The great Indian stories contest
(Gems of India)
हरियाली से निकला समृद्धि का रास्ता
आशीष कुमार त्रिवेदी
भारत को सदियों से एक कृषि प्रधान देश माना जाता रहा है। इस देश की अधिकांश जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। जिनकी अजीविका का मुख्य साधन खेती बाड़ी ही है।
वर्तमान समय में भारत की गिनती खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर देशों में की जाती है। किंतु एक समय ऐसा भी था जब कड़ी मेहनत के बाद भी हमारे किसान देश की आवश्यक्ता पूरी करने लायक अन्न का उत्पादन भी नहीं कर पाते थे। हमें दूसरे देशों से अनाज का आयात करना पड़ता था। एक देश जिसकी एक बड़ी जनसंख्या का प्रमुख पेशा खेती हो के लिए यह एक शर्मनाक स्थिति थी। यह स्थिति कई सालों से चली आ रही थी। पर देश को इस कलंक से मुक्त करने की कोई कोशिश भी नहीं हो रही थी।
लेकिन हमारे देश की माटी ने समय समय पर ऐसी महान हस्तियों को जन्म दिया है जिन्होंने अपनी मेहनत, लगन व बुद्धिमता से इस देश को संकट से उबारा है। देश की माटी से जन्मे ऐसे ही एक सपूत का नाम है डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन। डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन को भारत की अनोखी क्रांति 'हरित क्रांति' का जनक माना जाता है। साठ के दशक में जब देश खाद्यान्न के संकट से जूझ रहा था तब डॉ. स्वामीनाथन ने अधिक उपज देने वाले गेहूं के बीजों का विकास किया। इस क्रांति ने भारत को भुखमरी से छुटकारा दिला कर खाद्यान्न उत्पादन के मामले में स्वावलंबी बनाया। आज हम इस स्थिति में हैं कि ना सिर्फ अपनी आवश्यक्ता पूरी कर सकते हैं बल्कि खाद्यान्न का निर्यात भी करते हैं।
कृषि प्रधान देश होते हुए भी हम खाद्यान्न उत्पादन के मामले में पिछड़े हुए थे। इसका प्रमुख कारण था कि हमारी कृषि व्यवस्था सदियों से परंपरागत तरीकों पर निर्भर थी। किसान अच्छी फसल के लिए वर्षा पर निर्भर करते थे। यदि वर्षा सही समय पर नहीं हुई तो किसान की सारी मेहनत बेकार चली जाती थी। बीजों की उत्पादकता बढ़ाने एवं कृषि के लिए आधुनिक उपकरणों के प्रयोग पर ध्यान नहीं दिया जाता था। देश शताब्दियों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा। विदेशी शासकों ने केवल अपने भले के बारे में सोंचा। देश की गरीब जनता के उत्थान पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अंग्रेज़ों के शासन में भारत में कई भयानक आकाल पड़े जिसमें भुखमरी के कारण कई नागरिकों की जान चली गई। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी देश की इस दुर्दशा से दुखी रहते थे। लेकिन कृषि को उन्नत करने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए।
स्वतंत्रता के बाद इस बात की आवश्यक्ता महसूस की गई कि देश को अन्य क्षेत्रों के साथ साथ खाद्यान्न उत्पादन में भी आत्मनिर्भर बनाना बहुत आवश्यक है। यदि हम अपने नागरिकों का पेट भी नहीं भर सकेंगे तो प्रगति के रास्ते पर आगे कैसे बढ़ सकेंगे। अतः कृषि को परंपरागत तरीकों से निकाल कर वैज्ञानिक तकनीकि की तरफ ले जाने के लिए देश के कई वैज्ञानिकों ने जी तोड़ प्रयास किया। इन वैज्ञानिकों में डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन का नाम अग्रणी है।
डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन (मनकोंबू संबाशिवन स्वामीनाथन) का जन्म 7 अगस्त 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में हुआ था। इनके पिता डॉ. एम.के. संबाशिवन एक सर्जन थे। माता का नाम पार्वती थंगअम्मल संबाशिवन था। डॉ. स्वामीनाथन के पिता गांधीवादी थे। महात्मा गांधी के आवाहन पर उन्होंने विदेशी वस्त्रों तथा वस्तुओं के बहिष्कार में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। छुआछूत के निवारण तथा दलितों के मंदिर में प्रदेश को लेकर आंदोलन किया। वह चाहते थे कि देश कुरीतियों को मिटा कर प्रगति के रास्ते पर बढ़े। इन सब बातों का स्वामीनाथन के मन पर गहरा असर हुआ।
डॉ. स्वामीनाथन के पिता का मानना था कि जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है। मेहनत व लगन से व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। अपने पिता की इस बात को उन्होंने जीवन का मूल मंत्र बना लिया। छोटी उम्र में पिता को खो देने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। बल्कि जीवन में आगे बढ़ने की ठान ली। 15 साल की उम्र में डॉ. स्वामीनाथन ने कुंभकोणम के कैथोलिक लिटिट फ्लावर हाई स्कूल से मैट्रिक्युवेशन की परीक्षा पास की।
डॉ. स्वामीनाथन के पिता डॉक्टर थे। अतः उन्होंने भी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन 1943 में बंगाल में पड़े भयानक सूखे ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। उन्होंने तय किया कि वह कुछ ऐसा करेंगे जिससे देश को कृषि क्षेत्र में सफल बनाया जा सके। पहले उन्होंने केरल के तिरुअनंतपुरम से प्राणी विज्ञान में बीएससी की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद कोयंबटूर के कृषि कॉलेज से कृषि विज्ञान में बीएससी की डिग्री हासिल की। .
1949 में डॉ. स्वामीनाथन को भारतीय कृषी अनुसंधान के जेनेटिक्स तथा प्लांट ब्रीडिंग विभाग में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ उन्होने अपने बेहतरीन काम से सभी को प्रभावित किया। यहाँ ऊँचे पद पर रहते हुए उन्होंने साइटोजेनेटिक्स में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री प्राप्त की। डॉ. स्वामीनाथन बहुत ही प्रतिभाशाली व मेहनती थे। पढ़ाई के साथ साथ उन्होंने कई जगहों पर काम भी किया।
नीदरलैंड के विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग में यूनेस्को के फैलो के रूप में उन्होंने 1949 से 1950 के दौरान काम किया। 1952 से 1953 में उन्होने अमेरीका स्थित विस्कोसिन विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग में रिसर्च ऐसोसियेट के रूप में काम किया। 1952 में उन्होंने कैंब्रिज विश्विद्यालय के कृषि स्कूल से आलू पर शोध कर पीएचडी की।
डॉ. स्वामीनाथन चाहते थे कि अब उनका पूरा ध्यान केवल रिसर्च पर रहे। अतः डॉ. स्वामीनाथन ने अंर्तराष्ट्रीय संस्थान में चले गए। वहाँ उन्होंने चावल पर शोध किया। यहाँ उन्होने चावल की जापानी और भारतीय किस्मों पर शोध किया। 1965 में डॉ. स्वामीनाथन पूसा में स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में नौकरी मिल गई। यहाँ उन्हें गेहुँ पर शोध कार्य का दायित्व सौंपा गया। साथ ही साथ चावल पर भी उनका शोध चलता रहा।
डॉ. बोर्लाग्स जब भारत आये तो उन्होने अपने ज्ञान से स्वामीनाथन तथा उनके साथियों को शिक्षित किया।
