Gunaho ka shahar - 2 in Hindi Fiction Stories by Ravi books and stories PDF | गुनाहों का शहर - 2

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गुनाहों का शहर - 2

गुनाहों का शहर - 2

अगले दिन पुरुषोत्तम इंस्पेक्टर राकेश से मिला। दोनों थाने के करीब ही एक होटलनुमा चाय की दुकान पर पहुँचे।

"मैं तो यही कहूंगा तुम इस मामले की ज़्यादा खोज-खबर न लो। ये बेहद खतरनाक लोग है। इनकी पहुच बहुत ऊपर तक है।" राकेश ने कहा।

"लेकिन इस तरह तो कितने युवाओं की ज़िंदगी तबाह हो जाएगी। लोग बरबाद हो जाएंगे। उस मोहल्ले में और भी कई संदिग्ध गतिविधियां होती है" पुरुषोत्तम बोला।

"किसी तरह की संदिग्ध गतिविधियां?" राकेश ने पूछा।

"कई तरह की। मुझे लगता है मानव तस्करी से लेकर सब कुछ।"

"ये ज़रूर तुम्हारा भ्रम होगा। हम यहां कई सालों से है। आज तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली" राकेश ने अपनी चाय खत्म की।

"फिर भी तुम्हें कोई ऐसी जानकारी जो तुम मुझे बताना चाहो।" पुरुषोत्तम ने कहा।

"ऐसी कोई जानकारी..!" राकेश कुछ क्षण सोचकर बोला "हा! एक आदमी का पता मैं तुम्हे देता हूँ। उस से शायद तुम्हे कोई जानकारी मिले।" उसने कागज़ पर एक पता लिखकर पुरुषोत्तम को दिया।

"तुम इतने मजबूर नहीं हो सकते। तुम बताना नहीं चाहते ये जान की फिक्र ज़रूर है। लेकिन कभी-कभी लोगों की जानों के बारे में सोचना हमारा फ़र्ज़ है।" पुरुषोत्तम ने कहा तो राकेश ने अपना सिर चुका लिया। पुरुषोत्तम वहां से रवाना हुआ।

पुरुषोत्तम राकेश के बताएं पते पर पहुँचा। उसने देखा दरवाजे की बगल से सटा हुआ एक छोटा गार्डन है। जिसमें कई प्रकार के पौधे लगे हुए है। और जिनकी देख-रेख अच्छी मालूम होती थी। एक भी पौंधा सूखा या मुरझाया हुआ नहीं था। पुरुषोत्तम ने डोरबेल बजाई। पुरुषोत्तम का स्वागत एक लगभग चालीस साल की उम्र वाले आदमी ने किया। जिसका नाम दयाल था। और जिसने एक साधारण कुर्ता पैजामा पहना हुआ था। हाथों की चार उंगलियों में सोने-चांदी की अंगूठियां चमक रही थी।

"मुझे राकेश ने...!" पुरुषोत्तम अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाया।

"हा.. हा.. आओ.. आओ..। बैठो" दयाल ने कहा।

पुरुषोत्तम ने उसे सारी बात बताई। और जानकारी हासिल करने उसके पास आया था यह भी।

"देखों" दयाल समझाने के तरीके से बोला "इसमे कई बड़े लोग शामिल है। जिनका प्रधानमंत्री तक से संपर्क है। अब तुम ही कहो क्या तुम ये सब बंद करवा सकते हो। तुम्हे लगता है वो लोग तुम्हे ज़िंदा छोड़ेंगे। मैं तुम्हे अपने अनुभव से कह रहा हूँ। अपने काम पर ध्यान दो। इस मामले में टांग अड़ाने से कुछ हासिल नहीं होगा। तुम गरम खून हो मैं समझ सकता हूँ। ये उम्र ही ऐसी होती है। बात मानो और ये खोज-बिन बंद करदो।" दयाल ने अपनी बात पूरी की।

"मैं अपनी जान की हिफाज़त कर लूंगा। क्या आप मुझे उन सभी लोगों का नाम बता सकते है।" पुरुषोत्तम ने कहा।

एक पल को पुरुषोत्तम को लगा वो गुस्सा हो रहा है, फिर दयाल बड़े स्नेह से बोला। "बेटा! मैं नहीं चाहता तुमपर या किसी भी इंसान पर कोई खतरा मंडराने लगे। इस से दूर ही रहो तो बेहतर है। मैं तुम्हे फिर कहूंगा कि...!।

