yah dil mange more in Hindi Motivational Stories by VIRENDER VEER MEHTA books and stories PDF | यह दिल मांगे मोर

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यह दिल मांगे मोर

"एक जुनून देखा था मैंने हमेशा उनकी बातों में आँखों में, तिरंगे की शान के लिए मर मिटने का जुनून... और शायद उस दिन उसने अपने जुनून को पा लिया था या फिर जिस लक्ष्य के लिए उसने जन्म लिया था, उसे पूरा कर लिया था....।" अपनी बात कहते हुए अनायास ही मेरी नजरें, सफ़ेद बर्फ से ढकी चोटियों के बीच पूर्णिमा के चाँद की रौशनी में अलग से चमकती उस चोटी पर जा टिकी थी जहां अक्सर हम बातें किया करते थे।

श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर चांदनी रात की बर्फीली हवाओं के बीच बात करते-करते 'उसका' जिक्र आ गया तो पास बैठे मेरे 'अंडर' में ट्रेनिंग लेने वाले 'नए कमांडोंज' कृष्णा,अनवर,आकाश,थापा,विक्टर और परमजीत सभी उसके बारें में जानने को उत्सुक हो उठे।

"सर, खबरों में तो बहुत सुना-पढ़ा है उनके बारें में! आज आप हमें उनके जूनून की कहानी सुनाईये न! आपने तो जिन्दगी के कई दिन गुजारे हैं उनके साथ।" कृष्णा की कही बात पर साथ बैठे सभी ट्रेनरस के चेहरों पर उसकी बात की सहमति के भाव उभर आये।

"बहुत ज्यादा समय तो नहीं दिया भाग्य ने उसके साथ रहने का लेकिन जो कुछ जानता हूँ, जरूर बताऊंगा आप लोगों को।" कहते हुए मेरे दिल-ओ-दिमाग पर जैसे एक चलचित्र सा उभरने लगा था।

......... हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के 'घुग्‍गर गाँव' की हसीन वादियों में रहने परिवार में परमात्मा ने दो बेटियों के बाद उनके आंगन में दो-दो बेटें बख्शें थे। श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा रखने वाली माँ के लिए उन दोनों के नाम लव और कुश से अधिक और क्या हो सकते थे? १९७४ में ९ सितंबर का वो दिन था, जब उसका जन्म हुआ, भाई कुश को विशाल के नाम से पहचान मिली तो उसे यानी लव को विक्रम के नाम से पूरी दुनिया ने जाना था।
शुरू में डी ए वी और फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में शिक्षा की शुरुआत हुयी, 'छावनी क्षेत्र' के स्कूल होने से सेना के अनुशासन और पिता से देश प्रेम के किस्से सुन-सुन कर स्कूल के समय से ही उसके मन में देश प्रेम जाग्रत होने लगा था। स्कूल में शिक्षा में ही नहीं बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल होने के साथ उसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेने का जज़्बा था। इंटर की पढ़ाई करने के बाद विक्रम का चंडीगढ़ जाना हुआ जहां उसने डीएवी कॉलेज में विज्ञान में स्नातक किया, इस दौरान वह एन सी सी का सर्वश्रेष्ठ कैडेट भी चुना गया और उसे गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लेने का अवसर भी मिला। सेना में जाने का उसका अब पूरा मन बन चुका था लिहाजा उसने साथ ही सी डी एस (संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा) की भी तैयारी शुरू कर दी थी। इसी बीच उसे हांगकांग में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी का आफर आया लेकिन भारतीय सेना में जाने के जज्बे के चलते वह खुद को इसके लिए तैयार नहीं कर पाया और सेना में जाने के अटूट निश्चय के चलते उसने इस आफर को ठुकरा दिया। और आखिर विज्ञान में स्नातक करने के बाद १९९६ में उसका चयन सी डी ए स के जरिए सेना में हो गया।........

