मैं बहुत दिनों से पापा से ज़िद कर रही थी -" पापा कहीं घूमाने ले जाओ,कहीं लेकर नहीं जाते। सारी छुट्टियां ऐसे ही ख़त्म हो जाती हैं। " पापा ने कहा -"ठीक है इस रविवार को चलेंगे ". मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। मैंने शनिवार से ही पापा को याद दिलाना शुरू कर दिया-" पापा कल कहीं मत जाना ,हमे घूमने जाना है। चलोगे ना बस एक बार हाँ कर दो फिर तो जाना ही पड़ेगा। क्युकि झुठ बोलना गन्दी बात है। " पापा ने कहा -" कल पोलियो रविवार है। मेरी ड्यूटी लग सकती है। " पहले कहा क्यों था ?हर बार ऐसे ही करते हो ". . और मैं नाराज़ होकर चली गयी।
अगले दिन सुबह ही पापा कहीं गए ,सबने सोचा किसी काम से गए होंगे। पर पापा ने आकर कहा -" अभी तक तैयार नहीं हुए ,घूमने नहीं जाना क्या ? मैंने गाडी कर दी है। ९. बजे तक आजायेगी। जल्दी करो। " "पापा सच में ??" मैंने पूछा। पापा ने कहा -"फिर तू सारे दिन नाराज़ रहती। तुझसे तो डरना ही पड़ता है। " पांच अप्रैल का दिन मेरे लिए यादगार बन गया। मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं। हम दोनों एक दूसरे से बात किये बिना एक दिन भी नहीं रह सकते।
हमने जल्दी जल्दी पैकिंग की। और चल दिए एक सुहाने सफर की ओर। वैसे मैं बहुत लकी हु सब मुझे बहुत प्यार करते हैं। घर में भी और कॉलेज में भी। अपने कॉलेज की फेवरेट स्टूडेंट हु मैं। बड़े भैया भी मुझे चिढ़ाते रहते हैं ये पत्रकार जो कर दे थोड़ा है। ठीक दस बजे हम अपनी गाड़ी से सिद्धबली के लिए चल दिए। भैया भाभी ,मम्मी और मेरी छोटी बहिन विनय हम सब एक साथ जा रहे थे। मैं बहुत खुश थी। आँखों में रंगीन सपने लिए और गाने सुनते हुए हम चले जा रहे थे। मैं हमेशा खिड़की की ओर बैठती हु ,मुझे खिड़की से प्रकृति को निहारना बहुत अच्छा लगता है। उस दिन मौसम कुछ अधिक ही सुहावना हो रहा था। हवा ठंडी ठंडी मस्त होकर बह रही थी। ऐसा लग रहा था ये पेड़ भी मेरी ख़ुशी में खुश होकर नाच रहे है। रस्ते में एक जगह पेड़ काटे जा रहे थे। वो पेड़ गिरने ही वाला था ,हमने गाड़ी कुछ दुरी पर ही रोकी। वो सरकारी पेड़ थे। भैया ने बताया -" ये लिप्टिस के पेड़ है। इनका सरकारी ठेका होता है। देखते ही देखते मज़दूरों ने पेड़ काट भी दिया और रास्ता भी साफ़ कर दिया। भैया ने मेरा ध्यान सामने की तरफ फैले कोहरे से ढके हुए पहाड़ो की ओर दिलाया। वहां चारो तरफ आसमान से बाते करते ऊँचे ऊँचे पहाड़ थे। आगे का रास्ता और भी खूबसूरत था। पहाड़ो को काटकर सड़क बनायीं गयी थी। हम पहाड़ के बीच में से गुजरे। सड़क के एक तरफ पहाड़ और एक तरफ बेहता निर्मल पानी का झरना। वहां पर घर पास पास नहीं बने थे। दूर दूर थे। मैदानी इलाको में सभी घरो की छते आपस में जुडी रहती है। लेकिन वहां ऐसा नहीं था।
पहाड़ी लोग सच में बहुत मेहनती होते है। कैसे बिखरे -बिखरे समूह में रहते हैं। बाजार व् अन्य सुविधाएँ भी घर से बहुत दूर। कैसे रहते होंगे ये ? यह सब सोचते सोचते सिद्धबली का मंदिर भी आगया। ड्राइवर ने गाडी पार्क की। वहां का दृश्य बहुत ही सुन्दर व् अद्भुत था। मंदिर ऊंचाई पर बना हुआ था. खूब सारी सीढ़ियां बनी हुई थी। लेकिन जोश कुछ ज़्यादा ही था। मैं भागकर ऊपर चली गयी। इतना मम्मी ,भैया-भाभी आये मैंने फोटोग्राफी की। मंदिर के चारो ओर गंगा के बहने का