Rishte ki dor in Hindi Short Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | रिश्ते की डोर

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रिश्ते की डोर

रिश्ते की डोर

माता-पिता की इकलौती संतान के रूप में उनके कुल को आबाद रखने का दायित्व अपने कंधों पर ढोता हुआ मैं अपने जीवन के चालीस बसंत पार कर चुका था , किंतु अभी तक मुझे अपने लिए कोई उपयुक्त जीवन-साथी नहीं मिल सका था । उधर बुढ़ापे की चौखट पर खड़े हुए माता-पिता का अत्यधिक दबाव था कि मैं शीघ्र-अतिशीघ्र विवाह संपन्न करके उनके वंश को आगे बढ़ाऊँ और उनके सेवा-निवृत्त जीवन को आनंदपूर्वक व्यतीत करने के लिए उन्हें एक जीता-जागता खिलौना भेंट करूँ।

चालीस वर्ष के मुझ नौजवान के लिए जीवन-साथी की खोज ने अब अभियान का रूप धारण कर लिया था , जिसमें मेरे साथ मेरे अनेक हितैषी मित्र और रिश्तेदार सम्मिलित थे । इसी अभियान की एक कड़ी के रूप में एक दिन मैं अपने एक मित्र के साथ उसकी गेट-टू-गेदर पार्टी में पहुँचा । वहाँ उस मित्र ने जिन संपन्न-सम्मानित लोगों से मेरा परिचय कराया , उनमें से एक का परिचय कुछ इस प्रकार हुआ -

"इनसे मिलिए ! यह हैं दीपांशु ! अर्थात मिस्टर दीपक और इनकी तीसरी पत्नी - अंशुलिका ! दोनों में परस्पर इतना अधिक प्रेम है कि नाम का अंतिम आधा भाग हटाकर यह मिस्टर दीप रह गये हैं और मैडम अपने नाम का अंतिम आधा भाग हटाकर अंशु रह गयी हैं ! और दोनों को मिलाकर बन गये हैं , दीपांशु ! उसी मित्र ने निकट ही DJ पर नृत्य कर रही एक अन्य महिला की ओर संकेत करके बताया , वह मिस्टर दीपक की दूसरे नम्बर की एक्स पत्नी हैं , जिससे इनका दो वर्ष पूर्व सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका है ।जिस सज्जन के साथ हमारी भाभी जी नृत्य का आनंद ले रही हैं, सुना है , अब उनके साथ गृहस्थी बसाने की योजना बना रही हैं । आनंद की बात यह है कि अब तक इस सज्जन की भी दो शादियाँ टूट चुकी हैं और गृहस्थी की गंगा में तीसरी बार डुबकी लगाकर अपना भाग्य आजमाने जा रहे हैं ।

उसी समय अचानक उस पार्टी में मुझे मेरे दो पुराने मित्र दिखाई दिये । वर्षों पहले मेरे उन दोनों मित्रों का विवाह संपन्न हो चुका था । मैं अपने उन दोनों मित्रों की पत्नियों को भली-भाँति पहचानता था , किंतु वह महिला , जो इस समय उनमें से एक मित्र के हाथ में हाथ डाले उसके बगल में खड़ी मेरे दोनों मित्रों के साथ हँसते-बतियाते हुए पार्टी का आनन्द ले रही थी , मेरी पहचान से परे थी । जिज्ञासा और उत्सुकतावश मैं उन दोनों मित्रों की ओर बढ़ गया । मित्रों से हाय-हैलो होने के पश्चात् बात आगे बढ़ी , तो ज्ञात हुआ कि वह महिला उन दोनों में से एक की दूसरी पत्नी थी । दूसरे मित्र का भी प्रथम पत्नी से विवाह-विच्छेद हो चुका है और इस समय एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा है । इतना देख-सुनकर मेरा इस समय ना केवल पार्टी से बल्कि विवाह संबध के नाम से भी मोहभंग हो गया था , इसलिए मैं घर वापिस आ गया ।

