शांतनु
लेखक: सिद्धार्थ छाया
(मातृभारती पर प्रकाशित सबसे लोकप्रिय गुजराती उपन्यासों में से एक ‘शांतनु’ का हिन्दी रूपांतरण)
तीन
शांतनु तो उसकी सुंदरता देख कर ही हक्का बक्का हो गया था| उसने लेमन रंग का सूट पहना था, आँखों पर काले गोगल्स चड़े थे| बाल खुले उसके कंधो से थोड़े ही नीचे जा रहे थे| अन्य लडकियों की तरह बालों को बीच में से अलग करने की बजाय उसने अपने बाल दाहिनी और से अलग किये थे| कुछ तो अलग था उस में पर जो भी था उस पर बिलकुल जच रहा था| दाहिने कंधे पर उसने मैरून रंग की चमकीली सी बैग लटकाई थी| परफ्यूम की सुगंधने शांतनु के दिमाग को भर दिया था| वो शांतनु से बस दो-तीन इंच लंबी जरुर थी|
अक्षय भी उसी को देख रहा था, टिकटिकी लगाये...
“हं...हं...हं... हाँ... यही... यही… यही है|” लड़कियों के सामने घबराहट होनी शांतनु के लिये स्वाभाविक सा था|
“थेंक्स|” ‘उसने’ स्माइल दिया और थोड़ी ही देर में शांतनु की नज़र के सामने उसी की बिल्डिंग में अद्रश्य हो गई|
“वाऊ, बड़े भाई...क्या मस्त लड़की थी!! आपकी तो निकल पड़ी|” उसके जाते ही अक्षय बोला|
“क्या निकल पड़ी? उसकी नज़र इस बीड़ी पर थी, उसको तो ऐसा ही लगा होगा की मुझे बीड़ी पीने की आदत है|” शांतनु के स्वर में निराशा झलक रही थी|
“हा...हा...हा.. क्या यार आप भी? यह तो दो मिनट का चमत्कार था, आप को कहाँ उसके साथ शादी करनी है?” अक्षय हसंते हुए बोला|
“अरे उ बाजूवाले मकान का छोकरा अपना इस्कूटरवा इधर पार्क करने वास्ते इधर आया था, उके घर में कौनो काम चल रहा है, हमनें भी उसको कह दिया की भैया इ कौनो बात भई का? जाओ कहीं और जा कर अपना इस्कूटर पार्क करो|” मातादीन आया, उसकी बीड़ी तो बुझ गई थी, इस लिये उसने बीड़ी का बंडल शांतनु से लिया और बोला|
“चलिये भैया, हमको देरीवा होती है, हम का अभी बोपलवा जाना है|” मातादीन ने अभी अपनी रामकथा शुरू ही की थी की अक्षय ने उसकी बात बीच में ही काट दी|
शांतनु ने अपनी बाइक को किक लगाई, हेल्मेट पहना और अक्षय उसके पीछे बैठा| मातादीन की और ‘आवजो’ का इशारा कर शांतनु ने अपनी बाइक चला दी|
***
दोनों अहमदाबाद का ही हिस्सा पर थोड़े दूर आये हुए बोपल इलाके की और जा रहे थे| शांतनु ने अपने कानों में इयर प्लग्ज़ लगाये थे और बाइक चलाते वक्त हिन्दी फिल्मो के अपने पसंदीदा पुराने गाने सुन रहा था| अक्षय आदतन पीछे बैठे बैठे ‘सुंदर चहेरे’ ढूंढ रहा था और अगर मील जाये तो मुड़ मुड़ कर उन्हें देख रहा था, खास कर रस्ते में आने वाले हर सिग्नल पर| ऐसे ही तीस-पैंतीस मिनट की ड्राइव के बाद दोनों बोपल में आये नीलकंठ प्लाजा बिल्डिंग के पास रुके| शांतनु ने जब तक अपनी बाइक पार्क की अक्षय दोनों की बैग्ज़ पकड़े खड़ा रहा|
“सुन, इस महीने मेरा टार्गेट पचास का है और तेरा तीस का| उपर प्यारेलाल एन्ड ब्रदर्स को मेने बोतल में लगभग उतार ही लिया है. अगर वो मान जाते हैं तो इस एक ग्रुप में से ही दो या तीन दिन में हम दोनों के टार्गेट पूरे हो जायेंगे, इस लिये जब मैं बोलूं तब प्लीज़ चूप रहना|” शांतनु ने अक्षय को बिनती और सलाह दोनों एक साथ किये और जवाब में अक्षयने मस्ती से आँखे नचाई|
