Manavta ke Mashiha in Hindi Biography by Lakshmi Narayan Panna books and stories PDF | मानवता के मशीहा - बाबा साहेब

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मानवता के मशीहा - बाबा साहेब

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मानवता के मशीहा

लक्ष्मी नारायण पन्ना

मानवता का मशीहा, नारी मुक्तिदाता, ज्ञान का प्रतीक या आधुनिक भारत के सम्विधान का जनक कहें । उनकी महानता, जीवन संघर्ष और उपलब्धियों से देश का प्रत्येक व्यक्ति परिचित है । बहुजन समाज उन्हें प्यार से बोधिसत्व बाबा साहब भीमराव अंबेडकर कहता है । उनकी विद्वता की सराहना भारत ही नही अपितु विदेशों में भी होती है । बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का जीवन बहुत ही कष्टों में बीता परंतु उन्होंने हार नही मानी और दुनिया में ज्ञान का प्रतीक बने । बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात 1956 में उन्हें बोधिसत्व की उपाधि से सम्मानित किया गया । बाबा साहेब भीमराव की भारत की आजादी में सक्रिय भूमिका से लेकर तमाम शैक्षिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक सुधारों के बावजूद भी जातीय भेदभाव के चलते उनके परिनिर्वाण से काफी लम्बे समय बाद सन 1990 में उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया ।

सन 2004 में उन्हें पहले कोलंबियन अहेड ऑफ देअर टाईम से सम्मानित किया गया और 2012 में उन्हें द ग्रेटेस्ट इंडियन के सम्मान से नवाजा गया ।

बाबा साहब का जन्म 14 अप्रैल सन 1891 में मध्यप्रदेश स्थित नगर सैन्य छावनी महू में महार जाति में हुआ । महार जाति को निकृष्ट और अछूत माना जाता था जो कि हिन्दू धर्मशास्त्रानुसार शुद्र वर्ण के अंतर्गत आती थी । इनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल एवं माता का नाम भीमाबाई थी ।

अपनी जाति के कारण उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। उनके पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता रामजी सकपाल, भारतीय सेना की महू छावनी में काम करते हुये वो सुबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी। वे हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे । 1894 में वे सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो वर्ष बाद भीमराव अंबेडकर की माँ की मृत्यु हो गई । बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुए की । लगभग 15 वर्ष की आयु में अप्रैल 1906 में नौ साल की लड़की रमाबाई से उनका विवाह हुआ । उस समय वह पांचवी अंग्रेजी कक्षा पढ रहे थे । रमाबाई से उन्हें चार पुत्र यशवंत, रमेश, गंगाधर, राजरत्न और एक पुत्री इन्दु थी । बाबा अम्बेडकर के सामाजिक संघर्ष के दौरान यशवंत को छोड़कर उनकी सभी सन्तानों की मृत्यु बचपन में ही हो गई । उनके महानतम जीवन की सूत्रधार, उनकी सबसे बड़ी ताकत माता रमाबाई का लम्बी बीमारी के कारण 1935 में निधन हो जाता है । बाद में गाँधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं के अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देने के प्रस्ताव को मानते हुए उन्होंने 1948 में सविता नाम की एक ब्राह्मण महिला से विवाह कर लिया ।

प्रारंभिक एवं शैक्षिक जीवन

7 नवम्बर 1900 को रामजी सकपाल ने सातारा के गव्हर्नमेंट हाइस्कूल (अब प्रतापसिंह हाइस्कूल) भीमराव का नाम "भिवा अंबावडेकर" दर्ज कराया। भिवा उनके बचपन का था, जो आगे भीमराव बना। अम्बेडकर का मूल उपनाम ‘सकपाल' की बजाय ‘अंबावडेकर' लिखवाया था, जो कि उनके आंबडवे गांव से संबंधित था। प्राथमिक शिक्षा के दौरान उनकी जाति के कारण उन्हें निंदनीय भेदभाव सहन करना पड़ा । उनको स्कूल के अन्य बच्चों की तरह नल से पानी नही पीने दिया जाता था । इस भेदभाव के कारण वह क्लास से बाहर बैठकर पढ़ने वाले एकलौते विद्वान हैं । बाद में उनके एक ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से अंबावडेकर हटाकर 'आम्बेडकर’ उपनाम जोड़ दिया।

