Un Nayno se in Hindi Poems by Anand Gurjar books and stories PDF | उन नयनों से

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उन नयनों से

1 - उन नयनों से

नयन छबीले नयन हठीले

बहुत सजीले बहुत कटीले,

रीतिकाल के छंदों जैसे

बड़े रसीले बड़े रटीले ।

मटमैले पन्नों पर कितनी

ही बदरंगी रचनाएं,

जिनको पढ़ करके किशोरियां

निश दिन भरती हैं आंहे ।

छायावाद की कविताओं सी

ही रहस्यमय रही जिंदगी,

पति और फिर परमेश्वर की

करतीं ही तो रही बंदगी ।

उन नैनों का दुखड़ा जानो

सुंदर सा मुखड़ा पहचानों,

सारा देश हुआ है घायल

पायल के स्वर को पहचानो ।

***

2 - जागो उठो

मेरे देश

अब तो

गहन निद्रा से जाग ।

अरे पहले इन्होंने

तुम्हारे टुकड़े टुकड़े किए

हिन्दू मुसलमान

के नाम पर

झगड़े खड़े किए

अब भी यह

नफरत फैला रहे हैं

अनुसूचित जाती

अनुसूचित जनजाति

अल्पसंख्यक

कहीं पिछड़ावर्ग

या सामान्य बता रहे हैं ।

पहले इन्होंने

जमीन बांटी थी

अब दिलों का

बंटवारा करा रहे हैं

अब अति हो चुका है

रोको इसे वरना

अनर्थ हो जाएगा

पहले की भाति देश को

छुआछूत का डंक लग जाएगा ।

हे देश हम सब

तेरी धरती के वासी हैं

हमें एक नागरिकता प्रदान कर

भेद-भाव दूर कर

सामान व्यवहार कर

अन्यथा यह तेरा संविधान

धरा रह जाएगा ।

पहले तो भारत के

दो टुकड़े हुए थे

अब खंड खंड हो जाएगा

हे देश सोते से

जाग उठ जाग ।

***

3 - नेता

नेता

बड़े बेवफा

जीतने के बाद

जनता से खफा ।

बड़े-बड़े वादे करते

हथियाते कुर्सी

देश का नुकसान कर

खुद का करके भला ।

अरे ओ देशद्रोहियों

तुमसे तो गली का

कुत्ता समझदार है

कम से कम अपने

मालिक के प्रति

वफादार है ।

***

4 - विवेकानंद

निर्मल आकाश में

उदित नक्षत्र वह

सहसा लपकता है

पृथ्वी की ओर ।

निकट अति निकट

हो जाता है लुप्त

कोई नहीं पहचानता है इसे

परमहंस के अलावा ।

यह वही था

जिसके व्यक्तित्व से प्रभावित

अमेरिका मुस्कुरा रहा है ।

जिसके हृदय में चिरसंचित

सनातन की वेदना है

मानवता का पुजारी है

महामानव है

जो वेद हैं पुराण हैं

स्मृति है

सर्वधर्म समभाव

सनातन धर्म जो कहता है

बसुधैव कुटुंबकम

अतिथि देवो भव

भारत की संस्कृति है ।

उसने शिकागो में

उन्हीं मनु की संतान को देखा

तभी तो उसने कहा था

मेरे अमेरिकावासी भाइयों बहनों

कितना अपनत्व है इन शब्दों में

कितना रूढ़ मानवीय संबंध

कितना शास्वत कितना सत्य

इसे विवेकानंद ही जानते होंगे ।

पृथ्वी पर उनका पदार्पण

कोई नई घटना नहीं है

वह तो युग का सत्य है

भारत का परम लक्ष्य

गीता की वाणी है

भारत का प्राणी है

आत्मा का परमात्मा से

होता है मेल

तभी संसार में

कोई होता खेल

तभी सार्थक होता है

मनुष्य का जीवन

तभी वह बनता है

सबका सच्चा सहचर

उसकी आत्मा के

दैदीप्तपुंजों से

वहता रहता है आनंद

जो सबका सहोदर है ।

ना जाने कितने और कितने

मुर्दे उसकी तलाश में जाग गये

सदियों से गहराता घना अंधकार

कोसों और कोसों चला गया

उनके स्वर्णिम मुखमंडल से

कितनों की निर्धनता दूर हुई ।

उन्हें गर्व था भारत की माटी पर

यहां के हर प्राणी पर

यहां के धर्म और संस्कृति पर

स्वयं को हिंदू कहने में

उनका सीना तन जाता था ।

जाति धर्म संस्कृति से परे

