Vichitra Chitra - Sirf dekhunga in Hindi Poems by Mukteshwar Singh books and stories PDF | विचित्र चित्र - सिर्फ़ देखूँगा

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विचित्र चित्र - सिर्फ़ देखूँगा

कभी लगता है इस रंगबिरंगी दुनिया में मैं अकेला हूँ,
कभी लगता है उन रंगों में घुल गया हूँ,
और कई चित्रों में उभर आया हूँ।
माँ बाप का सहारा,
बंधु बान्धवों का प्यारा,
सखा-मित्रों का दुलारा।
समय के साथ चित्रों का रंग
हो गया बजरंग
दोस्त से ज़्यादा विरोधी,
माँ-बाप के मन का अवरोधी,
समाज के बीच एक क्रोधी,
विचित्र चित्र ,चरित्र हो गया मेरा।

सच कहूँ बचपन में जिस रंग में रंगा था,
वही रंग अब भी है,
हाँ कुछ रंग मुझमें आ मिला,
जो मेरा नहीं ,दूसरों ने मिलाया,
और कूँची मेरे चित्र पर चलाया,
मेरे चित्रों को बदरंग बनाया।
दोष मेरा भी है -
हर रंग में ढलने का प्रयास ,
सर्वप्रिय बनने की कामना अनायास,
कभी पूरी नहीं कर सकता सबकी आस,
लोग करते हैं व्यंग-उपहास।
अब सातों रंगों "बनिआहपिनाला "को,
मथ कर सफ़ेद बना दिया हूँ,
अपने चित्रों को अदृश्य बना लिया हूँ,
ताकि सिर्फ़ मैं देखूँ ,सिर्फ़ मैं ही देखूँ,
सबकी करतूतों को
जो विद्रुप बनाते हैं मेरे चित्रों को।

मुक्तेश्वर मुकेश
(2)

मैं चिल्लाता नहीं हूँ ,
मैं जानता हूँ -
हममें से ही हैं कुछ भेड़िये
और हममें से ही हैं तख्ती और मोमबत्ती लेकर
सड़क पर मार्च करने वाले,
कौन किसमें कब आकर मिल जाता है
यह तलाशना होगा।
हमें पता है मानव स्वभाव,
नर-नारी का आव-भाव और प्रभाव।
चौंकिए नहीं ,देखिये अपने अन्दर झाँककर ,
क्या आप रोक लेते हैं अपने उस स्वभाव को
अकेली नारी को नज़दीक पाकर,
नहीं ना,
तो फिर टीवी चैनलों का एंकर बन, दिन भर क्या
दिखाते हैं इंसानियत,
जब संत और आचार्य अछूते नहीं
जो ढोंग करते हैं ब्रह्मचर्य का ।
तो आप हम क्या क़सम खाते हैं नारी सम्मान का।
झूठ है सब,जब घर में ही रिश्ते होते हैं तार- तार,
तब बाहर का भय -
कि बच के रहना , बाहर घूम रहे हैं कुछ ख़ूँख़ार।
संघ,संगठन,दल,फ़िल्में और सरकार,
नारी को ही बनाता है हथियार।
अरे भाई ,फ़िल्म निर्माता और अभिनेता-अभिनेत्री से पूछो-
क्यों देते हो नंगा दृश्य और टाँगते हो उसी को बड़े-बड़े बैनरों में - चौक चौराहों पर ,
और बढ़ाते हो वासना को
जिस्मों की नुमाइश कर,
और देते हो तख्ती पर लिखकर नारे।
चैनलों पर क्या दिखाते हो
विज्ञापन में।
बाज़ार का षड्यंत्र है सब,
वरना फ़ेसबूक और सोशल मीडिया के पोस्ट को भी
आसानी से सेंसर किया जा सकता है,
फ़र्ज़ी आईडी को रोका जा सकता है ,
जो सेक्स को खुलेआम परोसता है ,
और कराता है अबोधों का बलात्कार ,
माँस के लोथरों को भी बना लेते हैं शिकार।
धिक्कार !धिक्कार !धिक्कार!
गन्दे मस्तिष्क में नहीं रहते सुविचार!
जब तक हम तुम और वह नहीं बदलोगे,
कराते रहोगे बलात्कार।
और कोसते रहोगे विरोधी की तरह
अक्षम है सरकार।

