Stories of greece in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | यूनान की भव्य कथाएं

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यूनान की भव्य कथाएं

यूनान की भव्य कथाएं

ईफीसस की नारी1

ज़्यूस की प्रेम-कथाएँ4

प्रमथ्यु का विद्रोह13

गिलगमेश की महागाथा18

जादुई किताब26

ईफीसस की नारी

पेट्रोनियस

टाइटस पेट्रोनियस आइबिटर (प्रथम शताब्दी) दुनिया का पहला उपन्यासकार माना जा सकता है। उसके उपन्यास ‘सेटिरीकोन’ को सम्राट नीरो ने नष्ट करवा दिया था, क्योंकि वह पेट्रोनियस से नाराज हो गया था। पिछले 500 बरसों में निरन्तर शोध करके विद्वानों ने इस पुस्तक के काफी हिस्से खोज निकाले हैं। यहाँ दी गयी कहानी उपन्यास का एक पात्र यूमोल्पस सुनाता है।

एक समय की बात है कि ईफीसस में एक ऐसी गुणवती शादीशुदा औरत रहती थी कि आस-पास के देशों तक की औरतें उसके दर्शन करने आती थीं। अतः जब उसके पति का देहान्त हो गया, तो सामान्य बातों से ही उसकी सन्तुष्टि नहीं हुई-यानी खुले-उड़ते बालों को नोचने और नंगी छाती को पीटते-पीटते अरथी के आगे चलने से ही उसका गुजारा नहीं हुआ। लोगों की भीड़-की-भीड़ ने प्रशंसा भरी आँखों से देखा कि वह तो दिवंगत के विश्रामस्थल तक जा उतरी है, जहाँ उसने दिन-रात रोना शुरू कर दिया। यह काम वैसे ही एक तहखाने में चलता रहा, जैसा कि यूनानी अक्सर इस तरह के मौकों के लिए इस्तेमाल में लाते हैं। उसके माँ-बाप और रिश्तेदार भी उसे रोक नहीं पाये। वह अपने आपको कष्ट पहुँचाती रही और भूखी रहकर मौत को बुलावा देने लगी। उसने अधिकारियों को भी धमका दिया और वे भी उसे वहीं छोड़कर चले गये। हरेक ने यही सोच लिया कि वह अब मर जाएगी और इस तरह एक अद्वितीय व्यक्तित्व के नष्ट होने का दुख लिये वे सब चले गये।

अनशन का पाँचवाँ दिन। वह काफी कमजोर हो गयी थी। एक स्वामिभक्त नौकरानी उसके साथ बैठी थी। वह भी मालकिन के आँसुओं में अपने आँसू मिला रही थी। समाधि पर जलता दीया जब भी बुझने को होता, वह उसे फिर से भर देती। पूरा नगर उसी की चर्चा कर रहा था और हर वर्ग का हर आदमी यह स्वीकार कर रहा था कि वह पवित्रता और प्रेम के आदर्श के रूप में सबके समक्ष देदीप्यमान है।

अब हुआ यह कि उसी समय प्रान्त के गवर्नर ने आदेश दिया कि उस स्थान के निकट ही, जहाँ कि वह नारी शोकमग्न थी, कुछ लुटेरों को क्रॉस पर लटका दिया जाए। अतः अगले दिन उस सिपाही ने, जो कि सभी क्रॉसों पर लटके शरीरों की रखवाली कर रहा था-ताकि कोई उन्हें वहाँ से उतारकर उनकी समाधि न बना दे-समाधियों के बीच, कुछ ही दूर, कुछ रोशनी देखी, और साथ ही उसे किसी शोकमग्ना का रुदन भी सुनाई दिया। जिज्ञासा मनुष्य-स्वभाव की मूलभूत कमजोरी है। उसी के वशीभूत उसने यह जानना चाहा कि कौन रो रहा है और वहाँ हो क्या रहा है?

वह तहखाने के भीतर गया। जब उसे वहाँ एक खूबसूरत औरत दिखाई दी, तो वह चकराकर रुक गया, जैसे उसने कोई पाताल-सुन्दरी या पाताल-कन्या देख ली हो! तब उसे वहाँ पड़ा शव दिखाई दिया। उसने उस औरत की आँसू भरी आँखें देखीं और चेहरे पर नाखूनों से पड़ी खरोंचें देखीं। पूरे दृश्य का अर्थ उसकी समझ में आ गया और यह भी उसे मालूम हो गया कि वह क्षति उस सुन्दरी के लिए किस कदर असह्य रही है। वह अपना भोजन भी वहीं समाधि के भीतर ले आया और शोकमग्ना से निवेदन करने लगा कि वह उस दुःख से अपने आपको उबारे और उन आहों से अपने दिल को न तोड़े, जो किसी का भला नहीं कर सकतीं। एक-न-एक दिन सभी का ऐसे ही अन्त होना होता है...आदि-आदि-बस वही उपदेश भरे वाक्य, जिनके द्वारा सभी लोग आत्माओं की समानता स्थापित करने की चेष्टा किया करते हैं।