चूँकि मैं पुनर्जीवन में विश्वास नहीं रखता हूँ , इसलिए अपनी हिंदू संस्कृति के अनुसार मैं सात फेरों के बंधन को सात जन्मों का या जन्म-जन्मांतर का संबंध तो नहीं मानता हूँ , किंतु वर्तमान लौकिक जीवन में दांपत्य सुख के लिए दम्पति के बीच प्रेम और विश्वास के दृढ़ सूत्र को जीवन के आनंद का आधार अवश्य मानता हूँ । यद्यपि मैं स्त्री की शारीरिक-पवित्रता को ढकोसला मानकर खारिज करता हूँ , तथापि स्त्री-पुरुष दोनों के मन की पवित्रता में मेरी पूरी आस्था है । मैं सोचता हूँ कि कोई भी संबंध-सूत्र तभी तक स्थायी रहता है , जब तक उस संबंध-सूत्र में बंधे हुए लोगों का मन पवित्र रहता है । जिस अनुपात में उनका अन्तर्मन स्वार्थ और अविश्वास से अछूता रहेगा , उसी अनुपात में उनका दाम्पत्य समन प्रेम-त्याग और विश्वास से परिपूर्ण रहता है ।

पार्टी संपन्न होने के पश्चात घर आकर मैं अपनी सोच के आधार पर अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण करने लगा कि पाश्चात्य देशों की भाँति अपना देश भी अब प्रगतिशील बन गया है । अपने देश में भी लोग अपना जीवन-साथी अपने मन के अनुरूप चुन सकते हैं ,साथ ही जीवन-साथी अपनी रुचि-आवश्यकता के अनुरूप नहीं होने पर शीघ्र ही विवाह-विच्छेद हो जाता है और लोग अपनी इच्छा अनुसार दूसरा-तीसरा-चौथा , जब तक चाहें, जितने चाहे , जीवन-साथी बना सकते हैं ।

किंतु , अपने विषय में यह सब कल्पना करते ही मैं घबराहट से काँपने लगा । मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी । एक वाणी मेरे कानों में गूंजने लगी - "यह भी कोई जीवन है ! जीवन की स्वर्णिम आयु तो साथी बदलते-बदलते ही बीत जाएगी, जीवन का आनंद क्या खाक मिलेगा ? जीवन में प्रेम के बिना आनंद नहीं है । प्रेम का पौधा तभी पुष्पित-पल्लवित होता है , जब उसको त्याग-तपस्या और विश्वास के जल से सींचा जाता है ।"

मैं सोचने लगा, प्रेम करने का हुनर तो मुझे प्रकृति से मिला ही नहीं है ! पिछले पन्द्रह वर्षों से यही प्रयोग करता रहा हूँ कि पहली नजर में जिस लड़की से प्रेम हो जाएगा , उसी को जीवन-साथी बनाऊँगा ! मित्रों-परिचितों, रिश्तेदारों के माध्यम से भी और अपनी लगन से भी आज तक सैकड़ों लड़कियों के साथ इसी विचार से भेंट की है , परंतु प्रेम कभी किसी से कहीं भी नहीं हो सका । तभी एक निराशाजनक स्वर मेरे अंदर से उभरता है - "तेरे सीने में कोमल हृदय है ही नहीं, जो प्रेम कर सके ! किसी जोहरी की भाँति हीरे रूपी किसी लड़की के ग्राह्य-मृदु मनोभावों को परखने में तेरी दृष्टि अक्षम है !"

अपनी ही आवाज में अपने दृष्टिकोण को सुनते-समझते हुए पितृ-ऋण, देव-ऋण से उऋण होने का कोई अनुकूल मार्ग न पाकर मैं निराशा एवं अपराध-बोध की ग्लानि के भँवर में डूबता जा रहा था । मैं मेरी समस्या पर विचार करने लगा कि एक और परम्परागत ढंग से विवाह करके नितांत अपरिचित लड़की को अपना जीवन-साथी बनाना मेरे लिए कठिन है , तो दूसरी ओर किसी परिचित लड़की के साथ जीवन के चालीस बसंत पार करके भी जीवन-साथी के रुप में भावात्मक संबंध स्थापित नहीं हो पाया है । एक सप्ताह पश्चात् दिल्ली के लिए मेरा स्थानांतरण होने वाला था । दिल्ली जाते हुए माता-पिता की अपने पुत्र के प्रति आशा भरी दृष्टि का कैसे सामना कर पाऊँगा, मेरे समक्ष यह अनुत्तरित प्रश्न पहाड़ बनकर खड़ा हुआ था । इस समस्या का समाधान ढूँढ पाना मेरे लिए इतना सरल नहीं था , जितना मेरे माता-पिता समझते थे ।

