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गणेश
कलियुग का आरंभ हो चुका था, गोमती नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहने वाला एक गरीब परिवार अपनी विपन्न स्थिति से त्रस्त था। छोटा सा परिवार था, माता पिता और उनका नन्हा बालक जिसका नाम था गणेश। नन्हा बालक गणेश और उनकी मां आठों पहर भगवान गणपति के गुण गाते रहते थे। पत्नी के भक्ति भाव से पति को चिढ़ थी ही, अपने पुत्र को भी भगवान की भक्ति में लीन होता देख उसके क्रोध की कोई सीमा न रही, जिस कुटिया के भीतर ॐ गणपतये नमः के जाप होते रहते थे, उसी कुटिया के भीतर से भगवान के प्रति अपशब्दों की बौछार होने लगी। पति मदिरा पीकर घर आता, खूब गाली गलौच करता।
एक रोज जब बालक गणेश, एकदंत की पूजा में मग्न था। वो भगवान से बालसुलभ प्रार्थना करने में व्यस्त था, “हे शंकरसुवन! हे गणनायक! तुम तो जानते हो मेरे घर की हालत। देखो न, मेरी माँ कैसे सुख कर काँटा हुई है। मेरे पिता भी बहुत अच्छे है लेकिन मद्यपान के कारण उन्हें अच्छे बुरे की कोई पहचान नहीं होती। मारपीट के कारण मेरी माँ की कैसी हालत हो गई है। हे गजानन! मेरे पिताश्री को बुद्धि दो, उनके भीतर के अच्छे इंसान को बाहर लाओ। उन्हें नशे से दूर करो मेरे लंबोदर। आप जो कहोंगें वो मैं करूँगा। आपको मोदक का भोग लगाऊंगा। थाली भर कर लड्डू आपके खाने के लिए लेकर आऊंगा। बस मेरे पिताश्री के दिमाग से नशे का भूत उतार दो। मेरी माँ के सब दुःख दर्दों को हर लो प्रभु!” फिर अपनी कोमल आवाज़ में भगवान गणेश की स्तुति में जो कुछ भी अपनी माँ से सीखा, सारे मंत्र, श्लोक, भजन, चालीसा, आरती आदि सब कुछ गाने लगा,
“वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
ॐ गजाननं भूंतागणाधि सेवितम्, कपित्थजम्बू फलचारु भक्षणम् |
उमासुतम् शोक विनाश कारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम् ||
गाइये गणपति जगवंदन |
शंकर सुवन भवानी के नंदन ॥
सिद्धी सदन गजवदन विनायक |
कृपा सिंधु सुंदर सब लायक़ ॥
मोदकप्रिय मृद मंगल दाता |
विद्या बारिधि बुद्धि विधाता ॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे।
बसहिं रामसिय मानस मोरे।।
गाइये गणपति जगवंदन।
शंकर सुवन भवानी के नंदन॥
शेंदुर लाल चढ़ायो अच्छा गजमुखको।
दोंदिल लाल बिराजे सुत गौरिहरको।
हाथ लिए गुड लड्डू सांई सुरवरको।
महिमा कहे न जाय लागत हूं पादको॥
जय देव जय देव, जय जय श्री गणराज
विद्या सुखदाता
धन्य तुम्हारा दर्शन
मेरा मन रमता, जय देव जय देव॥
अष्टौ सिद्धि दासी संकटको बैरि।
विघ्नविनाशन मंगल मूरत अधिकारी।
कोटीसूरजप्रकाश ऐबी छबि तेरी।
गंडस्थलमदमस्तक झूले शशिबिहारि॥ जय देव जय देव॥
भावभगत से कोई शरणागत आवे।
संतत संपत सबही भरपूर पावे।
ऐसे तुम महाराज मोको अति भावे।
गोसावीनंदन निशिदिन गुन गावे॥
जय देव जय देव, जय जय श्री गणराज
विद्या सुखदाता, हो स्वामी सुखदाता
धन्य तुम्हारा दर्शन
मेरा मन रमता, जय देव जय देव॥
ॐ जय गौरी नंदन, प्रभु जय गौरी नंदन
गणपति विघ्न निकंदन, मंगल निःस्पंदन ||
ऋद्धि सिद्धियाँ जिनके, नित ही चंवर करे
करिवर मुख सुखकारक, गणपति विघ्न हरे ||
देवगणों में पहले तव पूजा होती
तब मुख छवि भक्तो के निदारिद खोती ||
गुड़ का भोग लगत हैं कर मोदक सोहे
ऋद्धि सिद्धि सह-शोभित, त्रिभुवन मन मोहै ||
लंबोदर भय हारी, भक्तो के त्राता
मातृ-भक्त हो तुम्ही, वाँछित फल दाता ||
मूषक वाहन राजत, कनक छत्रधारी
विघ्नारण्यदवानल, शुभ मंगलकारी ||
धरणीधर कृत आरती गणपति की गावे
सुख संपत्ति युक्त होकर वह वांछित पावे ||
जय गणपति सदगुण सदन, कविवर बदन कृपाल ।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल ।।
जय जय जय गणपति गणराजू । मंगल भरण करण शुभः काजू ।।
जै गजबदन सदन सुखदाता । विश्व विनायका बुद्धि विधाता ।।
वक्र तुण्ड शुची शुण्ड सुहावना । तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन ।।
राजत मणि मुक्तन उर माला । स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला ।।
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ।।
सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ।।
धनि शिव सुवन षडानन भ्राता । गौरी लालन विश्व-विख्याता ।।
ऋद्धि-सिद्धि तव चंवर सुधारे । मुषक वाहन सोहत द्वारे ।।
कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी । अति शुची पावन मंगलकारी ।।
एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी ।।
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुंच्यो तुम धरी द्विज रूपा ।।
अतिथि जानी के गौरी सुखारी । बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ।।
अति प्रसन्न हवै तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ।।
मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला । बिना गर्भ धारण यहि काला ।।
गणनायक गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम रूप भगवाना ।।
अस कही अन्तर्धान रूप हवै । पालना पर बालक स्वरूप हवै ।।
बनि शिशु रुदन जबहिं तुम ठाना । लखि मुख सुख नहिं गौरी समाना ।।
सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । नाभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ।।
शम्भु, उमा, बहुदान लुटावहिं । सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ।।
लखि अति आनन्द मंगल साजा । देखन भी आये शनि राजा ।।
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक, देखन चाहत नाहीं ।।
गिरिजा कछु मन भेद बढायो । उत्सव मोर, न शनि तुही भायो ।।
कहत लगे शनि, मन सकुचाई । का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ।।
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ । शनि सों बालक देखन कहयऊ ।।
पदतहिं शनि दृग कोण प्रकाशा । बालक सिर उड़ि गयो अकाशा ।।
गिरिजा गिरी विकल हवै धरणी । सो दुःख दशा गयो नहीं वरणी ।।
हाहाकार मच्यौ कैलाशा । शनि कीन्हों लखि सुत को नाशा ।।
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । काटी चक्र सो गज सिर लाये ।।
बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ।।
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्धि निधि, वर दीन्हे ।।
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ।।
चले षडानन, भरमि भुलाई । रचे बैठ तुम बुद्धि उपाई ।।
चरण मातु-पितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ।।
धनि गणेश कही शिव हिये हरषे । नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे ।।
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई । शेष सहसमुख सके न गाई ।।
मैं मतिहीन मलीन दुखारी । करहूं कौन विधि विनय तुम्हारी ।।
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा ।।
अब प्रभु दया दीना पर कीजै । अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै ।।
श्री गणेशा यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान ।
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान ।।
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश ।
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ती गणेश ।।
मुदाकरात्त मोदकं सदा विमुक्तिसाधकम् l
कलाधरावतंसकं विलासि लोकरक्षकम् l
अनायकैक नायकं विनाशितेभदैत्यकम् l
नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम् ll
नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरम् l
नमत्सुरारि निर्जरं नताधिकापदुद्धरम् l
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं l
महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ll
समस्त लोकसंकरं निरस्तदैत्यकुंजरम् l
दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम् ll
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करम् l
मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम् ll
अकिंचनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्ति भाजनम् l
पुरारिपूर्व नन्दनं सुरारि गर्वचर्वणम् ll
प्रपंच नाशभीषणं धनंजयादि भूषणम् l
कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम् ll
नितान्तकान्तदन्तकान्ति मन्तकान्तकात्मजम् l
अचिन्त्य रुपमन्तहीन मन्तरायकृन्तनम् l
ह्रदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनाम् l
तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम् ll
फलश्रुती
महागणेश पंचरत्नम् आदरेण योन्वहम् l
प्रजल्पति प्रभातके ह्रदि स्मरन् गणेश्वरम् ll
अरोगितामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रताम् l
समाहितायु रष्टभूतिमभ्युपैति सोचिरात् ll
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।।