पास बैठे कमांडोज की ख़ामोश निगाहें मुझ पर टिकी हुयी थी और मैं उसकी यादों में खोया अपनी बात कहे जा रहा था।

".....जुलाई महीने के बरसात भरे दिन थे वो जब विक्रम को भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रवेश किया। करीब १६ महीने के कड़े परिक्षण के बाद दिसंबर १९९७ में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उसे पहली नियुक्ति ६ दिसम्बर १९९७ को सेना की जम्मू-कश्मीर राइफल्स १३, में लेफ्टिनेंट के पद पर जम्मू के सोपोर में मिली थी। यही वह जगह थी, जहां हम पहली बार मिले थे।....."

"सर उन्होंने कमांडोज की टेनिंग भी आप के साथ ली थी।" आकाश ने सहज ही बीच में उत्सुक हो कर प्रश्न किया।

"नहीं आकाश, हमारी कमांडोज की टेनिंग अलग-अलग जगह पर और अलग बैच में हुयी थी।" शायद १९९९ में विक्रम ने कमांडो ट्रेनिंग ली थी और उसके साथ के और भी कई प्रशिक्षण उसने लिए थे।

"सर आप लोग पहली बार कब मोर्चे पर गये थे?" ये अनवर का प्रश्न था।

"अनवर छोटी-छोटी झड़प के दौरान अक्सर हम मोर्च पर जरुर गश्त किया करते थे लेकिन....." कहते हुए मेरी यादों में 'कारगिल' झलक उठा।

".... पहली बार हम कारगिल के लिए युद्ध में गये थे। जून महीने की एक तारीख़ थी और साल था १९९९ का, जब हमारी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था। दुश्मन को जबर्दस्त जवाब देने और अपने हौसलें दिखाने के लिए हम सभी बेचैन हो रहे थे और विक्रम ने तो जैसे दुश्मन के ठिकानों को तहस-नहस करने की कसम ही उठा ली थी....... इन हमलों में हमने 'हम्प' 'राकी' 'नाब' जैसे कई स्थानों पर अपना तिरंगा फहरा दिया था। इसी हमले के बाद विक्रम के शौर्य को सम्मान देते हुए उसे जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया था। कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाई. के. जोशी जी ने विक्रम को 'शेर शाह' का नाम दिया था और यही उसका कोड नाम भी बना था। इसके बाद ही इसी छोटी नम्बर ५१४० को (श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर) दुश्मन सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी विक्रम की टुकड़ी को मिली थी।" कहते हुए सहज ही मेरी नजरें फिर से सफ़ेद बर्फ से ढकी चोटी नम्बर ५१४० पर जा टिकी थी।

"सर, ये रास्ता वाकई बेहद दुर्गम और कठिन है और जब ये दुश्मन सेना के कब्जे में रहा होगा, उस समय की परिस्थतियों का अंदाज लगाना कोई मुश्किल नहीं है।" विक्टर ने मेरा ध्यानाकर्षित करते हुए कहा।

"सही कहा तुमने विक्टर।" उसकी बात का समर्थन करते हुए मैंने बात को जारी रखा। "रास्ता बेहद दुर्गम ही नहीं बल्कि यहाँ चप्पे-चप्पे पर मौत हमारा इंतजार कर रही थी लेकिन हमारे हौसलों और बिक्रम के जोशीले नेतृत्व ने इस मंजिल को भी पार कर ही लिया था और 20 जून की सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया था।"......

सभी कमांडोज की नजरें मुझ पर लगी हुयी थी और मेरी कानों में आज भी विक्रम के वो शब्द गूँज रहे थे जो भारतीय जनमानस में एक स्लोगन बन के रच बस गये थे।....... "यह दिल मांगे मोर।" उस दिन चोटी पर कब्जे के फौरन बाद जब विक्रम ने रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष "यह दिल मांगे मोर" कहा तो सिर्फ हमारे ही नहीं, पूरी भारतीय सेना के साथ हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। ये ही वो दिन था जब उसके कोड नाम शेरशाह के साथ ही उसे 'कारगिल का शेर' के नाम से पुकारा गया था।"

"हाँ सर, मुझे याद है," कहते हुए ट्रेनर अनवर के चेहरे पर एक चमक उभर आई थी। "अगले दिन इसी चोटी पर भारतीय झंडे के साथ विक्रम सर और आपकी पूरी टीम की फोटो अखबारों और मीडिया में छा गयी थी।"

"एक दम हीरो लग रहे थे विक्रम सर....!" सबसे करीब बैठे ट्रेनर थापा ने बड़े जोश से कहा तो गंभीर माहौल में भी मेरे होठों पर मुस्कान आ गयी।

" हाँ था तो हीरो ही हमारा विक्रम, और हीरो भी किसी भी 'लव स्टोरी मूवी' का!"