अपनी इसी समस्या के साथ स्थांतरित होकर दिल्ली आ गया । एक सप्ताह बीतते-बीतते मेरा परिचय मेरे ऑफिस के अनेक साथी अधिकारियों के साथ हो चुका था , जिनमें महिलाएँ भी थी और पुरुष नहीं भी थे । एक सप्ताह पश्चात् मैं अपनी इसी समस्या के भँवर में फंसा हुआ अपने केबिन में बैठा हुआ कुछ फाइलें उलट-पलट कर रहा था , अचानक मेरे कानों में एक झन्नाटेदार थप्पड़ का स्वर सुनाई पड़ा । थप्पड़ का स्वर मेरे बगल वाले केबिन की ओर से आया था , जहाँ मेरी समकक्ष एक महिला अधिकारी बैठती थी । जिज्ञासावश में यथाशीघ्र अपने केबिन से बाहर निकला , तो देखा कि मेरे सभी सहकर्मी अपने-अपने केबिन के बाहर खड़े थे । उन सभी की करणेन्द्रियों का लक्ष्य मेरे बगल वाला केबिन और मनःमस्तिष्क का लक्ष्य केबिन के अन्दर होने होने घटना क्रम था । कोई कुछ समझ पाता, उससे पहले ही अगले क्षण एक और थप्पड़ का स्वर उभरा और इसी के साथ महिला अधिकारी क्रोध में पैर पटकते हुए अपने केबिन से बाहर निकली ।

महिला अधिकारी को केबिन से बाहर निकलते हुए देखा , तो तत्क्षण सभी ने अपने-अपने केबिन के अंदर प्रवेश कर लिया । किन्तु , सभी का मनःमस्तिष्क अभी भी महिला अधिकारी के केबिन में अटका पड़ा था , इसलिए अपने-अपने केबिन के अंदर जाने के बाद भी सभी के आँख-कान और मनःमस्तिष्क उधर ही लगे हुए थे । कुछ क्षणोंपरांत हम सभी ने महिला अधिकारी के केबिन से एक वरिष्ठ अधिकारी को बाहर निकलते देखा , तो सद्य घटनाक्रम का अनुमान सभी ने अपने-अपने ढंग से लगा लिया था , क्योंकि मेरे अतिरिक्त वे सभी जानते थे कि वह वरिष्ठ अधिकारी सभ्य समाज में नैतिकता के नाम से अभिहित किए जाने वाले आचरण को वहन करने में विश्वास नहीं करता ।

उस दिन के पश्चात् उस अधिकारी को उस महिला के केबिन में दुबारा कभी नहीं देखा गया । मुझे मेरे ऑफिस के ही कुछ सूत्रों से ज्ञात हुआ था कि महिला की शिकायत पर उस पुरुष अधिकारी को उसी दिन सस्पेंड कर दिया गया था ।

उस दिन के उस घटनाक्रम के पश्चात् मैं महिलाओं के साथ व्यवहार के विषय में बहुत सावधान हो गया था । मुझे स्वयं ही ऐसा अनुभव होता था कि उस महिला अधिकारी की आक्रामकता का अनुमान करके मैं एक पुरुष होने के नाते महिला शब्द से भयभीत होने लगा हूँ । किंतु इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि उस घटना के बाद से मेरे अंदर का पुरुष एक बहुत ही श्रेष्ठ सज्जन नवयुवक बनकर बाहर निकलने लगा है , जो चाहता है कि मेरी श्रेष्ठता-सज्जनता की ओर किसी और का ध्यान जाए या ना जाए , पर उस महिला अधिकारी का ध्यान अवश्य जाए ! स्थिति यह हो गयी थी कि मेरा ध्यान काम करने की अपेक्षा इस विषय पर अधिक केंद्रित रहने लगा था कि उस महिला अधिकारी का दृष्टिबोध मेरी नव-पुष्पित सज्जनता के प्रति कैसा है ? सेकेंड , घंटे और दिन यही सोचते-देखते बीतने लगे । यहाँ तक कि मैंने दोपहर का भोजन करने के लिए कैंटीन जाना भी छोड़ दिया । जिस समय वह घर से बनाकर लाये हुए भोजन का आनंद लूटती थी , भोजन के उस समय को मैं अपने केबिन में फाइल उलटते-पलटते हुए काटता था । महीनों इसी प्रकार बीत गये , किन्तु , उसने मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया । इस स्थिति से निराश तो नहीं था किंतु उदास अवश्य था । उससे भी अधिक मैं स्वयं ही इस प्रकार के व्यवहार से विस्मित था और बार-बार एक ही प्रश्न में उलझ कर रह जाता था कि आखिर मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ ? इस प्रश्न का उत्तर मुझे प्रायः मेरे मस्तिष्क से जल्द ही मिल जाता था । इसके पश्चात् एक नया प्रश्न सिर उठा कर खड़ा हो जाता था , आखिर ऐसा क्या करूँ कि मुझे मेरे उद्देश्य में शत-प्रतिशत सफलता मिल जाए ?