1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके अगले वर्ष उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया । ऐसा करने वाले वह पहले अस्पृश्य छात्र बने । उनकी इस सफलता खुशी को अस्पृश्यों के बीच और सार्वजनिक समारोह में मनाया गया, और उनके परिवार के मित्र एवं लेखक दादा केलुस्कर द्वारा लिखी 'बुद्ध की जीवनी' उन्हें भेंट दी गयी। इसे पढकर पहली उन्होंने बौद्ध धर्म को जाना एवं गौतम बुद्ध की शिक्षा से प्रभावित हुए।

1912 तक, उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में अपनी डिग्री प्राप्त की ।

1913 में, आम्बेडकर संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (बड़ौदा के गायकवाड़) द्वारा स्थापित एक योजना के तहत न्यू यॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा का अवसर प्राप्त हुआ । इसके लिए तीन साल तक 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। जून 1915 में उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान विषयों के साथ एम ए परीक्षा पास की । उन्होंने एक थीसिस, एशियंट इंडियन्स कॉमर्स (प्राचीन भारतीय वाणिज्य) प्रस्तुत किया।

  • आम्बेडकर विपुल प्रतिभा के छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की।
  • अक्टूबर 1916 में, डॉ॰ आम्बेडकर लंदन चले गये और वहाँ उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स के लिए दाखिला लिया, और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी दाखिला लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की डॉक्टरेट थीसिस पर काम करना शुरू किया । साथ ही अपना दूसरा थीसिस, नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया - ए हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी दुसरे एमए के लिए पूरा किया ।
  • इसके बाद 1916 में ही अपने तीसरे थीसिस इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की ।

    9मई 1916 को उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक पेपर लेख प्रस्तुत किया ।

    डॉ॰ आम्बेडकर ने 3 वर्ष तक की मिली हुई छात्रवृत्ति का उपयोग कर केवल दो वर्षों में अमेरिका में पाठ्यक्रम पूरा किया ।

    जून 1917 में बड़ौदा राज्य से उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो जाने के कारण उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर पर बीच में ही छोड़ कर भारत लौटना पड़ा। लौटते समय उनके पुस्तक संग्रह को जर्मन पनडुब्बी द्वारा टारपीडो से भेजा गया जो डूब गया था ।

    1920 में वह कोल्हापुर के शाहू महाराज, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये और वह पहले अवसर में लंदन लौट आए, और 1921 में एमएस॰सी॰ की डिग्री पूरी की।

    उन्होंने अपनी थीसिस "रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान" लिखकर 1923 में अर्थशास्त्र में डी एस॰ सी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) प्राप्त किया। उसी वर्ष उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डीग्री प्रदान की ।

    लंदन का अध्ययन पुरा कर भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। किंतु समय की कमी से वे विश्वविद्यालय में नहीं ठहर सकें। उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स (एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953) सम्मानित पदवीयां थी।

    छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

    आम्बेडकर बड़ौदा के रियासत राज्य द्वारा शिक्षित थे, और वह उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण कम समय में उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने इस घटना को अपनी आत्मकथा, वेटिंग फॉर अ वीजा में वर्णित किया। इसके बाद, उन्होंने अपने बढ़ते परिवार के लिए जीवित रहने के तरीके खोजने की कोशिश की। उन्होंने एकाउंटेंट के रूप में एक निजी शिक्षक के रूप में काम किया, और एक निवेश परामर्श व्यवसाय की स्थापना की, लेकिन यह तब विफल रहा जब उनके ग्राहकों ने जाना कि वह अस्पृश्य हैं। 1918 मे उनके एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम के कार सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर बने। हालांकि वह छात्रों के साथ सफल रहे, फिर भी अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के जग साझा करने पर विरोध किया।

    1919 में उन्हें भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान उन्होंने अस्पर्शयों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की ।

    1920 में, बंबई से, उन्होंने साप्ताहिक पत्र मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब आम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया । अस्पर्श्य वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर राज्य के शासक शाहू चतुर्थ का उनके साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया।