ॐ ग्लौम गौरी पुत्र, वक्रतुंड, गणपति गुरू गणेश।
ग्लौम गणपति, ऋदि्ध पति, सिदि्ध पति। मेरे कर दूर क्लेश।।
ॐ नमो गणपतये कुबेर येकद्रिको फट् स्वाहा।
ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि।।
त्वमेव केवलं कर्त्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्तासि।।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।।
त्वं साक्षादत्मासि नित्यम्।
ऋतं वच्मि।। सत्यं वच्मि।।
अव त्वं मां।। अव वक्तारं।।
अव श्रोतारं। अवदातारं।।
अव धातारम अवानूचानमवशिष्यं।।
अव पश्चातात्।। अवं पुरस्तात्।।
अवोत्तरातात्।। अव दक्षिणात्तात्।।
अव चोर्ध्वात्तात।। अवाधरात्तात।।
सर्वतो मां पाहिपाहि समंतात्।।।।
त्वं वाङग्मयचस्त्वं चिन्मय।
त्वं वाङग्मयचस्त्वं ब्रह्ममय:।।
त्वं सच्चिदानंदा द्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।।।
सर्व जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।।
सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति।।
त्वं भूमिरापोनलोऽनिलो नभ:।।
त्वं चत्वारिवाक्पदानी।।।।
त्वं गुणयत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत: त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधार स्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्ति त्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं।
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम्।।।।
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेन्दुलसितं।।
तारेण ऋद्धं।। एतत्तव मनुस्वरूपं।।
गकार: पूर्व रूपं अकारो मध्यरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं।। बिन्दुरूत्तर रूपं।।
नाद: संधानं।। संहिता संधि: सैषा गणेश विद्या।।
गणक ऋषि: निचृद्रायत्रीछंद:।। गणपति देवता।।
ॐ गं गणपतये नम:।।।।
एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नोदंती प्रचोद्यात।।
एकदंत चतुर्हस्तं पारामंकुशधारिणम्।।
रदं च वरदं च हस्तै र्विभ्राणं मूषक ध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।।
रक्त गंधाऽनुलिप्तागं रक्तपुष्पै सुपूजितम्।।8।।
भक्तानुकंपिन देवं जगत्कारणम्च्युतम्।।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतै: पुरुषात्परम।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनांवर:।।।।
नमो व्रातपतये नमो गणपतये।। नम: प्रथमपत्तये।।
नमस्तेऽस्तु लंबोदारायैकदंताय विघ्ननाशिने शिव सुताय।
श्री वरदमूर्तये नमोनम:।।।।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
एक दंत दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे सिंदूर सोहे, मूसे की सवारी॥ जय गणेश जय गणेश...॥
पान चढ़े फल चढ़े, और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे, संत करें सेवा॥ जय गणेश जय गणेश...॥
अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥ जय गणेश जय गणेश...॥
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ जय गणेश जय गणेश...॥“
बालक गणेश ईश्वर की स्तुति में लीन था तभी भगवान का नाम सुन मदिरा के नशे में चूर पिता कलियुग के असर से मूढ़ बुद्धि हो, गजानन की मूर्ति को उठाकर गोमती नदी में फेंकने को उद्यत हो गया। बालक अपने ईश्वर से लिपट गया। विनाशकाले विपरीत बुद्धि, उस व्यक्ति ने आव देखा न ताव, मूर्ति को उठाकर गोमती की विशाल लहरों में फेंक दिया। अपने लंबोदर के साथ लिपटा हुआ वह बालक भी नदी में बह चला। पिता की आंखों के आगे से नास्तिकता का परदा हटता तब तक बालक नदी की लहरों के बीच खो गया।
लकड़ियों का गट्ठर सिर पर ढोये जब माँ लौटी, अपने पुत्र को न देख विकल हो उठी। खूब इधर उधर ढूंढा, पति के चरण पकड़े, मिन्नतें की, मन्नतें मांगी। पति ने दुत्कारते हुए कहा, “मैं क्या बताऊँ, पूछो अपने गणपति से। वो तो अन्तर्यामी है, सब जानता ही होगा।“
अपने भगवान से पूछने जैसे ही पूजा घर में गई, मूर्ति को न देख हतप्रभ रह गई। दीवारों से सिर टकराती, छाती पिटती माँ अपने पुत्र गणेश को ढूंढने निकल पड़ी।
उधर कैलाश पर्वत पर अपने पुत्र के मस्तक से लहू बहता देख गौरी सुध बुध खो बैठी। गौरीनंदन का चेहरा रक्त से सना हुआ था। माँ पार्वती अपने हाथों से रक्त प्रवाह को रोकने की कोशिश करने लगी।
अबला माँ ने वन वन, गांव गांव, नगर नगर, डगर डगर
भटकते पूछा एक ग्वाले को, “क्या तुमने मेरे गणेश को देखा?”
