Iktare wala jogi in Hindi Love Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | इकतारे वाला जोगी

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इकतारे वाला जोगी


इकतारे वाला जोगी
छः वर्ष पश्चात् ...
छः वर्ष बीत चुके थे। शुभ्रा अब किशोर वयः के अन्तिम पड़ाव पर थी। न जाने कब बासन्ती सुगंधित बयार का कोई झोंका आकर उसकी साँसों को महका गया था । अब यह सुगंध उसकी साँसों में बस चुकी है । इस सुगन्ध के बिना शुभ्रा की साँसें उदास हो जाती हैं ; जीवन नीरस-निरर्थक प्रतीत होता है । शुभ्रा ने इस विषय पर कभी गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया था , किन्तु उस समय वह आश्चर्यचकित रह गयी , जब उसकी दादी ने उसके विवाह का प्रस्ताव रखकर वर के चयन हेतु कुछ अल्प परिचित-अपरिचित लड़कों की सूची नहुष के हाथ में थमाकर उनकी प्रशंसा में लम्बी-चौड़ी भूमिका प्रस्तुत की और साथ ही हिदायत देते हुए कहा कि कच्ची आयु का प्रेम कभी भी स्थायी सम्बन्ध का आधार नहीं हो सकता ।
इन छः वर्षों में शुभ्रा ने अपने परिवेश के विविध अन्तर्विरोधों का अनुभव किया था और जीवन तथा समाज के विभिन्न रंग-रूप देखे थे । अपने अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वह आर्थिक रूप.से आत्मनिर्भर होने के पश्चात् गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहती थी । अपना जीवन-साथी अपनी रुचि के अनुरूप चुनना भी उसकी आकांक्षा थी । अतः क्षण-भर में दादी के शब्दों का आशय समझते ही शुभ्रा ने अपने विवाह का प्रस्ताव तत्काल अस्वीकार कर दिया ।
विवाह के लिए शुभ्रा की अस्वीकृति के पश्चात् उसके ऊपर उसकी दादी का भिन्न-भिन्न तरीकों-माध्यमों से दबाव बढ़ने लगा । उसके पिता नहुष अपनी माँ के वयःजनित अनुभवों का महत्त्व स्वीकारते हुए एक ओर आज्ञाकारी सुपुत्र होने का कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे और दूसरी ओर पिता होने का दायित्व निर्वहन करने के क्रम में माँ द्वारा दी गयी नाम-सूची से वर-चयन करके शुभ्रा को समझा-बुझाकर विवाह के लिए सहमत करने का प्रयास कर रहे थे ।
अपने विवाह के विषय में पिता की दलीलें सुन-सुनकर शुभ्रा को ऐसा अनुभव हो रहा था कि वह जिस विषम-विपरीत परिस्थिति के जंजाल में फँसती जा रही है , उससे निकलने में वह स्वयं सक्षम नहीं है , बल्कि उसे किसी ऐसे अवलम्ब की आवश्यकता है , जो आत्मीय भी हो और विश्वसनीय भी । आतमीय अवलम्ब की आवश्यकता का अहसास होते ही शुभ्रा के कदम उस कमरे की ओर बढ़ गये , जहाँ बिस्तर पर उसकी माँ आभा कोमा में होने के कारण निश्चेष्ट लेटी हुई थी ।
माँ के कमरे की ओर बढ़ते हुए शुभ्रा की गति क्रमशः बढ़ती जा रही थी । कमरे के निकट पहुँचते-पहुँचते शुभ्रा की गति बहुत तेज हो गयी थी । दरवाजे में प्रवेश करते ही वह बिस्तर पर निश्चेष्ट लेटी हुई माँ से लिपटकर फफक-फफककर रोने लगी । वह जानती थी कि माँ उसकी किसी प्रकार सहायता नहीं कर सकती , फिर भी घंटों तक माँ से लिपटकर रोती रही -
माँ , छः वर्ष हो चुके हैं ! उस दिन के बाद आपने न तो अपनी आँखें नहीं खोलीं है और न ही अन्य किसी प्रकार की कोई चेष्टा की है । डॉक्टर्स कहते हैं कि आपकी जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी है , इसलिए आप कोमा से बाहर नहीं आ पा रही हैं! प्लीज , माँ ! कुछ बोलिए ! अपनी बेटी के लिए उठने का प्रयास कीजिए ! माँ , प्लीज !" माँ से लिपटकर रोते हुए उसे अपने बाल्यकाल की उस घटना का स्मरण हो आया , जब कहानी प्रतियोगिता में सहभागिता करने के लिए उसने माँ से एक कहानी सुनाने की हठ की थी । उसको स्मरण था कि उस कहानी में वह प्रथम विजयी घोषित हुई थी , लेकिन शुभ्रा को याद आया , उस दिन जोगी ने बताया था , "कोई व्यक्ति अपने जिस अभीप्सित को यथार्थ जीवन में प्राप्त नहीं कर पाता है , उसका साहित्य और उसकी कला प्रायः उसी प्रछन्न अभीष्ट का प्रगटीकरण होता है । दूसरे शब्दों में , रचनाकार की रचना में उसका अमूर्त अतृप्त यथेष्ट मूर्त रूपाकार ग्रहण करता है ।"
शुभ्रा को पूर्ण विश्वास था कि उस रात माँ द्वारा सुनायी गयी कहानी में ऐसा कुछ अवश्य है , जो उनके बिगड़ते स्वास्थ्य का कारणभूत होते हुए भी चिकित्सकीय जाँच की पहुँच से परे रहा है । शुभ्रा को यह भी विश्वास था कि माँ की कहानी-निधि को मथकर वह एक बूंद सुधा अवश्य निकाल सकेगी ,जो उसकी माँ के लिए संजीवनी सिद्ध होगी । माँ के सीने पर सिर रखकर वह उदास भाव से शान्त लेटी हुई थी और जोगी द्वारा उस दिन कही हुई बात याद करके माँ द्वारा सुनायी गयी कहानी का स्मरण करते हुए उसका विश्लेषण-संश्लेषण कर उसका निहितार्थ तलाशने का प्रयास करने लगी -