"तो आप नहीं बताएंगे" पुरुषोत्तम उसकी बात पूरी होने से पहले बोला।

"ठीक है लिखो नाम" दयाल गंभीर स्वर में बोला।

पुरुषोत्तम ने कुछ नाम लिखे जो इस प्रकार थे।

विधायक रूपकुमार।

पर्यटक मंत्री कैलाश अग्रवाल

पूर्व मंत्री सोमनाथ

पूर्व विधायक योगराज

राज्य मंत्री सरताज देसाई।

"मुझे इनके नाम ही पता है। इस से ज़्यादा मुझे कोई जानकारी नहीं।" दयाल उसी गंभीर स्वर में बोला।

"पता तो आपको सब है। शायद याद नहीं आ रहा। अगर मुझे कुछ और करने की इजाज़त होती तो मैं आपको दिखाता दूसरे शहरों की पुलिस क्या होती है। ख़ैर.. प्रणाम।"

पुरुषोत्तम वहां से रवाना हुआ। और थाने पहुँचा। उसे जॉन मिला।

"जॉन तुम्हे एक काम करना है, लेकिन किसी को बताए बिना। किसी को भी नहीं नरेश को भी बताए बिना।" पुरुषोत्तम ने कहा।

"लेकिन काम क्या है सरकार" जॉन ने पूछा।

"ये कुछ नाम है ये लोग इन दिनों कहाँ है, किस हाल में है, और किस शहर में है तुम्हे पता करना है, या करवाना है।" पुरुषोत्तम ने कहा।

"मैं हर कोशिश करूंगा सर।" जॉन ने मुस्कुराते हुए कहा।

शाम होते-होते जॉन कुछ जानकारी लेकर लौटा था। दोनों सामने के होटल में पहुँचे।

"सब के बारे में तो अभी कुछ पता नहीं चल सका, लेकिन ये कुछ जानकारी है। जिसकी मैंने एक फाइल बना दी है। आप ये रख सकते है।" जॉन बोला।

"तुमने बेहद अच्छा काम किया जॉन। बताओ आज क्या खाना पसंद करोगे।" पुरुषोत्तम ने कहा।

"आज नहीं सर! मैं एक दिन का उपवास करता हूँ।" जॉन बोला।

"क्या बात है! बहुत ही नेक काम करते हो।" पुरुषोत्तम उठता हुआ बोला।

"बस यूँही सर अच्छा होता है सेहत के लिए" जॉन भी उसके पीछे होता हुआ बोला। दोनों होटल से बाहर निकल आए।

  • ***
  • पुरुषोत्तम के कमरे पर लौटने पर गली में अंधेरा छाया हुआ था। वो कमरे में पहुँचा और! उसी क्षण उसके चेहरे पर गंभीर भाव आए। दरवाजा खुला कैसे है! उसे अच्छी तरह याद है वो ताला लगाकर गया था। बाहर और भीतर दोनों अंधेरे से लिप्त है। उसने टटोलते हुए दरवाजे के पास का एक स्विच ऑन किया कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। शायद बल्ब खराब हो गया था। पुरुषोत्तम कुछ कदम आगे बढ़ा वो कुछ समझ पाता उससे पहले अचानक एक भारी चीज से उसके सिर पर वार हुआ और वो होश खोकर गिर पड़ा। कदमों के दौड़ने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

    पुरुषोत्तम को सीधे अगली सुबह होश आया। उसका सिर अभी तक चकरा रहा था। उसने थाने में फ़ोन किया और सारी घटना कह सुनाई। साथ ही अपनी तबियत का हवाला देते हुए कुछ दिन का अवकाश प्राप्त कर लिया।

    कमरे का बल्ब गायब था। उसने देखा जॉन ने जो फाइल दि थी वो दरवाजे के पास पड़ी है। उसने फाइल उठाई और उसे खोला। जॉन ने कुछ इस तरह फाइल बनाई है।

    विधायक रूपकुमार। काम के सिलसिले में इस वक्त शहर से बाहर है और कुछ माह का समय लग सकता है लौटने में।

    पर्यटक मंत्री कैलाश अग्रवाल। शहर में ही है और इन दिनों दान पुण्य कमाने में व्यस्त हैं।

