Chalo jite hai - Pradhanmantri modi ka aadarsh bachpan in Hindi Motivational Stories by Shaifali (Naayika) books and stories PDF | चलो जीते हैं : प्रधानमंत्री मोदी का आदर्श बचपन

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

Categories
Share

चलो जीते हैं : प्रधानमंत्री मोदी का आदर्श बचपन

मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए रचा गया षडयंत्र

ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी राजनेता के जीवन से प्रेरित होकर कोई फिल्म उनके पद पर बने रहते हुए बनती है और उसे राज्य सभा से लेकर राष्ट्रपति भवन तक देखी और सराही जाती है.

मंगेश हाडवळे द्वारा निर्देशित बत्तीस मिनट की यह शॉर्ट फिल्म प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बचपन के संघर्षों और जीवन को खुद के लिए नहीं दूसरे के लिए जीने की प्ररणा पर आधारीय सन्देश पर बनाई गयी है.


चाय बेचने वाले 'नरु' या ‘नरिया’ पर फिल्म बनना और प्रधानमंत्री से लेकर वैश्विक पटल पर एक सशक्त राजनेता के रूप में स्थापित होने के पीछे उनकी मेहनत, समर्पण तो है ही लेकिन साथ में यकीनन एक षडयंत्र भी है.

नरेन्द्र मोदी आज भी वही लड़का है जो मंदिर पर भगवा झंडा लगाने के लिए मगरमच्छ से भरे तालाब में कूद गया था. भारत की राजनीति में मगरमच्छों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन जब जब धरती पर अधर्म बढ़ता है प्रकृति अपनी योजना में किसी धर्मयोगी का प्रवेश करवा ही देती है. जो सारी बाधाओं को पार कर भारत रूपी मंदिर में झंडा फेहरा आता है….

और ये हमारे लिए गर्व कि बात है कि वो धर्म योगी साथ में कर्म योगी भी है, इसका अनुमान उनके 24 घंटे में 16 घंटे अनवरत कार्य करने के तरीके से लगाया जा सकता है. यही नहीं उन्होंने अपनी इस कार्य शैली से लोगों को प्रेरणा देने के लिए अपने मुख्यमंत्री काल में सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु ‘कर्मयोगी अभियान’ भी चलाया.

अनहोनी पथ में कांटें लाख बिछाए

पारिवारिक परिस्थितियों से लेकर राजनीतिक घटनाओं तक उन पर कई इलज़ामात लगते रहे, और वो हर बार कीचड़ में खिलते कमल की तरह पाक साफ़ निकल आये.

....क्योंकि मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाला व्यक्ति गरीब के घर में केवल खाना खाकर किसी गरीब की पीड़ा को अनुभव नहीं कर सकता. अपनी गरीबी के दिनों में चाय बेचने वाला, और देश के लिए समर्पित संघ से जुड़े रहने के लिए कार्यकर्ताओं की सेवा में लगे रहने वाला व्यक्ति ही गरीब की सेवा और उसकी उन्नति के लिए कृतसंकल्पित हो सकता है.

....क्योंकि डिग्रियां हासिल कर, बड़े नामों वाले पुरस्कार प्राप्त करने वाला शिक्षा के महत्व को नहीं समझेगा.. शिक्षा केवल रोजगारपरक नहीं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व को संवारने वाली हो, यह बात वही समझ सकता है जिसने शाला में अपने और अपने दोस्तों के लिए प्राचार्य तक से बहस कर ली हो…

....क्योंकि पिता से बेटे को मिलनेवाले राजनीतिक ओहदे पर बैठा व्यक्ति नहीं समझेगा राजनीति की परिभाषा… राजनीति राष्ट्रनीति से चलती है यह बात वही समझ सकता है जिसके अन्दर बचपन से ही लीडर होने के गुण होते हैं, और जो धीरे धीरे कदम बढ़ाकर लम्बी यात्रा तय करने के बाद सर्वोच्च पद पर आसीन होता है.

भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में रेलवे स्टेशनों पर सफ़र कर रहे सैनिकों की सेवा, युवावस्था में छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल होना, भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लेना, एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत होना, और फिर 2001 में मुख्यमंत्री पद से लेकर अप्रेल 2014 तक के सफ़र में मोदीजी ने जो कुछ भी सीखा, जितने भी पड़ाव पार किये… वो सब मई 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने की तैयारी थी… प्रकृति की योजनानुसार….

जब प्रकृति योजना बनाती है तो उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता

कहते हैं जब शिद्दत से कोई दुआ की जाए तो पूरी कायनात उसको पूरा करने के लिए षडयंत्र रचने लगती है. नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान देखने की ये हिंदुस्तान की अवाम की दुआ ही थी, लेकिन उसे पूरा करने में न केवल पूरी कायनात ने षडयंत्र रचा है बल्कि उसे पूरा न होने देने में भी काफी षडयंत्र रचे गए. लेकिन जीत उसी की होती है जिसे लाखों, करोड़ों लोगों का साथ हो.

और ये मोदी का बड़प्पन है कि इन सब षडयंत्रकारियों को जानते पहचानते हुए वो ये कहते हैं कि –

यह लोकतंत्र है, यहाँ वो भी सब स्वागत योग्य है जो साथ है और वो भी स्वागत योग्य है जो साथ नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में विपक्षी पार्टी से कोई दुश्मनी नहीं होती बल्कि होती है मात्र प्रतिस्पर्धा. और प्रतिस्पर्धी भी यदि साथ हो ले तो जो काम हम देश की उन्नति के लिए करना चाहते हैं वो मिलकर करने से जल्दी हो जाएंगे, एक उज्ज्वल भारत के सुनहरे भविष्य के सपने को मिलकर भी पूरा किया जा सकता है.

बातें तो 2014 के चुनावी प्रचार के दिनों में इतनी हुई कि उन्हें सोशल मीडिया पर विपक्षियों द्वारा अपमानजनक उपाधि दी गयी, लेकिन आज उन्होंने उन सबके इल्ज़ामात को हवा में फेंकते हुए हक़ीक़त के धरातल पर कदम रख दिया है. देखना ये है कि कौन इस अंगद के पैर को डिगा पाता है, और देखना ये भी दिलचस्प है कि उनकी बातों को गप्प मानने वाले भी अचंभित हो रहे हैं कि कैसे चुनाव प्रचार के समय कही गयी एक एक बात वो सच साबित कर रहे हैं.

देश का प्रधानमंत्री यदि हो तो ऐसा ही हो, जिसके चेहरे पर ते़ज हो, वाणी में जनता को मंत्रमुग्ध करने की कला, और पूरी कायनात को षडयंत्र रच देने के लिए मजबूर कर देने का जादू.

राष्ट्रवादी हिंदुत्व और अध्यात्म

मोदीजी चाहे ये कहते रहे कि फलाना साल तक काम करूंगा और फलाना समय में राजनीति, लेकिन मैं सिर्फ इतना जानती हूँ मोदीजी चाहे काम करें या राजनीति, उनके हर काम में उनकी कूटनीति और उसके पीछे छुपी राष्ट्रनीति को समझना "बुद्धिजीवियों" के बस की बात नहीं तो हम आम जनता की क्या बिसात.

आप यदि उनके 2014 से लेकर 2017 के कामों की तुलना 2018 में करेंगे तो मैं कहूंगी आप मोदीजी को अभी समझ नहीं पाए. फिर चाहे बात नवाज़ शरीफ के जन्मदिन पर उन्हें सरप्राइज़ विज़िट देने की हो या सर्जिकल स्ट्राइक की हो. या फिर रोहित वेमुला और अख़लाक़ के समय ट्वीट करना हो या इस समय हो रही हत्याओं और सोशल मीडिया पर हर दूसरे दिन वायरल हुई खबरों पर ट्वीट न करना हो.

