प्यारालंपिक
: हरीश कुमार ‘अमित’
‘पापा, मैंने टॉप कर लिया है. अब आपकी बारी है.’ मेरी बेटी, जिया, के फोन पर मुझसे कहे गए यही शब्द बार-बार मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे, जब मैं रियो पैरापंलिक में भाला फेंक स्पर्धा के फाइनल में मैदान में उतरा. बेटी ने अपना वादा पूरा करके दिखा दिया था और अब मेरी बारी थी वादा पूरा करने की.
छह साल की जिया और मेरे बीच यह समझौता हुआ था कि अगर वह एल.के.जी. की अपनी क्लॉस में टॉप करती है तो मैं भी रिया पैरांपलिक में स्वर्ण पदक जीतकर दिखाऊँगा.
यूँ स्वर्ण पदक जीतने का वादा तो मैंने अपनी पत्नी, मंजु, से भी किया था. इस पैरांपलिक के लिए भारत से रवाना होने से पहले मैंने उससे यह वादा किया था कि मैं विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीतकर दिखाऊँगा. भाला फेंक स्पर्धा के फाइनल में जाने से पहले भी मैंने फोन पर उससे अपना वादा दोहराया था.
और मैंने अपना वादा पूरा कर भी दिया. मैंने इस स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीत ही लिया - वह भी विश्व रिकॉर्ड के साथ. सच तो यह है कि मैंने अपना ही बनाया विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिया था. इससे पहले सन् 2004 में एथेंस में हुए पैरांपलिक में भी मैंने स्वर्ण पदक जीता था. पैरांपलिक में स्वर्ण पदक जीतने वाला मैं पहला खिलाड़ी था. तब मैंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व रिकॉर्ड बनाया था और अब सन् 2016 में उसी रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 63.97 मीटर का नया विश्व रिकॉर्ड बना दिया था.
यह सब पढ़ते हुए आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं हूँ कौन और मेरा नाम वग़ैरह क्या है. मेरा नाम देवेंद्र झांझरिया है और मेरी उम्र करीब 36 साल की है. सन् 1981 में राजस्थान के चुरू जिले में मेरा जन्म हुआ था.
रिया पैरांपलिक के लिए रवाना होने से पहले ही मुझे अपनी क्षमता पर पूरा विश्वास था. मुझे पूरा यक़ीन था कि भाला फेंक स्पर्धा में मैं स्वर्ण पदक जीत ही लूँगा.
फिर जब 13 सितम्बर 2016 को मैंने विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीत लिया और उसके बाद जब मंजु को फ़ोन किया तो मेरे सबसे पहले शब्द यही थे - ‘मैंने अपना वादा पूरा कर दिया.’
सच तो यह है कि इस स्पर्धा में जीत हासिल करने के लिए मैंने बहुत मेहनत की थी और कड़ा अभ्यास भी. रियो पैरांपलिक की तैयारी के लिए मैंने अपनेआप को इतना अधिक समर्पित कर दिया था कि पिछले एक साल में मैं क़रीब दस दिन ही अपने परिवार के साथ बिता पाया. अपनेआप को फिट और चोटमुक्त रखने के लिए मैंने कड़ी ट्रेनिंग की और ख़ूब अभ्यास किया. इसी कारण मैं अपने परिवार से मिलने बहुत कम जा पाया. इसका अन्दाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मेरा दो साल का बेटा, जिसका नाम हमने कात्यान रखा है, मुझे पहचानता ही नहीं. उसके लिए तो मैं जैसे कोई अजनबी हूँ. मंजु उसे मेरी फोटो दिखा-दिखाकर यह बताती रहती है कि मैं उसका पापा हूँ.
रियो पैरांपलिक में स्वर्ण पदक जीत पाने में फिनलैण्ड में मेरी ट्रेनिंग का भी काफ़ी योगदान था. यह देश भाला फेंक स्पर्धा में चैम्पियन बनाने के लिए प्रसिद्ध है. अप्रैल से जून 2016 के बीच क़रीब तीन महीने तक मैंने फिनलैण्ड के क्योरटेन शहर में भाला फेंकने की ट्रेनिंग ली थी. तब मैं ज़िन्दगी में पहली बार विदेश गया था. फिनलैण्ड में अभ्यास के दौरान मेरी मुलाक़ात कीनिया के भाला फेंक खिलाड़ी यूलियस येगो से हुई, जो धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गई. यूलियस येगो को मैं अपना सबसे बड़ा प्रेरक मानता हूँ.