इकतारे वाले जोगी को कॉलोनी में आये हुए अभी अगस्त में मात्र एक वर्ष हुआ थी , किंतु सभी कॉलोनीवासियों के हृदय में उसकी कल्याणमयी छवि उत्तरोत्तर उज्जवल एवं स्थायी होती जा रही थी । उन्हें जानने वाले सभी लोग और स्वयं जोगी भी बताते हैं कि जब से सन्यास ग्रहण किया है , वे कहीं भी , किसी भी एक स्थान पर दस दिन से अधिक नहीं रुके थे । वे इसे दैवयोग बताते हुए कहते थे कि जब-जब उन्होंने अपने कर्तव्य-भ्रमण के लिए कॉलोनी छोड़ कर जाना चाहा , तब-तब दैव ने कॉलोनी की किसी-न-किसी प्राकृतिक आपदा के बहाने उन्हें रोक लिया था ।
जब कॉलोनी में जोगी का पदार्पण हुआ था , तब वहाँ पर वर्षा के जल भराव और गंदगी के कारण मच्छरों का निष्कंटक साम्राज्य था । चिकनगुनिया , मलेरिया तथा वायरल का भयंकर प्रकोप फैला हुआ था । इस विषम परिस्थिति में जोगी ने तन-मन से सफाई अभियान आरंभ किया और अस्वस्थ लोगों की सेवा-सुश्रुषा की । कॉलोनीवासी जोगी द्वारा की गयी सेवा शुश्रूषा के साथ-साथ उनकी बहुज्ञता और विनम्रता से अत्यधिक अभिभूत हुए थे । उसी अंतराल में जोगी ने देखा-समझा था कि अति जल-दोहन से भूजल स्तर इतना घट गया है कि अगले कुछ ही वर्षों में लोगों को प्यास बुझाने के लिए पानी नहीं मिल सकेगा । अतः जोगी ने लोगों को जल प्रबंधन के लिए जागरुक करना आरंभ कर दिया , जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली ।
सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक कार्यों को करते समय जोगी के नाम - 'इकतारे वाला जोगी' का आधार इकतारा प्रतिक्षण कंधे पर लटकता हुआ उनका सहचर बनकर उनकी संगीत प्रियता का साक्षी बनता था । न केवल संगीत , बल्कि गायन-वादन के साथ साहित्य सर्जना , चित्रकला आदि अन्य ललित कलाओं पर भी जोगी का पूर्ण अधिकार था । शीघ्र ही वे संगीत एवं विविध वाद्य यंत्रों के लोकप्रिय गुरु बन गये थे । उनके इर्द-गिर्द साहित्य तथा संगीत प्रेमी प्रशिक्षु शिष्यों की भीड़ रहने लगी । जिस मंदिर की एक छोटी-सी कुटी में जोगी का निवास था , वह भक्ति के साथ ही विविध कलाओं का प्रशिक्षण-केंद्र बन गया था और बहुत ही शीघ्र चारों दिशाओं में जोगी की ख्याति फैल गयी थी ।
जोगी के पास एक इकतारा था । जिसे जोगी क्षण-भर भी आँखों से दूर किये बिना प्रतिक्षण अपने साथ रखते थे । जोगी के सभी शिष्य प्रायः इकतारे के उस रहस्य के विषय में जानने के लिए उत्सुक रहते थे , जिसके कारण वह इकतारा जोगी को प्राणों से भी प्रिय था । परंतु , उनका विनम्र मुस्कुराहट से पगा हुआ सदैव एक ही उत्तर रहता था -
"रहस्य तभी तक रहस्य है , जब तक उसके विषय में किसी को कोई जानकारी नहीं है । वह तभी तक मूल्यवान भी है , जब तक वह रहस्य है ! 'बंद मुट्ठी लाख की , खुल गयी तो खाक की' ! इस उक्ति के अनुरूप कृपया आप मेरे इकतारे की मुठ्ठी को बन्द ही रहने दें।" गुरु का उत्तर सुनकर शिष्य निरुत्तर हो जाते थे और शांत भाव से उनका तर्क स्वीकार करके अपनी कला-साधना में तल्लीन हो जाते थे ।
रात्रि के प्रथम प्रहर में जोगी नित्यप्रति अपने रहस्यमयी इकतारे पर सुर साधते थे । उस रात भी जोगी अपने इकतारे की तान पर संगीत अलाप रहे थे । रात भोजन करने के पश्चात् आभा अपने पति नहुष के साथ टहलने के लिए घर से निकलने लगी , तो सासु माँ ने टोकते हुए कहा -
"मीठा खाकर बाहर जा रहे हो , प्याज का एक टुकड़ा रख लो , कोई बुरी हवा ना लगे !" सास का आदेश सुनकर आभा ने वापिस मुड़ कर एक छोटी से प्याज उठाते हुए कहा - मम्मी जी , एक टुकड़ा क्या काम करेगा ? मैं पूरी प्याज ले लेती हूँ ! वैसे भी टुकड़ा काटकर बेकार हो जाएगा , बिना कटी प्याज लौटने पर काम तो आ जाएगी !" सासु माँ ने दोनों हाथों से अपनी पुत्रवधू की बलाय लेते हुए कहा -
"बड़ी सुघढ़-सयानी है मेरी बहू !" सासु माँ के आदेश और आशीर्वाद को शिरोधार्य करके प्रसन्नचित मुद्रा में आभा घर से निकलने लगी , तो सासु माँ ने पुनः कहा -
"बहुत रात हो गयी है , रात में ज्यादा दूर मत जाना !" आदेश को स्वीकार करते हुए नहुष ने हँसकर कहा -
"मम्मी जी ! लौटेंगे तो तब जब आप जाने देंगे !"