लोग हँसते हैं जब मैं राजनीति में अध्यात्म को जोड़ देती हूँ. लेकिन मेरे लिए अध्यात्म से बाहर कुछ भी नहीं है, ना राष्ट्रनीति, ना राजनीति, ना कूटनीति.

मोदीजी हर फैसला केवल अपने दिमाग से नहीं करते, जिसके लिए आप उन्हें कोसते रहते हैं दिन रात... जब कोई घटना घटित होती है तो उस समय की परिस्थिति के अनुसार उस घटना का सदुपयोग राष्ट्रहित में कैसे अपनी कूटनीति के माध्यम से करना है, इसके लिए भी अंत:प्रेरणा की आवश्यकता होती है. और ये अंत:प्रेरणा प्रकृति प्रदत्त संकेतों पर आधारित होती है. एक योगी को राष्ट्र चलाने के लिए चुना जाना भी एक लम्बी योजना के परिणाम स्वरूप होता है.

जैसे मनमोहन के अबोले के बाद मोदीजी के बोलबाले का वक्त था. यदि मोदीजी के पहले मनमोहन की जगह कोई वाचाल और सुलझा हुआ इंसान प्रधानमंत्री होता तो मोदीजी के भाषण और उनके कहे गए हर वाक्य का उतना प्रभाव नहीं पड़ता... इस बात का सबसा बड़ा उदाहरण यही है कि उनका "भाइयों और बहनों" कहना तक उनका प्रचलित डायलॉग हो जाता है.

सफ़ेद खड़िया से लिखने के लिए श्यामपट्ट का होना आवश्यक है. वैसे ही उनका किया गया हर कार्य विरोधों के पट्ट पर लिखी गयी वो इबारत है जो बरसों नहीं सदियों के लिए दर्ज कर दी गयी है. जिसके लिए उन्होंने अपनी छवि के बिगड़ने तक की परवाह नहीं की. अपने प्रधानमंत्री पद के खो जाने तक की चिंता न की.

2014 से पहले जो आम जनता की आत्मा सो गयी थी उसको जगाने के लिए उन्होंने ऐसे कई काम किये हैं जो कदाचित आपकी अपेक्षाओं को संतुष्ट न कर पाई हो, लेकिन आपके अन्दर विद्रोह की उस चिंगारी को हवा दी है कि यदि मोदीजी 2019 में न भी आ पाए (ईश्वर न करे ऐसा हो) तब भी आपका विद्रोह तब तक चिंगारी से आग बन चुका हो. फिर सरकार चाहे जो आये, लोकतंत्र बचा रहे और जनता की सजगता बनी रहे, फिर कोई राष्ट्रविरोधी ताकत आम जनता के अन्दर की इस आग को चंद चांदी के सिक्कों की चमक से बुझा न पाए.

आप राष्ट्रवादी हैं हिंदुत्व के पुरोधर हैं, तो मेरी इन सारी बातों को समझ सकते हैं, अगर नहीं तो आप इसे मेरी चमचागिरी कहकर सिरे से ख़ारिज कर दीजिये. लेकिन मैं मोदीजी की प्रकृति प्रदत्त योजना के साथ अंतिम व्यक्ति बनकर खड़ी रहूँगी.

क्योंकि मोदीजी ने चाय बेची है तो हाँ मैंने भी पकौड़ा बेचा है

पुरानी कॉमेडी फिल्मों में आपको पड़ोसन और चुपके-चुपके के बाद कौन सी फिल्म याद आती है? मुझे तो याद आती है बॉम्बे टू गोआ, और बचपन में जब आप फिल्म देखते हैं तो आपको कहानी भले समझ ना आये लेकिन कुछ सीन आपके लिए इतने मज़ेदार होते हैं कि आपके दिमाग में हमेशा के लिए 'अंकित' हो जाते हैं.

उन्हीं में से बॉम्बे टू गोआ का एक सीन है जब एक मोटा सा लड़का पकौड़े के पीछे दीवाना होता है और बात बात पर पकौड़ा... पकौड़ा... चिल्लाता हुआ जहाँ पकौड़ा मिलता है वहां उसे खाने के लिए टूट पड़ता है.