पर उसने उसकी हमदर्दी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि अपनी छाती और भी ज्यादा जोर से पीटने लगी और अपनी लटें नोच-नोचकर मुर्दे पर बिखेरने लगी। बहरहाल, सिपाही ने भी हार नहीं मानी। वह औरत को प्रोत्साहित करने की कोशिश में लगा रहा, और कहता रहा कि वह कुछ खा ले। आखिरकार नौकरानी ने-बेशक शराब की गन्ध से पसीजकर-दोनों हाथ पसारकर उस सिपाही का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया और फिर, शराब और भोजन से नयी स्फूर्ति पाकर उसने भी सिपाही का समर्थन करना शुरू कर दिया-अब वे दोनों मालकिन की जिद के खुले विरोधी बन चुके थे।

“अगर आप भूख के मारे बेहोश हो गयीं, या आपने अपने आपको जिन्दा दफन कर डाला, या आपने समय के पूर्व ही श्वास त्याग दिया, तो उससे आपको क्या मिलेगा? क्या आपका यह ख्याल है कि राख या दफन हो चुका प्राणी देख-सुन सकता है? आप फिर से नयी जिन्दगी क्यों नहीं शुरू करतीं? आप औरतों की-सी यह मूर्खता छोड़ क्यों नहीं देतीं और जब तक मौका मिलता है, खुली हवा की जिन्दगी का आराम क्यों नहीं भोगतीं? आपके सामने पड़े आपके पति के शरीर से ही यह आवाज आप तक आ रही होगी कि जीयो! जीयो!”

जब किसी को खाने और जीने के लिए कहा जाए, तो उसके लिए यह बड़ा मुश्किल होता है कि वह बात की तरफ ध्यान न दे। अतः उस औरत ने भी, चूँकि भूख के मारे वह बेहाल हो चुकी थी, अपना व्रत तोड़ डालने का इरादा कर लिया। अन्ततः उसने भी उतनी ही ललचायी नजर से पेट भर डाला, जिससे उसकी नौकरानी ने भरा था।

खैर, यह तो आप जानते ही हैं कि अच्छा खाना मिल जाए, तो आदमी का शरीर क्या माँग करने लगता है। जिन तर्कों के आधार पर सिपाही ने उसे जीवित रहने के लिए तैयार कर लिया था, उन्हीं तर्कों को उसने एक बार फिर फेंकना शुरू किया। पर इस बार किसी और उद्देश्य से - यानी यह कि वह अपनी ‘पवित्रता’ को भी त्याग दे। उस गुणवान नारी ने सिपाही को एक नजर देखा : वह जवान था, देखने में अच्छा लग रहा था, और फिर उसकी बातों का तो जवाब ही नहीं था। दूसरी ओर उसकी नौकरानी भी उसे बार-बार कह रही थी कि मेरे दिल की पुकार सुनिए, मालकिन -

“क्या आप आनन्ददायी प्यार से भी झगड़ा करेंगी? और क्या यह याद नहीं करेंगी कि आप किसकी भूमि पर विश्राम कर रही हैं?”

बात को लटकाने से क्या फायदा! औरत ने अपने शरीर का एक के बाद एक भाग समर्पित करना शुरू कर दिया, और सिपाही भी मनमानी करने लगा। उसने भी सिपाही को आलिंगन-बद्ध कर लिया और इस तरह उन्होंने केवल वह रात उसी तरह नहीं गुजार दी, बल्कि अगली भी और उससे अगली भी। उसने इस बात की सावधानी बरती थी कि तहखाने का द्वार बन्द कर लिया था, ताकि कोई मित्र या अजनबी मिलने आए, तो यही समझकर लौट जाए कि गुणों की उस खान ने अपने पति के शव पर ही अपने प्राण त्याग दिये हैं।

सिपाही ने भी उसकी खूबसूरती और रहस्य से मुग्ध होकर, जहाँ तक उसकी तनख्वाह साथ देती थी, उसने ऐशो-इशरत का सामान खरीदा और जैसे ही अन्धकार घिर आया, सामान को समाधि तक पहुँचा आया। और उधर जब क्रॉस पर चढ़े किसी लुटेरे के माँ-बाप ने यह देखा कि चौकीदार कितना लापरवाह है, तो उन्होंने एक रात उसके शरीर को क्रॉस से उतारा और आवश्यक अन्तिम संस्कार करके चलते बने।

सिपाही अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रहा था। उसकी अनुपस्थिति में ही यह हो सका। पर अगले दिन जब उसने यह देखा कि एक क्रॉस पर से तो मुर्दा ही गायब है, तो वह डर गया कि अब तो उसे सजा मिलेगी ही। वह भागा-भागा गया और उसने सारी बात उस औरत को बतायी। उसने कहा, “मैं कोर्ट मार्शल की प्रतीक्षा नहीं करूँगा। उससे अच्छा तो यही है कि मैं अपनी ही तलवार से अपने आपको सजा दे दूँ! अब अच्छा यही होगा कि तुम एक और मुर्दे के लिए जगह बनाओ, ताकि एक ही समाधि में तुम्हारा पति और प्रेमी, दोनों विश्राम पा सकें।”

लेकिन वह औरत जितनी गुणवान थी, उतनी ही दयालु भी थी। “देवता नहीं चाहते,” वह बोली, “कि मैं एक ही स्थान पर और एक ही समय पर उन दोनों व्यक्तियों का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करूँ, जिन्हें मैं सबसे ज्यादा चाहती हूँ। मैं एक जीवित आदमी को मरते हुए देखूँ, इससे तो बेहतर होगा कि मैं एक मृत आदमी को क्रॉस पर चढ़ता हुआ देखूँ।”

तब उसने सिपाही से कहा कि तुम मेरे पति के शव को ताबूत में से निकालो और उसे खाली क्रॉस पर चढ़ा दो। सिपाही ने उस गुणवती के अत्युत्तम सुझाव से फायदा उठाया और अगले दिन लोग यह देखकर हैरान थे कि एक मृत आदमी क्रॉस पर कैसे चढ़ गया!