ग्वाला देखता रह गया, कौन है यह औरत, जो भगवान को अनादर से नाम लेकर पुकारने की धृष्टता कर रही है।
उन्होंने क्रुद्ध होकर कैलाश पर्वत का रास्ता बता दिया जो घने वन से होकर गुजरता था, “वहां रहते है देवों के देव, त्रिनेत्र धारी, सर्व लोकेश्वर, सहस्त्र भुज चंद्रशेखर, गौरीनाथ और उनके पुत्र गणेशजी।“
अपने होश हवास खो बैठी मां बताए रास्ते पर चल पड़ी।
निर्जन वन में कोई इंसान न मिला तो एक पेड़ से लिपटे नाग से पूछ बैठी, “क्या तुमने मेरे गणेश को देखा?”
नाग फुफकार उठा। पार्वतीनंदन को नाम से पुकारने वाली यह दुष्ट महिला कौन है? नाग डस बैठा उस दीन हीन माता को, लेकिन पुत्र वियोग से बड़ा विष एक मां के लिए क्या हो सकता था। विष का असर पार्वती ने महादेव के कंठ में देखा, उनके कंठ का नीलापन बढ़ चुका था। गिरते पड़ते घने जंगल को पार कर वह मां कैलाश पर्वत तक जा पहुंची।
द्वार पर नंदी खड़ा था। विकल मां ने पूछा,”क्या तुमने मेरे गणेश को देखा।“
नंदी चीख उठा,” कौन है यह मूर्ख पतित जो तांडव से प्रलय मचा सकने वाले कालकंठ, महारुद्र, महाकाल, नटराज के महान पुत्र को नाम से पुकार रही है।“
नंदी ने नाराज हो उस मां को अपने सींगों में उठा अंदर की तरफ उछाल दिया जहां पार्वती अपने पुत्र की पीड़ा से कराह रही थी। शंकरसुवन के हृदय से रक्त टपक रहा था मानो नंदी के वार का असर उन पर हुआ हो।
मृतप्राय: मां ने गौरी के चरण पकड़ पूछा, “क्या तुमने मेरे गणेश को देखा?”
शिवा भवानी की आंखों में अंगारे दहक उठे। “कौन है यह पापी महिला जो मेरे पुत्र को अपना बता रही है?”
पार्वती ने विकराल रूप धर लिया। हाथ में त्रिशूल उठा अंबिका, उस विवश मां का संहार करने को उद्यत हुई ही थी कि गणनायक गणेश ने मुस्कराकर कहा,” माँ! आप आ गई।“
और देखते ही देखते गजानन एक मनुष्य बालक गणेश में बदल गये। अपने आसन से उठ वे मां की गोद में गिर पड़े।
पार्वती की आंखों में से आंसू निकल पड़े। नन्हें गणेश ने मां का पल्लू खींच कर कहा, “चलो मां, घर चलते हैं।“
पार्वती ने देखा, एक गणेश अपने आसन पर मोदक खाने में लीन हैं, एक गणेश अपनी मां के साथ अपने घर को जा रहे हैं। गौरी के होंठों पर मुस्कान थी, नटखट पुत्र बालगणेश की लीला अपरंपार है।
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