    पूर्व मंत्री सोमनाथ। कोई खबर नहीं।

    पूर्व विधायक योगराज। कोई खबर नहीं।

    राज्य मंत्री सरताज देसाई। इन दिनों कई शहरों के दौरे पर है।

    पुरुषोत्तम ने फाइल को एक ओर उछाल दिया। "इस जॉन के बच्चे को क्या कहा था और वो क्या जमा करके लाया।" पुरुषोत्तम सोचने लगा। अचानक जैसे उसे कुछ याद आया। बाहर आया और मंजरी और बंड्या को आवाज़ लगाई। मंजरी आवाज़ सुनकर आई। लेकिन बंड्या नही आया।

    "ये बंड्या कहाँ है?" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "वो साब अपुन को नहीं मालूम। बोलकर गया कि अभी आता है" मंजरी ने कहा।

    "देखों! ये 'अपुन' की जगह 'मैं' या 'मुझे' इस्तेमाल किया करो। इस तरह 'अपुन' बेहद घटिया लगता है।" पुरुषोत्तम ने थोड़े गुस्से में कहा।

    मंजरी ने आंखे झुका ली।

    "एक बात बताओ तुम कल दिन भर कहाँ थी।"

    "साब अपुन...!" मंजरी ने कान पकड़े। "मैं घर में ही थी साब। लेकिन बात क्या है साब।" मंजरी ने पूछा।

    "तुम्हे कल यहां कुछ अजीब लगा? या मेरे कमरे में कोई और आता नज़र आया था? मुझसे पहले… मतलब.." पुरुषोत्तम सिर खुजाता हुआ बोला" कोई अजीब बात तुमने देखी हो?"

    "नहीं साब! ऐसा कुछ भी अपु...मतलब मैंने नहीं देखा।" मंजरी ने कहा।

    पुरुषोत्तम ने उसे कल रात की सारी घटना सुनाई।

    "उसने ताला कैसे खोला।" पुरुषोत्तम सोचता हुआ बोला।

    "ताला.." मंजरी कुछ सोचती हुई बोली। और दौड़ती हुई नीचे से एक ताला चाबी ले आई।

    "ये.." पुरुषोत्तम हैरान होता हुआ बोला। "तुम्हारे पास कैसे आया।"

    "पता नहीं साब अभी थोड़ी देर पहले इस पर नज़र पड़ी थी। आपने याद दिलाया तो याद आया और लेकर आई।"

    "ये सब क्या...!" अचानक पुरुषोत्तम के नेत्र फैल गए। वो गुस्से में बोला। "मंजरी बंड्या कहाँ है?"

    "अपुन...मुझे सच में नहीं मालूम साब" मंजरी लगभग घबराती हुई बोली।

    "तुम्हारे बंड्या ने मेरे हत्यारे की मदत की। बंड्या ने उसे ताला खोलने के लिए चाबी दि, जो तुम्हारे पास थी। फिर उसने ताला खुलने के बाद चाबी वापस रख दि लेकिन ताले के साथ।" पुरुषोत्तम ने कहा।

    "नहीं साब बंड्या ऐसा नहीं कर सकता। उसको जानती है मैं।" मंजरी ने कहा।

    "ये तो बंड्या आने के बाद ही पता लगेगा। और तुम यहाँ मेरे सामने रहोगी हर वक्त। समझी।" पुरुषोत्तम ने अपनी बात पूरी की।

    "लेकिन साब काम..."

    "एक बार कहा न समझ नहीं आता तुम्हे" पुरुषोत्तम चिल्लाया और घूरकर उसे देखा।

    मंजरी जल्दी से पास पड़े एक स्टूल पर बैठ गई।

  • ***
  • आधे घंटे बाद बंड्या पुरुषोत्तम के कमरे में था।

    "साब वो बोला कि आपका भाई है" बंड्या ने कहा।

    "कोई खुदको मेरा नाम बताकर तुमसे चाबी मांगता है, और तुम दे देते हो उसे चाबी, जब कि तुम जानते हो मैं अकेला आया था" पुरुषोत्तम बोला।

    "साब उसने बोला था कि मैं पुरुषोत्तम यानी आपका भाई हूँ, और आज ही आया हूँ। और कहा कि आपने कुछ सामान यहाँ से थाने मंगवाया है" बंड्या ने कहा।