दोनों लिफ्ट में उपर गये और ‘प्यारेलाल एन्ड ब्रदर्स’ नामक एक एक्सपोर्टर की ऑफ़िस के अंदर गये| रिसेप्शन पर प्यून बैठा था उसने शांतनु का विजिटिंग कार्ड लिया और ‘प्यारेलाल शर्मा (एम. डी) लिखे हुए बोर्ड बाली कैबिन में गया|
“पांच मिनीट, सर इंटरनेशनल कोल पर हैं, जल्द ही बुलाएँगे, बैठिये प्लीज़|” बहार आते ही प्यून बोला|
शांतनु ने अपना सर हिलाया और सामने रख्खे सोफे पर बैठ गया, और अक्षय भी|
“बड़े भाई, इस प्यारेलाल को ज़रा कहिये की थोडा प्यार करना भी सीखे, रिसेप्शन पर ऐसा चेहरा?” अक्षय शांतनु के कान में गुनगुनाया और इस बार शांतनु ने अपनी आँखों को नचाया|
थोड़ी ही देर में इंटरकोम बजा और ‘रिसेप्शनिस्ट’ ने इशारे से दोनों को अंदर जाने को कहा|
बीमा बेचने में शांतनु का कोई जवाब नहीं था| वो अपने क्लायंट के साथ ऐसी शहद से भरी भाषा में बात करता की वो तुरंत ही बोतल में उतर जाता| इधर भी प्यारेलाल शर्मा के पास उसने और कोई विकल्प नहीं रख छोड़ा था सिवाय की वो शांतनु की बात मान ले| उसने सिर्फ अपने परिवार की ही नहीं परन्तु अपने चारों भाइयों के परिवार का बीमा भी शांतनु से ही लिया और अपने सर्किल में भी वो शांतनु को सबसे मिलवायेगा ऐसा वादा भी किया|
शांतनु की गिनती अनुसार प्यारेलाल शर्मा परिवार का कुल बीमा ही ३५ लाख से ज़्यादा का था, इस लिये अब बाकी के महीने में उसको ज़रा सी ही मेहनत करनी थी, अपने लिये नहीं परन्तु अपने परम मित्र अक्षय के लिये| क्यूंकि उसको पता था की वो अपने दस-बारह लाख का लक्ष्य तो चुटकी बजाते ही पूरा कर लेगा, और अभी तो पूरा महिना पड़ा है|
प्यारेलाल शर्मा और उसके बाकी के भाइयों से हर एक फॉर्म पर साइन करवा कर, सारे जरूरी डोक्युमेन्ट्स और पहेले प्रीमियम के चेक्स ले कर शांतनु और अक्षय ऑफ़िस के बहार आये|
“बड़े भाई...” बहार निकलते ही अक्षय सिर्फ़ ज़ोर से चिल्लाया ही नहीं पर वो शांतनु के गले भी लग गया| शांतनु ने भी उसी ऊष्मा के साथ अक्षय की जप्पी का जवाब दिया|
“चल मूवी देखते हैं!” शांतनु बोला|
“क्या बात… क्या बात… क्या बात..! बड़े भाई, नेकी और पूछ पूछ?” अक्षय ने उत्साह के साथ जवाब दिया|
“हाँ पर पहेले खाना खा लेते हैं, कोई अच्छा सा रेस्तरां दिखे तो बताना|” शांतनु ने अक्षय को कहा|
“ओक्के बोस, पर आज का लंच मेरी और से और आप को तो पता ही है की मुझे ना सुनने की आदत नहीं है|” अक्षय हंसते हंसते बोला और शांतनु ने भी अपनी मुस्कान देते हुए उसको हाँ कहा|
वैसे तो ऑफ़िस की पेंट्री में सब कुछ मिल जाता था, पर आज सिर्फ खाने के लिये ऑफ़िस जाने की ज़रूरत नहीं थी| बोपल से एस जी हाइवे पहोंचते ही एक रेस्तरां दिखाई दी| दोनों उसमें गए और फिक्स्ड लंच का ऑर्डर दिया| हर बार की तरह अक्षय इधर उधर देख रहा था, पर इस समय उसके ‘लायक’ कोई भी चेहरा आसपास नहीं था| शांतनु अपने मोबाइल के केल्क्युलेटर में कितना टार्गेट अचीव हुआ और कितना बाकी है वो गिन रहा था और अक्षय के लिये शर्मा के मित्रो से कितनी पालिसी निकालनी चाहिए उसकी गिनती भी कर रहा था|
उतने में ही उनकी फिक्स थाली आ गई और दोनों ने खाना खाना शुरू किया|
दोनों शायद इतने भूखे थे की एक दुसरे से बात भी नहीं कर रहे थे, बस सिर्फ खाना खा रहे थे| खाना खा कर दोनों बहार आये...