गेंहूं पर किए उनके शोध ने ही उन्हें सबसे अधिक ख्याति दिलाई। डॉ. स्वामीनाथन का मानना था कि खेतों में काम करने वाला किसान मिट्टी और बीज की गुणवत्ता को सबसे अधिक पहचानता है। अतः अपने शोध में वह किसानों की सलाह को सर्वोपरी रखते थे। उन्होंने 1966 में मैक्सिको के बीजों का मिश्रण पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ कर के उच्च उत्पादकता वाले गेहूँ के संकर बीजों का विकास किया। इस प्रजाति को नाम दिया गया 'शरबती सोनारा'। इन बीजों को 'हरित क्रांति' योजना के अंतर्गत देश भर के किसानों में वितरित किया गया। किसानों ने इन बीजों को अपने खेतों में बोया। जो परिणाम सामने आए वह आश्चर्य जनक थे। बीजों के ज़रिए बहुत अच्छी फसल प्राप्त हुई। हरित क्रांति ने सिर्फ 25 सालों में भारत को दुनिया में खाद्यान्न की सर्वाधिक कमी वाले देश के कलंक से निजात दिला कर आत्मनिर्भर बना दिया। 1970 में डॉक्टर नॉरमन बोर्लाग्स ने नोबेल पुरस्कार लेते समय डॉ. स्वामीनाथन का नाम लेते हुए कहा कि यदि उन्होंने ‘मैक्सिकन ड्वार्फ’ पर शोध न किया होता तो एशिया में हरित क्रान्ति का होना असंभव था ।
भारतीय कृषि व्यवस्था की एक कमी यह भी थी कि खेत में एक साल में एक ही फसल बोई जा सकती थी। देश में खाद्यान्न की उपज बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी था कि खेत में एक से अधिक फसलें पैदा की जा सकें। अतः 1967 से 1968 में इस बात पर जोर दिया गया कि योजना का दायरा सिर्फ एक ही फसल तक न रखा जाये। इस उद्देश्य के लिए अधिक उपज देने वाले बीज, रासायनिक खाद तथा सिंचाई के साधनों का विकास किया गया।
1979 में डॉ. स्वामीनाथन को योजना आयोग का सदस्य बनाया गया। यहाँ कार्य करते हुए उनके द्वारा दिए गए सुझावों से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। वह 1982 तक योजना आयोग के सदस्य रहे। उनके द्वारा किए गए कार्यों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हो रही थी। यही कारण था कि 1983 में उन्हें अंर्तराष्ट्रीय संस्थान मनिला के महानिदेशक का पद प्राप्त हुआ। यहाँ उनका कार्यकाल 1988 तक रहा।
1954 से 1972 के बीच डॉ. स्वामीनाथन को कटक तथा पूसा में स्थित देश के प्रतिष्ठित कृषी संस्थानों में काम करने का मौका मिला। इस कार्यकाल में उन्होने शोध कार्य के साथ शिक्षण का काम भी किया। साथ ही साथ प्रशासनिक दायित्व को भी बखूबी निभाया। अपने कार्यों से उन्होने सभी को प्रभावित किया और भारत सरकार ने 1972 में भारतीय कृषी अनुसंधान परिषद का महानिदेशक नियुक्त किया। साथ में उन्हे भारत सरकार में सचिव भी नियुक्त किया गया।
डॉ. स्वामीनाथन ने देश व विदेश के कई संस्थानों में उच्च पद पर अनुनांशिकी विशेषज्ञ के तौर पर काम किया। उन्होंने आलू, गेहूं, चावल, जूट तथा अन्य कृषि उत्पादों पर शोध कर उनकी उन्नत किस्मों का विकास किया।
डॉ. स्वामीनाथन को भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली में आनुवांशिक विभाग में नियुक्त किया गया। यहाँ इनका प्रमुख योगदान आनुवांशिकी में रहा। उन्होंने विकिरण द्वारा पौधों की जातियां बनाने के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। डॉ. स्वामीनाथन ने परमाणु ऊर्जा को फसलों की उन्नति हेतु प्रयोग किया है। इनके इस कार्य को स्वामीनाथन स्कूल ऑफ रेडियेशन जैनेटिक्स के नाम से जाना जाता है।
डॉ. स्वामीनाथन को कई पुरुस्कार व सम्मान मिले हैं।
1971 में सामुदायिक नेतृत्व के लिए 'मैग्सेसे पुरस्कार'
1986 में 'अल्बर्ट आइंस्टीन वर्ल्ड साइंस पुरस्कार'
1987 में पहला 'विश्व खाद्य पुरस्कार'
1991 में अमेरिका में 'टाइलर पुरस्कार'
1994 में पर्यावरण तकनीक के लिए जापान का 'होंडा पुरस्कार'
1997 में फ़्राँस का 'ऑर्डर दु मेरिट एग्रीकोल' (कृषि में योग्यताक्रम)
1998 में मिसूरी बॉटेनिकल गार्डन (अमरीका) का 'हेनरी शॉ पदक'
1999 में 'वॉल्वो इंटरनेशनल एंवायरमेंट पुरस्कार'
1999 में ही 'यूनेस्को गांधी स्वर्ण पदक' से सम्मानित
2000 में महात्मा गांधी प्राइज़ ऑफ यूनेस्को
2007 में लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अवार्ड