    "उसने तुम्हे बिना हाथ-पैर की वजह बताकर बेवकूफ बनाया। और तुम हो ही पहले से बेवकूफ! उसका काम और आसान हो गया होगा।" पुरुषोत्तम बोला।

    "साब बंड्या को माफ करदो, ग़लती हो गई!।" मंजरी ने कहा।

    "कैसा दिखता था वो" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "साब वो..." बंड्या डरता हुआ बोला "अंधेरा था तो ठीक से देख नहीं पाया"

    "अंधेरा था तो...." एकाएक पुरुषोत्तम कहते-कहते रुका। "अंधेरा! सिर्फ अपनी गली में था न कल" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "हा साब वो कल बिजली का तार टूट गया था। फिर एक घंटे बाद बिजली आई थी" मंजरी ने कहा।

    पुरुषोत्तम एकाएक गंभीर होकर सोचने लगा। दोनों को जाने के लिए कहा और दरवाजा बंद करके अपनी चटाई पर बैठ गया और सोचने लगा। कल रात बिजली का तार टूटना भी उसपर हुए हमले का हिस्सा था।

    पुरुषोत्तम को याद आया उसके थाने से निकलते वक्त सभी वहाँ मौजूद थे। उसके निकलते ही किसी ने अपने प्लान को अंजाम दिया। जिस वक्त वो निकला था उस वक्त इंस्पेक्टर राकेश, डी.एस.पी नरेश, जॉन, और एक अन्य हवलदार मौजूद था। पुरुषोत्तम कमजोरी के बावजूद तैयार होकर बाहर निकल गया। उसने आस-पास कुछ पूछ-ताछ की। लेकिन उसे किसी से भी कुछ पता नहीं चला।

    पुरुषोत्तम अपने कमरे की ओर बढ़ ही रहा था कि उसे कचरे के एक ढेर में बल्ब दिखाई दिया। उसने बल्ब को बड़ी सावधानी से उठाया और कमरे में आकर एक पॉलीथिन में रख दिया। पुरुषोत्तम ने देखा ज़मीन से बल्ब के होल्डर की ऊंचाई करीब दस से ग्यारह फुट है। और कमरे में पड़ा स्टूल लगभग डेढ़ फुट के आस-पास है।

    बल्ब निकालने वाले ने स्टूल पर चढ़कर बल्ब निकाला होगा। उसने हाथों को ऊंचा उठाया होगा और बड़ी मशक्कत से बल्ब निकाला होगा। वो इंसान ज़रूर छह फुट के करीब होगा।

    पुरुषोत्तम सोचने लगा। डी.एस.पी नरेश, और इंस्पेक्टर राकेश की हाइट छह फुट के करीब है। लेकिन वो इस तरह का काम खुद नही कर सकते। उन्होंने यह काम करवाया ज़रूर हो सकता है। अचानक पुरुषोत्तम को कुछ याद आया और वो कमरे से बाहर निकल आया। उसने मंजरी को कमरे का ध्यान रखने को कहा। और वहां से निकल आया।

    पुरुषोत्तम दो-तीन होटलों में पूछ-ताछ करके आया। थाने के पास वाले दो होटलों में तो उसे कुछ हासिल नहीं हुआ। लेकिन थाने से थोड़ी दूरी पर मौजूद एक होटल से एक काम की बात हासिल हुई। होटल के काउंटर पर बैठे व्यक्ति के मुताबिक जिस दिन जॉन ने पुरुषोत्तम को फ़ाइल सौंपी थी उसी दिन जॉन एक अनजान व्यक्ति के साथ वहाँ आया था। भाग्यवश वह काउंटर पर बैठा आदमी जॉन का परिचित था। जॉन के साथ आए आदमी का हुलिया उसने एक छोटी हाइट का, गोल चेहरे वाले आदमी के रूप में बताया।

    पुरुषोत्तम वापस कमरे पर लौट आया। पुरुषोत्तम का दिमाग तेजी से थ्योरी जोड़ने की कोशिश कर रहा था। केवल तर्कों के आधार पर वो किसी पर उंगली नहीं उठा सकता था। न ही मदत मांग सकता था। उसका दिमाग कह रहा था कि इस वक्त किसी पर भी भरोसा करना ठीक नहीं होगा। पुरुषोत्तम एक गहरी सोच में डूबता चला गया।