***

ज़्यूस की प्रेम-कथाएँ

कमल नसीम

कहा नहीं जा सकता कि ज़्यूस की इस प्रणय -लीला के समय हेरा कहाँ थी। इओ और कैलिस्टो की भाँति यूरोपे को ज़्यूस के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाना पड़ा।

ज़्यूस और यूरोपे की इस प्रेम कथा का उल्लेख अपोलोडॉरस, हाइजीनस तथा ओविड से मिलता है। लेकिन इसका रुचिकर विस्तृत वर्णन तीसरी शताब्दी के एलैग्जेण्ड्राइन कवि मोस्कस ने किया है।

उक्त वर्णित इन तीन के अतिरिक्त भी ज़्यूस की अन्य कई मर्त्य प्रेमिकाएँ थीं और अनेक अवैध बालक ! ज़्यूस और पैसिफ़े के संसर्ग से लीबिया के एमान का जन्म हुआ, एण्टीयोपी ने एम्फ़ियन और जीयस को जन्म दिया। लामिया और एगीना पर भी देव-सम्राट की अनुकम्पा हुई। ज़्यूस और सीमीले के संसर्ग से मदिरा के देवता डायनायसस और डाने के सम्भोग से वीर परसियस का जन्म हुआ। इनका विस्तृत वर्णन ग्रीक पौराणिक कथाओं में है।

ग्रीक-समाज में प्रचलित एक-विवाह की प्रथा के अनुसार ज़्यूस की वैधानिक पत्नी हेरा थी। यह निस्सन्देह एक प्रेम-विवाह था। ज़्यूस तो अवश्य ही हेरा के प्रेम में पागल था। किन्तु विवाह के उपरान्त ज़्यूस की काम-लालसा दुस्तोष्य हो उठी। उसकी तृप्ति केवल हेरा से सम्भव न थी। वह नित नयी प्रेमिकाएँ खोजता, नित नये सम्बन्ध स्थापित करता। सभी प्राप्त स्रोतों के अनुसार हेरा सदा अपने पति के प्रति वफादार रही किन्तु ज़्यूस पर उसकी नैतिकता का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जैसे उसकी शक्ति असीम थी वैसे ही उसका प्रणय उन्माद भी अनन्त था।

ज़्यूस का महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध कृषि की देवी डिमीटर से हुआ। डिमीटर ओलिम्पस की प्रमुख देवियों में से है। ज़्यूस और डिमीटर का संयोग आकाश और अनाज के विवाह का प्रतीक है। इस सम्बन्ध से पर्सीफनी अथवा कोर का जन्म हुआ। एक अन्य आरफिक कथा के अनुसार ज़्यूस ने अपनी पुत्री पर्सीफनी का एक सर्प अथवा दैत्य के रूप में बलात् भोग किया। पर्सीफनी ने जैगरियस नामक एक अद्भुत बालक को जन्म दिया। ज़्यूस के इस अनुचित सम्बन्ध का पता हहेरा को चल गया था, अतः ज़्यूस ने बालक की सुरक्षा के लिए क्रीट के क्यूरेट्स को नियुक्त किया। जैगरियस का पालना ईडियन गुहा में था। वहीं क्यूरेट्स उसके चारों ओर नाचते-गाते और हथियार बजाते थे जैसा कि उन्होंने पहले शिशु ज़्यूस की रक्षा के लिए किया था, किन्तु हेरा द्वारा भड़काये गये ज़्यूस के शत्रु टाइटन अवसर की ताक में थे। एक रात जब क्यूरेट्स सो रहे थे, टाइटन्स की बन आयी। उन्होंने बदन पर खड़िया मली और चेहरे भी एकदम सफेद कर लिये ताकि बाल जैगरियस भयभीत न हो उठे। आधी रात गये उन्होंने अपनी योजना कार्यान्वित करना आरम्भ किया। टाइटन्स ने बाल जैगरियस को शंकु, गरजने वाला बैल, सुनहरे सेब और दर्पण आदि देकर फुसला लिया और फिर उस पर आक्रमण कर दिया। जैगरियस ने आत्म-सुरक्षा के लिए कई रूप बदले। कभी वह ज़्यूस बना तो कभी क्रॉनस। लेकिन टाइटन्स को धोखा देना आसान न था। अब वह एक घोड़ा बन गया, फिर सींगों वाला साँप, शेर और अन्त में बैल। बैल बनेजैगरियस को टाइटन्स ने दृढ़ता से पैरों और सींगों से पकड़ लिया, उसके शरीर को अपने दाँतों से चीर डाला और उसे कच्चा ही खाने लगे। टाइटन्स अभी जैगरियस का भक्षण कर ही रहे थे कि एथीनी उधर आ निकली। भाग्यवश टाइटन्स ने अभी जैगरियस का हृदय नहीं खाया था। एथीनी ने हृदय उनसे बचाकर उसे एक मिट्टी के पुतले में लगाकर उसमें प्राण फूँक दिये। इस प्रकार जैगरियस अमर हो गया। उसकी हड्डियों को डेल्फी में दफना दिया गया और क्रुद्ध ज़्यूस ने वज्र से टाइटन्स को मौत के घाट उतार दिया।