आजकल सोशल मीडिया पर जो पकौड़ा पुराण चल रहा है तो मुझे वही मोटा सा बच्चा बहुत याद आ रहा है... हमारा सोशल मीडिया भी इतना ही पेटू होकर मोटा ताज़ा हो गया है... हर घटना पर टूट पड़ता है... और आजकल पकौड़ा-पकौड़ा चिल्ला रहा है...

ऊपर मैंने एक पंक्ति में 'अंकित' शब्द लिखा है उस पर विशेष तवज्जो चाहूंगी... एक तरफ एक हिन्दू नौजवान के क़त्ल की दुखदायी ख़बर और उसके बाद पकौड़ा-पकौड़ा करता हुआ सोशल मीडिया का हास्य व्यंग्य.... यहाँ कोई ताना नहीं मार रही... जीवन के पूर्ण रूप का साक्षात्कार करना हो तो यही सबसे महत्वपूर्ण पल होते हैं जब दुःख के गहनतम क्षणों से ही शुद्ध सात्विक हास्य उभरकर आता है...

जीवन के दो ध्रुव पर खड़ा मनुष्य और मनुष्य से निर्मित समाज इतनी शिद्दत और जूनून के साथ जिंदा ही इसलिए है कि उसकी जिजीविषा को इसी समाज से भरपूर पोषण और ऊर्जा मिलती है.

तो जैसा कि हर बार के किस्से के बाद ज़िक्र होता है मेरे व्यक्तिगत अनुभव का तो बात 2008 के पहले की इंदौर है यानी स्वामी ध्यान विनय के पास आने से पहले...

किस्से को आगे बढ़ाने से पहले याद दिला दूं मेरे जीवन की एक कहानी मैंने साझा की थी आप सभी से "मजदूर की मजदूरी" जिसको आप में से कई लोगों ने पढ़ी होगी... उसी कहानी को आगे बढ़ाते हुए बताना चाहूंगी कि जब दूधमुही बच्ची को घर छोड़ काम पर जाना पड़ा और कम्प्युटर वाले मालिक ने मुझे पैसा नहीं दिया और जब पांच साल तक घर में बिना नौकरी के बैठना पड़ा... तब हमने घर के बाजू में किश्तों में एक दुकान खरीदी थी.

मेरे बहुत मना करने के बाद भी एक रिश्तेदार को उसमें पार्टनर बनाया गया... उन्होंने दुकान में सारा सामान लगाया. और फिर हमने इंतज़ाम किया एक हलवाई का... दुकान थी छोटी मोटी घर के ज़रूरतों की चीज़ों की लेकिन उस दुकान का सबसे बड़ा आकर्षण था बेचे जाने वाले समोसे, कचौड़ी और पकौड़े...

उस दुकान के शुभारम्भ के लिए उस समय के महापौर श्री कैलाश विजयवर्गीय को हमने विशेष अतिथि के रूप में बुलाया था... आप सोचिये... कचौड़ी और पकौड़ी की दुकान के लिए इतनी बड़ी हस्ती आने के लिए तैयार हो गयी तो वो हमारा स्टेटस, संपर्क और किसी भी काम को छोटा न समझने का हमारा जज़्बा ही था.

और जब कभी हलवाई नहीं आता था तो हम लोगों को ही उसके हिस्से का सारा काम करना पड़ता था... इस बीच अमेरिका में रहने वाले मेरे भाई का फोन आया, ताना मारते हुए पूछने लगे - "सुना है आजकल पकौड़ा बेच रही हो!"

मैंने एक ही जवाब दिया - "हाँ तो?? कम से कम अपना ज़मीर बेचकर पैसों के लालच में अपनी धरती छोड़कर विदेश में गुलामी तो नहीं कर रही ना...." फिर जीवन में दोबारा कभी उनका फोन नहीं आया...