    बॉम्बे हाईकोर्ट में कानून की प्रैक्टीस करते हुए, उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा को बढ़ावा देने और उन्हें ऊपर उठाने की कोशिश की। उन्होंने अपने पहले संगठित प्रयास के रूप में केंद्रीय संस्थान बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देना था । अस्पर्शयों के अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाओं की शुरुआत की।

    उन्होंने एक सफल कानूनी पेशेवर के रूप में काम किया । 1926 में, उन्होंने सफलतापूर्वक तीन गैर-ब्राह्मण नेताओं का बचाव किया जिन्होंने ब्राह्मण समुदाय पर भारत को बर्बाद करने का आरोप लगाया था और बाद में उन पर अपमान के लिए मुकदमा भी चलाया गया था।

    सन 1925 में, उन्हें बम्बई प्रेसीडेंसी समिति में सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन में काम करने के लिए नियुक्त किया गया।

    1 जनवरी 1927 को आम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध, की 1 जनवरी 1818 को हुई कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय महार सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक (जयस्तंभ) पर एक समारोह आयोजित किया।

    सन 1927 तक डॉ॰ आम्बेडकर छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन शुरू कर चुके थे । उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय चवदार तालाब से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

    1927 के अंत में एक सम्मेलन में, आम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "अस्पृश्यता" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने वाले प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति (मनु के कानून) की सार्वजनिक रूप से निंदा की ।

    1930 में, आम्बेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद कालाराम मंदिर सत्याग्रह शुरू किया। कालाराम मन्दिर आंदोलन में लगभग 15, 000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए । जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प में चले थे। जब वे गेट तक पहुंचे, तो द्वार ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा बंद कर दिए गए।

    15 मई 1936 को उन्होंने अपनी पुस्तक 'एनीहिलेशन ऑफ कास्ट' (जाति प्रथा का विनाश) प्रकाशित कर हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।

    उन्होने अपनी पुस्तक हू वर द शुद्राज़? (शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अतिशुद्र (अछूत), शुद्रों से अलग हैं। 1948 में हू वेयर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) में आम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।

    "व्हॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स?" नामक किताब में आम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया ।

    1955 के बीबीसी साक्षात्कार में, उन्होंने गांधी पर उनके गुजराती भाषा के पत्रों में जाति व्यवस्था समर्थन करना तथा अंग्रेजी भाषा पत्रों में जाति व्यवस्था का विरोध करने का खुलाशा किया ।

    राजनीतिक जीवन

    अब तक भीमराव आम्बेडकर देश की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उदासीनता की कटु आलोचना की। आम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। वह ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे । उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों की ही कोई दखल ना हो।

    लंदन में 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन यानी प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा ।

    अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी आमंत्रित किया गया। वहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर गांधी से तीखी बहस हुई। किंतु ब्रिटिश डॉ॰ आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमत हुए। पृथक निर्वाचिका के प्रबल विरोधी गांधी ने कहा कि सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने और हृदयपरिवर्तन के लिए कुछ अवधि दी जानी चाहिए । किन्तु गाँधी का यह तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा ।

    1932 में जब ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की। कम्युनल अवार्ड की घोषणा गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श का ही परिणाम था। पृथक निर्वाचिका में अस्पर्श्य वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अंतर्गत एक वोट से वे अपने वर्ग का प्रतिनिधि चुन सकते थे व दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी थी। इस प्रकार अस्पर्श्य प्रतिनिधि केवल अस्पर्श्य की ही वोट से चुना जाना था। वहीं अस्पर्श्य वर्ग अपनी दूसरी वोट का इस्तेमाल करते हुए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने में अपनी भूमिका निभा सकता था।

    गांधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही गांधी ने पहले तो प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की। जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी आम्बेडकर ने कहा कि "यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखता तो मुझे खुशी होती, लेकिन उन्होंने अस्पर्शयों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी अधिकार को लेकर गांधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई।"

    मरण व्रत के कारण गांधी की तबियत लगातार बिगड़ती गई और उनके प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा । जिससे पूरा हिंदू समाज आम्बेडकर का विरोधी बन गया।

