Manvata ka akshayvat in Hindi Poems by Anand Gurjar books and stories PDF | मानवता का अक्षयवट

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मानवता का अक्षयवट

1 - चार आंखें

एक तरफा है रोशनी

सिर्फ एक तरफा

खिंच गई है लकीर

समाज के बीच

सरकार के बीच

और हो गई हैं

बहुत सी आंखें चार

तभी तो कहता हूं

बहुत मुश्किल है

मिटाना भ्रष्टाचार ।

लड़ रहे हैं हम

भ्रष्टाचार के खिलाफ

कर रहे हैं भ्रष्टाचार

घर में मोहल्ले में

गांव में शहर में

देश में विदेश में

हर जगह दे रहे हैं

अपने आप को दगा ।

हमारा मन आत्मा शरीर

सब कुछ बदल गया है

भूल गए हैं अपने आपको

अहंकार द्वेष निर्लज्जता

और ना जाने क्या-क्या ।

सभी कुछ मिल गया है

और चढ़ गया है हमारी

मोटी दीवाल पर ।

पुरानी रूढ़ियों को मिटाने में

सक्षम नहीं हुए हैं

और हो गई हैं

नई रूढ़ियां सवार

कुछ सरकारी हैं

कुछ गैर सरकारी

हर तरह की रूढ़ियां ।

दृढ़ता विश्वास धैर्य

सत्यता परोपकार

सब कुछ पलायन हो गया है

बस बच्ची है कुछ

आपस में लड़वाने वाली

भूतों की आत्मा

जो अपनों से गैरों को

सता रहीं हैं ।

यह सच है हर युग में

हर समय में पैदा होती रही हैं

करती रही हैं

मानवता को तृस्त ।

क्या ऐसा नहीं होगा

सत्य के सेतू पर

नया संसार बने

और हो जाएं

एकता की आंखें चार ।

***

2 - परछाईंयां

छोड़ती नहीं पीछा

लगी ही रहती हैं

मेरे साथ बाहर भीतर

हर जगह नस-नस में

समा गई है

ढक लिया है चारों ओर से

अंधेरी रात की तरह ।

सुनाई देती है एक आवाज

रात के सन्नाटे में

टक टक टक

चला जाता है मेरा ध्यान

पुरानी घड़ी की तरफ

मौसम खराब है

कुंठाओं की भांति ठंड ने

मुझे जकड़ लिया है

मैं अपनी रजाई को

खींचकर सो जाता हूं

परंतु घड़ी बार बार

मेरे सामने आती है

मुझ पर बहुत झुंझलाती है ।

सोचता हूं कुछ देर में

मेरे अक्खड़पन से

घबरा जाएगी

गहरी नींद में सो जाएगी

जीवन चक्र है

मौत उसकी छाया है

उन्हें आपस में कोई

पृथक नहीं कर सकता

हमारे चारों तरफ खड़ी हुई है

एक अदृश्य दीवार

जिसमें हम कैद हैं

सीं.. हीं.. सीं…

बोल रही हैं मृतक आत्मा

दे रही है सूचना

हमारा भी अस्तित्व है ।

मशीनों की कल कल

कहीं कुछ ठोकने की आवाज

मानवों की चीखें

सब मिलकर एक हो जाती हैं

और होता है शोर

बड़ा अजीब लगता है

हर जगह फैला हुआ है प्रदूषण

वातावरण में आत्मा में

टूट गए हैं सिद्धांत

कट गईं हैं जड़े

लगता है कुछ समय बाद

मानव हड्डियों का

ढांचा रह जाएगा

क्योंकि परछाइयां बदल गई हैं

सत्य की जगह झूठ

प्रेम की जगह घृणा

मृतक आत्माएं हमें सता रही है

लगता है जीवन

जमीन में गड़ा है

आदमी उस जगह पर

खड़ा हुआ है

जिसे कोई खोज

नहीं सकता ।

तोड़ देना चाहता हूं

उन हवाओं को

जो हमें बदरंग बनाती हैं ।

आओ सौहार्द का पानी

मिलकर डालें

ताकि उस मुर्दे की

परछाई धुल जाए ।

***

3 - निर्माण

तरंगित अतिसूक्ष्म तंतुमय

जीवन इंतजार करता है

हवा के झोंके का

यही क्षणभंगुरता उसे

हमेशा के लिए

अमृत की ओर

ले जाना चाहती है

जहां अपार शांति है ।

जन्म और मृत्यु के बीच