साक्षात आत्मा थे परमात्मा थे

भारत के सन्यासी थे ।

राष्ट्रसंत के संघोष से

गुंजायमान जगत ने

जाना है हिंदू का मर्म

जिनके अंदर

भारत की वेदना थी

दीन हीन निराश लोगों के पिता सी

अंतर की तड़पन थी

वह कोई और नहीं

रामकृष्ण की चरणधूलि थे ।

जो सबसे असहाय हैं

और निरुपाय है

उनके भगवान थे ।

पूजा इन्ही की करो

उनका संदेश यही

जाति पाती बंधन में

उनका विश्वास नहीं

कर्म में निष्कामता

एक मेव लक्ष्य था

चाहे सदावृत बनाओ

भारत की भूमि को

किंतु चरित्र बिना

सुख नहीं मिल सकता

जब तक मिले न लक्ष्य

तक निरंतर बढ़ो

बार बार प्रयत्न करो

ऐसी दिव्य भावना ले

उनका प्रयत्न था

भारत की धरती के

वह एक संत थे

जन गण की प्रेरणा को

करता प्रणाम हूं ।

***

5 - गांधी

भारत मां की जंजीरों को

गांधी जी ने काटा,

रोटी हुई मानवता के

दुख दर्दों को बांटा ।

अरे अछूत जीने हम कहते

उन को गले लगाया

भेदभाव की मूल काटकर

सद्भाव का फूल उगाया ।

सुनो विदेशी कपड़ों को

चौराहे पर जलवाया

करो मरो का नारा देकर

सोया देश जगाया ।

उन्हें प्यार था इस धरती से

उन्हें प्यार था जन जन से

श्री राम की भक्ति में वह

रहे निमग्न तन मन धन से ।

***

6 - सुभाष

वह नहीं मनुज अब देव हुआ

वह नहीं देव भगवान हुआ,

प्यारे सुभाष भारत मां की

गोदी का अरमान हुआ ।

मां क्यों रोती है तड़प तड़प

तेरे सहस्र बेटे हैं,

तेरी चंदन सी माटी में

नरसिंह बहुत लेटे हैं ।

मां का फूटा जब प्यार प्यार

बिखरा आंचल का तार तार,

वर्मा श्रीलंका पाकिस्तान

बांहें पसार कहता सुभाष ।

मां मांग रही बलिदान आज

कर दो चाहे अमृत्वरास,

आजा सुभाष प्यारे सुभाष

एक नहीं लाखों सुभाष ।

मां खून तुम्हें हां हम देंगे

सम्मान तुम्हे मां हम देंगे,

तेरी खातिर इस जीवन की

श्वास श्वास को हम देंगे ।

***

7 - आजादी का भूत

देश गुलाम था

पर वह आज़ाद थे

पता नहीं कैसे लग गया

उन्हें आजादी का भूत ।

अब वह वक्त नहीं रहा

लोग बात को समझते ही नहीं

किसी को कैसे लग सकता है

आजादी का भूत ।

अब भूत प्रेत में

विश्वास जो नहीं करते

परंतु उस युग में वह जिंदा थे

उस समय अंग्रेजों की

चापलूसी करते थे

अब भारतीयों को सताते हैं

अपने ही हाथों

अपनी पूजा करवाते हैं ।

***

8 - आजादी

आजादी

पेड़ों पर उछलते हुए

बंदरों के संग हैं

अथवा आकाश में

उड़ते हुए पंछी के ।

आजाद है

घनघौर जंगल में

दहाड़ता हुआ शेर

संसद की सीढ़ी पर

चढ़ते हुए नेता ।

कहने को सब आज़ाद हैं

भारत मजदूर किसान

और बच्चा बच्चा

सड़क पर भीख मांगता हुआ

एक भिखारी भी ।

लोकतंत्र की दुनिया में

भ्रष्टाचार घोटाले

बमकाण्ड आदि करने को

सब आज़ाद हैं

आज से नहीं 1947 से

तभी तो हुआ था

हमारा देश आजाद ।

आजादी हमें

कहां से मिली

कैसे मिली

इस पर बहस

करने का समय

बिल्कुल नहीं था

बक्त का तकाजा था

बरसात में भीगी

आजादी को बचाना

परंतु ऐसा नहीं हो सका

आजादी उसी वक्त

समाप्त हो चुकी थी

हमारे नेता आज तक

उसकी लाश ढोते हैं

और कहते भारत आजाद है ।

***

9 - लोकतंत्र

तार-तार तंत्री टूटे

फिर कैसे झंकार उठे,

गले सभी के रूंधे हुए हो

तो कैसे गुंजार उठे ।

कहां सभ्यता कहां संस्कृति

मानवता ने दम तोड़ी है,

मानव बर्बर पशु बना है

अंधा लोकतंत्र कोढ़ी है ।