  • ***
  • अगली सुबह उसने वो कागज़ निकाला जिसपर दो नाम लिखे थे। एक डी.एस.पी नरेश का और दूसरा मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का। उसने उस कागज़ पर दो नाम और लिखे एक इंस्पेक्टर राकेश का। और दूसरा जॉन का। पुरुषोत्तम तैयार होकर निकल रहा था एक पल को उसकी नज़र कमरे में लगे खाली होल्डर पर पड़ी। फिर वो दरवाजा पर ताला लगाकर निकल पड़ा।

    उसने मंजरी को चाबी सौंपी और जाने लगा।

    "साब! ये कपड़ों के बिना! मतलब पुलिस के कपड़ों के बिना कहा जा रहे हो।" मंजरी ने पूछा।

    "हा.. मैं अपने एक दोस्त से मिलने जा रहा हूँ। हो सकता है आज न लौटू, या देर से लौटू।" पुरुषोत्तम ने कहा।

    "जी साब" मंजरी ने नज़रे झुकाते हुए कहा। पुरुषोत्तम वहां से निकलकर एक ढाबे पर पहुंचा। जिस तक काला मोहल्ला से पहुंचने में दस मिनट का वक्त लगता हैं। उसने एक चाय ली और बैठकर कुछ सोचने लगा। पुरुषोत्तम हर पहलू के बारे में बड़ी गहराई से सोच रहा था। इस वक्त उसका दिमाग कह रहा था, जो दिख रहा है सत्य नही हैं। उसे उसके खिलाफ एक बड़ी चाल का आभास हो रहा था। जब वो तैयार होकर निकला था तब उसका इरादा किसी और के पास जाने का था। लेकिन मंजरी के मिलने के बाद उसने अपना इरादा बदल दिया और यहां ढाबे पर आ पहुंचा।

    उसने अपने एक दोस्त को फ़ोन किया और कुछ दिनों के लिए अपने पास बुला लिया। शाम तक उसके आ जाने की उम्मीद थी। पुरुषोत्तम का वह दोस्त खुफिया एजेंसियों में काम कर चुका था। और उसकी हर शहर में पहचान थी। पुरुषोत्तम ने उसे बुलाना ही मुनासिब समझा। बिस मिनट गुज़र चुके थे। पुरुषोत्तम एकाएक उठ खड़ा हुआ और टैक्सी करके वापस लौट पड़ा।

    अपने कमरे में उसे कुछ ऐसे ही भिन्न दृश्य की कल्पना थी। दरवाजा खुला था। देहरी के कुछ फासले पर मंजरी की लाश पड़ी थी। पास खून से सना चाकू गिरा हुआ था।

    मंजरी के शरीर के पास खून बिखरा हुआ था। पुरुषोत्तम ने चाकू उठा लिया। उसकी नज़र कमरे लगे बल्ब के होल्डर पर गई। और उसके होंठों पर एक मुस्कान तैर गई। उसने दरवाजा बंद कर लिया। दिन का उजाला होने के कारण कमरे में दिखने लायक रोशनी आती थी।

    पुरुषोत्तम मंजरी की लाश के पास बैठकर उसके चेहरे को गौर से देखने लगा। दस मिनट गुज़र गए। पुरुषोत्तम यूँ ही बैठा रहा। अचानक उसे ज़ोर की हंसी आई। बड़ी मुश्किल से वो हंसी पर काबू पा सका। वो लाश के थोड़े और करीब गया। उसने मंजरी के माथे पर हाथ रखा। "मंजरी अब अभिनय बंद करो। वरना सांस नहीं लेने की कोशिश में तुम्हारी सांस सच में बंद हो जाएगी" पुरुषोत्तम ने कहा।

    कोई हलचल नहीं हुई। "मंजरी" उसने फिर कहा। लेकिन इस बार भी कोई हलचल नहीं हुई। "मंजरी" पुरुषोत्तम ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। फिर एक ज़ोरदार थप्पड़ से कमरा गूंज गया। और मंजरी हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई।

    "साब मुझे माफ़ करदो...मैंने उसके कहने पर...उसने मुझे बहुत पैसे दिए...."