माँ की आदेशात्मक चेतावनी के बावजूद बातचीत करते हुए टहलते-टहलते आभा और नहुष कॉलोनी के अंतिम छोर पर स्थापित मंदिर के पिछवाड़े तक पहुँच गये । ज्यों-ज्यों वे दोनों मंदिर के और अधिक निकट आते जा रहे थे , त्यों-त्यों आभा के मनःमस्तिष्क में विचित्र-सी अकुलाहट बढ़ती जा रही थी । मंदिर के अत्यधिक निकट पहुँचने पर आभा ने पूछा -
"यह संगीत का स्वर कहाँ से आ रहा है ?"
"जोगी के इकतारे का स्वर है !"
"जोगी ?"
"हाँ-हाँ , जोगी ! अरे वही , जिससे आजकल अपनी बेटी शुभ्रा संगीत सीख रही है ।" नहुष का उत्तर सुनकर आभा के मुख से कोई शब्द निसृत नहीं हुआ , किंतु उसके अन्तःकरण में अनजानी-सी व्याकुलता बढ़ रही थी , जिसको वह प्रकट नहीं करना चाहती थी । वह अपनी व्यथित मनोदशा को जितना छुपाना चाहती थी , उसकी मनोव्यथा उसी अनुपात में बढ़ रही थी और उसके कदम यंत्रवत आगे बढ़ रहे थे । कुछ मीटर की दूरी तय करने के पश्चात् आभा को प्रतीत हुआ कि उसका शरीर शक्तिहीन हो गया है । बहुत प्रयास करने पर भी वह अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पा रही है । अपने कदम आगे बढ़ा पाने में असमर्थ अनुभव करके आभा क्षण-भर के लिए रुककर खड़ी हो गयी । अगले ही क्षण उसे लगा कि अब उसके पैर उसका भार वहन करने में अक्षम है । अतः वह वहीं धरती पर बैठ गयी ।
"क्या हुआ आभा ? आर यू ओके ?" नहुष ने चिंतित स्वर में पूछा ।
"कुछ नहीं ! मैं ठीक हूँ । बस थोड़ी-सी थकान ...!" आभा ने धीमे स्वर में उत्तर दिया । आभा द्वारा दुर्बल वाणी में दिये गये उत्तर से नहुष और अधिक चिंतित हो गया ।
"थकान ? अचानक ... ! आज से पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ ! उसने स्वगत संभाषण किया । कुछ क्षणोपरांत आभा ने उठने का उपक्रम किया , तो नहुष ने कहा -
"तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है , मैं ड्राइवर को बोलकर गाड़ी मँगा लेता हूँ !"
"गाड़ी मंगाने की आवश्यकता नहीं है , मैं ठीक हूँ । मैं अपने पैरों से चलकर जा सकती हूँ , लेकिन अब टहलने का मन नहीं है ।"
"घर चलें ?"
"हाँ , अब घर चलते हैं !" नहुष ने सहमति प्रकट की और दोनों वापस घर की ओर चल पड़े । वापस घर की ओर चलते हुए आभा का तन-मन बहुत थकावट का अनुभव कर रहा था । दूसरी ओर , वह प्रसन्न दिखने का निरन्तर प्रयास कर रही थी । उसका मन चाहता था कि अपने मन की सारी व्यथा वह रो-रोकर आँसुओं बहा दे , परंतु उसके लिए रोना इतना सरल नहीं था ।
घर पहुँचने पर आभा की बिगड़ी हुई हालत देखकर उसकी सासु माँ पहले तो थोड़ी घबराई , लेकिन यह ज्ञात होने पर कि जोगी के इकतारे का स्वर कान में पड़ते ही आभा की हालत बिगड़ने लगी थी , जोगी के प्रति सासु माँ का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया -
"मैंने पहले ही कहा था , मीठा खाकर बाहर मत जाओ ! मेरी सुनता ही कौन है ! मैं तो पहले ही जानती थी , वह बहुरूपिया जोगी जादूगर है जादूगर ! देखा नहीं , अभी यहाँ आये साल भर-भी नहीं हुआ है , और कैसे पूरी कॉलोनी के औरतों-मर्दों पर जादू कर दिया है ! सब उसके इर्द-गिर्द भीड़ लगाए रहते हैं । बच्चे तो उसके पीछे ऐसे पागल हैं कि अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर संगीत सीखने के बहाने उसके पास जाते हैं । दूसरों को क्या कहें , अपनी शुभ्रा को ही देख लो ! इतने अच्छे-अच्छे संगीत के शिक्षक हैं कॉलोनी में , पर नहीं , उन्हें तो जोगी से सीखना है ! जोगी जैसा कोई नहीं है !"