टाइटनैस निमाजिनी (स्मृति)ज़्यूस के संसर्ग से नौ म्यूज़ेज़ की माता बनी। दिव्य स्मृति की सहायता से ही साहित्य, कला, शिल्प आदि की अभिवृद्धि होती है।

कुछ स्रोतों के अनुसार ओकिनास की पुत्री, प्रतिकार की देवी नेमेसिस भी ज़्यूस की कामुकता का शिकार हुई। नेमेसिस ने उससे बचने के लिए कई रूप और स्थान बदले लेकिन ज़्यूस ने पृथ्वी, आकाश, समुद्र में सब कहीं उसका पीछा किया। अन्त में जब नेमेसिस ने एक हंसिनी का रूप धारण किया तो ज़्यूस हंस के रूप में उससे संयुक्त हो गया। समय आने पर नेमेसिस ने एक अण्डा दिया जिससे विश्व सुन्दरी हेलेन का जन्म हुआ। नेमेसिस एक समुद्र-कन्या के रूप में लिडा नाम से भी जानी जाती है।

ज़्यूस की प्रेमिकाओं में एक महत्त्वपूर्ण नाम एटलस की पुत्री माया का है। एक रात जब हेरा गहरी नींद सो रही थी, ज़्यूस और माया का आर्केडिया में मिलन हुआ। इस संयोग से हेमीज का जन्म हुआ जो ओलिम्पस के प्रमुख बारह देवताओं में से एक है।

फीबी की पुत्री लीटो और ज़्यूस के संसर्ग से अपोलो और आर्टेमिस का जन्म हुआ। हेरा की ईर्ष्या के कारण लीटो को अनेक कष्ट उठाने पड़े।

इन अमर्त्य देवियों से ही नहीं, मनुष्य की रचना के बाद ज़्यूस ने अनेक नश्वर रमणियों से भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये। जिस पण्डोरा को ज़्यूस ने पुरुष मात्र को दण्ड देने के लिए रचा था, वह उसी के प्रणय का स्वयं प्रार्थी बन गया।

ज़्यूस एवं इओ

नदी के देवता इनाकस की पुत्री, हेरा के मन्दिर की पुजारिन इओ अद्वितीय सुन्दरी थी। यौवन के पराग से सने अंग, दूध-सा गौर वर्ण, कपोलों पर फूटती उषा की लालिमा जैसे लिली के बदन में रक्त का संचार हो गया हो। ज़्यूस ठगा-सा रह गया। पृथ्वी पर ऐसे मनोहारी रूप की उसने कल्पना तक न की थी। देव-सम्राट एक मर्त्य किशोरी पर हृदय हार बैठा। इओ के सपनों में एक देव-आकृति झाँकने लगी। “इओ”, वह कहता, “मैं देव-सम्राट ज़्यूस तेरे प्रणय का प्रार्थी हूँ। तेरे सरल रूप ने मेरा हृदय जीत लिया है। सौन्दर्य और यौवन की अमूल्य निधि क्या ऐसे ही खो देगी। आ, मेरे पास आ इओ ...”

वह आकृति बाँहें फैलाये आगे बढ़ने लगती। इओ सिहर उठती।

एक दिन। ज़्यूस एवं इओ नदी के किनारे विहार कर रहे थे। हेरा की शंकालु दृष्टि से बचने के लिए ज़्यूस ने उस भू-भाग को एक बादल की ओट में कर दिया था। हेरा उस समय ओलिम्पस में अपने स्वर्ण-प्रासाद में विश्राम कर रही थी। ज़्यूस और इओ प्रेम-मग्न थे। तभी अकस्मात् हेरा की दृष्टि उस बादल के टुकड़े पर जा पड़ी। जब सारा आकाश दर्पण-सा निर्मल और स्वच्छ है तो अन्तरिक्ष के एक कोने में यह बदली कैसी? अवश्य ही कुछ रहस्य है। हेरा अपने पति की प्रकृति से परिचित थी। तत्काल उस घुँघराले बादल को एक ओर झटका। ज़्यूस जान गया कि हेरा का आगमन निकट है। उसने तत्काल इओ को एक गाय बना दिया। हेरा के मन में सन्देह उत्पन्न करना उचित नहीं। यह आपत्ति टल जाए। गाय का रूप-परिवर्तन कर लिया जाएगा। ज़्यूस ने ऐसा सोचा।

बादल के हटते ही हेरा ने देखा दर्पण से स्वच्छ जल वाली नदी के तट पर ज़्यूस के पास एक गाय खड़ी है। गाय बहुत सुन्दर थी। उसमें इओ की मानव-आकृति के अतिरिक्त उसका सारा सौन्दर्य था। हेरा निकट आयी। स्नेह से गाय की पीठ सहलायी और बोली :

“इतनी सुन्दर गाय तो आज तक पृथ्वी पर नहीं देखी। यह अद्भुत प्राणी कहाँ से आया महाराज? कौन भाग्यशाली है इस निधि का स्वामी?”