    देश में बढ़ते तनाव को देख आम्बेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुंचे। यहां गांधी और आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया। इस समझौते मे आम्बेडकर ने अस्पर्श्य को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की परन्तु इसके साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की संख्या पूना पैक्ट में बढ़ा कर 148 करवा ली। इसके साथ ही अछूतों के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के भर्ती को सुनिश्चित किया। इस तरह उन्होंने महात्मा गांधी की जान बचाई।

    मजदूरों एवं कमजोर वर्ग के हितों के लिए तथा सीधे सत्ता में भागीदारी के लिये बाबा अम्बेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की जिसने 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 17 में से 15 सीटें जीती।

    आम्बेडकर रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए सन 1942–1946 दौरान श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।

    पाकिस्तान की मांग कर रहे मुस्लिम लीग के लाहौर रिज़ोल्यूशन (1940) के बाद, आम्बेडकर ने "थॉट्स ऑन पाकिस्तान नामक 400 पृष्ठों वाला एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। साथ ही यह तर्क भी दिया कि हिंदुओं को मुसलमानों के पाकिस्तान को स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने प्रस्तावित किया कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को अलग करने के लिए पंजाब और बंगाल की प्रांतीय सीमाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिए। उन्होंने सोचा कि मुसलमानों को प्रांतीय सीमाओं को फिर से निकालने के लिए कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। विद्वान वेंकट ढलीपाल ने कहा कि थॉट्स ऑन पाकिस्तान ने "एक दशक तक भारतीय राजनीति को रोका"। इसने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया, जो भारत के विभाजन के लिए रास्ता तय कर रहा था। वे मोहम्मद अली जिन्नाह और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी । इसके पक्ष मे उन्होंने ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी।

    आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन (शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन) में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में खराब प्रदर्शन किया। बाद में वह बंगाल जहां मुस्लिम लीग सत्ता में थी वहां से संविधान सभा में चुने गए थे।

    आम्बेडकर ने बॉम्बे उत्तर में 1952 के पहले भारतीय आम चुनाव में चुनाव लड़ा, लेकिन उनके पूर्व सहायक और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलकर से हार गए। आम्बेडकर राज्य सभा का नियुक्त सदस्य बन गए । उन्होंने भंडारा से 1954 के उपचुनाव में फिर से लोकसभा में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे ।

    संविधान निर्माण

    गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद आम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने आम्बेडकर को देश के पहले क़ानून एवं न्याय मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया ।

    29 अगस्त 1947 में डॉ भीमराव आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। उन्होंने समता, समानता, बन्धुता एवं मानवता की भावना पर आधारित भारतीय संविधान को 02 वर्ष 11 महीने और 17 दिन के कठिन परिश्रम से तैयार कर 26 नवंबर 1949 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप दिया ।

    ग्रैनविले ऑस्टिन ने भारतीय संविधान का वर्णन पहला और सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक दस्तावेज के रूप में किया।

    संविधान में व्यक्तिगत नागरिकों के लिए नागरिक स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी और सुरक्षा प्रदान की गई है । जिसमें धर्म की आजादी, अस्पृश्यता को खत्म करना, और भेदभाव के सभी रूपों का उल्लंघन करना शामिल है।

    बाबा साहेब आम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के लिए तर्क दिया, और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों के लिए नागरिक सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों में नौकरियों के आरक्षण की व्यवस्था शुरू करने के लिए असेंबली का समर्थन जीत कर एक सकारात्मक कार्रवाई की थी ।

    बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।

    समान नागरिक संहिता के पक्षधर

    आम्बेडकर ने जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का विरोध किया । यह उनकी इच्छाओं के खिलाफ संविधान में शामिल किया गया था। उन्होंने कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला को स्पष्ट रूप से बताया था कि आप चाहते हैं की भारत कश्मीरी सीमाओं की रक्षा करे, वहाँ सड़कों का निर्माण करवाये, अनाज की आपूर्ति करे, और उसे भारत के समान दर्जा देना चाहिए। लेकिन भारत भारतीय सरकार और उसके लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए । जो भारत के खिलाफ एक विश्वासघाती बात होगी और मैं भारत के कानून मंत्री के रूप में भारत के हितों को देखते हुए ऐसा कभी नहीं करूँगा । फिर अब्दुल्ला ने नेहरू से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें कृष्णा स्वामी अयंगार को निर्देशित किया, जिन्होंने बदले में वल्लभभाई पटेल से संपर्क किया और कहा कि नेहरू ने स्के का वादा किया था। इस तरह पटेल को अनुच्छेद पारित किया गया । जबकि नेहरू एक विदेश दौरे पर थे । जिस दिन लेख चर्चा के लिए आया था, आम्बेडकर ने इस पर सवालों का जवाब नहीं दिया । वह वास्तव में वह समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे ।