अब जबकि रियो पैरांपलिक में स्वर्ण पदक जीत पाने का मेरा लक्ष्य पूरा हो गया है, मैं घर जाकर अपने परिवार के साथ वक्त बिता पाऊँगा - ऐसी उम्मीद मुझे है.
मेरे मन में अक्सर यह बात आती है कि यह सब मैं कैसे कर पाया. पता नहीं वह कौन-सी शक्ति है जिसने मुझसे यह सब करवा दिया.
जब मैं आठ साल का था तो एक पेड़ पर चढ़ते हुए मुझे बिजली का करंट लग गया था. करंट का झटका ऐसा घातक था कि मेरे जिन्दा बच सकने की उम्मीद भी कम थी. ख़ैर, मैं जिन्दा तो बच गया मगर डॉक्टरों को कलाई के आगे से मेरी बाईं बाँह काटनी पड़ी. दरअसल पेड़ पर चढ़ते हुए दुर्घटनावश मैंने बिजली की एक तार को छू दिया था जिसमें 11000 वोल्ट का करंट बह रहा था.
इस खेल के प्रति मुझे बचपन से ही बहुत आकषर्ण था, सिर्फ़ एक बाँह रह जाने पर भी इस खेल के प्रति मेरी रूचि में कमी नहीं आई. मैं अपने आसपास ऐसे कई लोगों को देखता था जिनके या तो हाथ नहीं होते थे या टाँगें. ऐसे लोगों को देखकर मेरे मन में यही आता कि मैं इन लोगों से तो ज़्यादा भाग्यशाली हूँ क्योंकि मेरी दाईं बाँह तो है. बस इसी सोच ने मुझे अपने खेल में लगे रहने की प्रेरणा दी.
मगर अपने प्रिय खेल के लिए मेरे पास सुविधाएँ तो थी नहीं. यहाँ तक कि भाला फेंकने के लिए कोई भाला तक नहीं था. तब मैं खेतों से सरकण्डे तोड़-तोड़कर उन्हें दूर से दूर फेंकने का अभ्यास किया करता था. बाद में मैंने खेजड़ी के पेड़ की लकड़ियों से भाला बनाकर उससे अभ्यास करना शुरू किया.
भाला फेंकने के इस खेल में मैं बचपन से ही सिद्धहस्त था. तभी तो दसवीं कक्षा में पढ़ते हुए एक जिला टूर्नामेंट में दूसरे सामान्य बच्चों को हराकर मैंने स्वर्ण पदक जीता था.
इस खेल में उपलब्धियाँ हासिल करने का मेरा दौर आगे चलता ही रहा. मेरा नाम तब चमका जब सन् 2002 के एशियाई पैरा एशियाई (Paa Asian) खेलों में मैंने स्वर्ण पदक जीता. उसके बाद मैंने वापिस मुड़कर नहीं देखा. 2004 के पैरांपलिक में स्वर्ण पदक जीतने की बात तो मैं पहले ही बता चुका हूँ. इसी साल मुझे भारत सरकार से अर्जुन पुरस्कार भी मिला. और फिर सन् 2012 में राष्ट्रपति महोदय के हाथों पद्मश्री पाने का गौरव भी मुझे प्राप्त हुआ. यहाँ मैं आपको यह भी बता दूँ कि पैरांपलिक में पदक जीतने वाला मैं वह पहला खिलाड़ी था जिसे पद्मश्री प्रदान किया गया था. इसके अलावा अनेक राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में मैंने विजयश्री प्राप्त की.
मगर 2004 के बाद 2016 में बारह वर्षों के बाद पैरांपलिक में फिर से स्वर्ण पदक जीतने को मैं अपनी विषेश उपलब्धि मानता हूँ. इतने सालों के बाद स्वर्ण पदक जीत पाने का सपना सच कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं था.