इसके अलावा भारत सरकार ने डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन को 'पद्मश्री' (1967), 'पद्मभूषण' (1972) और 'पद्मविभूषण' (1989) से सम्मानित किया था।
डॉ. स्वामीनाथन की विद्वत्ता को स्वीकरते हुए इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी के साथ बांग्लादेश, चीन, इटली, स्वीडन, अमरीका तथा सोवियत संघ की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियों में उन्हें शामिल किया गया है। वह 'वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंसेज़' के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। इसके अलावा अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की उपाधियों से उन्हें सम्मानित किया है।
1999 में टाइम पत्रिका ने स्वामीनाथन को 20वीं सदी के 20 सबसे प्रभावशाली एशियाई व्यक्तियों में से एक बताया था।
डॉ. स्वामीनाथन पूरी तरह कृषि क्षेत्र के उत्थान के लिए समर्पित हैं। अतः उन्होंने विभिन्न पुरस्कारों और सम्मानों के साथ प्राप्त धनराशि से 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में 'अवलंबनीय कृषि तथा ग्रामीण विकास' के लिए चेन्नई में एक शोध केंद्र एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन' की स्थापना की। 'एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन' का मुख्य उदेश्य भारतीय गांवों में प्रकृति तथा महिलाओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार पर आधारित रोजग़ार उपलब्ध कराने वाली आर्थिक विकास की रणनीति को बढ़ावा देना है।
1951 में कैंब्रिज में पढ़ते समय डॉ. स्वामीनाथन की मुलाकात अपनी जीवनसंगिनी मीना स्वामीनाथन से हुई। दोनों चेन्नई में रहते हैं। उनकी तीन पुत्रियां हैं। उनकी पुत्री डॉ. सौम्या स्वामीनाथन वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाईज़ेशन की डेप्युटी डाइरेक्टर जनरल हैं। दूसरी पुत्री डॉ. मधुरा स्वामीनाथन बैंगलूरू में स्थित भारतीय सांख्यकी संस्थान में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। तीसरी बेटी नित्या स्वामीनाथन भी ईस्ट ऐंग्लिआ विश्विद्यालय में सीनीयर लेक्चरर हैं।
डॉ. स्वामीनाथन के पिता एक गांधीवादी थे। उनके उन्हीं गांधीवादी विचारों का प्रभाव उनके जीवन में भी गहराई से पड़ा। वह समाज के गरीब शोषित वर्ग के बारे में सोंचते थे। इसी कारण बंगाल में पड़े भयानक सूखे के कारण उन्होंने अपना सारा जीवन कृषि क्षेत्र की उन्नति में लगा दिया। वह चाहते थे कि हमारे देश के गरीब किसानों को उनकी मेहनत का उचित फल मिल सके। देश की गरीब जनता का पेट भर सके। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
डॉ. स्वामीनाथन के प्रयासों ने ही आज हमें एक सम्मान जनक स्थिति में पहुँचाया है। डॉ. स्वामीनाथन देश की उन महान हस्तियों में से एक हैं जिन्होंने हमारे देश की कीर्ति को विदेशों में फैलाया है।
1987 में संयुक्त राष्ट्र के सेक्रेटरी जनरल ज़ेवियर पेरेज़ डी क्यूलार ने डॉ. स्वामीनाथन के योगदान के बारे में लिखा है।
'डॉ. स्वामीनाथन एक महान व्यक्ति हैं। उन्होंने खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में कृषि विज्ञान में भारत व अन्य विकासशील देशों में अभूतपूर्व योगदान दिया है। वह इतिहास में सदैव एक महान वैज्ञानिक के तौर पर जाने जाएंगे।'
डॉ. स्वामीनाथन का देश के लिए किया गया योगदान देश की युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन देगा कि हमें हमारे देश की उन्नति के लिए स्वयं को समर्पित करना चाहिए।