जीवन किसी तरुण

सहोत्साह मचल रहा है

छुपी हुई है मर्मवेदना

जिसका रास्ता जाता है

अव्यक्त परमानन्द को ।

सत्य अहिंसा अस्तेय अपरिग्रह

ब्रह्मचर्य आदि जो

हमारे मूल अवयव हैं

जिनसे निर्मित होता है मानव

अस्थि खंड की तरह

बिखरे हुए पड़े हैं ।

चलते फिरते मुर्दे सा

हो गया है मानव

केवल मुर्दा है मुर्दा

जो बहुत डरता डराता है

अतः जीवन का निर्माण

किसी तंतु से नहीं होगा

लोहे से भी नहीं

अब उन आस्थिखण्डों को

समेटा जाएगा

बज्र की तरह कठोर

निर्मित होगा मानव

जिसकी अथाह चोट से

कांप उठेगी मृत्यु ।

चिर जीवन तरुण सा

आमंत्रण देगा

अनुपम सौंदर्य को

जिसमें विरासती है

आनंद की आभा दुर्जेय होगा

मानव समस्त सृष्टि के लिए

उसकी वंदनीय छवि

यूंही देवों के लिए

पराजय का कारण होगी ।

पर पड़ा हुआ है निरुपाय

उठने में असमर्थ

अपनी वसुंधरा पर

पेट को चिपकाए कह रहा है

माता और मातृभूमि

स्वर्ग से महान है

पर मेरी समस्त कुंठाएं

मुझे घेर रही हैं

मैंने जकड़ लिया है भूमि को

इन्हें परास्त करके

मैं मां और मातृभूमि की

वंदना करूंगा ।

बहाऊंगा कुछ आंसू

उन पलों के लिए

जिसमें मेरी असहायता पर

पीड़ित थी दोनों ।

***

4 - अधलिखा पत्र

मैं यहां कुशल से हूं

तुम कैसे हो

यह पत्र बहुत दिनों में

लिख रहा हूं

सिर्फ लिख रहा हूं

मेरे स्वर्गीय मित्र

मुझे तुम्हारा पता

कुछ याद नहीं है

लाल-लाल टेसुओं से

महकती धरती

पक्षियों का चहचहाना

उगता हुआ सूरज

तुम्हारे प्रथम प्रभात में

सभी कुछ आनंदमय

हो जाता था ।

तुम्हारी एक मुस्कुराहट

सोते हुए प्राणी को

जगाने वाली थी

शायद तुम्हीं को देखकर

सीखा था जीना ।

पर वसंत तुम मरे

नहीं क्योंकि यह

चहकती चिड़िया

खिलते हुए फूल

तुम्हारी उपस्थिति का

आभास कराते हैं ।

तुम मुझसे छोटे थे

मेरी अनुपस्थिति में

मेरी अभिव्यक्ति

अपनी मुस्कुराहट से

कराते रहते थे

वसंत जब भी वसंत आता है

मेरा मन सूख जाता है

क्योंकि तुम्हें भी इस

निर्मम संसार में

वसंत ऋतु की तरह

कष्ट उठाना पड़ा है ।

क्योंकि यह प्रदूषण

वसंत को पूर्ण रूप से

आने नहीं देता है

शायद इसीलिए तुमने

यहां से गमन करना

अच्छा समझा होगा

कितनी वेदना छुपी होगी

इस पृथ्वी के अंदर

नहीं तो तुम्हारा प्रादुर्भाव

वसंत कैसे होता

समस्त दुखों को समेटे

जो सुख बांटता है

मुसकुराता है आठो याम

तब बनता है एक वसंत

तुम्हें श्रद्धांजलि

मैं कैसे दूं

केवल तुम्हें समर्पित है

अधलिखा पत्र ।

***

5 - लोहे के लड्डू

आंखों से टपकते सूर्य

प्रकाशित करते हैं मुझे ।

अगर तुम्हारी वेदना

मेरे निकट ना होती

तो मेरे दीप्ति बदन को

शांति कौन देता

तुम कैसे पाते सुख

मैं प्रसन्न हूं

तुम्हारी वेदना लेकर

क्योंकि एक आंसू के बदले

बांट रहा हूं सौ शीतल सूर्य ।

तृस्त हूं मैं तृस्त है मानवता

युग-युग नहीं लगता

हम जी रहे हैं एक ऐसे लोक में

जहां मानव सिर्फ खलनायक है

अरे चांद

क्यों छुपा है बादलों में

शायद यह करुणा भी

काले सूरज की भांति

टपक रही है

डर रहा है मेरा चांद

छटपटाती है आंखें

पंखहीन विहंग की तरह

क्या देखने को