“भाई आज तो पान भी हो जाये? बारह पालिसी और उसके चैक्स बेग में पड़े है, और खाना भी कुछ भारी ही था और अब तो ऑफ़िस भी नहीं जाना, क्या कहते हो?” अक्षय ने रिक्वेस्ट की|
शांतनु जब ज़रूरत न हो तब चूप रहता उसने आँखों के इशारे से मुस्कुराते हुए अक्षय को हाँ कहा| दोनों रेस्तरां की बगल में लगी पान की दुकान पर गए और दो मीठे पान खाए|
इसी कोम्प्लेक्स के सामने एक मल्टीप्लेक्स था जहाँ चार स्क्रीन थे, पर जब अमिताभ बच्चन की कोई फिल्म चल रही हो तब शांतनु कोई और फिल्म देखना पसंद नहीं करता वो अक्षय को पता था इसलिये बगैर कुछ बोले शांतनु की ‘इच्छा को’ सन्मान देते हुए दोनों टिकट ले कर उसी मल्टीप्लेक्स के तीसरे स्क्रीन में फिल्म देखने गये और अंदर घुसते ही दोनों ने अपने मोबाईल फोन्स साइलेंट मोड़ पर रख दिये|
***
“रोकिंग बोस! इस उम्र में भी बच्चन साहब, मानना पड़ेगा!” बाहर निकलते ही अक्षय बोला| उसको पता था की शांतनु अमिताभ बच्चन को भगवान से कम नहीं समझता और उसकी प्रशंसा सुनना उसको बहुत अच्छा लगता है| बातें करते हुए दोनों मल्टीप्लेक्स के पार्किंग एरिया में पहुंचे|
“चल ऑफ़िस चलते हैं|” शांतनु बोला|
“क्यों? ऑफ़िस क्यों?” अक्षय को गभराहट हुई|
“क्या क्यों? अपनी बाइक नहीं लेनी तुम्हें?” शांतनु ने याद दिलाया|
“अरे नहीं, अब शाम को ऑफ़िस का मुंह कब देखे?” अक्षय ने आँख मारी|
“ठीक है, फिर तुझे घर छोड़ देता हूं, बैठ|” शांतनु बोला|
“नहीं बड़े भाई, एक काम करिये, आज जल्दी फ्री हुए हैं तो आप अंकल के साथ टाईमपास कीजिये, मैं ओटो में चला जाऊँगा|” अक्षय ने कहा|
“श्योर?” शांतनु ने कन्फर्म किया|
“हाँ भाई, श्योर, आप निकलिये, अंकल भी बहुत खुश होंगे| अक्षय मुस्कुराया|
“थेंक्स!” कहते ही शांतनु ने बाइक को अपने घर की और चला दिया और अक्षय ओटो ढूँढने में लग गया|
***
शांतनु को घर जल्दी पा कर ज्वलंत भाई को आश्चर्य तो हुआ, पर जब शांतनु ने आज के एचीवमेंट के बारे में उनको बताया तो वो बहुत खुश हुए|
“याद है शांतनु? जब आप करते हो ऐसा एचीवमेंट, हम करते हैं एंजोयमेंट?” ज्वलंत भाई के चेहरे से ख़ुशी साफ़ झलक रही थी|
“हां पापा, मैं नहीं भुला वो एग्रीमेंट|” इस बार शांतनुने सही तुकबंदी की| दोनों पिता-पुत्र बहुत हंसे और शाम को नज़दीकी पित्ज़ा आउटलेट से पित्ज़ा ऑर्डर किया|
***
दुसरे दिन सुबह ज्वलंत भाई को आश्चर्य हुआ की शांतनु सवेरे सात बजे अपने मोबाईल का अलार्म बजते ही उठ खड़ा हुआ| ज्वलंत भाई ने अभी तो चाय नाश्ते की तैयारी भी शुरू नहीं की थी|