"मम्मी जी , अब चुप भी करिए ! जोगी को बाद में कोस लेना , पहले आभा की चिंता कीजिए ना !" नहुष ने पत्नी के स्वास्थ्य की चिंता प्रकट करते हुए कहा था ।
आभा ने माता-पुत्र दोनों को निश्चिन्त करते हुए मुस्कुराकर कहा -
"मैं ठीक हूँ ! खाने-पीने से थोड़ी-सी एसिडिटी की समस्या हो गयी थी बस और कुछ नहीं !"
अगले दिन ...
कॉलोनी के लोगों के हृदय में संकटमोचन की छवि निर्मित कर चुके जोगी से संगीत सीखने के लिए उपस्थित शुभ्रा ने जोगी को बताया कि रात में लगभग दस बजे मंदिर के निकट टहलती हुई उसकी माँ के कान में उनके इकतारे का स्वर पड़ते ही माँ अचानक अस्वस्थ हो गयी और उनके अनेक प्रकार के परीक्षण करके भी अभी तक चिकित्सक उनके रोग का निदान नहीं कर पाये हैं । शुभ्रा में बताया दादी कहती है - "जोगी जादूगर है । उसके जादू से आभा की तबीयत बिगड़ी है !"
शुभ्रा की माँ के अस्वस्थ होने की सूचना से जोगी बहुत दुखी हुए किन्तु उससे भी अधिक यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके अस्वस्थ होने का कारण इकतारे का स्वर है । जोगी सोच में पड़ गये -
"आज से पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरे इकतारे का स्वर सुनकर कोई अस्वस्थ हो जाए !" कुछ क्षणों तक जोगी आँखें बंद करके ध्यान मुद्रा में बैठे रहे । तत्पश्चात् विनम्र और सहज शैली में संवेदनापूर्वक कहा -
"अपनी माँ और दादी से कहिए , हम उनसे भेंट करना चाहते हैं । संभवताः हम उनके रोग निदान में सहायक सिद्ध हो सकें।" जोगी का आश्वासन पाकर शुभ्रा के हृदय में आशा का संचार हुआ , जिसका आधार जोगी की बहुमुखी प्रतिभा के प्रति उसका विश्वास था ।
अपने वचन के अनुसार जोगी ने एक सप्ताह प्रतीक्षा की , किंतु शुभ्रा के पर्याप्त आग्रह के बावजूद उसकी माँ जोगी से भेंट करने के लिए तैयार नहीं हुई । इसी समयांतराल में जोगी ने कला प्रशिक्षुओं के बीच 'स्वरचित साहित्य प्रतियोगिता' के आयोजन की घोषणा की । जिस समय जोगी ने कहानी प्रतियोगिता की घोषणा की थी ,उसी क्षण शुभ्रा ने निश्चय कर लिया था कि वह प्रतियोगिता में स्वयं की सहभागिता हेतु अपनी माँ से ही एक कहानी सृजित करने का आग्रह करेगी । शुभ्रा को पूर्ण विश्वास था कि उसकी माँ द्वारा कही जाने वाली कहानी में ऐसा कुछ अवश्य होगा , जिससे उसकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी ।
घर आकर शुभ्रा ने रुग्णावस्था में बिस्तर पर लेटी हुई माँ से कोई एक कहानी कहने का आग्रह किया । माँ ने आश्चर्यपूर्वक नकारात्मक मुद्रा में कहा -
"क्या ! मैं कहानी कहूँ ! नहीं-नहीं ! 'स्वरचित साहित्य प्रतियोगिता' है , तो तुम्हें स्वयं कहानी की रचना करके प्रतियोगिता जीतनी चाहिए !"
"माँ , प्रतियोगिता में प्रस्तुत तो मैं स्वयं ही करूँगी , केवल कहानी गढ़ने में आपकी सहायता चाहती हूँ , जोकि मुझे मिलनी ही चाहिए !"