    आम्बेडकर का भारत आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश होता, उसमें पर्सनल कानून की जगह नहीं होती । संविधान सभा में बहस के दौरान, आम्बेडकर ने एक समान नागरिक संहिता को अपनाने की सिफारिश करके भारतीय समाज में सुधार करने की अपनी इच्छा प्रकट की ।

    सन 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल को रोके जाने के बाद उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। क्योंकि हिंदू कोड बिल द्वारा भारतीय महिलाओं को कई अधिकारों प्रदान करने की बात कहीं गई थी ।

    आम्बेडकर दक्षिण एशिया के इस्लाम की रीतियों के भी बड़े आलोचक थे । उन्होने मुस्लिमो में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते ।

    उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें " निचले दर्जे का " माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता मुसलमानों ने दी है। उन्होंने कहा इस्लाम अपनी नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण बहुत कट्टर हो गया है ।

    राष्ट्र निर्माण

  • भारत रत्न डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने जीवन के 65 वर्षों में देश को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, औद्योगिक, संवैधानिक इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में अनगिनत कार्य करके राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
  • प्रशासनिक योगदान

    उन्होंने निर्वाचन आयोग, योजना आयोग, वित्त आयोग, महिला पुरुष के लिये समान नागरिक हिन्दू संहिता, राज्य पुनर्गठन, बडे आकार के राज्यों को छोटे आकार में संगठित करना, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, मौलिक अधिकार, मानवाधिकार, काम्पट्रोलर व ऑडीटर जनरल, निर्वाचन आयुक्त तथा राजनीतिक ढांचे को मजबूत बनाने वाली सशक्त, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं विदेश नीति बनाई।

    प्रजातंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए राज्य के तीनों अंगों न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका को स्वतंत्र और पृथक बनाया और समान नागरिक अधिकार के अनुरूप एक व्यक्ति, एक मत और एक मूल्य के तत्व को प्रस्थापित किया।

    विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की सहभागिता संविधान द्वारा सुनिश्चित की तथा भविष्य में किसी भी प्रकार की विधायिकता जैसे ग्राम पंचायत, जिला पंचायत, पंचायत राज इत्यादि में सहभागिता का मार्ग प्रशस्त किया।

    सहकारी और सामूहिक खेती के साथ-साथ उपलब्ध जमीन का राष्ट्रीयकरण कर भूमि पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करने तथा कृषि की छोटी जोतों पर निर्भर बेरोजगार श्रमिकों को रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने के लिए उन्होंने औद्योगीकरण की सिफारिश की।

    भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना उनके द्वारा लिखित शोध ग्रंथ रूपये की समस्या-उसका उदभव तथा उपाय और भारतीय चलन व बैकिंग का इतिहास, ग्रन्थों और हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष उनकी साक्ष्य के आधार पर 1935 से हुई।

    उनके दूसरे शोध ग्रंथ 'ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास' के आधार पर देश में वित्त आयोग की स्थापना हुई। उन्होंने सार्वजनिक प्राथमिक उद्यमों यथा बैकिंग, बीमा आदि उपक्रमों को राज्य नियंत्रण में रखने की पुरजोर सिफारिश की ।

    वायसराय की कौंसिल में श्रम मंत्री की हैसियत से श्रम कल्याण के लिए श्रमिकों की सेवा 12 घण्टे से घटाकर 8 घण्टे कार्य-समय, समान कार्य समान वेतन, प्रसूति अवकाश, संवैतनिक अवकाश, कर्मचारी राज्य बीमा योजना, स्वास्थ्य सुरक्षा, कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952 बनाया । कर्मचारी राज्य बीमा के तहत स्वास्थ्य, अवकाश, अपंग-सहायता, कार्य करते समय आकस्मिक घटना से हुये नुकसान की भरपाई करने और अन्य अनेक सुरक्षात्मक सुविधाओं को श्रम कल्याण में शामिल किया।