    "चुप रहो...चुपचाप खड़ी रहो" पुरुषोत्तम उसकी बात पूरी होने से पहले चिल्लाया। "अब मैं जो भी सवाल करू उसका सच-सच जवाब देना। अगर कोई चालाकी करने की कोशिश की तो इसी चाकू से तुम्हारा सच में क़त्ल कर दूंगा।" पुरुषोत्तम ने कहा। फिर वो अपनी रिवॉल्वर निकाल कर मंजरी के सामने खड़ा हो गया। मंजरी नज़रे झुकाएं खड़ी रही।

    "मुझपर हमला किसने किया था" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "राकेश सर ने" मंजरी ने झिझकते हुए जवाब दिया।

    "क्या बंड्या भी तुम्हारे साथ मिला है?"

    "हा साब"

    "राकेश को चाबी तुमने दी थी। और बंड्या ने एक कहानी बनाकर मुझे सुना दी। यहीं सच है न?"

    "हा साब" मंजरी ने कहा।

    "ये सब कौन करवा रहा है?" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "वो अपुन को नहीं मालूम साब.." मंजरी की आंखों से अब झरना बहने लगा था। "अपुन सच कहती है। उस दिन वो आदमी एक कार में..."

    "किस दिन! दिन में या रात में?" पुरुषोत्तम गुस्से में बोला।

    "आप पर हुए हमले की पिछली रात बंड्या एक कार वाले के पास ले गया। और मुझे उसमे बैठाकर चला गया। वो आदमी थे एक राकेश सर और एक को मैं नहीं जानती साब। क्योंकि राकेश सर.." मंजरी एक क्षण रुकी फिर बोली "क्योंकि वो आप पर हमला करने वाले थे इस लिए उनको जानती हूँ साब!" मंजरी ने बताया।

    "उस दूसरे आदमी की तुमने शक्ल नहीं देखी?" पुरुषोत्तम ने पूछा।

    "नहीं साब। कार में अंधेरा था।"

    तभी दरावजे पर बंड्या आया। "साब खाना" पुरुषोत्तम ने मंजरी को चुप रहने का इशारा किया। और दरावजे के पास गया। उसने दरावजे को इतना ही खोला की टिफ़िन अंदर आ सके। बंड्या टिफ़िन देकर चला गया। पुरुषोत्तम वापस लौटा।

    "तुम सच कह रहीं हो न मंजरी" पुरुषोत्तम ने पुलिसिया अंदाज़ में पूछा।

    "अपुन सच कह रही है साब" मंजरी लगातार रोने लगी और बीच-बीच में कहती रही। "पैसों के लिए अपुन ने बहुत बड़ी गलती करदी। माफ करदो साब.."

    "तुम्हे अंदाज़ा नहीं है तुम किन लोगों का साथ दे रही हो।

    दुनिया के सामने तुम नज़रे नहीं उठा पाओगी। तुम्हे शायद अपनी ज़िंदगी प्यारी नहीं है। लेकिन मेरा मकसद हमेशा यहीं होता है कि कोई भी...कोई भी अच्छा या भोला-भाला इंसान इन सब बुरे कामों में कदम न रखे। मंजरी! मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी।" पुरुषोत्तम ने कहा।

    "गलती हो गई साब! अब मैं वैसा ही करूँगी जैसा आप कहोगे" मंजरी हाथ जोड़ते हुए बोली।

    एक क्षण को पुरुषोत्तम की नज़र मंजरी के हाथों पर ठहर गई "ठीक है। फ़िलहाल मैं यहां नहीं रहना चाहता। कमरे की हालात तुमने बहुत बुरी जो करदी।" पुरुषोत्तम ने कहा।

    "साब मैं आपको दूसरा कमरा...."

    "उसकी कोई ज़रूरत नहीं। मैं कुछ दिन होटल मैं रुकूँगा। मेरा एक दोस्त आने वाला है।"

    "साब सुबह भी आप अपने एक दोस्त से..." मंजरी ने कहा।

    "वो मैंने झूठ कहा था। तुम्हारे सवालों में मुझे कुछ गड़बड़ लगी। इस लिए मैं जहां जाना चाहता था। वहां नहीं गया। वैसे मैं पुलिस स्टेशन के आस-पास कहीं जाना चाहता था। लेकिन मुझे तुमपर शक हुआ कि तुम कमरे आकर खोजबीन करोगी या कुछ गड़बड़ करोगी इस लिए मैं जल्दी लौट आया।

    ***