Swabhiman - Laghukatha - 7 in Hindi Short Stories by vinod kumar dave books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 7

Featured Books
  • ચતુર

    आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञयासदृशागमः | आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृश...

  • ભારતીય સિનેમાનાં અમૂલ્ય રત્ન - 5

    આશા પારેખઃ બોલિવૂડની જ્યુબિલી ગર્લ તો નૂતન અભિનયની મહારાણી૧૯...

  • રાણીની હવેલી - 6

    તે દિવસે મારી જિંદગીમાં પ્રથમ વાર મેં કંઈક આવું વિચિત્ર અને...

  • ચોરોનો ખજાનો - 71

                   જીવડું અને જંગ           રિચાર્ડ અને તેની સાથ...

  • ખજાનો - 88

    "આ બધી સમસ્યાઓનો ઉકેલ તો અંગ્રેજોએ આપણા જહાજ સાથે જ બાળી નાં...

Categories
Share

स्वाभिमान - लघुकथा - 7

1 - फ़ाइल रिजेक्टेड

सभी के लिए बात इतनी सी ही थी लेकिन सुशांत के लिए यह जीने मरने का सवाल था। ऊपर से सख्त आदेश था, भुगतान की फ़ाइल अटकनी नहीं चाहिए किसी हालत में, उसे उसका हिस्सा मिल जाएगा। लेकिन हिस्सा किस में से? कल उठ कर पुल दरक गया था तो… सुशांत सिहर उठा लाशों की कल्पना करके ही। हिस्सा? कौन सा हिस्सा? विधवा हो चुकी किसी नवविवाहिता का मंगलसूत्र, या किसी नवनियुक्त व्यक्ति की पहली पगार, नदी में बहकर जाता किसी मां के जिगर का टुकड़ा या किसी बूढ़े बाप की दम तोड़ती हुई इकलौती लाठी। सुशांत के लिए लाशों के सौदा करना मुमकिन न था। उसने फ़ाइल रिजेक्ट करने के लिए लाल पेन उठाई ही थी कि यकायक उसके बूढ़े मां बाप का मासूम चेहरा उसकी आँखों के आगे घूम गया। तिपहिया साइकिल पर अखबार बेचता उसका विकलांग बाप, घर घर बर्तन मांजती उसकी माँ, और पैबंद लगी चुन्नी ओढ़ती उसकी बहन। ख़ुद का पेट काटकर जिन्होंने उसे पढ़ाया लिखाया, आज इस कुर्सी पर बैठने के क़ाबिल बनाया, क्या उनके लिए उसका कोई फ़र्ज़ नहीं बनता? क्या अपने माँ बाप बहन की ख़्वाहिशें पूरी करना उसका कर्तव्य नहीं है? किराये की खोली में पूरी उमर निकाल चुकी उन बूढ़ी आंखों को क्या मरते वक़्त भी सुकून से ख़ुद की छत ताकने का अवसर नसीब न होगा?

इसी उधेड़बुन में वह अपने सुंदर घर की कल्पना में डूबे डूबे फ़ाइल स्वीकृत करने को उद्यत हुआ ही था कि उसने देखा, उसका मकान उसी दरकते हुए पुल पर बना है…

उस से देखा न गया, विशाल नदी में बहता हुआ माँ का आँचल, बूढ़े बाप की टूटी हुई ऐनक, बहन की पैबंद लगी चुन्नी और एक ईमानदार परिवार का स्वाभिमान…

उसकी कलम जैसे अपने आप ही चलने लगी, ‘फ़ाइल रिजेक्टेड’…

***

2 - स्वाभिमानी जग्गू

सवारियों को कोर्ट चौराहे पर उतारकर जैसे ही जग्गू का टेम्पो चलने को हुआ, उसने अपनी बांह पर किसी की मजबूत पकड़ महसूस की। यह एक काले कोट वाला अधेड़ था जिसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था,

“भाग कहाँ रहा है?”

“क्या हुआ बाबूजी?”

“तीन रुपये वापिस दे।“

“दस का ही तो नोट दिया है न आपने?”

“तो?”

“दस रुपये ही तो है किराया। सात तो साल भर पहले लेते थे।“

“देख! दिमाग का दही मत कर। तुम जैसे चोरों की वजह से ही सब ख़ुद की गाड़ी में आना पसंद करते है। फोकट का खाने की कोशिश करते हो तभी तो कभी ऊपर नहीं आ सकते अपनी गरीबी से।“

चोर लफ्ज़ सुनते ही जग्गू का दिमाग भन्ना उठा। उसने अपना गल्ला खोला, दस का नोट निकाल कर उस अधेड़ के मुंह पर फेंक चलता बना। चार क़दम दूर जाकर पीछे झांकता हुआ बोला, “रख तेरी अमीरी तेरे पास। मैं सोच लूंगा, किसी गरीब को लिफ्ट दी। तू अपनी गाड़ी में तेल भरवा देना दस रुपये का।“

जग्गू ने साइड मिरर में अपना चेहरा देखा, वो स्वाभिमान से दमक उठा था।

***

विनोद कुमार दवे