“क्या बात है स शांतनु भाई, आज महाशय जल्दी उठ गये, हमारे तो भाग ही खुल गये!” शांतनु को अपने कमरे से बहार आते देख ज्वलंत भाई तुरंत बोले|
“हां आज हम ऑफ़िस जल्दी जायेंगे, कल वाली पालिसी और चैक जमा करवायेंगे|” शांतनु उबासी लेता बाथरूम की और बढ़ा|
प्रातःकर्म खत्म कर और नहा कर शांतनु अपने ऑफ़िस वाले कपड़े पहन कर ही अपने कमरे से बहार आया| टेबल के सामने टंगी घड़ी बिलकुल आठ दिखा रही हती| शांतनु डाइनिंग टेबल पर बैठा और आज फ़िरसे सेंडविच देख उसने अपना मुंह बिगाड़ा|
“पापा अब चेंज कीजिये ये रुखी सुखी सेंडविच का रोस्टर, चलिये ना कहीं से ले आते हैं एक टोस्टर?” शांतनु ने अपनी डिमांड आगे की|
“मैंने कल यही सोचा था मेरे स्वीट मोंस्टर और मोल से आज ही घर लाने वाला था एक टोस्टर!” ज्वलंत भाई ने जवाब दिया, बदले में शांतनु ने फीकी मुस्कान दी|
नाश्ता पूरा कर शांतनु ने अपनी बैग उठाई, शूज़ पहने और ज्वलंत भाई को ठीक साड़े आठ बजे ‘आवजो’ कह कर घर के बहार निकल गया| आज वो जल्दी निकला था, इसलिये शांति से अपना बाइक चलाता हुआ वो अपने ऑफ़िस पहुँच गया और अपने फेवरिट पार्किंग स्लॉट में अपना बाइक पार्क भी कर दिया|
मातादीन हररोज़ की तरह उसकी राह देख रहा था| शांतनु तुरंत उसके पास गया और कोम्प्लेक्स के बहार आयी उस पान और चाय की दुकान के पास पहुँच गये| शांतनु ने एक फुल चाय का ऑर्डर दिया और पान की दुकान से मातादीन के लिये ‘३०२’ का बंडल खरीदा|
शांतनु बीड़ी का बंडल और चाय ले कर जैसे ही मातादीन की और बढ़ा उसने रास्ते के बिलकुल सामने कल वाली ‘उसी लड़की’ को देखा जिसने उसको कोम्प्लेक्स का एड्रेस पूछा था| इस बार शांतनु को अपनी इमेज के बारे में कोई भी चान्स नहीं लेना था, इसलिये ‘वो’ जब तक रास्ता क्रोस कर शांतनु के कोम्प्लेक्स की और आये उसने पहेले से ही मातादीन को ३०२ का बंडल पकड़ा दिया और उससे कहीं दूर जा कर सुरक्षित खड़ा हो गया|
‘वो’ कल से आज ज्यादा सुंदर लग रही थी, परन्तु आज उसने काले रंग का ट्राउजर, उसी रंग का कोट और अंदर नेवी ब्ल्यू रंग का शर्ट पहना था| हां, आज भी उसके बाल खुले थे और कल ही की तरह उसकी मांग उसकी दाहिनी और थी|