मैंने पैरांपलिक खेलों की एफ 46 श्रेणी के अन्तर्गत भाला फेंक स्पर्धा में भाग लिया था. इस श्रेणी में वे प्रतियोगी भाग ले सकते हैं जिनकी एक बाँह कलाई से ऊपर या नीचे कटी हुई हो. 2008 में हुए बीजिंग में हुए और 2012 में लंदन में हुए पैरांपलिक में तो इस श्रेणी को रखा ही नहीं गया था. जब 2016 में इस श्रेणी को रियो पैरांपलिक में फिर से शामिल किया गया, तो मुझे अपने देश के लिए फिर से कुछ कर दिखाने का मौका मिला.
मेरी इन सारी उपलब्धियों के पीछे मेरी पत्नी, मंजु, का भी बड़ा योगदान है. वह ख़ुद कबड्डी की खिलाड़ी थी और उसने सन् 2008 में राज्यस्तरीय चैम्पियनशिप में जयपुर के भवानी निकेतन कॉलेज का प्रतिनिधित्य भी किया था. सन् 2007 में जब हम दोनों की शादी हुई तो वह राजस्थान विश्वविद्यालय से भूगोल में पी.एच.डी. कर रही थी.
उसके बाद सन् 2009 में जब हमारी बेटी, जिया, का जन्म हुआ तो हम लोगों ने महसूस किया कि हम दोनों खेल की दुनिया में एक साथ अपने सपने पूरे नहीं कर सकते. तब मंजु ने मेरे लिए खेल के अपने कैरियर का बलिदान कर दिया. उसने यह सब इसलिए किया ताकि मैं घर की चिन्ताओं से मुक्त होकर निश्चिंत मन से अपने खेल में ध्यान लगा सकूँ. मंजु के इस बलिदान की जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम है.
मेरी इन्हीं उपलब्धियों का नतीजा है कि राजस्थान में चौथी कक्षा की अंग्रेज़ी की पुस्तक में मेरी जीवनी को ‘ईच वन इज़ युनीक’शीर्षक से शामिल किया गया है.
और हाँ, एक और बात भी आपको बता दूँ. पैरांपलिक खेलों में अब तक दो-दो बार स्वर्ण पदक जीत पाने वाला मैं अकेला भारतीय खिलाड़ी हूँ.
रियो पैरांपलिक में हासिल की गई इस उपलब्धि से मेरा नाम पूरी दुनिया में तो चमका ही है, साथ ही मुझ पर पुरस्कारों की बारिश भी हुई है. राजस्थान सरकार ने मुझे 75 लाख रुपए नकद, जयपुर में 220 वर्गमीटर का प्लाट और इंदिरा गाँधी नहर परियोजना में 25 बीघा भूमि देने की घोषणा की है. इसके अलावा एक फिल्म कम्पनी ने पैरांपलिक के सभी स्वर्ण विजेताओं को दस-दस लाख रुपए देने की घोषणा की है.
रियो पैरांपलिक की इस उपलब्धि पर मुझे मिली बधाइयों का तांता लग गया. बधाई देने वालों में भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल हैं. मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी वीरेन्द्र सहवाग ने तो यहाँ तक कहा कि पैरांपलिक अब प्यारालंपिक हो गया है. मैं उन सब लोगों का दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मेरी उपलब्धियों को सराहा.
मेरी पत्नी, मंजु, ने तो मेरी ख़ातिर अपना खेल कैरियर छोड़ दिया था, लेकिन मैं यह चाहता हूँ कि मेरी बेटी, जिया, भी खेल की दुनिया में अपना नाम कमाए - या तो निशानेबाज़ी में या फिर – Archery means तीरंदाज़ी में?
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: हरीश कुमार ‘अमित’,
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गुरुग्राम-122011 (हरियाणा)
दूरभाष : 9899221107
ई-मेल: harishkumaramit@yahoo.co.in
संदर्भ सूची
1. ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, नई दिल्ली के 15.09.2016 अंक में पृष्ठ 1 व 18
2. अंग्रेज़ी दैनिक ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, नई दिल्ली के 15.09.2016 मुख्पृष्ठ व पृष्ठ 19
3. http://www.firstost.com/category/sports