kaipm ke wo bis din in Hindi Travel stories by Mamta shukla books and stories PDF | कैम्प के वो बीस दिन

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कैम्प के वो बीस दिन

बात उन दिनों की है जब हम झाखण्ड के बोकारो स्टील सिटी  में रहते थे।
पापा एच. एस. सी.एल कंपनी में ऑफिसर के पद पर कार्यरत थे।अच्छा खासा सरकारी मकान मिला हुआ था।

उन दिनों लड़कियों की सुरक्षा को ले कर,माता पिता इतने भयभीत नहीं हुआ करते थे।
तब बच्चों का मनोरंजन मैदान, कॉमिक्स,चम्पक,नंदन,
और बालपाकेट बुक्स  हुआ करता था।
बच्चों से मतलब लड़के लड़कियों दोनों से है।तब लड़कियाँ भी उसी तरह निडर हो कहीं भी,खेलती थीं।दोपहर को कॉमिक्स,शाम को मैदान।रात में होमवर्क किया।इससे ज्यादा पढ़ाई की रिवाज मेरे घर में,मेरे लिये तो नहीं थी।घर मे सबसे छोटी होने की वजह से,लाड़ली जो थी,फिर बिस्तर पर आ गिरे और ये गए,वो गए।
दूसरे दिन सुबह ही आँख खुलती थी।
जब मम्मी स्कूल के लिए उठाती थी।
याद है अच्छी तरह,9th में थी तब।
स्कूल में N.C.C लिया था।शायद महीने में दो दिन,चालू क्लास से बुला लिया जाता था।लास्ट पीरियड या सेकेंड लास्ट पीरियड।
बड़ी खुशी होती थी,सारे बच्चे पढ़ रहे होते थे उनके बीच से, ऐसी शान से उठ के जाती थी, जैसे कोई एवार्ड लेनें जा रही होऊं।
बाकी बच्चे,जो लास्ट पीरियड के खत्म होने के इंतजार में,जबरदस्ती,ऊबे बैठे होते थे,कि कब छुट्टी की घंटी बजे और कसाईखाने से उन्हें मुक्ति मिले।
उनकी निगाहें ऐसी कातिल होती थी कि आंखों से ही हमें, यानि क्लास छोड़ जाते बच्चों को ,चीर दें।
खैर...हमारी N.C.C की मैडम थी "टोपो "मैडम।पूरा नाम क्या था,याद नहीं..शायद हम में से किसी को उनका पूरा नाम पता भी नही था।जानने की जरूरत ही नहीं हुई कभी।
तब उतना पता भी नहीं चलता था,या कह लो,फर्क ही नहीं पड़ता था, वो आदिवासी थीं।
लंबी,सांवली ठीक-ठाक,काठी।
आवाज बुलंद।भाषा में, हमेशा लिंग की गलतियां।आकर्षक व्यक्तित्व।
जिस दिन N.C.C की क्लास होती ,उस दिन बाहर से नाश्ता मंगवाया जाता, समोसे और जलेबी।
दो तीन लड़कियों को,मैडम पैसे देती,हुक्म मिलता"जाओ होटल से नाश्ता ले के आओ।"
हम दो तीन लड़कियां बड़े रुआब से जाते और बड़े बड़े कागज के ठोंगों में जलेबी और समोसे ले के आते।
कसम से,वो जो समोसों और जलेबियों का स्वाद था न,कभी कहीं नहीं आया। सबके हिस्से में गिनती के जो आते थे,या शायद परेड के बाद,भूख ऐसी लगती हो।
ऐसा नहीं कि घर मे भी,उस होटल  से न मंगवाए हों लेकिन स्कूल वाला स्वाद,घर में कभी नहीं आया।
तब ये बात समझ में आई कि स्वाद समोसों में  नही,था,जगह, समूह और समय में था।खैर..
जब खाकी ड्रेस देनें के लिए बुलाया जाता तो हम सब लड़कियां बड़ी उत्साहित हो जमा होती,और स्टोररूम नुमा कमरे में,अपने-अपने नाप की वर्दी पहन,अच्छी वाली, चुनती।
बेल्ट, चमकता बकल,शर्ट, ट्राउज़र, ब्राउन शूज, मोज़े,टोपी और उस पर लगा ब्रॉश।
सच,फूले नहीं समाते जैसे कितना बड़ा खजाना मिला हो।
घर ला,ब्रास नाम के पाऊडर से उसे चमकाते।