"तुम स्वयं कहानी गढ़ना सीखो और सहभागिता करो !" माँ ने बार-बार शुभ्रा का आग्रह अस्वीकार किया , किन्तु वह कहाँ मानने वाली थी । वह माँ से तब तक हठ करती रही , जब तक माँ ने कहानी कहना स्वीकार नहीं कर लिया ।
कुछ क्षणों के लिए वातावरण में निस्तब्धता भर गयी । माँ की भाव-भंगिमा गंभीर हो चली थी । शुभ्रा ने अनुभव किया , माँ की आँखों में पीड़ा का ज्वार उमड़ रहा है । कुछ क्षणोपरांत माँ ने कहानी कहना आरंभ किया -
एक उदारमना , कोमल हृदयी , मधुर-भाषी राजकुमार था । अपने मृदु व्यवहार और मधुर संभाषण से सबका मन मोहने वाला । एक बार जो उसके संपर्क में आता था , उसका हो जाता था। अपने विद्यालय के सभी छात्र छात्राओं से उसकी मित्रता थी । उसी विद्यालय में एक सामान्य परिवार की लड़की भी पढ़ती थी । (माँ के शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए शुभ्रा सोचती है कि माँ वर्तमान में कहानी कहते-कहते भूतकाल में विचरने लगी है , परन्तु इस विषय में माँ से कुछ नहीं कहती ) प्रायः जब राजकुमार अपने मित्रों से घिरा रहता था , वह लड़की अपने संकोची स्वभाव के कारण अकेली बैठकर राजकुमार को दूर से निहारती रहती थी । राजकुमार से मित्रता करने में उसको अपने संभावित अपमान का भय सदैव सालता रहता था । अपने और राजकुमार के परिवार की आर्थिक असमानता के कारण वह कभी राजकुमार की मित्र-मंडली में जाने का साहस नहीं जुटा पाती थी । एक बार उस लड़की ने देखा , सदैव मित्रों से घिरा रहने वाला राजकुमार चुपचाप अकेला बैठा है । उसके चेहरे पर उदासी और आँखों में पानी है । राजकुमार को इस दशा में देखकर लड़की को जिज्ञासा हुई , परंतु वह राजकुमार से कुछ पूछने का साहस नहीं जुटा पायी । वह लड़की उस दिन राजकुमार के विषय में सोचती हुई तब तक वहीं , राजकुमार से कुछ दूर बैठी रही , जब तक राजकुमार वहांँ पर बैठा रहा । इसी प्रकार तीन दिन बीत गये । राजकुमार की दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ लड़की भी अपनी पढ़ाई छोड़ कर प्रतिदिन उसे निश्चित समय पर राजकुमार से कुछ दूरी पर बैठकर उसकी सद्यः अपरिवर्तित स्थिति के विषय में सोचती रहती । चौथे दिन भी राजकुमार को उसी दशा में बैठा देखकर लड़की उसके निकट जाकर बोली -
"तुम कक्षा में क्यों नहीं जाते हो ?" राजकुमार चुप बैठा रहा । उसका मौन लड़की को बेचैन कर रहा था । अतः उसने पुनः पूछा -
"तुम्हारे मित्र भी अब तुम्हारे साथ नहीं रहते हैं ! क्यों ?"
"वे कक्षा में बैठकर अपनी पढ़ाई करते हैं । मेरे साथ यहाँ बैठेंगे , तो गुरुजी उन्हें दंडित करेंगे न !"
"हाँ ! अवश्य करेंगे ! कक्षा में उपस्थित न रहने पर दंडित करने के लिए गुरुजी ने कल मुझे भी चेताया था । तुम्हारे यहाँ बैठे रहने पर गुरुजी तुम्हें कुछ नहीं कहते क्या ?" अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए लड़की प्रतीक्षा करने लगी , पर इस बार राजकुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया। विद्यालय की छुट्टी होने तक लड़की वहीं बैठ कर राजकुमार के उत्तर की प्रतीक्षा करती रही किंतु इस समयांतराल में उन दोनों के बीच में निस्तब्धता का ही वर्चस्व रहा । कोई संवाद नहीं हुआ । लगभग दो घंटे पश्चात् छुट्टी का घंटा बजने पर दोनों उठकर धीमे कदमों से अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान कर गये ।
अगले दिन भी राजकुमार उसी समय उसी स्थान पर आकर बैठ गया । उसको देखकर वह लड़की भी आ गयी और शब्द रूपांतरित करके पुनः वही प्रश्न किया -
"आजकल तुम बहुत उदास रहते हो ! क्या हुआ है ?"
आज लड़की का प्रश्न सुनकर राजकुमार के हृदय में कुछ हलचल से हुई । कुछ क्षणों तक निर्निमेष लड़की की आँखों में झाँकने के पश्चात् राजकुमार ने बताया -
"मुझे मेरे मम्मी-पापा की बहुत याद आती है न , इसलिए !"
"तुम तुम्हारे मम्मी-पापा के साथ नहीं रहते हो ? क्यों ?"
लड़की का प्रश्न सुनकर राजकुमार निरुत्तर हो गया , किंतु लड़की कुशाग्र बुद्धि थी । उसने राजकुमार की आँखों में उमड़ते हुए आँसुओं के ज्वार की भाषा को पढ़कर अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर लिया था । सहानुभूतिपूर्वक उसने अपनी अंगुली के कोर से राजकुमार के आँसुओं को पोंछते हुए कहा -
"माँ कहती है , आँसू हमें दुर्बल बनाते हैं ! जबकि जीने के लिए शक्तिशाली बनना आवश्यक है । लड़की के शब्दों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा । राजकुमार ने तत्क्षण आँसू पोछते हुए कृत्रिम मुस्कान के साथ कहा -
"ठीक है ? अब मैं शक्तिशाली बनूँगा !" उस दिन के पश्चात् दोनों का सामान्य परिचय घनिष्ठ मित्रता में परिवर्तित हो गया । घनिष्ठ मित्रता का आलम यह था कि लड़की को अपनी पढ़ाई के अपेक्षा राजकुमार की चिंता अधिक रहने लगी कि वह अकेला पड़कर उदास ना हो जाए । राजकुमार का एकाकीपन दूर करने के प्रयास में लड़की को प्रायः कक्षा-अध्यापक की डाँट भी खानी पड़ती थी । लड़की की संगीत में बहुत रुचि थी और गणित में कम । प्रायः गणित में उसे बहत कम अंक प्राप्त होते थे और अनुत्तीर्ण होने का भय सताता रहता था । जबकि राजकुमार की गणित में रुचि थी । दोनों में घनिष्ठ मित्रता होने के पश्चात् राजकुमार नित्यप्रति लड़की को गणित पढ़ाने लगा । इसी का परिणाम था कि प्रायः गणित में कम अंक प्राप्त करने वाली वह लड़की राजकुमार से मित्रता के पश्चात अपनी कक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने लगी । राजकुमार स्वयं भी उस लड़की से अनौपचारिक रूप से संगीत सीखने लगा था । संगीत सीखते-सीखते धीरे-धीरे राजकुमार की रुचि कलाओं के प्रति बढ़ती गयी । बहुत ही शीघ्र राजकुमार विविध ललित कलाओं में पारंगत हो गया । आठ वर्षों तक इसी प्रकार दोनों की मित्रता पल्लवित-पुष्पित होती रही ।
कहते-कहते आभा शान्त-उदास हो गयी । उसकी भाव-भंगिमा से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि अतीत के समुद्र में गोता लगाकर किसी खोये हुए रत्न की खोज कर रही हो । माँ की आँखों में प्रतिबिम्बित हृदय-तल के मनोभावों को पढ़कर शुभ्रा ने मूलधन करते हुए कहा
"उसके बाद ?"