    8 नवंबर 1943 को उन्होंने 1926 से लंबित भारतीय श्रमिक अधिनियम को सक्रिय बनाकर उसके तहत भारतीय श्रमिक संघ संशोधन विधेयक प्रस्तावित किया ।

    कर्मचारियों को दैनिक भत्ता, अनियमित कर्मचारियों को अवकाश की सुविधा, कर्मचारियों के वेतन श्रेणी की समीक्षा, भविष्य निधि, कोयला खदान तथा माईका खनन में कार्यरत कर्मियों को सुरक्षा संशोधन विधेयक सन 1944 में पारित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    सन 1945 में उन्होंने महानदी का प्रबंधन की बहुउददे्शीय उपयुक्तता को परख कर देश के लिये जलनीति तथा औद्योगिकरण की बहुउद्देशीय आर्थिक नीतियां जैसे नदी एवं नालों को जोड़ना, हीराकुण्ड बांध, दामोदर घाटी बांध, सोन नदी घाटी परियोजना, राष्ट्रीय जलमार्ग, केन्द्रीय जल एवं विद्युत प्राधिकरण बनाने के मार्ग प्रशस्त किये।

    सन 1946 में उन्होंने निवास, जल आपूर्ति, शिक्षा, मनोरंजन, सहकारी प्रबंधन आदि से श्रम कल्याण नीति की नींव डाली तथा भारतीय श्रम सम्मेलन की शुरूआत की जो अभी निरंतर जारी है । वर्ष 1955 में अपना ग्रंथ भाषाई राज्यों पर विचार प्रकाशित कर आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र को छोटे-छोटे और प्रबंधन योग्य राज्यों में पुनर्गठित करने का प्रस्ताव दिया था, जो उसके 45 वर्षों बाद कुछ प्रदशों में साकार हुआ।

    इस प्रकार उन्होंने भारत के विकास हेतु मजबूत तकनीकी संगठन का नेटवर्क ढांचा प्रस्तुत किया।

  • शैक्षिक एवं सामाजिक योगदान:
  • बाबा साहेब आम्बेडकर ने निम्नलिखित शैक्षिक संघठनो की स्थापना की

    • डिप्रेस्ड क्लासेस एज्युकेशन सोसायटी

    • द बाँबे शेड्युल्ड कास्ट्स इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट

    • पिपल्स एज्युकेशन सोसायटी

    डॉ. अम्बेडकर वैश्विक युवाओं के लिये प्रेरणा बन गये क्योंकि उनके नाम के साथ बीए, एमए, एमएससी, पीएचडी, बैरिस्टर, डीएससी, डी.लिट्. आदि कुल 26 उपाधियां जुडी है।

    बेजुबान, शोषित और अशिक्षित लोगों को जगाने के लिए वर्ष 1927 से 1956 के दौरान मूक नायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत नामक पांच साप्ताहिक एवं पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया ।

    मानवाधिकार जैसे अनुसूचितजाति एवं जनजाति के मंदिर प्रवेश, पानी पीने, छुआछूत, जातिपाति, ऊॅच-नीच जैसी सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए मनुस्मृति दहन (1927), महाड सत्याग्रह (वर्ष 1928), नासिक सत्याग्रह (वर्ष 1930), येवला की गर्जना (वर्ष 1935) जैसे आंदोलन चलाये।

    13 अक्टूबर 1935 को, आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के संस्थापक श्री राय केदारनाथ की मृत्यु के बाद इस कॉलेज के गवर्निंग बॉडी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।

    उन्होंने बम्बई में एक तीन मंजिला बडे़ घर 'राजगृह' का निर्माण कराया, जिसमें उन्होंने निजी पुस्तकालय बनवाया । इस पुस्तकालय में 50, 000 से अधिक पुस्तकें थीं । तब यह दुनिया का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था।

    जात पांत तोडक मंडल (वर्ष 1937) लाहौर, के अधिवेशन के लिये तैयार उनके अभिभाषण जातिभेद निर्मूलन नामक ग्रंथ ने भारतीय समाज को धर्मग्रंथों में व्याप्त मिथ्या, अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा से मुक्ति दिलाने का कार्य किया।