एक दिन टोप्पो मैडम ने एलान कर दिया कि कैम्प साउथ जाएगा, कि दस दिन का कैम्प  साउथ में लगेगा और उसके बाद दस दिन राँची में लगेगा।इसलिये कैडेट का चुनाव किया जाएगा।जिन कैडेट्स का कमांड अच्छा होगा उन्हें ही मौका मिलेगा जाने का।
हम तीन चार फ्रेंड्स का ग्रुप था।हम सभी का चयन हो गया।हम सब बड़े एक्साइटेड थे जाने के लिये।हमें जरुरी इंस्ट्रक्शन्स मिल गए थे क्या क्या ले जाना है।
अब बात ये थी कि घर से बाहर,वो भी इतने दिनों के लिये, और इतनी दूर...
मम्मी पापा परमिशन देंगे भी की नहीं।
मेरे लिये ये कोई समस्या नहीं थी,मुझे जाने की परमिशन तो मिल ही जाएगी।
मेरे लिये समस्या ये थी कि इतने दिन मम्मी से दूर रह कैसे पाऊंगी।
लेकिन तभी ख्याल आता सब दोस्त साथ होंगी, साथ रहना है,तो खुश हो जाती।
उस वक़्त मोबाइल तो हुआ नहीं करते थे कि थोड़ी-थोड़ी देर पूछ लिया जाए कि,अब कहाँ पहुँचे?खाना खाया?क्या खाया वगैरह वगैरह।
आज इतनी सुविधाओं के बावजूद,हम बच्चों को बाहर भेजने में हिचकिचाते हैं।खासकर लड़कियों को।
या कह लो,सुविधाओ के  साथ-साथ ,हमारा विश्वास कमजोर होता जा रहा है।हम बच्चों में आत्मविश्वास पनपने ही नहीं देते हैं ।उन्हें बच्चा समझने के भरम में,जीते रहते हैं।
जबकि आजकल के बच्चे उम्र से ज्यादा परिपक्व  और सयाने होते हैं।
खैर वो दौर दौर की बात है।
लगभग सभी को जाने की सहमति मिल गई थी।
खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।जुट गए थे हम सारे तैयारी में।
तब ऐसा ही लग रहा था जैसे सेना में भर्ती के लिए बुलावा आया  है।
टीन का एक छोटा बॉक्स (बक्सा)लिया उसमें सारे सामान,जो कि हमारी मैडम ने कहे थे,प्रेस की हुई कड़क यूनिफार्म दो जोड़ी,चमचमाते बकल ब्रॉश के साथ,जूते ,अन्य कपड़े कंघी,पाउडर साबुन,सुई डोरा,आदि रख लिए थे।सबसे इम्पोर्टेन्ट था"ताला"वो एकदम याद से रखा था।कई कहानियाँ  सुन रखी थी चोरियों की।
केम्पों में सामान चोरी हो जाता है,सख्त हिदायत दी गई थी हमे कि अपना अपना सामान बड़े ध्यान से रखना ताला लगा कर।सो ताला लगा कर चाबी को अपने पास संभाल के रखने में एकदम,किसी खजाने के मालिक वाली फीलिंग आ रही थी।
चाभी कहीं खो न जाए इसलिये उसे संभाल के रखने का भी चक्कर था।खुद से ही कहीं गिर गई तो सारी,मालिकगिरी धरी की धरी रह जाएगी।
मेरी पक्की वाली सहेली थी "लीलावती",पता नहीं क्यों उसके साथ हमेशा "सेफ" वाली फीलिंग आती थी।
वो हमेशा मुझसे ज्यादा बड़ी,ज्यादा समझदार,रही हमेशा से।
वो मिडिल स्कूल से बेंचमेट थी।हम दोनों हमेशा साथ ही बैठते क्लास हो या कैम्प का टेंट खैर...
क्योकि लीलावती ज्यादा समझदार थी तो उसने चाबी जो कि एकदम छोटी सी थी,अपने गले मे,काले डोरे में पिरो के पहनी हुई थी ।उसकी देखा देखी, सबसे सुरक्षित जगह जान मैंने भी चाबी गले मे ही पहन ली।जब गले में चुभने लगी तो, हड़ के हैंड बैंग में डाल ली।
अपने बारे में बता दूँ।
बचपन से ही,बड़ी शैतान,बहुत बोलने वाली,घर मे कोई आ के गया नहीं कि उसकी नकल उतारनी,स्कूल से आ बॉक्स(उस टाइम  इन स्कूल बैग का चलन नहीं था)पटका,और निकल लिए कॉमिक्स के हिसाब किताब में,किसने मेरी कितनी ली है,किसे कितनी लौटानी हैं।
छोटे बॉय कट बाल,कभी फ्रॉक तो कभी पेंट टॉप चढ़ा,निकल लेना।किसी भी एंगल से लड़कियों वाले कोई लक्षण नहीं थे। लट्टू ,गुल्ली डंडा, कंचे,सारे प्रिय खेल थे।शायद इसलिए क्योकि घर के आस पास कोई लड़की नहीं थी।एक ही प्रिय मित्र था"शैलेश"कभी उसकी साइकिल के पीछे बैठ घूमना,तो कभी उसे पीछे बिठा चलाना। घूमता हुआ लट्टू हाथ मे कैसे लेते है उसी ने सिखाया था।लड़के तो लड़के होते है हर हाल में हर खेल में एक्सपर्ट।बस इसी लिये इस मामले में मेरा गुरु था,हाँ ये कह सकते हैं।
यहाँ एक बात उल्टी थी,मैं जिस स्कूल में जाती थी उसमें लड़के लड़कियां दोनो पढ़ते थे,और वो जिसमे जाता था उसका नाम था,"महिला कॉलेज"। उसमे मॉर्निंग शिफ्ट
में स्कूल और नून में कॉलेज चलता था।बस यहीं मैं उससे जीत जाती थी,चिढ़ाने में,"तू तो लड़की है,महिला कॉलेज में जाता है",वगैरह वगैरह।