शांतनु एक दम अटेंशन में आ गया, आज उसने अपने आप को ‘उसके’ द्वारा पूछे जानेवाले किसी भी प्रश्न के लिये अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर लिया| परन्तु एक प्रश्न शांतनु को फिर भी खाये जा रहा था, अगर कल आयी थी तो आज वापस क्यों आयी? कोई खास कारण? ‘वो’ शांतनु की और बढ़ रही थी, पर जब वो उसके एकदम नजदिक आ गयी तो उसने शांतनु को देखा ही नहीं और सीधी बिल्डिंग में घुस गयी| शांतनु ने मुड़ कर उसकी और देखा|
“मातादीन, ये कौन है भैया?” शांतनु ने ‘उसकी’ और देखते हुए मातादीन को पूछा|
“पता नहीं बचवा, होगी कोई, हमका का?” मातादीन ने बीड़ी पीते हुए जवाब दिया|
पर शांतनु से रहा नहीं गया| उसने अभी तक चाय पी भी नहीं थी फ़िर भी अपना प्लास्टिक का कप डस्टबिन में फेंक ‘उसके’ पीछे दौड़ पड़ा| ‘उसको’ लिफ्ट की लाइन में खड़ा पा कर शांतनु को राहत महसूस हुयी|
लिफ्ट की लाइन में शांतनु और ‘उसके’ बीच दो और लोग थे, और लाइन में खड़े सबसे पहेले व्यक्ति और ‘उसके’ बीच दो और व्यक्ति थे| अब लिफ्ट में एक साथ पांच व्यक्ति से ज्यादा लोग अलाउड नहीं थे, इसलिये शांतनु और ‘वो’ एक साथ लिफ्ट में सफर करे वो पोसिबल नहीं था| लिफ्ट नीचे पार्किंग से उपर आयी, लिफ्ट में ऑलरेडी तीन लोग थे, इस लिये लिफ्ट मेन ने पहेले खड़े दो लोगों को ही अंदर आने दिया| अब ‘उसका’ नंबर दूसरा था और शांतनु का पांचवा|
शांतनु मन ही मन खुश तो हुआ पर साथ साथ यह भी सोच लिया की अगर नेक्स्ट टाइम लिफ्ट नीचे वाले पार्किंग से तीन या चार व्यक्तियों को ले कर आयी तो? पर आज सबकुछ अजीब हो रहा था| शांतनु के आगे खड़े व्यक्ति का मोबाईल बजा और वो “अभी आया सर” कह कर सीढ़ियों की और दौड़ा और शांतनु को अचानक ही प्रमोशन मिल गया| अब शांतनु और ‘उसके’ बीच सिर्फ एक व्यक्ति ही था| लिफ्ट नीचे आ रही थी|
सातवीं मंज़िल पर लिफ्ट कुछ ज्यादा समय ही रुक गयी, शांतनु के आगे खड़े व्यक्ति को शायद कुछ जल्दी थी या फिर वो यूँही देर तक खड़े खड़े शायद बोर हो रहा था इस लिये उसने भी सीढ़ियों की राह पकड़ ली| अब लाइन में ‘वो’ और उसके पीछे शांतनु|
“नसीब खराब होगा तो लिफ्ट नीचे से ही चार लोगों को ले कर आयेगी|” शांतनु मन ही मन बडबडाया|
‘उसने’ अब अपने गोगल्स उपर कर दिये थे और बारी बारी अपने दाहिने हाथ की पहेली दो उँगलियों से अपने बाल ठीक कर रही थी| अब तक एकबार भी उसने पीछे देखने की दरकार नहीं की थी| शांतनु ‘सलामत’ अंतर रख कर उसके पीछे खड़ा था| ‘उसने’ कल वाला परफ्यूम ही लगाया था और उसकी सुगंध शांतनु के मन को तरबतर कर रही थी|
लिफ्ट नीचे पार्किंग में गई और थोड़ी ही देर में इंडिकेटर में ‘अप’ एरो दिखा और शांतनु के दिल की धडकन तेज़ हो गयी|
क्रमशः