टक्कर धर्म राजनीति की

भुगत रहा है आम आदमी,

कैसे इनको अलग करेंगे

उलझ रहा है आम आदमी ।

बारी बारी से मरते सब

चुल्लू भर पानी में,

लेकिन दखल नहीं कर सकते

हम इनकी मनमानी में ।

ठीक-ठीक तुम क्यों ना कहते

अपनी भाषा में परिभाषा,

धर्म जाति पर लड़ा लड़ा कर

तोड़ रहे धरती की आशा ।

सतयुग त्रेता द्वापर कलयुग

ना जाने कितने बीते हैं,

तुम परिभाषा ढूंढ रहे हो

हम जिस जीवन को जीते हैं ।

पूछ रहा हूं लोकतंत्र की

क्या भाषा परिभाषा है,

जनहित में जीवन जीने की

क्या उसकी अभिलाषा है ।

***

10 - दो अश्रुबिंदु

करुणा का अथाह वेग

चीर रहा मेरे उर को,

दृग अश्रुबिंदु न टपकाते

क्यों न तुम मेरे उर की खातिर ।

पथ जीवन का कितना कंटक

पर चलें प्यार से उस पर भी,

तो सह लूंगा कांटों की पीड़ा

में भी मानवता की खातिर ।

यह एक अकिंचन दृग तुमसे

दो प्यारी बूंदे मांग रहा,

आजन्म रखूंगा हाथों पर

मैं अपनी करुणा की खातिर ।

हम सानुराग उन कांटो पर

फिर चलने को तैयार रहें,

प्रिय जिसमें तेरा प्यार मिले

सब सह लूंगा तेरी खातिर ।

हम सब माया के बिस्तर

पर सोए हैं या की जागे हैं,

कुछ समझ नहीं पाते हैं हम

जग की प्रवंचना की खातिर ।

कुछ भी हो मां की ममता पर

तप त्याग हमें करना होगा,

हंसना रोना जीना मरना

सब है मेरा मां की खातिर ।

क्या पता व्यंग की भाषा है

या हो करुणा साकार उठी,

जो बोल रही मेरे उर से

दृग की दो बूंदों की खातिर ।

तेरा चंचल अंचल मुझको

मां बार-बार क्यों ढकता है,

शायद ना दूर चला जाऊं

तू अपनी ममता की खातिर ।

क्योंकि मेरी छाया मुझको

खींच रही है बार-बार,

लेकिन मैं उसको खींच रहा

मां तेरे आंचल की खातिर ।

किया बहुत मैंने प्रयास

नैनों से नीर बहाने का,

लेकिन असफल हर बार रहा

मैं कच्चे धागों की खातिर ।

मैं वचन तुम्हें मां देता हूं

जितनी करुणा उतना प्रवाह,

टपका कर पावन कर लूंगा

चरणों पर मैं अपनी खातिर ।

बन गए वाष्प मेरे आंसू

इसलिए आज मैं वेबस हूं,

मिल गए हैं काली स्याही में

कुछ उद्गारों की ही खातिर ।

कुछ अभी नहीं है मुझे पर मां

इसीलिए काव्य की यह करुणा,

जिसने लघु जीवन घुलता है

स्वीकार करो मेरी खातिर ।

***

11 - भारत महान

हर चिंगारी को घेर लिया

हे अंधकार ही अंधकार,

मैं बैठा हूं उस परिसर में

जिसमें पड़ता है कुछ प्रकाश ।

शतपथ पर सदा बिचरने का

कई बार किया हमने विचार,

दृण करने को मैंने अब फिर

कर लिया आत्म का कुछ विकास ।

झूठी खूंटी का यह फंदा

बन गया है मेरे गले का हार,

मेरा आंगन क्यों मुझसे ही

ना आया है अब कुछ भी रास ।

मेरा जग मेरी प्रतिभा है

इसलिए भावना का विकास,

जाता हूं करके आज अभी

बात न जग में कुछ भी खास ।

हम सब मिट्टी के पुतले हैं

दिव्य नीर में गल जाएंगे,

पक जाएं हो जाएं कठोर

प्राप्त करो कुछ दिव्य प्रकाश ।

मैं आदिपुंज हूं महापुंज हूं

शक्ति पुंज अस्तित्व यही,

फिर से ना कहीं बिखर जाऊं

करता आत्मा का सतत विकास ।

हे देव स्वर्ग के अभी उठो

कुछ निर्माणों की बात करो,

चमका दो अपनी प्रतिभा को

वरना होता अस्तित्व नाश ।

क्या दिवास्वप्न में देख रहा

सो गया है मेरा जगतगुरु ,

एक गहरी लंबी निंद्रा में

बरसों पहले हो गया ह्रास ।

नहीं नहीं स्वीकार नहीं

क्योंकि मेरा अस्तित्व यही,