"उसके बाद दोनों की माध्यमिक शिक्षा संपन्न हो गयी और उस विद्यालय को छोड़ने का समय आ गया । विद्यालय छोड़ने से पहले प्रधान अध्यापक की अनुमति लेकर राजकुमार ने विद्यालय में ही एक 'मित्र-मिलन उत्सव' का आयोजन किया , जिसमें सभी प्रतिभागियों के लिए उपहार के साथ गाने बजाने खाने-पीने की उत्कृष्ट कोटि की व्यवस्था की गयी थी । राजकुमार के सभी मित्रों ने उस उत्सव का भरपूर आनंद उठाया और राजकुमार से भेंट स्वरूप उपहार प्राप्त किये । लेकिन ...!"
"लेकिन ?"
"उत्सव में राजकुमार ने अपने सभी मित्रों को उपहार भेंट किये , लेकिन राजकुमार का कोई मित्र उसको भेंट में देने के लिए उपहार लेकर नहीं आया । उसके मित्रों में से एकमात्र वह लड़की राजकुमार के लिए उपहार लेकर आयी थी , जो सदैव उसकी प्रसन्नता की परवाह करती थी । यद्यपि उसका उपहार बहुमूल्य नहीं था , तथापि उपहार पाकर राजकुमार इतना भावविह्वल हो गया था कि उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे । उसने लड़की को गले से लगा लिया और कहा - "जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे , तुम्हारा यह उपहार प्रतिक्षण मेरे साथ रहेगा ! तुम्हारी अनुपस्थिति में इसका सुर मेरी साँसो का आधार और मेरे जीवन का संगीत बनेगा !"
"माँ , लड़की ने उपहार में राजकुमार को क्या दिया था ?"
"इकतारा ! लड़की के पास जो इकतारा था , राजकुमार को उस पर सुर संधान करना बहुत प्रिय था , इसलिए ...!"
"उसके बाद ... ?" शुभ्रा ने कहा ।
"उसके बाद सभी मित्र अपने-अपने घर चले गये ।" आभा ने लंबी साँस लेते हुए उदास स्वर में कहा ।
"उसके बाद ... ?"
"उसके बाद .... ! .… विद्यालय छोड़ते ही लड़की के पिता ने एक सुयोग्य वर खोजकर लड़की का विवाह संपन्न कर दिया।"
"माँ का उत्तर सुनकर शुभ्रा मौन हो गयी । वह कुछ क्षणों तक विचारमग्न मुद्रा में बैठी रही और कहानी का विश्लेषण करती रही । कुछ क्षणोपरान्त शुभ्रा ने माँ से प्रश्न किया -
"माँ , उस दिन के बाद राजकुमार और वह लड़की कभी नहीं मिले ?"
"नहीं !"
"क्यों ? जबकि वे दोनों ही एक-दूसरे की चिंता करते थे ; दोनों की रूचि भी समान थी ; दोनों को एक-दूसरे से मिलने में सुख मिलता था ! माँ , मुझे लगता है , उन दोनों को मिलना चाहिए ! शुभ्रा का प्रश्न सुनकर माँ मौन हो गयी और चेहरे पर उभर आए अपने हृदय की पीड़ा के चिह्नों को छिपाने का असफल प्रयास करने लगी । माँ के मौन को देखकर शुभ्रा ने पुनः कहा -
माँ , ऐसे तो हमारी कहानी में ट्विस्ट नहीं आएगा ! आप देखिए , लड़की राजकुमार के सुख-दुख की चिंता करती है ; उसकी भावनाओं को भली-भाँति समझती है ! राजकुमार की आँखों से आँसुओं का टपकना और लड़की को गले लगाना यह सिद्ध करता है कि राजकुमार का हृदय भी उस लड़की के लिए धड़कता है ; उसके प्रति मधुर भावों से भरा है ! उन दोनों के व्यवहारों से स्पष्ट है , दोनों एक-दूसरे के हृदय में बसते हैं । फिर दोनों एक-दूसरे का जीवन साथी बनकर साथ-साथ जीने का निश्चय क्यों नहीं कर सकते ?"