    हिन्दू विधेयक संहिता के जरिए महिलाओं को तलाक, संपत्ति में उत्तराधिकार आदि का प्रावधान कर उसके कार्यान्वयन के लिए वह जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे।

    कमजोर वर्गों के छात्रों को छात्रावासों, रात्रि स्कूलों, ग्रंथालयों तथा शैक्षणिक गतिविधियों के माध्यम से और दलित वर्ग शिक्षा समाज (स्था. 1924) के जरिये अध्ययन करने और साथ ही आय अर्जित करने के लिए उनको सक्षम बनाया।

    सन् 1945 में उन्होंने अपनी पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी के जरिए मुम्बई में सिद्वार्थ महाविद्यालय तथा औरंगाबाद में मिलिन्द महाविद्यालय की स्थापना की।

    धर्म परिवर्तन की घोषणा

    हिन्दू धर्म के अन्तर्गत रहते हुए बाबासाहब आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दु समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन नही हुआ। उल्टे उन्हें निंदित किया गया और हिन्दू धर्म विनाशक तक कहा गया। हिन्दू समाज का कहना है कि “मनुष्य धर्म के लिए हैं” जबकि आम्बेडकर का मानना था कि "धर्म मनुष्य के लिए हैं ।"

    आम्बेडकर ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं जिसमें मनुष्यता का कुछ भी मूल्य नहीं। जो अपने ही धर्म के एक बड़े भाग (अस्पर्श्य) के अनुयायिओं को शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं मिलने देता । ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं।

  • इसलिए उन्होंने 13 अक्टूबर 1935 को धर्म परिवर्तन की घोंषणा करते हुए कहा -
  • "हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा!"

    धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया।

    निःसंदेह वो भी चाहते थे कि बहुजन समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार हो, पर पराए धन पर आश्रित होकर नहीं बल्कि उनके परिश्रम और संगठन होने से स्थिति में सुधार आए। इसके अलावा आम्बेडकर ऐसे धर्म को चुनना चाहते थे जिसका केन्द्र मनुष्य और नैतिकता हो, उसमें स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व हो। वो किसी भी हाल में ऐसे धर्म को नहीं अपनाना चाहते थे जो वर्णभेद तथा छुआछूत की बीमारी से जकड़ा हो और जिसमें अंधविश्वास तथा पाखंडवाद हो।

    आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के बाद 21 वर्ष तक विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का गहन अध्ययन किया। क्योंकि वह चाहते थे कि जिस समय वो धर्म परिवर्तन करें उनके साथ ज्यादा से ज्यादा अनुयायी धर्मान्तरण करें। गहन अध्ययन के बाद बाबा आम्बेडकर को बौद्ध धर्म सही लगा क्योंकि उसमें तीन सिद्धांतों का समन्वित रूप मिलता है जो किसी अन्य धर्म में नहीं मिलता। बौद्ध धर्म प्रज्ञा (अंधविश्वास तथा अतिप्रकृतिवाद के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग), करुणा (प्रेम) और समता (समानता) की शिक्षा देता है। साथ ही उनका कहना था धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना होना चाहिए ना कि उसकी उत्पत्ति और अंत की व्याख्या करना। वह जनतांत्रिक समाज व्यवस्था के पक्षधर थे ।

  • अंततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को 5 लाख लोगों के साथ नागपुर में दीक्षा ली तथा भारत में बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया ।
  • महापरिनिर्वाण

    आपनई अंतिम ग्रंथ ''द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा'' (भगवान बुद्ध और उनका धम्म ) को पूरा करने के तीन दिन बाद 6 दिसम्बर 1956 को उन्हें नई दिल्ली के अपने आवास पर लगभग 65 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ ।

  • इस प्रकार स्वतंत्र भारत के निर्माता, संविधानशिल्पी, समाजसुधारक, मानवाधिकारी, बोधिसत्व, प्रथम कानून एवं न्याय मंत्री, बहुज्ञ: विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, शिक्षाविद्, धर्मशास्त्री, लेखक एवं पत्रकार तथा युवाओं के प्रेरणास्रोत, ज्ञान के प्रतीक की कमी भारत ही नही अपितु पूरे विश्व में सैदेव खलती रहेगी ।
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