Lubbu in Hindi Short Stories by Pawnesh Dixit books and stories PDF | लुब्बू

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लुब्बू

“ लुब्बू “

लुब्बू नाम रहा होगा उसका अगर किसी ने उसकी अदा और चुहलबाजी बहुत ध्यान से देखी होगी | जिस अदा से लहरा के और बलखा के वह चलती थी लगता था कि पिछले जनम में जरुर ही हसीन लड़की रही होगी | इस जनम में वह एक चुलबुली गिलहरी थी जो कभी एक पेड़ से दूसरे पेड़ के तने पर तो कभी जमीन पर गिरे दाने चुगती | आखिर उसमें क्या बात थी जो उसे औरों से अलग बनाती थी | सुबह-सुबह उसका फुदकना और जमीन पर लहराते हुए दाने चुगना सब कुछ बहुत चुलबुला सा था | एक बार की बात है किसी दूसरी साथी कब्बू ने उसके बच्चे को मस्ती मज़ाक में कुछ ज्यादा ही कह दिया था तो लुब्बू ने उसके कानों में ऐसा काटा था एक हफ्ते तक शायद उसे इंसानों की चहलकदमी पता ही नहीं चली होगी | और अपने साथियों में उसका मज़ाक बन कर रह गया था | वे अपनी भाषा में जरुर उसे कनकटा कहकर चिढ़ाती होंगी |

लुब्बू सभी गिलहरियों में अलग ही जान पड़ती थी इसका केवल एक ही कारण था उसका सुनहरा रंग और इसी के चलते कुछ मस्त चाल,वो भूरी-चितकबरी धारियों के ऊपर चमचमाती सुनहले रंग की धारी सूरज की तेज़ रोशनी में और तेज़ चमक उठती थी | कभी कभी मैं आश्चर्य में पड़ जाता कि कैसे इसका रंग अपने साथियों से कुछ जुदा सा अलग क्यूँ है!! बहुत मशक्कत के बाद एक गली में घुमने वाले छोकरे ने इसकी कथा सुनायी जब उसे मैंने एक चाकलेट का लालच दिया बोल रहा था कि एक बार इसको एक साहब पिंजरे में से बाहर निकालकर यहाँ इस पार्क में छोड़ कर चले गए थे | आगे कुछ बताता इसके पहले लुब्बू फुदकती हुयी मेरे पास आ पहुँची | मैं समझ नहीं पा रहा था और सोच में पड़ गया कि जानवर क्या इंसानों की बात सुन सकते हैं!!!

इतने में वापस उसकी ओर देख पाता उसके पहले ही वह एक सुनहली किरण के जैसे चमक कर वापस जा चुकी थी | वह छोटा लड़का थोड़ा पुचकारने पर झटपट बोल गया साहब एक बात और बताऊँ लेकिन किसी को बताना मत !! ऐसा जब कहा तो मुझे लगा कि अपने बारे में कुछ बताने वाला है पर वह अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही तेज़ था या मेरी दी हुयी चाकलेट ने उसके दिमाग को और तरोताज़ा कर दिया था जो वह लुब्बू के राज खोलने में ही अपनी दिलचस्पी दिखा रहा था | आगे बताने लगा- साहब ये रंग की सीशी से नहा गयी थी |

पेंटर बाबू सड़क के किनारे कुछ लिख पाते इसके पहले ही इसने हडबडाहट में शीशी अपने ऊपर गिरा ली और बन गयी इनकी सुनहरी काया | और... आगे बताते बताते उसे एक दम से छींक आ गयी शायद उसका दिमाग और चाकलेट की मांग करने लगा था |

मैंने एक नयी चाकलेट उसके हाथ में थमाते हुए उसे घर जाने को कहा – जाते जाते वह पूरी बात बताता गया – लुब्बू भागते-भागते रहमान चाचा के यहाँ चली गयी | उन्ही ने उसे वापस पार्क में छोड़ा था शायद कुछ दिन उसके सुनहरे रंग को देखकर उनका मन भर गया था |

मैं अपने ही ख़यालों में डूब गया था और उस रात को मैं लुब्बू के बारे में ही सोचता रहा कि पता नहीं उस बेचारी को मालूम भी है कि उसके ऊपर रंगों का राजा चढ़ कर बैठा है और लोग की आँखें उसे देखने के लिए ढूँढा करती हैं |

लुब्बू और उसके साथियों की ज़िंदगी भी कितनी अजीब या आकर्षक होती होगी | जैसे इंसान का जन्म लफड़ों के लिए हुआ है वैसे इनकी भी आपस में मित्रता या शत्रुता होती होगी या रूठना, मनाना ख़ुशी में हँसना गम में रोना होता होगा बस हम इंसान इनकी भाषा नहीं समझ पाते और न ही जान पाते हैं कि इनकी रोजाना की कहानी दिन के किस रास्ते से होकर गुज़रती होगी |

आज भी उसी की तलाश में मैं पार्क गया था पर न जाने किस मेहमान को वह अपने लुभावने दर्शन करा रही थी | थोड़ी देर उसके साथियों को चहलकदमी करते हुए देखा सब अपने -अपने भोजन के जुगाड़ में लगी हुयी थी | उन्हें देखकर मुझे भी भूख लग रही थी पता नहीं ये पेट की भूख थी या मेरी आँखों की जो लुब्बू को उसके साथियों के बीच ढूंढ रही थी | कभी कभी एक ख्याल और दिल में आता है कि पता नहीं लुब्बू और उसके साथी हम मानवों को एक विशालकाय अनोखी अजीब आकृति न समझती हो जिसके हाथ पैर आँख, नाक, मुहं, कान, सब कैसे अपराधी बन कर अक्सर ही खड़े हो जाते हैं जब भी स्वार्थ का बड़ा सा मुहं इनके आगे आकर खड़ा हो जाता है चाहे बात भूख की हो या चोरी की हो या पैसा कमाने की या फिर किसी को मारने की या भौतिक संसाधनों को जुटाने की हो |

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