हाँ, तो कैम्प जाने की तैयारी कर हम स्कूल पहुँचे। पापा  मम्मी दोनो आये थे स्कूल तक छोड़ने। तमाम हिदायतों के साथ,मुझे विदा किया गया।

वहाँ से बस में बैठ"धनबाद" गए।”धनबाद”से  ट्रेन में रिजर्वेशन था,केरल के लिये। अलग अलग  शहर से लगभग साढ़े तीन सौ लड़कियां थी बिहार से।
रेलगाड़ी का सफर बहुत ही मजेदार हो जाता है जब एक दो बोगी अपने लोगों से भरी हो।इतना शोर डब्बे में,जाहिर है जहाँ इतनी लड़कियाँ इक्कट्ठी हो वहाँ कितनी बाते होंगी।जिसे देखो उसका मुँह चल ही रह होता था,सब वक्त्ता ही मालूम पड़ रहे थे श्रोता कोई दिख ही नहीं रहा था।कहीं कुछ लोग हँसे जा रहे थे,तो कोई खाये,कोई कहानी की किताब खोले पढ़ने का अभिनय कर रहा था,(अभिनय इसलिये क्योकि इतने शोर में,दिमाग,लिखे शब्द समझ ही नहीं पा रहा होगा,कान जरूर टाँग अड़ा रहा होगा)।तो कोई गाने में लगा था।
उधर,टोप्पो मैडम थकी सी सबकी हाज़िरी दर्ज कर रही थीं। उनके साथ अब कई”सर”भी थे,जो ये जिम्मेदारी संभाल रहे थे।
अब टोप्पो मैडम,अपनी बर्थ पे पैर फैलाये थकावट उतार रहीं थी,इतने शोर के बावजूद वो झपकियां ले लेती थी।जब उनकी आंख खुलती तो एकदम से संभल जातीं,ऐसे आँख फाड़ के देखती कि वो तो सो ही नही रहीं थी,बस आँख मूंद के कुछ सोच रही हों हमलोगों के बारे में,लेकिन उनकी आँख उनका साथ नहीं दे पा रही थी,और भारी हो के धीरे धीरे मुंदने लगती थीं।
हालांकि इसमें कोई अलग या विचित्र कुछ भी नहीं था,फिर उनका सिर जब एक ओर लुढ़क जाता तो उसे देख के हम फिस्सस्स से हँस देते,मुँह पे हाथ रख।
दरअसल ये उम्र ही ऐसी है बिना बात पे हँसी आती है,और अगर चाहो की बंद हो जाए तो और जोर जोर से आती।