"सर, मैंने कहीं पड़ा था कि वे भी किसी से प्यार करते थे और कारगिल-वार के बाद विवाह भी करने वाले थे।" कमांडोज में से एक विजय ने सहज ही प्रश्न किया तो मेरे जहन में विक्रम के पर्स में रहने वाली .....

"बहुत अधिक तो नहीं बता सकता लेकिन हाँ कारगिल से लौटने के बाद अपने प्रेम को विवाह में बदलने की बात जरुर की थी उसने एक दिन। और उसी दिन शेयर किये थे, अपने दिल के जज्बात हम लोगों के साथ।

'सर, कौन थी वह? और कब शुरू हुआ था विक्रम सर की प्रेम कहानी?".........

"डिंपल नाम था, विक्रम की धडकन का।" कमांडोज के प्रश्नों से वातावरण के जवाब "ये ही कोई २१ वर्ष की उम्र में पंजाब यूनिवर्सिटी में दोनों की पहली मुलाक़ात हुयी थी। चार साल के इस प्रेम में शायद बहुत कम समय बिताया था उन दोनों ने साथ। लेकिन एक दुसरे की धडकनों से इस शिद्दत से जुड़े गए थे कि शायद परमात्मा को भी इस प्रेम कहानी के अधूरेपन पर दुःख जरूर हुआ होगा। मुझे याद है एक बार उसने डिंपल की बात करते हुए कहा था। दोस्त मैंने तो अपने 'प्यार' से कह दिया है कि 'मैं लौटकर आऊंगा जरुर, या तो लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर।'

"लेकिन सर, शायद परमात्मा की मर्जी नहीं थी ऐसी। तभी तो करगिल से उनकी वापिसी तिरंगे में लिपटकर ही हुयी।" परमजीत उदास हो कर बोल उठा।

"हाँ परमजीत, लेकिन प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। सुना था मैंने, कि डिंपल ने अपना बाकी का जीवन भी अपने प्रेम की याद में बिताने का फैसला करके इस प्रेम कहानी को अमर कर दिया है।

"सर, वो थे ही इतने निश्चल हृदय के, कौन नहीं करता उनसे प्यार।"...... थापा मुस्करा दिया।

"हाँ तुमने सही कहा, सच में विक्रम एक सच्चे दिल और हर भारतीय से प्यार करने वाला था। अपने देश और देशवासियों से वह कितना प्यार करता था, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 18 वर्ष की उम्र में ही उसने अपनी आंखें दान कर दी थी।"

"सर, उसके बाद आगे क्या हुआ?" परमजीत ने हमारी बात के रुख को वापिस उसी बिन्दु पर लौटाने की कोशिश की।

"हाँ परमजीत, इसके बाद हमारी सेना ने चोटी नम्बर ४८७५ को भी अपने अधिकार में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसके लिए भी कैप्टन विक्रम को ही जिम्मेदारी दी गयी। विक्रम जब तब कहा करता था कि मेरी सफलता में मेरे मित्रों का ही साथ है, चाहे वह 'लेफ्टिनेंट नवीन' जैसे बहादुर जूनियर हो या लेफ्टिनेंट अनुज नैयर जैसे सहायक हों, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए न जाने कितने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा है। लेकिन एक सच यह भी था कि हम सभी जानते थे कि विक्रम अकेला ऐसा शूरवीर था जो नाम से ही नहीं सच में 'कारगिल का शेर' था। एक ऐसा शेर जो अपने साथियों की तरफ आई मौत का रुख भी पलट दिया करता था।.....