ये बात अलग है कि जो मुझे पुर्वानुमान हो गया था कि पार्टनरशिप रिश्तेदारी में नहीं चलती, वो भी ऐसे रिश्तेदार जो उम्र में आपसे बड़े हैं और रिश्ता ऐसा कि लड़ना तो दूर अपना हक़ तक नहीं मांग सकते...

ऐसे में दुकान और उसकी सारी इनकम उन्होंने हथिया ली और हम फिर एक बार खाली हाथ नई नौकरी की तलाश में निकल पड़े... और फिर तब मैंने एक मीडिया हाउस में सह सम्पादक की नौकरी कर ली...

जीवन में इस मुकाम तक पहुँचने के लिए पापड़ ही नहीं बेलने पड़ते, पकौड़े भी तलने पड़ते हैं जनाब... तब जाकर कोई चाय वाला प्रधानमंत्री बन जाता है, और कोई संजीव कपूर और विकास खन्ना जैसे मशहूर शेफ के हाथों बने पकौड़े की रेसिपी छापने के लिए वेबसाइट का मालिक...

उसके आगे की कहानी भी बहुत संघर्षपूर्ण है, आज की तारीख तक जीवन में संघर्ष है... लेकिन हम संघर्षों से घबराने वालों में से नहीं है... बातें और भी हैं लेकिन फिलहाल बस इतना ही बताना था... काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता...

हम उन लोगों में से हैं जिन्हें गाय का गोबर उठाकर कंडे बनाने में शर्म आती है, लेकिन वही चीज़ जब विदेशी लोग सुन्दर पेकिंग के साथ अमेज़न पर बेचते हैं तो उसको खरीदते समय ख़याल नहीं आता कि उन्होंने भी जादू से नहीं बना लिए होंगे कंडे... गाय का गोबर तो उठाया ही होगा... और क्या पता गाय के गोबर के अलावा उसमें न जाने किस जानवर का मल मिला रहे हैं...

ये हम ही हैं जिन्होंने किसी ज़माने में अपने ही हाथों से खाट पर निवाड़ चढ़ाई थी लेकिन वही खाट जब विदेश में हज़ारों में बिकती है तो बड़े गर्व से कालर उठाते हैं, देखा हमारे देश का प्रोडक्ट विदेश में कितना महंगा मिलता है, लेकिन आज उन्हें अपने आँगन में वही खाट पिछड़ापन की निशानी लगती है...

तो सोशल मीडिया पर पकौड़ा पकौड़ा चिल्लाने वालों इतने भी पेटू मत बनो कि उस फिल्म के बच्चे की तरह पूरे समय आपके मुंह पर पट्टी बांधना पड़े...


एक ही व्यक्ति में चारों वर्णों के गुण

कुछ दो तीन वर्ष पहले अप्रेल में एक अंग्रेज़ी अखबार में लेख पढ़ा था जिसकी हेड लाइन थी –

PM Narendra Modi is a dream merchant: Dr Manmohan Singh

दस साल तक जिनकी जुबान पर खानदानी ताला लगा था जिसका कोड नम्बर भी खुद मनमोहन सिंह को पता नहीं था- वो अचानक से इतनी शायराना बातें करने लगे तो सोचने में ये भी आता है कि प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों और कार्यों ने मौन-मोहन को भी वाचाल-मोहन बना दिया, तो फिर सोशल मीडिया के वृहद मुख का कहना ही क्या.

लेकिन मोहन प्यारे ने बात तो बहुत पते की की थी, कि मोदी सपनों के सौदागर हैं.

वो सपने बेचते ही नहीं, सपने खरीदने का भी माद्दा रखते हैं. कहते हैं एक अच्छा व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता. और मोदी जैसा चतुर व्यापारी तो घाटे का सौदा कर ही नहीं सकता.

मोदी के विदेश दौरों का और उनकी मेक इन इंडिया की व्यापारी नीति का मजाक उड़ाने वाले भी वही है जो देशी वस्तुओं को हिकारत की नज़र से देखते हैं और गैजेट्स से लेकर प्लास्टिक के डब्बे तक चाइना बाज़ार से खरीदते हैं.