काश ये समस्त सुंदरियां

मेरी हो जातीं ।

क्या तुमने सोचा है

समस्त सौंदर्य के पीछे

छुपा हुआ कुरूप

समस्त सुखों के पीछे

दहकती हुई दुखाग्नि

सभी कुछ तुम्हारा है ।

अपनी पलके बंद कर लो

देखो तुम्हारे अंदर

सूर्य से डरा हुआ

एक कोने में

दुबका का चांद ।

परंतु अंधकार ने

प्रकाश को ढक लिया है

बन गया है मानव

काला डरावना भूत

यह कलिकाल है

महाकाल है

एक अकाल है

पर आदमी

हड्डियों को ढकती

जर्जर खाल है ।

यदि वास्तव में

जीवित है मानवता

तो मैं देता हूं चुनौती

मेरे सामने आकर देखो

हम दोनों में

कौन होगा रसगुल्ला

नहीं हम साबित होंगे

लोहे के लड्डू

जिनकी कठोरता से

अमानवीयता खत्म हो जाएंगी

फिर होगा सच्चा कलयुग

क्या वास्तव में

समस्त विज्ञान को

अपने अंदर समेट कर चलते हो

तो मेरे साथ आओ

जवाब क्यों नहीं देते बोलो ।

***

6 - मैंने आज तक

तुम्हें कुछ भी नहीं दिया है

आगे भी नहीं दे पाऊंगा

मैं ही क्या कोई भी नहीं

फिर पुरानी भित्तियों को

पोतकर नया बनाया जाएगा

युगों युगों से हो रहा है ऐसा ।

सिर्फ कहना चाहता हूं

यह टेबल का दस्तूर नहीं

कांच के बंद कमरे में

प्लास्टिक से सुसज्जित दुनिया

बड़े ही सुंदर फूलों की

कैसे कर सकते हैं हम

खलिहान की परिकल्पना ।

करना पड़ता है अभिनंदन

लगा लेता हूं अपने गले से

जिनके अंदर आती है बदबू

पुरानी रूढ़ियों की

मेरा नहीं

समाज का रिवाज है ।

उन दहेज लोभियों को

जो जला देते हैं बहुओं को

उन बापों को भी

जो अपनी बेटियों को

सौंप देते हैं भेड़ियों को

पता नहीं क्यों शायद

दानवों पर लगा

मानवता का मुखोटा

उन्हें डाल देता है भुलावे में ।

कवियों बुद्धिजीवियों

संभ्रांतों मैं तुमसे

वही बात कह रहा हूं

जो तुम्हारे मुंह से

मैंने कभी सुनी थी

कितना प्रतिकार किया था

उन सामाजिक बुराइयों का

कितनी सहानुभूति दिखलाई थी

तुमने दलितों के प्रति ।

मुझे लगता है

अभी कुछ नहीं हुआ है

कोई कदम नहीं उठा है

अगर कुछ हुआ है तो

वह तुम्हारे वक्तव्यों से नहीं

तृस्त मानवता के संघर्ष से

तुम तृस्त नहीं हो

तुम्हें तो दया आती है

जब अपने से दूसरों की

तुलना करते हो

फिर कर देते हो

अनकों पन्ने काले

मैं भी कर रहा हूं

तुम्हारे संस्कार

कुछ-कुछ मुझ में भी हैं

पर मैं तुम्हारी कविता की

एक पंक्ति दोहराना चाहता हूं

जिसे तुम दोहरा कर भी

नहीं दोहरा पाते हो

हम भूल जाते हैं

जो संदेश हमने

दूसरों को दिया है हमें भी है

हम भूल जाते हैं

परमाणु बमों की दुनिया में

तलवारों का मूल्य नहीं घटता

पर तलवारें बदल गई हैं

गर्दन तो अभी काटती हैं

पर दिखाई नहीं देती ।

हम अपनी कलम को

एक ऐसी परमाणु शक्ति में

परिवर्तित कर दें जो हमारी

कल्पना को साकार कर दे

यह तभी संभव है जब हमारी

कथनी और करनी एक ही हो

संघर्ष की बात कहकर

संघर्ष न करना

काव्य का गुणधर्म नहीं है ।

***

7 - मानवता का अक्षयवट

रूठ कर चले गए बादल

आकाश सूना है

हवाएं घबरा गई हैं

फिर भी नहीं हुई पुष्टि

कब तक देते रहेंगे

वृक्षों पर कुल्हाड़ी

बिगाड़ दिया है हमने

समस्त पर्यावरण ।

पहले हमने कल्पनाओं को तोड़ा