ज़्यूस ने अधिक प्रश्नों से बचने के लिए झट बड़े सहज स्वर में उत्तर दिया, “देवी यह पृथ्वी की नवीन कृति है। इसकी रचना अभी ही हुई है।”

“आश्चर्य!” हेरा ने कहा। उसकी शंका का अभी समाधान नहीं हो पाया था। उसे एक बात सूझी। “क्या समस्त प्राणियों के स्वामी महाराजाधिराज ज़्यूस मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कर अनुगृहीत करेंगे? इस गाय ने मेरा मन मोह लिया है। इसे दासी को प्रदान करने की कृपा करें।”

“अवश्य, अवश्य,” अपने मनोभाव छिपाते हुए ज़्यूस ने कहा।

हेरा की इतनी साधारण-सी प्रार्थना को कैसे अस्वीकार करें। न करने से सन्देह भी उत्पन्न हो सकता है। यही सोचकर ज़्यूस ने स्थिति सँभालने के लिए अनिच्छा से गाय के रूप में अपनी प्रेयसी इओ को हेरा को दे दिया। हेरा अभी भी शंका मुक्त नहीं हो पायी थी, अतः उसने गाय की रक्षा का भार अपने विश्वस्त सेवक आगू को सौंप दिया। आगू हेरा के आदेशानुसार गुप्त मार्ग से उस सुन्दर गाय को नेमिया ले गया और वहाँ उसे एक वृक्ष से बाँध दिया।

हेरा के इस सेवक आगू की सौ आँखें थीं और वह सोते समय सब आँखें बन्द नहीं करता था। बहुधा एक समय में उसकी दो ही आँखें बन्द होती थीं। बेचारी इओ एक पल भी उसकी दृष्टि से दूर नहीं हो सकती थी। उसकी आकृति अवश्य बदल गयी थी किन्तु मन और मस्तिष्क मानव-समान थे। वह चाहती कि आगू से मुक्ति की प्रार्थना करे किन्तु भाषा पर अब उसका अधिकार नहीं था। वह आते-जाते पथिकों से बात करना चाहती किन्तु उसके मुँह से केवल रँभाने का स्वर निकलता जिससे वह स्वयं ही भयभीत हो उठती। उसका मन आकुल हो उठता। लोग आते, उसकी सुन्दरता और सुडौलता की प्रशंसा करते, स्नेह से उसकी पीठ सहलाते और चले जाते। बेचारी इओ चुपचाप खड़ी आँसू बहाया करती। चेतना उसके लिए अभिशाप बन गयी थी। एक दिन भाग्यवश नदी का देवता इनाकस वहाँ आ निकला। सुन्दर गाय देखकर वह वहीं रुक गया। अपने पिता को देख इओ का मन व्यथित हो उठा। वह चाहती थी कि अपने पिता को अपने दुर्भाग्य की कहानी सुना सके, उससे मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करे। उसका दम घुट रहा था। शब्द उसके भीतर ही मर रहे थे। हृदय में भाव थे लेकिन अभिव्यक्ति के लिए भाषा नहीं थी। वह प्रेमावेग में अपने पिता का हाथ चाटने लगी। तभी उसे अचानक एक उपाय सूझा। उसने सींग से मिट्टी पर लिख दिया-”इओ”। इनाकस ने अपनी खोयी हुई बेटी को पहचान लिया। वह कातर स्वर में विलाप करने लगा, “हाँ! मेरी बच्ची, यह मैं क्या देख रहा हूँ। तेरा यह क्या हाल हो गया है? मेरी फूल-सी सुकुमार इओ पर किसने यह अत्याचार किया? हे प्रभु ज़्यूस! इससे तो अच्छा था तुम इस अभागी के प्राण ले लेते...।” यह दृश्य देख आगू सतर्क हो उठा और गाय को दूर ले गया। गाय को एक अन्य पेड़ से बाँध वह स्वयं कुछ ऊँचाई पर बैठ गया जिससे सभी दिशाओं में देख सके।”