यद्यपि मैं अपने कार्य में निपुण था तथापि अपनी उदासी से बाहर आने के लिए तथा अपने उद्देश्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए मैं ऑफिस में नया-नया होने का लाभ उठाकर अनेक बार उस महिला अधिकारी से किसी फाइल के विषय में सहायता लेने के बहाने उसके केबिन में जाने लगा । जब वह अपनी कठोर पारखी दृष्टि से मुझे घूरती , तब सज्जनता के आवरण में लिपटा हुआ मेरे अंदर का पुरुष अपनी शालीनता का परिचय देकर आंशिक तृप्ति का अनुभव करता था ।

महीने यूँ ही बीत गये । पाँच माह पश्चात् मेरे जीवन में उदासी के अंधकार को निगलता हुआ उषा का आलोक तब दिखाई दिया , जब एक दिन दोपहर को भोजन अवकाश के समय वह महिला अधिकारी मेरे केबिन में आकर बोली -

"तुम्हें भूख नहीं लगती ?" उसके प्रश्न का क्या उत्तर दूं , मुझे समझ में नहीं आ रहा था, फिर भी मैंने कह दिया -

"भूख ? लगती है !"

"आपको कभी खाना खाते तो नहीं देखा ? महिला अधिकारी ने पुनः प्रश्न किया ।

"मुझे कैंटीन का खाना पसंद नहीं है ना ! सुबह ऑफिस आने की जल्दी होती है , इसलिए सुबह के समय खाना नहीं बना पाता हूँ । शाम को ऑफिस से लौटकर जी भर पकाता हूँ , पेट भर खाता हूँ !"

"आप स्वयं खाना पकाते हैं ?"

"हाँ ! क्यों ? स्वयं खाना पकाना कोई गुनाह है क्या ?"

"नहीं-नहीं , मेरे कहने का तात्पर्य था, घर में आप अकेले रहते हैं क्या , कि सब कुछ स्वयं ....?"

"घर में तो मम्मी-पापा और एक छोटी बहन के साथ रहता था , परन्तु मेरा घर इस शहर में नहीं है !"

मेरे उत्तर से संतुष्टि प्रकट करते हुए उस महिला अधिकारी ने लंबी साँस खींचते हुए सहमति में गर्दन हिला दी । इसके पश्चात् उस दिन उसने मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछा । बस, कुछ क्षणों तक मुझे निर्निमेष निहारती रही और अगले कुछ क्षणोंपरांत वहाँ से उठकर अपने केबिन में चली गयी ।

अगले दिन वह भोजन-अवकाश के समय मेरे केबिन में आयी , लेकिन आज उसके हाथों में भोजन का डिब्बा (लंच बॉक्स) था । आते ही उसने भोजन का डिब्बा मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा -

"घर का बना हुआ है , खा लेना !" कहते हुए वह मेरे केबिन से शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल गयी । भोजन के डिब्बे के साथ उसकी भाव-भंगिमा , उसका व्यवहार देखकर मैंने उसकी ओर आश्चर्य तथा प्रश्नात्मक मुद्रा में देखा , लेकिन मेरी ओर देखे बिना ही वह सीधे अपने केबिन में चली गई और अपना टिफिन खोलकर भोजन करने के लिए बैठ गयी । मैं कुछ मिनट तक उसको निर्निमेष देखता रहा , सोचता रहा उसके डिब्बे में से भोजन खाऊँ या नहीं खाऊँ ?