याद है एक बार अपनी चचेरी बहनों के साथ,डिनर के बाद, सड़क पर टहल रही थी,सामने से एक ट्रक आ रहा था,उसकी एक लाइट बंद थी,दूर से हमें लगा कोई बाइक है,एकदम पास आया तब लगा,अरे ये तो ट्रक है,वो हमारे एकदम नजदीक से गुजरा, हम अचानक चौक गए,मैंने कहा"अरे ये काना तो मार ही देता"बस,काना ट्रक सुनकर हम इतने हँसे की हँसी नहीं रुकी,फिर क्या था हर बात पे हँसे जा रहे थे,एक मरियल कुत्ता लड़खड़ा कर आ रहा था उसे देख,"मारेला"बोल हँस पड़े।
यानि कोई हँसी की ऐसी बात भी नहीं थी,बस हँसी का नशा सा चढ़ गया,हँसते ही रहे काफी देर,कभी सूखे से आदमी को, साइकिल मुश्किल से खींचते देख,इसलिये हँसी की भी एक उम्र होती।

बड़ी उम्र में तो हँसी भी किनारा कर लेती है।

हाँ तीन दिन का सफर खाते, हँसते,गाते इस तरह गुजरा कि पता ही नहीं चला। रास्ते में,जो कुछ भी खाना आता पूरी बोगी में एकसाथ बांटा जाता,और जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकती,लोग इतनी सारी लड़कियों को एक साथ देख चौक जाते।
सचमुच एक उम्र गुजर गई ट्रैन और प्लेन में यात्रा करते हुए,पर उस यात्रा जैसा आनंद कभी नहीं आया।
साऊथ के  छोटे बड़े कई स्टेशन आते गए ,वहाँ का पहनावा ओढावा हमे एकदम अलग लगता।लड़कियां ऊपर ब्लाउज नुमा शर्ट,नीचे लोंग स्कर्ट जैसा लहंगा,माथे पे और गले में टीका,लंबी चोटी और उसमें मोगरे के फूलों का गजरा।हाथों में चंद किताबें कॉपियां लिए कॉलेज जा रहीं होती थीं।
वहीं लड़के सफेद शर्ट और फक्क सफेद लूँगी में दिखते।
इतनी लड़कियों को देख,वो भी घूरते जाते।हमें बड़ा अजीब ही लगता कि कोई लूँगी(धोती)में बाहर कैसे  घूम सकता है।इक्का दुक्का ही कोई पेंट में नजर आता।
सब शैतान तो थीं ही ,जब ट्रेन स्टेशन से खिसकने को होती ,कोई किसी को देख हाथ हिला देतीं तो कोई फ़्लाइंग किश का इशारा कर देती।स्टेशन पे खड़े लड़के अगर ग्रुप में होते तो चिल्ला देते।
ये सब टोप्पो मैडम की नजर बचा के होता,और अपनी शैतानियों पर देर तक खिलखिलाती रहतीं।
ट्रेन से बाहर का दृश्य इतना मनोरम लगता,बड़े बड़े नारियल के पेड़,हरे भरे खेत,कई फसलें तो समझ मे ही नहीं आती।कहीं पहाड़ी तो कहीं छोटी नदी,नहर।खेतों के बीच इक्का दुक्का मकान,उनकी छत खपरैल ढ़लान वाली।जैसे,स्कूल में जब चित्र बनाने को आता था तो नदी,पहाड़,नारियल के पेड़,,खेत और उसमे घर,ठीक ऐसा दृश्य,हूबहू पन्नो से उतर,सामने दिखता था।मन होता था कि ट्रेन से उतर वही चले जाओ।बड़ी उत्सुकता होती,कि उन घरों में जो लोग रह रहे होंगे,वो कौन और कैसे होंगे।