उधर ओलिम्पस पर ज़्यूस को कल न पड़ता था। इओ की दुर्दशा का वह उत्तरदायी था। बहुत सोच-विचार के बाद ज़्यूस ने इओ के उद्धार का भार अपने पुत्र हेमीज को सौंपा। हेमीज ने तत्काल अपने पंखों वाले जूते पहने, पंखों वाली टोपी पहनी, हाथ में बाँसुरी और जादू की छड़ी ली और नेमिया की ओर प्रस्थान किया। निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर उसने अपने जूते और टोपी छिपा दिये और एक ग्वाले का वेश धारण कर लिया। हाथ में छड़ी ली और अपनी बाँसुरी पर दिव्य राग छेड़ दिया। ऐसा संगीत पृथ्वी पर कहाँ! भोले-भाले चरवाहे और उसकी मधुर रागिनी ने आगू का मन मोह लिया। उसने बड़े स्नेह से हेमीज को अपने पास एक वृक्ष की घनी छाया में बिठा लिया और उससे बातें करने लगा। हेमीज केवल एक दक्ष बाँसुरी-वादक ही नहीं, एक कुशल वक्ता भी था। वह तरह-तरह की बातों से आगू का मन बहलाता रहा। उसे कई कहानियाँ सुनायीं। काफी समय बीत गया। रात घिर आयी। आगू को नींद आने लगी। बाँसुरी के मधुर स्वर में आगू की आँखें एक-एक कर बन्द होने लगीं लेकिन कुछ आँखें अभी भी खुली थीं। हेमीज ने अब उसे बाँसुरी का इतिहास सुनाया। इस बीच ही आगू की सभी आँखें सो गयीं। उसका सिर आगे को झुक आया। अब हेमीज ने तलवार के एक ही वार से उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी। आगू की सौ आँखें सदा के लिए बन्द हो गयीं। हेमीज ने इओ को मुक्त कर दिया किन्तु उसके कष्ट के दिन समाप्त नहीं हुए थे।

आगू हेरा के आदेश का पालन करते हुए मारा गया था, अतः हेरा ने उसकी सौ आँखें मोर के पंखों में लगा दीं।

इओ के प्रति हेरा का क्रोध अभी भी शान्त नहीं हुआ था, अतः उसने ज़्यूस को इओ को उसके वास्तविक रूप में लाने का अवसर ही न दिया। हेरा ने गाय रूपी इओ के पीछे गोमक्षिका लगा दी। उसके दंश से आहत इओ देश-विदेश घूमने लगी। पहले वह डोडोना गयी और फिर उस समुद्र तक जो बाद में उसके नाम से इओनियन समुद्र कहलाया। क्षुब्ध, पीड़ित, सन्त्रस्त इओ इधर-उधर भटकती ज़्यूस को उसके प्रेम की दुहाई देती। लेकिन उस अभागी की व्यथा का अन्त न था। इओनियन समुद्र से वह फिर लौटकर उत्तर की ओर चली और हेमस पर्वत पर पहुँची। फिर काले सागर से होती हुई, क्रीमियन बॉसफारस पार करके हिब्रीस्टीस नदी के स्रोत काकेसस पर्वत पर पहुँची। एक ऊँची चोटी पर इओ को एक विशाल आकृति दिखाई दी। एक गरुड़ उस आकृति का मांस नोच-नोचकर खा रहा था। यह ज़्यूस के क्रोध का शिकार, मानव का समर्थक प्रमीथ्युस था। इओ ने जब चट्टान से बँधे इस विशालकाय पर असहाय टाइटन को देखा तो वह उसके पास ही रुक गयी और दुखित स्वर में बोली :

“इस भयंकर यातना को निःशब्द सहने वाले वीर, तुम कौन हो? क्या अपराध किया है तुमने जो प्रचण्ड सूर्य, गरजते तूफान और लपलपाती आग के निरन्तर प्रहारों को सहने का दण्ड मिला? क्या मेरी तरह तुम्हारी पीड़ा का भी अन्त नहीं? क्या मुक्ति की प्रतीक्षा ही हमारी नियति है? बोलो वीर? मुझे पशु न समझो? मैं एक स्त्री हूँ और तुम्हारा दुख समझती हूँ।”

भविष्यद्रष्टा प्रमीथ्युस ने यह संवेदना युक्त स्वर सुनकर इओ की ओर देखा और पल-भर में उसका इतिहास जान लिया।

“इनाकस की पुत्री इओ।” उसने कहा, “मैं ज़्यूस को क्रुद्ध करने का फल भोग रहा हूँ और तू? तू उसके प्रेम का। तेरे प्रति ज़्यूस के प्रेम के कारण ही हेरा तुझसे घृणा करती है और तुझे इतना कष्ट दे रही है।”

इओ को आश्चर्य हुआ। इस सुनसान बर्फीले प्रदेश में जहाँ मनुष्य तो क्या चिड़िया तक नहीं फटकती, यह अकेला चट्टान से बँधा हुआ प्राणी उसका नाम कैसे जान गया। कौन है यह दिव्यद्रष्टा? प्रमीथ्युस ने उसका मनोभाव पढ़ लिया और अपना परिचय दिया : “इओ! तेरे सामने मानव-जाति को अग्नि देने वाला प्रमीथ्युस खड़ा है।”

“प्रमीथ्युस!” हठात् इओ के मुख से निकला, “मानव-जाति का स्रष्टा और उद्धारक प्रमीथ्युस! हमारे हित के लिए देवताओं से लोहा लेने वाला प्रमीथ्युस! आह!!” उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, “मानव के कारण तुम इतना कष्ट झेल रहे हो। उसके सुख के लिए, इतनी मर्मान्तक यातना चुपचाप सह रहे हो! तुमने क्यों मनुष्य के लिए ज़्यूस का क्रोध अपने सिर लिया?”