फिर बना बनाया

अरे याद करो तुमने एक दिन

स्वप्न में बहुत बड़ा

पेड़ देखा था

अक्षयवट अक्षयवट

हां यही वट है जिसकी तुमने

कल्पना की थी

जो अंदर-बाहर विश्वास के

धरातल पर टिका हुआ है

हम जीवित रहेंगे

यह सृष्टि जीवित रहेगी

मानवता जीवित रहेगी

सब कुछ जीवित रहेगा

हमें विश्वास है ।

पर हम सबसे पहले उसी को

मार डालना चाहते हैं

अनवरत फेंक रहे हैं कुल्हाड़ी

उसकी विशाल शाखाओं पर

जिसकी जड़ें मानवता की

जमीन को मजबूती से

जकड़े हुए हैं ।

यदि ऐसा होता रहा तो

यह प्रदूषण और भी बढ़ जाएगा

मानवता का अक्षयवट

एक दिन कट जाएगा

जिस दिन आदमी का

विश्वास उठ जाएगा ।

हमें विश्वास है

तुम पेड़ों को

अब नहीं काटोगे

चाहे वह काल्पनिक ही

क्यों ना हों ।

***

8 - संसार

अनंत विश्व में

हम जी रहे हैं

हमारे पास अपना

अलग से एक संसार है

सबका अपना-अपना

अलग संसार होता है

अलग-अलग क्वालिटी का

चाहे इंडिया मेड हो

चाहे जापान मेड हो

आखिर है तो संसार ।

सब जगह व्याप्त है बुराई

द्वेष अहंकार झूठ कपट लोभ

अनेक अकर्म ।

हर कंपनी के माल में

अवश्य ही मिलेंगे

नहीं तो संसार कैसा

जिस दिन प्रेम भाईचारा

मैत्री परदुखकातरता सत्य

परमार्थ और दया

अनेकों सद्गुण आ जाएंगे

उस दिन एक नया संसार होगा

एक नई खोज होगी

जो घटिया माल को फेंखती हुई

प्रगति की राह पकड़ेगी ।

अभी ऐसा होने पर

अपने आप को

अकेला महसूस करता हूं

तब वास्तव में मानना पड़ता है

जगत मिथ्या है

और ब्रह्म सत्य है ।

संसार यह फैला

हुआ भूखंड नहीं है

संसार है हमारी भावनाएं

जो बहुत कुंठित हो गई हैं

जिस दिन बदल जाएंगी

उस दिन नई खोज होगी

तब हम समर्थ होंगे

धरती पर स्वर्ग लाने में ‌।

***

9 - आजादी

आजादी

किसी गेंद की भांति

नन्हें हाथों में सौंपी गई है ।

उछाल रहे हैं हम

आपस में मिलकर ।

मैं चाहता हूं

आजादी रन हो जाए

कल भी हुआ था एक रन

बस हो गया

पर आजादी अभी बाल है ।

मैं चाहता हूं

आजादी गोल हो जाए

फुटबॉल के रूप में

मुझे उसका अस्तित्व

स्वीकार नहीं है ।

***

10 - मैं बहुत बेचैन हूं

सत्य का

सौंदर्य का

आलोक का

श्रद्धा का

विश्वास का

और शील का

रोज होता है यहां

सीता हरण ।

क्या बताऊं

मैं बहुत बेचैन हूं

रोज दिखता है मुझे

रावत यहां ।

आस्था हो गई खंडित यहां

टूटता जुड़ता कभी

कुछ ना पता विश्वास है

लड़ रहे हैं या मिल रहे हैं

कुछ पक्ष में कुछ विपक्ष में

पर मुझे मालूम नहीं

मैदान में है राम रावण

क्या पता क्या बात है ।

***

11 बात की बात

क्या पता किस द्रोपती की

लाज पर है आंच आई

भीष्म तो चुप ही रहेंगे

कृष्ण का कुछ न पता ।

बाद में मालूम चलेगा

सत्य है कितना यहां

बात है बरसों पुरानी

रोज होती है यहां

पर बदलता रूप है

हर युग में यह होता रहा ।

उस समय की बात में

और आज की में

सिर्फ अंतर इतना है

दोष तो उस समय भी

द्रोपदी का था

पर आज इतना और

जो लूटता है लाज

उसको ही पुकारा ।

हैं विखण्डित परम्पराएं

टूटती धरती

कुछ भी हो होता रहे

होने दो ।

उच्चलृखल होती पीढ़ियां

आरियों सी

नारियों में धार है

आदमी लगता मुझे तलवार है