"क्योंकि हमारी कहानी का राजकुमार संभ्रांत धनाढ्य राजवंशी था और लड़की मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से थी , इसलिए वह इतना बड़ा स्वप्न भी देखने से डरती थी ,, किंतु ...!"
आभा ने क्षण-भर को बोलना बंद करके लम्बी साँस ली , मानों कहानी कहते-कहते बहुत अधिक थक गयी है ।
"किन्तु ...?" शुभ्रा ने कहानी में निरन्तरता बनाए रखने के लिए माँ को प्रोत्साहित किया ।
"किन्तु ... अपने विवाह से पहले वह एक बार राजकुमार से भेंट करना अवश्य चाहती है। वह यह भी चाहती है , राजकुमार उसके विवाह-संस्कार के समय उसके साथ ; उसके निकट उपस्थित रहे । अपने विवाह का निमंत्रण पत्र लेकर वह राजकुमार के घर पर भी गयी , परन्तु राजकुमार से भेंट नहीं हो पायी ।
"माँ , लड़की क्यों चाहती है कि उसके विवाह के समय राजकुमार उसके निकट उपस्थित रहे ?"
माँ ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और समय तथा परिस्थिति की धूल से धुँधले पड़ चुके अपने चिर-परिचित भावलोक में शान्तचित्त होकर विचरण करने लगी । शायद आज अनायास ही उसके अतीत का कोई झरोखा खुल गया था , जिससे आने वाली शीतल बयार उसके घावों को सहला कर उसे सुकून दे रही थी ।
मांँ , मुझे लगता है , उस लड़की के मनःमस्तिष्क में अस्पष्ट रूप से यह आशा रही होगी कि मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि की होने के कारण जिस बात को वह सपने में भी सोचने-कहने से डरती है , शायद राजकुमार उस भावना को साकार-यथार्थ रूप देने और कार्यरूप में परिणित करने में सक्षम हो सके !"
"हो सकता है ! पता नहीं !" माँ ने उदासीनतापूर्वक कहा ।
"माँ , उसके बाद क्या हुआ ?"
"वही , जो प्रायः होता है ! लड़की का विवाह संपन्न हो गया और वह अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए पति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी !"
"माँ ...! यह कहानी भी कोई कहानी है ! इसका आरंभ तो ठीक है , पर कहानी का अंत मुझे ठीक नहीं नहीं लग रहा है ! थोड़ा कुछ धमाकेदार भी होना चाहिए !"
"हर कहानी धमाकेदार नहीं होती , पर वह कहानी होती है !" माँ ने कहा ।
"हाँ , यह भी ठीक है ! पर , माँ , कहानी से कोई शिक्षा ;कोई प्रेरणा ; लोकहित तो प्रकट होना चाहिए !" माँ ने कोई उत्तर नहीं दिया । माँ के भावशून्य चेहरे को देखकर शुभ्रा ने और अधिक कहने के लिए हठ नहीं की और माँ को धन्यवाद कहकर आशीर्वाद मांगा कि कहानी प्रतियोगिता में उसकी कहानी सर्वश्रेष्ठ घोषित हो ।
निर्धारित समय पर कला मंदिर में पहुँचकर शुभ्रा ने कहानी प्रतियोगिता में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कराते हुए माँ द्वारा सुनाई गई कहानी पूरे मनोयोग से प्रस्तुत की । कहानी प्रस्तुत करते हुए शुभ्रा ने जोगी की आँखों में वही चमक देखी , जिसकी उसने आशा की थी ।
प्रतियोगिता के अंतिम चरण में निर्णायक मंडल द्वारा सफल अभ्यर्थियों की घोषणा की गयी , जिनमें शुभ्रा का नाम प्रथम स्थान पर था । शुभ्रा की माँ का आशीर्वाद तथा स्वयं उसकी आशा और विश्वास फलीभूत हुआ था , इसलिए वह बहुत प्रसन्न थी , परन्तु , प्रथम पुरस्कार की घोषणा होते ही विचित्र-सी व्यग्रता उसके हृदय में भर गयी । वह निर्धारित पुरस्कार के प्रति अस्वीकृति की भाव-भंगिमा और शब्दों के साथ जोगी के निकट जाकर बोली -
"यह पुरस्कार मुझे स्वीकार्य नहीं है !"
"क्यों ?" निर्णायक मंडल के सभी महानुभावों ने एक स्वर में पूछा ।
"यह कहानी , जो मैंने प्रस्तुत की है , मेरी माँ ने मुझे सुनायी थी , इसलिए पुरस्कार की अधिकारिणी भी वही है !"