लगभग 10 मिनट पश्चात् मैं भी उसके लाये हुए भोजन के डिब्बे से भोजन निकाल कर खाने लगा । ऐसा केवल उस दिन ही नहीं हुआ , बल्कि उस दिन के पश्चात् भी भोजन-अवकाश के समय वह मेरे लिए भोजन का डिब्बा लेकर मेरे केबिन में आती रही और इतनी शीघ्रता से मेरे केबिन से बाहर निकलती कि मैं धन्यवाद तक ना कह पाता ।

एक तो घर का बना हुआ स्वादिष्ट-पोष्टिक भोजन और दूसरे मैडम स्वयं मेरे केबिन में आकर मुझे देती थी , यह सब मुझे दो-चार दिन बहुत अच्छा लगा , लेकिन उसके बाद मैडम के उस रूखे व्यवहार से मैं क्षुब्ध हो उठा । मुझे एहसास होने लगा कि मेरी मंजिल मात्र घर का बना हुआ स्वादिष्ट-पोष्टिक भोजन नहीं , कुछ और है । अपने मन की यह बात मैं यथाशीघ्र उसको समझा देना चाहता था । अपनी मंजिल का पुनःस्मरण होने के पश्चात मैं अपने भाव उस तक पहुँचाने के लिए प्रतिक्षण ऐसा कोई उपाय खोजने लगा , जिससे मेरे प्रति उसको अपने रूखे व्यवहार का एहसास हो जाए ।

चौथे दिन ऑफिस में प्रवेश करने से पहले ही मैंने निर्णय कर लिया कि आज उसका भोजन का डिब्बा स्वीकार नहीं करूँगा । भोजनावकाश का समय होते-होते मेरी धड़कने बढ़ने लगी और मेरा अंतः द्विधा विभाजित होकर स्वयं से ही संघर्ष करने लगा । मेरे अंतःकरण से दो परस्पर-विरोधी आवाजें आने लगी थी। एक आवाज संकेत कर रही थी -

"जो मिल रहा है, उसी में संतोष कर ले !" दूसरी आवाज का संकेत था -

"जो तू चाहता है , बाधाओं की परवाह किए बिना उस दिशा में आगे बढ़ !"

पहला संकेत मेरे भौतिक लाभ को किसी सीमा तक सुनिश्चित करता था , भले ही वह मेरी अपेक्षा की तुलना में बहुत कम था । जबकि दूसरा संकेत मुझे मेरे लक्ष्य प्राप्ति की गारंटी देने के बजाय वर्तमान में मिल रहे सीमित लाभ से भी वंचित करता था । फिर भी , मेरा मन दूसरे संकेत को ही परिपुष्ट कर रहा था ।

सोचते सोचते वह क्षण आ गया , जब उसने प्रतिदिन की भाँति मेरे केबिन में प्रवेश किया और भोजन का डिब्बा मेरी ओर बढ़ाकर - "खा लीजिएगा !" कहते हुए डिब्बा मेज पर रखकर शीघ्रतापूर्वक बाहर निकलने लगी ।

"नहीं-नहीं , आज रहने दीजिए !"

मैंने मेरे केबिन से बाहर निकलती हुई महिला अधिकारी से कहा ।

"क्यों ?"

"रोज-रोज मेरे लिए ऐसे आपका भोजन लाना मुझे असहज करता है !"

मेरा नकारात्मक उत्तर सुनकर वह पलटी , उदास दृष्टि से मुझे घूरकर देखा और उदास मन से भोजन का डिब्बा वहीं छोड़कर मेरे केबिन से बाहर निकल गयी। मैंने देखा , आज उसने अपने केबिन में जाकर जल्दी-जल्दी अपना भोजन का डिब्बा खोलकर भोजन नहीं किया , जैसे सदैव करती थी । वह यूँ ही गर्दन झुकाये उदास मुद्रा में बैठी रही । लगभग 15 मिनट तक चोर-दृष्टि से मैं उसको देखता रहा । उसका वह चेहरा , जो पिछले कई दिन से प्रसन्नता से दमकता हुआ दिखता था, आज मुरझा गया था । उसके मुरझाये चेहरे का कारणभूत उसके साथ मेरे द्वारा किए गए व्यवहार को अनुभव करके मैं ग्लानि से भर गया था । अतः मैं उठा , भोजन का डिब्बा उठाया और सीधे उसके कैबिन में जाकर सॉरी कहते हुए बैठ गया । कुछ क्षणोंपरांत मैंने भोजन का डिब्बा खोलकर भोजन का आधा भाग उसकी मेज पर रख दिया और दूसरे आधे भाग को स्वयं खाते हुए कहा-

"आप खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती हैं !"

