Swabhiman - Laghukatha - 6 in Hindi Short Stories by Tejveersingh books and stories PDF | स्वाभिमान - लघुकथा - 6

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स्वाभिमान - लघुकथा - 6

घूंघट

"बहू, जुम्मे जुम्मे आठ दिन भी नहीं हुए शादी को और तुमने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिये"।

"माँ जी, यह आप क्या कह रहीं हैं? मैं कुछ समझी नहीं"?

"अरे वाह, चोरी और सीना जोरी"।

"माँ जी, आप मेरी माँ समान हैं। मुझसे कोई गलती हुयी है तो बेशक डाँटिये फटकारिये मगर मेरी गलती तो बताइये"।

"क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हें अपने ससुर और जेठ का आदर सम्मान करना नहीं सिखाया"?

"माँ जी, मैं तो पिता जी और बड़े भैया का पूरा सम्मान करती हूँ"।

"तुम्हें क्या लगता है? मेरी आँखें नहीं हैं या मैं झूठ बोल रही हूँ"।

"आप स्पष्ट कहिये ना कि हुआ क्या है"?

"सुबह तुम्हारे कालेज का चपरासी आया था तब तुम बैठक में बिना घूंघट निकाले गयी थीं जबकि वहाँ तुम्हारे ससुर और जेठ दोनों मौजूद थे"।

"माँ जी, मैं कालेज की प्रिंसीपल हूँ। भले ही वह एक प्राइवेट इंटर कालेज है| अतः कभी ना कभी लोग आते ही रहेंगे। उनके आगे घूंघट लेना संभव नहीं है। और वैसे भी घूंघट का सम्मान से कोई संबंध नहीं है"।

"अब तो तुम साफ बदतमीजी पर उतर आयीं"।

"माँ जी, हमारा परिवार एक शिक्षित परिवार है। मेरी तीन भाभियाँ हैं। कोई भी घूँघट नहीं लेती"।

"तुम्हारे घर में क्या होता है? मुझे उससे मतलब नहीं। यह मेरा घर है और यहाँ घूंघट अनिवार्य है"।

"माँ जी, फिर आपने पढ़ी लिखी और नौकरी पेशा बहू की माँग क्यों रखी थी"?

"बात को ज्यादा तूल देने की जरूरत नहीं है। जो कहा जाय उतना करो"।

"माँ जी मैंने घूँघटऔर पर्दा प्रथा पर ही पी एच डी की है। अपनी थीसिस में इसकी खामियों को उजागर किया है। अब मैं खुद ही घूँघट निकालूंगी तो मेरा मखौल नहीं बनेगा"।

"मुझे तुम्हारी इन दलीलों में कोई रुचि नहीं है"।

"ठीक है तो फिर आप फैसला कर लीजिये। मुझे तो कालेज वाले वैसे भी कालेज कैंपस में रहने को दबाव डाल रहे हैं"।

***

चरित्र - लघुकथा

"वर्मा साहब, अपना सामान समेट लीजिये। आज और अभी आपको वृद्धाश्रम में जाना है”।

इतना कह कर वह युवक गुस्से में तेजी से निकल गया।

वर्मा जी का मस्तिष्क संज्ञा शून्य हो गया। वह सोचने पर विवश होगये कि आज उनका इकलौता पुत्र किस तरह व्यवहार कर रहा है।

कमिशनर जैसे बड़े पद से सेवा निवृत हुये करीब बारह साल हो गये। इस बीच पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया।

"आपने अभी तक पैकिंग नहीं की"? वही युवक पुनः बड़बड़ाते हुये आया|

"अचानक यह फ़ैसला, वह भी बिना मेरी रॉय जाने"?

"मि० वर्मा, आप एक परिवार के साथ रहने की विश्वसनीयता और भरोसा खो चुके हैं"।

"तुम शायद भूल रहे हो कि मैं तुम्हारा पिता हूँ"।

"मुझे याद है, इसीलिये आपको वृद्धाश्रम भेज रहा हूँ, अन्यथा अब तक आपको पुलिस को सोंप देता"।

"यह तुम क्या कह रहे हो राजीव बेटा"?

"मेरी पत्नी संगीता ने आरोप लगाया है कि जब मैं दौरे पर था आपने उसके साथ जबरदस्ती करने की चेष्टा की"|

"राजीव, यह झूठ है"|

" मुझे आपसे कोई स्पष्टीकरण नहीं चाहिये क्योंकि ऐसे आरोप आप पर नौकरी में भी लगे थे"।

"बेटा, आज तेरी माँ जीवित होती तो बता देती कि उन आरोपों में कितनी सच्चाई थी"?

"मुझे सब पता है, वह आरोप किसी यूनियन लीडर ने लगवाये थे। मगर यह मामला तो घर की बहू का है"।

वर्मा जी उस दिन को याद कर सोच में पड़ गये जब उन्होंने राजीव के प्रेम विवाह पर असहमति जताई थी।

उनको संगीता के घर का माहौल संस्कार विहीन लगा था। उसके पीछे उनके तर्क भी उचित थे।

क्योंकि शादी की किसी भी रस्म में संगीता के पिता ने सक्रियता से भाग नहीं लिया, उनकी जगह उनकी पत्नी का कोई मिलनेवाला ही सब कुछ कर रहा था।

लेकिन बेटे की खुशी और ज़िद के लिये उन्होंने यह रिश्ता क़बूल कर लिया था।

संगीता उन्हें कभी पसंद नहीं आयी क्योंकि उसका आचरण उनके प्रति भेदभाव पूर्ण रहता था।

उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद तो संगीता ने उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दे दी थी कि अपना और कहीं ठिकाना ढूंढ लो वरना फिर कहीं भी रहने लायक नहीं रहोगे।

लेकिन उनको अपने बेटे पर भरोसा था इसलिये वहीं बने रहे।

हालांकि यह कोठी उनकी ही थी । चाहते तो वे बेटे बहू को ही जाने के लिये कह सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया| क्योंकि उन्हें बेटे से असीमित प्रेम था।

इसी बीच राजीव फिर से फुफकारता हुआ पिता के कमरे में आया। इधर उधर नज़र दौड़ाई।

मि० वर्मा नहीं दिखे।

उनकी मेज पर एक पत्र रखा था।

"राजीव, मैं जा रहा हूं। सदैव के लिये| जब किसी रिश्ते में अविश्वास की दीवार बन जाती है तो एक घर क्या एक शहर में भी रहना मुनासिब नहीं होता। एक पिता की हैसियत से एक मशविरा है, भविष्य में किसी गंभीर मुद्दे पर निर्णय लेना हो तो दिल से नहीं दिमाग से लेना। दिल से लिये निर्णय गलत हो सकते हैं लेकिन दिमाग से नहीं। विश्वास और अंध विश्वास में यही फ़र्क होता है”|

मौलिक लघुकथा

तेज वीर सिंह "तेज"