“ऐसा मत बोल इओ! मैंने जो उचित समझा वही किया। मैं मानव को सुखी और समृद्ध देखना चाहता था। मेरा सपना साकार हो गया। मेरे मन में कोई दुविधा नहीं, कोई द्वन्द्व नहीं। ज़्यूस अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर मुझसे प्रतिशोध ले रहा है। वह नहीं जानता प्रमीथ्युस का विश्वास अटल है। वह मेरे शरीर को क्षत-विक्षत कर सकता है, मेरी अन्तरात्मा को नहीं।”

“लेकिन क्या इस कष्ट का कभी अन्त न होगा?” इओ ने पूछा।

“होगा इओ! अवश्य होगा।” आगम द्रष्टा प्रमीथ्युस ने कहा, “एक दिन इस अत्याचार का अन्त होगा। ज़्यूस को उसके कर्मों का फल मिलेगा। उसका अपना ही पुत्र उसे अपदस्थ करेगा। और इओ! तेरी भी मुक्ति होगी। लेकिन अभी प्रतीक्षा कर। देश-विदेश, जंगल-जंगल चलती जा, नदी-नाले पार करती चलती जा। अन्त में नील नदी के पास पहुँचकर तेरा उद्धार होगा। वहीं ज़्यूस तुझे तेरा स्त्री-रूप देगा और तुझे एक पुत्र की प्राप्ति होगी। जा! चली जा। इस लम्बी काली रात का अवश्य प्रभात होगा।”

“और तुम पिता?” इओ ने व्यग्रता से पूछा।

“अभी शताब्दियों तक मुझे इस अत्याचार से जूझना है। अन्ततः तेरे एक वंशज के हाथों मेरी इस यातना का अन्त होगा। देवताओं-सा शक्तिशाली और समर्थ वह युवक मेरी श्रृंखलाएँ तोड़ेगा। एक बार फिर मैं स्वतन्त्र वायु में साँस ले सकूँगा। मेरा कष्ट तेरे कष्ट से बड़ा है और छुटकारा भी कठिन। किन्तु मैं निराश नहीं हूँ। तू भी हिम्मत न हार और आगे बढ़ती जा।”

इओ ने मन ही मन प्रमीथ्युस को प्रणाम किया और अपने रास्ते चल पड़ी। कोलचिस और थ्रेशियन बॉसफारस होती हुई यूरोप पहुँची और फिर एशिया माइनर से टारसस, जोप्पा, मीडिया, बैक्ट्रिया, भारत और अरब होती हुई इथोपिया पहुँची। नील के उद्गम से चलती हुई मिस्र आयी। यहीं उसकी यातना का अन्त हुआ। ज़्यूस ने उसी स्त्री-रूप दिया और टैलीगोनस से विवाह के पश्चात उसनेज़्यूस के पुत्र इपैफस को जन्म दिया। इपैफस ने चिरकाल तक मिस्र में राज्य किया। कैलिमेकस के अनुसार उसकी पुत्री लीबिया समुद्र देवता पॉसायडन के संसर्ग से एगनर और बीलस नामक दो प्रतापी पुत्रों की माता बनी।

ज़्यूस और कैलिस्टो

ज़्यूस की कामुकता और हेरा की ईर्ष्या का शिकार होने वाली दूसरी अभागी स्त्री थी कैलिस्टो। कैलिस्टो आर्केडिया के राजा की बेटी थी। यथा नाम तथा गुण। कैलिस्टो का अर्थ है सुन्दरी। कैलिस्टो रूपवती थी और शुचिता की देवी आर्टेमिस की सखी थी। एक बार जब वह अन्य कुमारियों के साथ आखेट कर रही थी, ज़्यूस ने उसे देखा और उस पर आसक्त हो गया। ज़्यूस के संसर्ग से कैलिस्टो को गर्भ हो गया। जब आर्टेमिस को इस बात का पता चला तो उसने कैलिस्टो को अपने संगठन से निकाल दिया। कैलिस्टो ने एक पुत्र को जन्म दिया। शीघ्र ही हेरा को इस बात का पता लग गया। ज़्यूस पर तो उसका वश न चलता था, अतः उसने कैलिस्टो को ही दण्ड देने की ठानी। जिस अनुपम रूप ने ज़्यूस का मन मोह लिया, वह उस रूप को नष्ट कर देगी। कैलिस्टो लाख रोयी, गिड़गिड़ायी मगर हेरा ने उसे एक रीछ बना दिया। देखते ही देखते उसके कोमल अंग काले-लम्बे बालों से भर गये और सुकुमार हाथों-पाँवों के पंजे बन गये। ज़्यूस के कानों में रस घोलने वाला उसका मधुर स्वर गुर्राहट में बदल गया। लेकिन इओ की भाँति उसकी आकृति ही बदली थी, प्रकृति अब भी मनुष्यों जैसी थी। वह रीछ के रूप में भी सदा दो ही पैरों पर चलने का प्रयास करती। अहेरियों को देखकर उनसे बात करना चाहती। अन्य भालुओं के बीच उसे चैन न पड़ता। कभी-कभी रात में वह डर भी जाती-मनुष्यों या देवताओं से नहीं, वन्य पशुओं से। इसी तरह मानसिक कष्ट झेलते और वन-वन भटकते कई वर्ष बीत गये।