एक बड़ी समस्या थी,वहाँ किसी से कुछ पूछो तो,सिर दाएँ से बाएं हिला देता,ये"ना"कहने का साइन नहीं था,हाँ के उत्तर में भी सिर दाएँ से बाएँ ही हिलाया जाता।
अमूमन हम"हाँ" के लिए सिर ऊपर से नीचे,और "ना"के लिए दाएँ-बाए,हिलाते हैं,तो ये समझ मे ही नही आता था कि व्यक्ति,"हाँ","ना" क्या कह रहा है।जब जुबान से "यस"और "नो"तब जा कर समझ मे आता।मन में आया कह दूँ अरे भाई  तब से दो किलो का सिर हिला रहे हो,इससे अच्छा हो कि दो ग्राम की जीभ हिला पहले ही जवाब दे देते।


हमारे कैम्प का उद्देश्य यही था कि हम वहाँ जा, उनकी बोली,भाषा,संस्कृति को समझें।बाहरी आवरण को छोड़ भीतर की आत्मा का अवलोकन करें।विभिन्नता में एकता को पहचाने।

दरअसल पूरा साऊथ हमारे लिये इससे पहले, सिर्फ मद्रास और मद्रासी ही था।

तब तमिलनाडू, आंधप्रदेश और कर्नाटक सिर्फप्रदेश के नाम और राजधानी के नाम याद करने में ही काम आते।आम बोली में सब को मद्रासी ही बोल दिया करते थे।

जरूरी है,हर बच्चे को देश का कोना कोना घूमना एजुकेशन ट्रिप के तहत।खैर अगर इस बात की चर्चा की जाए तो बहुत विस्तृत हो जाएगी।


केरल के एजुकेशन मिनिस्टर की कृपा से हमें रास्ते मे एक"बीच" भी ले जाया गया।सुंदर जगह थी।उसके बाद हमें "कन्या कुमारी"ले जाया गया।
समुद्र के भीतर "विवेकानंद मेमोरियल"बना है,वहाँ स्टीमर में बिठा कर सारी लड़कियों को ले जाया गया।समुद्र के बीच मे कत्थई से  पत्थरों की ठंडी सी वो जगह,सचमुच बड़ी शांत और सुंदर थी,इतनी लड़कियाँ थी पर वहाँ कोई आवाज नहीं,सब एकदम चुपचाप वहाँ की शांति का आनंद ले रही थीं।हमने मन ही मन उन एजुकेशन मिनिस्टर का कोटि कोटि धन्यवाद किया।

ये सब यहाँ के प्लान में शामिल नहीं था,उन्होंने एक्स्ट्रा अचिवमेंट हमे दिया था उनके प्रति मन आदर और सम्मान  से भर गया।


कन्याकुमारी में बाहर टूरिस्ट को लुभाने के लिये एक बाजार लगता है,जो पर्यटक यहाँ घूमने आते हैं,इस यात्रा की याद में कुछ न कुछ जरूर खरीद ले जाते हैं।

ये जग जाहिर है लड़कियों और औरतों को,शॉपिंग का  पैदाइशी हक होता है,जिंदा रहने के लिये जिस तरह,भोजन और सांस ले