे की भी |

    उसने बात को जारी रखा " इक रोज आतमहतया की कोसिस करई तो हम समझाई कि हमार होन वाली औलाद हम का झोली में डाल देई पर तुमही आतमहत्या नाहि करऊ |"

    "फिर......? यह मेरी जिज्ञासा की पराकाष्ठा थी

    "फिर का.....! डाल दिये नौ महिना के बाद के घर के बाहर , उसने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा | ले गई की मेहरारू पुचड पुचड करवे करी, खूब खुस होई दोनू जन, साहब दूरई से खूब धनबाद दिये हमका |

    " और तुमने क्या कहा अपने मालिक को ? "

    "कह दिये हमरी जात का नाहि था सो ले गये की जात वारे |"

    "उसकी जात वाले मतलब?"

    " कह दिये हिजड़ा पैदा किये थे सो का करते का ईहा लाकर |" कहते हुए उसकी आवाज तेज हो उठी | पानी की कुछ बूँदे सहसा मुझे अपने हाथ पर महसूस हुई |

    कुछ देर हम दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा |

    माहौल का हल्का करते हुए मैने उससे फिर से सवाल किया |

    "हम्मsss.. ...अगर इस 'वेश्या' शब्द को समाज से हटाकर हम तुम्हें कोई और नाम देना चाहें तो तुम खुद को क्या कहलवाना पसंद करोगी ?"

    वह कुछ देर सोचती रही फिर तपाक से बोली |

    ''समाजसेविका मैमसाहब, वो का कहत है अंगरेजी मा 'सोसल वरकर' |"

    अचानक मेरी अहंकार से तनी गर्दन उसके स्वाभिमान के आगे नतमस्तक हो उठी |

    ***

    अनुराधा सैनी