हाँ मोदी सपनों के सौदागर हैं, उन्होंने युवाओं के सपनों को निवेश किया है, उन्होंने महिलाओं की दुआओं को निवेश किया है, उन्होंने बुजुर्गों के अनुभवों को निवेश किया है ताकि हमारे बच्चे उस दुनिया में स्वच्छंद सांस ले सके, जिसका मात्र सपना देखने के लिए मेरा देश पिछले सत्तर साल तक गहरी नींद में सोता रहा.

हाँ मोदी सपनों के सौदागर हैं, तभी उन्होंने देश के युवाओं को Startup India Standup India जैसे सपने देकर कहा- कि सपने वही पूरे होते हैं जो जागती आँखों से देखे जाएं. इसलिए अब उस लम्बी नींद से जागो, उस नींद में जितना समय गंवाया है उसकी भरपाई करने के लिए दोगुनी मेहनत करना है. इसलिए वो खुद भी दिन के सोलह से अठारह घंटे काम करते हैं, वो भी एक भी दिन छुट्टी लिए बिना.

हाँ मोदी सपनों के सौदागर हैं, तभी तो जिन्होंने दलित कहकर हाशिये पर फेंक दिया उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए वो उन्हें कहते हैं- ‘स्टैंडअप इंडिया’…. ईश्वर ने जो शक्ति, सामर्थ्य और हुनर सबको दिया है, वही शक्ति, सामर्थ्य और हुनर दलित भाइयों को भी दिया है.

हाँ मोदीजी ही असली सपनों के सौदागर हैं, तभी तो पानी का सपना देखने वाले लातूर में लोगों ने सपने को साकार होते देखा. उन्हें प्यास से मरता हुआ नहीं छोड़ा. यही नहीं भारत माँ के सौभाग्य को समृद्ध करने के लिए तमाम योजनाओं के साथ सौभाग्य योजना भी लाए हैं.

सौदागर अर्थात व्यापारी, चतुर बनिया, तो वैश्य का सबसे उम्दा उदाहरण है मोदीजी, जो कभी घाटे का सौदा नहीं करते. इसलिए उन्हें पता है किसी व्यापार को सफल बनाने के लिए क्या युक्तियाँ होती हैं. इसलिए उन्हें ये भी पता है कि त्वरित प्रतिक्रिया से वो हिन्दू राष्ट्रवादियों के चहेते तो बन जाएंगे… राजनीतिक बुद्धि से ठीक भी होगा… लेकिन उनकी राष्ट्रनीति कहती है देश को दोबारा विपक्षियों के हाथ में जाने से रोकने के लिए उनका लम्बे समय तक टिके रहना आवश्यक है, जो बाकी लोगों को पक्ष में किये बिना संभव नहीं है.

जिसके लिए उन्हें कई कटु आलोचनाएं सहना होगी, वो भी अपनों से… और वो सह भी रहे हैं… जिसे आप प्रधानमंत्री पद का लोभ कह रहे हैं, वो पद का लोभ नहीं, 70 सालों बाद जिन युक्तियों से बागडोर दोबारा भारतमाता के हाथ में आई है वो बस गलत हाथों में दोबारा न चली जाए, उसका प्रयास मात्र है.

और सिर्फ वैश्य ही क्यों, मैं बता दूं ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र तो आपने बहुत देखे होंगे. लेकिन आपने मोदीजी जैसा व्यक्ति नहीं देखा होगा जो ज्ञान से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रीय, युक्ति में वैश्य हो, आपके मन में आ रहा होगा शूद्र क्यों छोड़ दिया? तो सुनिए, आपकी परिभाषा के अनुसार शूद्र वह है जिन पर इन बाकी तीन वर्गों की सेवा का का भार था… तो एक अर्थों में मोदीजी खुद को “प्रधान सेवक” भी कह चुके हैं.

- माँ जीवन शैफाली (नायिका)