"हां सर, सही कह रहे है आप। इसलिए तो उन्होंने अपने जूनियर के लिए लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया था। " परमजीत की आवाज में दुःख उभर आया था।

"हाँ! बहुत बुरा दिन था वह हमारे मिशन के लिए," मेरी आखें भी नम होने लगी थी। "हमारा मिशन लगभग सफलता की मंजिल की ओर अग्रसर ही था, जब लेफ्टिनेंट नवीन की पोजीशन के पास एक जबर्दस्त विस्फोट हुआ। नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे, उसने हम सबको चेतावनी देते हुए दूर हटने के लिए कहा। हम लोगों ने दुश्मन को टारगेट पर लेना जारी रखा। विक्रम ने अपनी पोजीशन को तत्काल चेंज किया और नवीन तक पहुँच गया। नवीन ने खुद को ठीक बताते हुए विक्रम से अनुरोध किया। "आई ऍम राईट सर, आई ऍम ऑन माय टार्गेट। यू मे कंटिन्यू सर....." लेकिन विक्रम कैसे अपने जवान को मौत के बीच छोड़ सकता था, वह लेफ्टिनेंट नवीन को बचाने के लिए पीछे की और घसीटने में लग गया। यही वह क्षण था जब दुश्मन टोली की ओर से हो रही गोलीबारी में से एक गोली विक्रम की छाती में आ लगी और विक्रम 'जय माता दी' कहते हुये वीर गति को प्राप्त हो गया और इस तरह........।"

"सात जुलाई १९९९ का वह दिन हमारी सेना के लिए एक अपूरणीय क्षति का दिन बन गया।" कृष्णा ने मेरी अधूरी बात को पूरा कर दिया। हम सभी की आखें भीगी हुयी थी। वर्षों बीते गए थे, लेकिन मेरी आज भी विक्रम की सरल मुस्कान मेरी प्रेरणास्त्रोत बनकर मेरे साथ रहती है।

"सर हम वीरों के लिए तो यही पल गौरव के होते हैं, जब हम अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण भी देने से न हिचके।" अनवर के शब्दों ने हमारे बीच की ख़ामोशी को भंग किया और एक बार फिर सब की नजरे मुझ पर टिक गयी।

"हाँ अनवर, एक जवान के लिए इससे बड़ा गौरव क्या होगा कि वह मातृभूमि के लिए अपना जीवन अर्पण कर दे। मैं अपनी आखों की नमी को पोंछते हुए मुस्करा दिया। "और कैप्टन विक्रम बत्रा तो इस बात का जीता जागता प्रमाण था, शायद इसी लिए तो उसने अपने जुड़वाँ भाई 'कुश' को २०-२२ दिन पहले लिखे आख़िरी पत्र में लिख दिया था। "प्रिय कुश, मां और पिताजी का ख्याल रखना..... यहाँ कुछ भी हो सकता है।"
"सर, हमारी सरकार ने परमवीर चक्र से 'विक्रम सर' को समानित करके उन्हें ही नहीं हर जवान को सम्मानित किया था।" परमजीत का हाथ सैलूट के लिए उठा हुआ था।

"यु आर राईट परमजीत!" भारत सरकार ने कैप्टन विक्रम बत्रा के अदम्य साहस और पराक्रम के लिए, ३७ दिन बाद ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उसे मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया था जो ७ जुलाई १९९९ से ही प्रभावी हो गया था।" आई सैलूट हिम, रियली ही इज ए लायन ऑफ़ कारगिल!" कहते हुए मैंने अपने हाथ उठा दिए।

सुबह का सूरज हिमालय की चोटियों पर अपनी दस्तक देने लगा था। मेरे साथ ही सभी कमांडोज के हाथ सैलूट के लिए उठ गये और हमारे सम्मलित स्वर में राष्ट्र गान का जादू बर्फीली हवाओं में गूंजने लगा था, चोटी पर लगा हमारा तिरंगा भी पूरी शिद्दत से कैप्टन विक्रम बत्रा के सम्मान में लहरा रहा था।

विरेंदर 'वीर' मेहता

"मौलिक,स्वरचित व अप्रसारित"