"बेटी , तुम क्या चाहती हो ?" जोगी ने सहजतापूर्वक पूछा । सभी की आँखें शुभ्रा पर जमी थी ; सभी उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे । शुभ्रा ने तत्क्षण कोई उत्तर नहीं दिया , मौन खड़ी रही । कुछ क्षणों के मौन के पश्चात् शुभ्रा ने कहा -
"मेरी मांँ आभा , अपने बचपन से सुर-साध्वी रही है , लेकिन विवाह के पश्चात् सुर और संगीत से उसका नाता टूट गया । जब से आपके इकतारे का सुर मेरी माँ के कानों में पड़ा है , उसने रोगी बनकर बिस्तर पकड़ लिया है । इस इकतारे का स्वर उनके कानों में पड़ता है , तो बहुत रोती है ।"
शुभ्रा का उत्तर सुनते ही जोगी की आँखों में उदासी छा गयी -
"बेटी , यह इकतारा मेरे जीवन का पर्याय है ; इसके तार पर मेरी उंगलियों की थिरकन से ही मेरे जीवन-संगीत का सुर सधता है ; यही सुर मेरी साँसो का सार है ! तुम्हारी माँ की बीमारी का कारणभूत यह इकतारा या इससे निकलने वाला स्वर है , यह सोचना उचित नहीं है !" जोगी ने गंभीर मुद्रा में कहा ।
शुभ्रा को जोगी से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी । वह निराश होकर वह वापस जाने लगी , तभी जोगी का धीमा स्वर उसके कानों में पड़ा -
"ठहरो ! शुभ्रा बेटी , सृष्टि का महत् भार तुम्हारे कंधों पर है ! बेटियों की आँखों में निराशा का भाव शोभा नहीं देता !" यह कहते हुए योगी ने अपने कंधे से इकतारा उतार कर शुभ्रा की ओर बढ़ा दिया । उस समय कक्ष में उपस्थित सभी लोग , कभी जोगी को , तो कभी शुभ्रा को आश्चर्य से देख रहे थे कि जिस इकतारे में जोगी की साँसें बसती हैं ; जिसे वह क्षण-भर के लिए स्वयं से दूर नहीं करते हैं , उस इकतारे को वे शुभ्रा को कैसे दे सकते हैं ! शुभ्रा ने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा -
"अभी-अभी आपने कहा कि इस इकतारे से निकलने वाले स्वर से आपकी साँसें चलती हैं , परंतु स्वर को सुनकर मेरी माँ की साँसे रुकने लगती हैं ! आपकी साँसें मेरा प्राप्य नहीं है ! मेरा प्राप्य है , मेरा सुखी परिवार ! बस एक वचन आपसे चाहती हूँ , आप यथाशीघ्र इस शहर को छोड़कर दूर , कहीं बहुत दूर चले जाएँ और लौटकर कभी इधर ना आएँ ! मैं मेरी कहानी का यही पुरस्कार चाहती हूँ !"
"बेटी , मैं तुम्हें वचन देता हूँ , आज ही यहाँ से बहुत दूर चला जाऊँगा और कभी लौटकर नहीं आऊँगा !"
घर लौटकर शुभ्रा ने बिस्तर पर लेटी हुई बीमार माँ को मंदिर का सारा घटनाक्रम यथातथ्य सुनाया । माँ ने भावशून्य दृष्टि से एक बार अपनी बेटी शुभ्रा की ओर देखा और फिर आँखें बंद कर ली । जोगी के साथ शुभ्रा के वार्तालाप का यथातथ्य वर्णन सुनकर माँ का.हृदय पंखविहीन पक्षी की भाँति तड़पने लगा और शरीर निश्चल हो गया । उसकी बंद आँखों में इकतारे की चिरपरिचित धुन के साथ दूर-बहुत-दूर जाते हुए जोगी की स्पष्ट छवि उभर रही थी और हृदय से मूक आहें निकल रही थी , जो होठों तक आते-आते कहीं गुम हो जाती थी । बंद आँखों से आँसुओं की निरंतर बह रही धारा से जिस क्रम में तकिया भीगता जा रहा था , उसी क्रम से धीरे-धीरे उसके जीवन का रस-स्रोत सूखता जा रहा था ।
आभा ने आँखें बन्द करने के पश्चात पुनः नहीं खोली , तो शुभ्रा की चिन्ता बढ़ी । उसने लगभग चीखते हुए अपने पिता नहुष और दादी को माँ के अचेत होने की सूचना दी । आभा की गंभीर स्थिति देखकर यथाशीघ्र अस्पताल ले जाया गया परन्तु चिकित्सको के बहुत प्रयास करने पर भी जब आभा की चेतना नहीं लौटी , तो सभी चिन्ता में पड़ गये । सप्ताह-भर तक अनेक सुयोग्य और अनुभवी चिकित्सक निरन्तर प्रयास करते रहे , परन्तु आभा की चेतना नहीं लौटी । अन्त में उन्होंने घोषणा कर दी कि आभा कोमा में चली गयी है ।

पूर्व घटनाक्रम का स्मरण-विश्लेषण करते-करते शुभ्रा का विश्वास दृढ़ होता जा रहा था कि उसका एकदम सटीक और सही दिशा में चल रहा है । अपने प्रयास में सफलता सुनिश्चित करते हुए शुभ्रा बहुत ही शीघ्र एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच गयी , जिसने उसको विषम परिस्थिति के जंजाल से बाहर तो निकाला ही , साथ ही एक नये विचार के साथ उसके जीवन को एक नयी दिशा भी प्रदान कर दी । वह एक झटके से उठ खड़ी हुई और आँसू पोंछते हुए माँ के चेहरे पर बिखर गई बालों की लटों को हटाते हुए आत्मीय भाव से दृढ़ निश्चय के साथ कहा -
"माँ ! मैं जानती हूँ , उस रात आपने मुझे जो कहानी सुनाई थी , वह कहानी नहीं आपकी आपबीती थी । मैंने देखा था , जोगी बाबा के इकतारे पर अंकित आपकी लिखावट में राजकुमार का नाम !" कुछ क्षणों तक मौन रहने के उपरांत उसने पुनः कहना आरम्भ किया<