मार्ग था। लेकिन उस समय पानी सूखा हुआ था. कहीं कहीं थोड़ा बहुत पानी था जिसमे बच्चे नहा रहे थे। ऊपर से देखने पर सब बहुत छोटे लग रहे थे। चारो तरफ खुला आसमान था ,दूर -दूर तक कोई बिल्डिंग नहीं थी। दूर कही कुछ होटल जैसा दिखाई दे रहा था। मंदिर के निचली तरफ शायद एक बस्ती भी थी। अकेले उस बस्ती में जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। फिर मैं मम्मी और भाभी के साथ बालाजी के दर्शन करने चली गयी। वहां की व्यवस्था अच्छी थी। सब लाइन में थे। मैं मम्मी को पकड़कर चल रही थी क्युकी चल आगे रही थी देख चारो तरफ रही थी। मंदिर की दीवारों व् छतों पे नक्काशी से बनी खूबसूरत पेंटिंग थी। मैं उन्हें देखने में ही मस्त थी पता ही नहीं चला कब मम्मी आगे चली गयी और मैंने किसी आंटी को पकड़ा हुआ था। जब होश आया तो हसी भी आयी इस पागलपन पर , बिना कुछ कहे मुस्कराकर आगे बढ़ गयी। अंदर हनुमान जी की एक बहुत बड़ी मूर्ति थी। वहां गुड़ की भेली ,बताशे और नारियल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। भाभी ने पुजारी को चढाने के लिए प्रसाद दिया उन्होंने आधा चढ़ाकर हमे वापिस कर दिया। फिर हमने मंदिर की परिक्रमा की।
मंदिर के निचले हिस्से में एक जलकुंड था जिसमे सूंदर फूल खिले हुए थे। मैं वहां जाना चाहती थी लेकिन सब आगे जा चुके थे। भागकर पहले उन्हें पकड़ा। यहाँ से १५-२० किमी दूर एक जगह है दुगड्डा। करीब १ बजे हम वहां पहुंचे। वहां सड़क पर एक बस गेट बना हुआ था। अंदर शेरोवाली का एक छोटा सा मंदिर था। मंदिर से नीचे की और सीढिया जा रही थी. देखने में तो छोटा था पर बहुत अच्छा बना था मंदिर। जैसे ही अंदर पहुंचे वहां एक बड़ा हाल था वहां एक शिवलिंग भी था। पास में ही पहाड़ के अंदर गुफा जैसा कुछ था। पहले तो मैंने डर के मारे दूर से हाथ ही जोड़ लिए फिर सोचा चलकर देखे आखिर है क्या अंदर ?डरते -डरते मैं अंदर गयी वहां प्रकाश की एक किरण दिखाई दी। वहीं बराबर में ज्योत जल रही थी और प्रसाद चढ़ा हुआ था ,यहाँ ऐसे ही भगवान जी होंगे यही सोचकर मैं वहीं प्रणाम करके बाहर आ गयी।
मंदिर से नीचे की तरफ सीढ़ियां जा रही थी और वो सीढ़ियां हमे प्रकृति की गोद में छुपी एक खूबसूरत जगह ले गयी। वहां चरों तरफ ऊँचे -ऊँचे पहाड़ थे। नीचे बहुत बड़े बड़े पत्थर थे। कहीं कहीं पानी का स्रोत बह रहा था। पता नहीं कहाँ से आरहा था। धुप में भी वहां बहुत ठंडक महसूस हो रही थी। वहां कुछ लोग नहा रहे थे कुछ जोड़े पानी में मस्ती कर रहे थे कहीं बच्चे खेल रहे थे। हम नहीं एक सुरक्षित सी जगह देखकर आगे बढे। एक ऊँचा पर चौड़ा पत्थर था। हम उसी पर चढ़ गए। वहीं बैठकर हमने भोजन किया। जिस पत्थर पर हम बैठे थे उसके दूसरी और पानी का एक झरना बह रहा था। हम मम्मी से आज्ञा ले नीचे उतरने लगे। वहां पत्थर पड़े हुए थे। पानी ज़्यादा नहीं था उसमे पड़े पत्थर साफ़ दिखाई दे रहे थे। हम उस झरने तक पहुंचना चाहते थे लेकिन एक पत्थर पर काई जमे होने के कारन पैर फिसल गया। गिरने से बाल बाल बचे। पानी ठंडा था। हमने कुछ देर वहीं ठहरने का निश्चय किया और खूब मस्ती की। एक पत्थर के पास पानी कुछ गहरा था। उसमे नन्ही मछलियां तैर रही थी। कुछ चमकीले पत्थर भी थे। दिन कब ढल गया पता ही नहीं चला। अँधेरा बढ़ने लगा तो हम भी अपने आशियाना लौट गए।