कोई भी झुकने को

न तैयार है ।

***

12 - रूढ़ियां

बहुत झेला हमने

अब सहा नहीं जाता

छोड़ कर हम भी पुरानी

कुछ नई अपनाएंगे

क्योंकि अब तक आज तक

हमने हमारी पीढ़ियों ने

रूढ़ियां ही रूढ़ियां अपनाई हैं ।

अवतार पैगंबर महामानव हुए

हो गए बस हो गए

तो क्या हुआ ।

हमने जो समझा

अब तक किया

तुम चलाओ यंत्रवत

या चलने दो

पाप पुण्य का सवाल

ना उठने दो

उच्च आदर्शों पर

वर्षों तक चले

अब पतन राह पर चलने दो ।

काश कैसा सोचते

अब तक रहे

सौ बार गिरकर भी

संभलते ना रहे

देखकर यह दूसरों को

कुछ समझ जाए

तोड़कर दीवार को जो

पार कर जाए

मानता हूं कुछ नया अपनाएगा

बात मानवता की

वही दुहरायेगा

संस्कारों में हुआ है

जो पलकर बड़ा

पर नहीं कुछ जब तक होगा

मौजूद हैं नई रूढ़ियां ।

***

13 - जिन्दा मुर्दे

एक होना था हमें

हो गए दो चार हम

है मनों की बात लेकिन

क्या करें लाचार हम ।

तुल गए हैं हम टनों में

गर्व की यह बात है

जानते तुम हो नहीं क्या

कितनी हमारी औकात है ।

झांककर नीचे को देखो

एक नेता जा रहा है

फट गया उसका पजामा

लग गया इल्ज़ाम है ।

यह गनीमत आज मेरे

हाथ में यह जाम है

क्योंकि अब तक आदमी

मेरे लिए बस आम है ।

तंत्र है बस लोक

परलोक का कुछ भी नहीं

ताक पर ईमानदारी

डर हमें कुछ भी नहीं ।

इसका मतलब यह नहीं

यह सभी ऐसा ही रहेगा

कल हमें मरना था लेकिन

आज ही मरना पड़ेगा ।

***

14 - तुम्हारे पास

जब कभी दूर

बहुत दूर चले जाते हैं

वहां पर भी चैन की

सांस नहीं लेते ।

यादों की संचित राशि

सामने आती है

एक के बाद एक

गुजरने लगती है

आंखों के सामने से

बनती बिगड़ती तस्वीर ।

ना जाने क्यों

बहुत बेचैन हो जाता हूं

चला आता हूं तुम्हारे पास

बहुत थक जाता हूं

हार जाता हूं

नहीं ले पाता हूं

एक चैन की सांस ।

तुम्हारे पास आकर

बहुत दूर जाकर

मैंने देख लिया है

कुछ देर के लिए

मैंने अपने को जाना है

शायद फिर से में

तुमने खोने वाला हूं

क्या तुम भी मेरी तरह

मुझ में खोई रहती हो

यही कारण है

तुम्हारी अंतरतरंगे

मेरे मन को खींच लेती हैं

ले जाती हैं बहुत दूर

जहां तुम्हारे और मेरे सिवा

कोई नहीं होता है ।

***

15 - हमारी जिंदगी

सूखी टहनियों की तरह

हमारी जिंदगी है

पर इतनी कमजोर

जरा आधात में

टूटती दिखाई देती है ।

वीरान अनेकों संकटों से ग्रस्त

तड़पती है दो बूंद पानी के लिए

मगर मिलता है जाम

हमें नफरत का

घृणा का अहंकार का ।

आती है आंधी

सांप्रदायिकता की

जातिवाद की भाषावाद की

किसी टहनी की तरह

टूट जाती है हमारी जिंदगी ।

***

16 - छुले गाल

एक दिन नाई ने

कुछ टूटी हुई ब्लेड

सड़क पर फेंक दी

तुरंत ही एक कवि ने

उन्हें उठा लिया

नाई घबरा गया

कवि महोदय से बोला

भाई साहब

इनका क्या करोगे

उत्तर मिला

तुम ब्लेड से दाढ़ी बनाते हो

और मैं टूटी हुई ब्लेड से

कविता बनाता हूं ।

वह बोला ताज्जुब है

फिर तो आप

बाल भी लेते जाओ

उत्तर मिला नहीं

क्योंकि जब मैं लिखता हूं

बाल तो क्या

बाल की खाल तक

उतार लेता हूं ।

***

- आनन्द सहोदर

तिलकचौक – मधुसूदनगढ़

जिला – गुना (मध्यप्रदेश)