देता आया जग को जीवन

जो है प्रभु के चरणों का दास ।

क्यों ना हो भारत महान

वसुधैव कुटुंबकम जो कहता है,

धरती को देता है पुराण

करने जगती का ही विकास ।

इतिहास साक्षी है मेरा

नानक कबीर दादू मीरा,

रसखान सूर तुलसी आदि

नित्य देते हैं हमको प्रकाश ।

मर कर भी अमर शिवाजी है

अशफाक भगत सिंह से जवान,

लक्ष्मीबाई को देख अभी

न समझ सके तुम कुछ भी काश ।

तो समझो फिर भारत महान का

नारा व्यर्थ हुआ जाता,

क्योंकि गौरव को भूल हमीं

करते अपना सर्वस्व नाश ।

आशा की ज्योति जीवन को

अभी बनाए रखती है,

इसलिए देव ज्योति लेकर

रग-रग का करना है विकास ।

हो मातृभूमि तेरा विकास

देव सृष्टि तेरा विकास,

हो देवमानव तेरा विकास

मेरे मन की है यही आस ।

***

12 - आत्म गौरव

बोलो अमर वीर तुम बोलो

क्या सहर्ष सुधा वर्षाओगे,

अपनी प्यारी भारत मां को

सिंहासन पर बिठलाओगे ।

मां की जंजीरों काटी तो

क्या हुआ तात क्या हुआ तात,

पर खड़ी हुई है अबला सी

क्या सबला उसे बनाओगे ।

संघर्ष हुआ संघर्ष हुआ

तन मन धन से संघर्ष हुआ,

पर सिंहासन तो खाली है

बोलो मां को बिठलाओगे ।

गणतंत्र कहो लोकतंत्र कहो

तब तक यह तंत्र बनावटी है,

जब तक है राजतंत्र उल्टा

या सीधा उसे बनाओगे ।

अधिकार हमारा आजादी

संघर्ष हमारा इसीलिए,

उठ कर आओ उठ कर आओ

गौरव को तुम दुहराओगे ।

हम याद करें जवानों को

हम याद करें किसानों को,

हम याद करें नेताओं को

क्या तुम विशुद्ध बन जाओगे ।

है अमर भारती और भारत

ऋषियों का रक्त प्रवाहित है,

या अपनी पहचान भूलकर

मिट्टी में मिल जाओगे ‌।

मिट्टी का पुतला मिट्टी में

मिलकर हर बार संवरता है,

इसलिए तात जीवन देकर

भारत को स्वर्ग बनाओगे ।

कैसी कश्मीर समस्या है

कैसा मंदिर मस्जिद विवाद,

धरती अपनी संस्कृति अपनी

बोलो इनको सुलझाओगे ।

यह कांड हुआ वह कांड हुआ

ना जाने किस का अंत हुआ,

क्या सप्त कांड मानस पढ़कर

यह कांड सभी मिटाओगे ।

हां रामराज हां रामराज्य

गांधी की यही कल्पना थी,

उसको लाकर के भारत में

हर समस्या को सलझाओगे ।

हम हैं सच्चे भारतवासी

करना आज प्रतिज्ञा है,

गौरव पाने संस्कृति पाने

तुम अपनी जान गवांओगे ।

***

13 - दावानल

कितने सुभाष कितने गांधी तैयार किए

अशफाक वीर सावरकर महान किए,

भगत सिंह बिस्मिल झूले फांसी पर

है देश तुम्हें हमने कितने बलिदान दिए ।

यह राम कृष्ण की पावन धरती है

सीता राधा भी नृत्य यहां करतीं हैं,

संत सुर तुलसी मीरा की वाणी

जीवन में नवसंचार यहां करती है ।

हुए सत्तर वर्ष आज आजादी को

हमने देखा केवल अब तक बर्बादी को,

अस्मिता तुम्हारी ढूंढ रहा हूं बच्चों में

पैदा होते शायद ही देखें गांधी को ।

वन में अब वनराज नहीं दिखते हैं

केवल गीदड़ भबकी देते फिरते हैं,

उर मैं अंगारे रखने वाले जागो

कितने निरीह बाजारों में बिकते हैं ।

ज्वालाओं में केवल झोपड़ियां जलती हैं

लोकतंत्र पर सामंतवाद अंकुश रखती है,

गांवों में दूध नहीं मिलता है पीने को

कितनी गायें रोजाना अब कटती हैं ।

मैं कितना रोया हूं अब तक रातों में

पर नहीं सहोदर भुला सका बातों में

मैं चाह रहा हूं सारा दावानल लिख दूं

पर ऐसी कोई कलम नहीं हाथों में ।

***

आनन्द सहोदर

तिलकचौक

मधूसुदनगढ़

जिला – गुना (मध्यप्रदेश) पिन कोड 473287