मेरे मुँह से पहली बार अपनी प्रशंसा सुनकर उसने मुझे कठोर दृष्टि से घूरकर देखा । उसके मनोभाव को समझते हुए मैंने पुनः कहा -

"दरअसल , मुझे एक साथी की तलाश है , जो मुझे समझ सके ; मेरे साथ मैत्री-संबंध रखते हुए संबंध की न गरिमा को समझ सके !"

"जब तक आप स्वयं दूसरों को समझने में समर्थ नहीं है , आप किसी दूसरे से इस प्रकार की आशा-अपेक्षा रखने के अधिकारी नहीं हो सकते , मैं ऐसा समझती हूँ !"

"मैडम, मैं दूसरों को समझने की सामर्थ्य रखता हूँ , इसलिए अपनी सीट से उठकर आपके कैबिन तक आया हूँ !"

शायद मेरे उत्तर से वह आश्वस्त हो गयी थी कि मैं इतना भी अभद्र नहीं हूँ , जितना वह समझ बैठी थी । बातें करते-करते मैं भोजन कर रहा था और मेरे आग्रह पर उसने भी भोजन करना आरंभ कर दिया था । भोजन करते-करते मैंने पुनः कहना आरंभ किया -

"मैं इतना भी बुरा नहीं हूँ , जितना बुरा समझकर आप मुझसे नाराज हो गयी थी । दरअसल, इन दिनों मैं मम्मी-पापा का बहुत अधिक दबाव झेल रहा हूँ ! वे चाहते हैं , मैं शीघघ्रातिशीघ्र विवाह कर लूँ ! इतना ही नहीं , वे चाहते हैं , मैं उनके जीते-जी उनकी वंशबेलि को आगे बढ़ाऊँ !"

"इसमें कौन-सी नई बात है ! सभी के मम्मी-पापा यही चाहते हैं ! उनके मम्मी-पापा ने भी उनसे यही चाहा होगा !"

"इसमें नयी बात है , मैडम ! हाँ , उनके मम्मी-पापा ने भी यही चाहा होगा , लेकिन , तब और बात थी !"

"अच्छा ! वह कैसे ?"

"मैंने बचपन से देखा है , जब कभी मेरी दादी का दादा जी के साथ झगड़ा होता था ; नोक-झोंक होती थी, तब दादी तुनककर मायके चली जाती थी और एक-दो दिन या अधिक से अधिक एक सप्ताह के अंदर पापा जाकर उन्हें ही वापिस ले आते थे अथवा पापा की प्रतीक्षा किए बिना ही वे स्वयं अपने पारिवारिक दायित्वों की चिंता करके घर वापिस लौटा आती थी । इसी तरह जब मम्मी का पापा के साथ झगड़ा होता था, तो मम्मी भी नानी के घर चली जाती थी । अपने घर -परिवार की चिन्ता करके वे भी एक-दो दिन में ही वापिस लौट आती थी । लेकिन , पिछले कुछ दिनों से मैंने समाज में देख रहा हूँ , जरा सा मनमुटाव होते ही रिश्ते मिट्टी के घड़े की भाँति टूट रहे हैं , जो टूटने के बाद अपने पुराने रूपाकार को धारण कर ही नहीं पाते हैं ! मैंने देखा है कि दम्पति छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे से संबंध-विच्छेद करके नया जीवन-साथी चुन लेते हैं ! यह नया संबंध कुछ दिन तक टिका रह सकता है , इसकी भी कोई गारंटी नहीं है ! यही नहीं , नई पीढ़ी के बच्चे भी इतने उग्र हो रहे हैं कि बहुत छोटी-छोटी बात पर क्रोधित होकर वह अपने मित्रों को चोटिल कर देते हैं ; हत्या तक कर देते हैं !"