मुक्तेश्वर मुकेश

(3)

पंचवर्षीय -दसवर्षीय योजना तो बना लेते हैं,
पर अपनी ज़िन्दगी किस वर्षीय योजना में हैं,
जान नहीं पाते हैं।
भगवान और इंसान में यही फ़र्क़ है,
हम जिस योजना को बनाकर पूरी करना चाहते हैं,
उस योजना की निर्धारित तिथि तक पंहुचेंगे कि नहीं ,जान नहीं पाते हैं।
क्यों आपा -धापी है,होड़ मची है ,
भाग-दौड़ लगी है,भविष्य की परत उद्भेदन की,
कभी जान नहीं पाते हैं।
आख़िरी साँस तक सत्य को पहचान नहीं पाते हैं।
दुनियादारी की व्यस्तता ,
परिवार की संवृद्धि की चिन्ता,
उस तक पहुँचने से रोकती है,
इसी में उलझा इंसान आने वाले पल से अंजान बना अपने अंतिम साँस की गिनती
जान नहीं पाते हैं।
किसी के अनायास चिरनिन्द्रा में जाने के बाद दुखों का पहाड़ टूट जाता है,
हम रोते या हँसते हैं,
जाने वाले जान नहीं पाते हैं।
रोना बिलखना,
एक दूसरे को सांत्वना देने तक है ,
असल में किसी के अवसान की क़ीमत
उसके गुज़रने के बाद जान पाते हैं।

मुक्तेश्वर मुकेश

(4)

शहर बड़ा है,दौड़ रहा है,
पीछे ना कोई देख रहा है।
भीड़ बड़ी है उसमें खड़ा है,
जल्दी इतनी कि हाँफ रहा है,
लोगों की बाढ़ में डूब गया है।
सुबह शाम में ना फ़र्क़ रहा है।

बदकिस्मत का दर्द बड़ा है, बाहर व्यस्त है भीतर अकेला है।
बीमार पत्नी छोड़ चला है।
आफिस-आफिस चीख़ रहा है,

मेट्रो शहर का अपना मज़ा है।
रूपये के ख़म पर महफिल सजा है।
चाहे कोई सिसक रहा है।

मुक्तेश्वर मुकेश

(5)


खिला-खिला गुलाब सा तेरा ये गुलबदन,
नीली-नीली झील सी तेरा ये सुनयन,
धरा-गगन,पवन-चमन,निहारता है तेरा तन,
अगन-तपन,मधुर सपन,टटोलता है तेरा तन।
खिला-खिला गुलाब सा तेरा ये गुलबदन।

पूर्णिमा की चाँदनी ,वीणा की रागिनी,
गुनगुनाते भँवरे संग कनक कलि सी कामिनी,
सनन-सनन पवन के संग,गा रही मंदाकिनी,
बादलों की दामिनी से खिल उठा है रोमकण।
खिला-खिला गुलाब सा तेरा से गुलबदन।

सजनी के रोम-रोम ,रस-रूप का मिलन,
हिरणी सी आँखों में दिख रहा है प्रेमकण।
मुक्तेश्वर मुकेश

(6)

पर्दे के ऊपर पर्दा टंगा है,
चेहरे के अन्दर चेहरा बना है।
दिखता नहीं असल शक्लो सूरत,
छद्म चेहरे का मूरत बना है।
२•
जब भी रक्त निकला हल्ला हुआ है,
लाशों को कफन ना मयस्सर हुआ है।
मूर्दों पे बहशी बहस करने वाले,
जीवित जान पत्थर का बुत बना है।
३•
उजड़े घरों में कल रूदन हुआ है,
पर दर्द भी कितना सहमा हुआ है।
सासों का चलना है भारी भारी,
डर-आतंक,बारूद का रुत बना है।
४•
फिजा़ में हलचल बहुत कुछ हुआ है,
इशां पे विज्ञां का हमला हुआ है ।
भरता है डग बड़ा लम्बा लम्बा,
पर विनाश युग का फितरत बना है।

मुक्तेश्वर मुकेश