उसने झुंझलाकर मुझसे कहा -

"मुझसे क्या चाहते हैं आप ?"

"कुछ नहीं ! आप भोजन अस्वीकार करने के मेरे रूखे व्यवहार से नाराज हो गयी थी , उसके लिए क्षमा याचना करने के लिए आया था कि अपनी व्यथा-चिंता में डूबे हुए मैंने अनजाने में ... !" कहते हुए मैं उठा और उसके केबिन से बाहर आने लगा । उसी क्षण उसने पीछे से मुझे पुकारा -

"मुझे भी एक साथी , मेरा तात्पर्य है , जीवनसाथी की तलाश है , जो संबंधों को इलास्टिक की तरह लचीला बनाना जानता हो ! सूखी-कठोर लकड़ी की तरह न हो , कि जरा सा मोड़ आते ही टूट जाए और उसके टूटे हुए छोर अपने संपर्क में आने वालों को घायल कर जाएँ !"

"इस विषय में मुझसे क्या चाहती हैं आप ?"

"यह बताना चाहती हूँ कि आपके व्यवहार से नाराज होकर मैं अपने कैबिन में नहीं आई थी , बल्कि आपके विषय में मैंने जो सोचा था , कुछ क्षणों के लिए उसके प्रतिकूल परिणाम आने पर निराश हो गई थी ! और यह भी बताना चाहती हूँ कि अब मुझे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा है कि आप शायद मेरी आशाओं अपेक्षाओं के अनुरूप मेरे जीवन-साथी हो सकते हैं ! शायद ...!"

"मैडम , आपके द्वारा बोले गये 'कुछ-कुछ' और 'शायद' जैसे शब्दों ने संबंध जुड़ने से पहले ही मेरे मन में टूटने का भय उत्पन्न कर दिया है !"

"मैं भी इस भय की शिकार होकर जीवन के सैंतीस बसंत पार कर चुकी हूँ और आज इसी निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि जो संबंध जोड़ा जाए , छोटी-छोटी बातों पर उसे तोड़ने से बचते हुए उसके प्रति अपने कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह करना चाहिए ! मैंने मेरी बुआ को देखकर जाना-समझा है कि जब कोई संबंध टूटता हैं , तब उससे प्रभावित व्यक्ति भी टूटते हैं ! ये टूटे हुए व्यक्ति अपने जीवन-भर अन्यत्र संबंध जोड़कर स्वयं को जोड़ने का मिथ्या प्रयास करते रहते हैं , पर कभी , कहीं, किसी से जुड़कर पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाते हैं !" उसने गम्भीर-विचारपूर्ण मुद्रा में कहा ।

" तो , बेहतर यह रहेगा कि जब तक हमारे मैत्री-सम्बन्ध में प्रेम-विश्वास की पूर्णता न आए , तब तक हम साथी ही रहें,, जीवन-साथी नहीं ! इस विषय में आपका क्या मत है ?"

"मैं तो आपके मत से सहमत हो सकती हूँ , लेकिन शायद आपके मम्मी-पापा आपके इस मत से सहमत न होंगे !" कहते हुए वह व्यंग्यात्मक और परिहासपूर्ण मुद्रा धारण कर चुकी थी । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मेरे मनःमस्तिष्क पर से मेरा स्वयं का नियंत्रण छूटता जा रहा है और मेरा दिल-दिमाग और दृष्टि उसके साथ एकात्म हो रहा है । इसी करम में मेरे मुख से अनायास ही निकल गया -

"शायद !" और मैं ठहाका लगाकर हँस पड़ा और लगातार हँसता रहा । जब से मैं अपने मम्मी-पापा कथित समझदार बेटा बना हूँ , या यह कहूँ कि जब से मैंने इस दुनिया के नियमों-कानूनों को समझने का दावा किया है , आज तक कभी इस प्रकार खुलकर नहीं हँसा ! लेकिन, आज मैं जी-भर हँसा ; मर्यादा की सारी सीमाएँ तोड़कर हँसा ! मुझे इस प्रकार हँसता देखकर वह स्वयं को हँसने से नहीं रोक पायी और वह भी मेरे साथ हँसने लगी थी । शायद वह भी समझदार होने के बाद आज पहली बार नासमझ हो गयी थी और इतनी नासमझ कि ऑफिस की मर्यादा की सीमाओं को भूल गयी थी ।

"हा-हा-हा-हा-हा-हा.!!!"

हम दोनों तब तक हँसते रहे , जब तक हम थककर चूरचूर नहीं हो गये । हम थक गये थे , किन्तु हमारा हँसना जारी था ।

अचानक उसका हँसना बन्द हुआ और उसने धीमे स्वर में कहा -

"हम ऑफिस में हैं !"

"शायद !" 'शायद' कहते ही न जाने क्यों ? मैं फिर हँसने लगा ।

निरन्तर हँसते हुए आज मुझे अपूर्व सुखद अनुभूति हो रही थी , जैसी आज से पहले कभी नहीं हुई । ऐसा लग रहा था , जिस अनचाहे बोझ को मैं वर्षों से ढोता आ रहा था , आज मैंने वह बोझ एक ही झटके में उतार फेंका है ।

लेकिन , इस बार वह नहीं हँसी । मैंने देखा , उसके चेहरे पर लज्जा-मिश्रित असमंजस का भाव , आँखों में भय-मिश्रित प्रसन्नता और होंठों पर मृदु मुस्कुराहट थी , लेकिन वह अब भी चुप थी । उसकी मौन संकेत और जीवंत भाव-भंगिमा को पढ़कर मैं स्वयं से बाहर आया , तो मैंने देखा , केबिन के बाहर हमारे सहकर्मियों की भीड़ हमें विचित्र दृष्टि से घूर रही थी ।

उसी क्षण मुझे हमारे वरिष्ठ अधिकारी का संदेश मिला कि मैं उनके केबिन में जाकर उनसे मिलूँ । संदेश मिलते ही मैं अधिकारी के केबिन की ओर चल दिया और बुलाए जाने के कारण का अनुमान लगाते हुए मैंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया -

"मैं नौकरी छोड़ दूँगा , लेकिन , कथित समझदारी का बोझ अब दुबारा कदापि नहीं ओढूँगा !"

खैर, जब मैं वहाँ से वापिस लौटा , वह अपने केबिन में नहीं थी । मैं स्वयं से ही पूछने लगा , "कहाँ गयी होगी ? क्यों गयी होगी ? क्या मेरे व्यवहार से खिन्न होकर गयी होगी ? शाम तक बहुत व्यग्रतापूर्वक मैं अपने प्रश्नों में उलझा रहा और बेचैन होकर उसकी प्रतीक्षा करता रहा । आज से पहले मैं कभी किसी लड़की के लिए इतना बेचैन नहीं हुआ था । अन्ततः जब ऑफिस छोड़ने का समय हुआ , मेरी दृष्टि मेज पर करीने से रखे हुए एक कागज पर पड़ी , जिस पर लिखा था-

"कल अपने मम्मी-पापा को मेरे मम्मी-पापा से मिलाने के लिए मेरे घर पर लेकर आना ! हमारे नाजुक रिश्ते को ऐसी मजबूत डोर में वही बांध सकते हैं , जिसे तोड़ना हम दोनों के लिए सरल नहीं होगा !"

नीचे की एक पंक्ति में घर का पता लिखा था ..।

कागज के इस टुकड़े को पढ़कर यद्यपि मुझे मेरे सभी प्रश्नों का सुकून भरा उत्तर मिल गया है और उसके उत्तर ने मेरे हृदय में अभूतपूर्व आशा-विश्वास का संचार किया है , तथापि वर्तमान समाज में संबन्धों की गिरती गरिमा की काली छाया एक अनजानी आशंका बनकर मेरे आशा-विश्वास पर उसी प्रकार मंडरा रही है , जैसे पूर्णिमा की रात में राहु-केतु चंद्रमा को कांतिहीन करने का प्रयास करते हैं । मेरे हृदय के प्रेम-विश्वास का संबल पाकर भी वह पुराना प्रश्न मेरा पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है -

"सात जन्मों तक न सही , आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ते हुए भी क्या हम कम-से-कम इस जन्म में मरते दम तक 'जीवन-साथी' बने रहेंगे ?"

नवांकुरित प्रेम की मधुर-रंगीन कल्पनाओं में डूबे हुए मेरे हृदय से मुझे धीमें मृदु स्वर में उत्तर मिलता है -

"शायद !"