एक दिन एक युवक उस जंगल में शिकार खेलने आया। वह कैलिस्टो का बेटा था। हेरा की प्रेरणा उसे वहाँ लायी थी। कैलिस्टो ने अपने बेटे एरकास को पहचान लिया। माँ की ममता उमड़ पड़ी। वह अपना रूप भूलकर स्नेहार्द्र हो अपने बच्चे की ओर बढ़ी। एक भालू को अपनी ओर आते देखकर एरकास सतर्क हो उठा। उसने झट भाला साधा और रीछ के वक्ष को लक्ष्य किया। इससे पहले कि एरकास मातृ-हत्या का अपराध करता ज़्यूस ने माता और पुत्र दोनों को नक्षत्र बनाकर आकाश में स्थान दे दिया।

हेरा ने जब अपनी प्रतिद्वन्द्वी का ऐसा सम्मान होते देखा तो वह जल-भुन उठी। जिसे वह मिट्टी में मिलाना चाहती थी, ज़्यूस ने उसे आसमान पर बिठा दिया। हेरा यह नहीं सह सकती थी। अमरलोक की सम्राज्ञी यदि अपनी इच्छा से एक मर्त्य को दण्डित न कर सके तो उसका मान-सम्मान, उसकी कृपा-अकृपा का अर्थ ही क्या रह गया। यह अपमान था। हेरा की प्रतिष्ठा को धक्का लगा था। लेकिन अब करे क्या? नक्षत्रों को च्युत नहीं किया जा सकता था। वरदान लौटाया नहीं जा सकता था। अतः अब वह समुद्र की शक्तियों के पास गयी और उनसे कहा : “देव-सम्राट ने मेरा अपमान किया है। अपनी प्रेयसी और अपने अवैध बेटे को नक्षत्र बना दिया है। आप लोग मेरी सहायता करें। मेरा आपसे आग्रह है कि अब आप इन दोनों अपराधी नक्षत्रों को कभी भी अपने निर्मल जल में विश्राम न करने दें। ये सदा आकाशमण्डल में ही भटकते रहें।”

हेरा की अभिलाषा पूरी हुई। अपनी यात्रा पूरी करके सभी नक्षत्र समुद्र के जल में आकर अपनी क्लान्ति दूर करते हैं लेकिन कैलिस्टो और एरकास के भाग्य में विश्राम नहीं। वे सदा चलते ही रहते हैं।

ज़्यूस और यूरोपे

लीबिया का पुत्र और बीलस का जुड़वाँ भाई एगनर मिस्र से कैनन देश में आ गया और वहाँ राज्य करने लगा। यहीं एगनर ने टेलफ़ासा से विवाह किया। टेलफ़ासा ने कैडमस फ़ीनिक्स, सीलिक्स, थासस, फ़ीनियस नामक पुत्रों तथा यूरोपे नाम की एक पुत्री को जन्म दिया। एगनर की दुलारी बेटी, भाइयों की चहेती बहन यूरोपे असाधारण सुन्दरी थी।

एक दिन यूरोपे ने अद्भुत स्वप्न देखा। इओ की भाँति उससे किसी ने प्रणय-याचना नहीं की। उसने देखा कि दो स्त्रियों के रूप में दो महाद्वीप उसके पास आये हैं। ये दोनों ही स्त्रियाँ उस पर अपना अधिकार जमाना चाहती हैं। इनमें से एक का नाम है एशिया और दूसरी का अभी कोई नाम नहीं। एशिया का कहना था कि उसने यूरोपे को जन्म दिया है, उसे पाला-पोसा है, अतः यूरोपे पर उसका अधिकार है। बिना नाम की दूसरी स्त्री बार-बार यही कहती : “प्रभु ज़्यूस ने यूरोपे को मुझे देने का वचन दिया है। तुम चाहे कुछ भी कहो, यूरोपे मुझे ही मिलेगी।”

यूरोपे उठ बैठी। गुलाबी परिधान में लिपटी ऑरोरा सूर्य के रथ के लिए पूर्व के विशाल द्वार खोलने को प्रस्तुत थी। यूरोपे ने अपनी सखियों को बुलाया और समुद्र के निकट स्थित उपवन में क्रीड़ा करने और फूल चुनने को चल पड़ी। यह उपवन यूरोपे को बहुत प्रिय था। वैसे भी वसन्त ऋतु थी। यूरोपे की सभी सखियाँ कुलीन परिवारों की थीं। आज वे सभी फूल चुनने के लिए छोटी-छोटी सुन्दर टोकरियाँ लेकर आयी थीं। यूरोपे के हाथ में स्वर्ण की टोकरी थी जिस पर बड़े मोहक चित्र बने थे। इसको ओलिम्पस के शिल्प-देवता हेफ़ास्टस ने अपने हाथों से बनाया था। यूरोपे टोकरी हाथ में लिये अपनी सखियों के साथ हँसती-गाती फूल चुन रही थी। सभी कुमारियाँ थीं और प्रियदर्शिनी भी किन्तु फिर भी यूरोपे उनमें अलग ऐसे ही दिखाई देती थी जैसे सितारों के बीच चाँद। ओलिम्पस में बैठा ज़्यूस इस रूप-राशि को देख रहा था। तभी कहीं ऐफ्रॉडायटी के नटखट बेटे एरॉस (क्यूपिड) ने अपने पुष्प बाण से उसका हृदय भेद डाला। अब देव सम्राट को धैर्य कहाँ। झट यूरोपे के अपहरण की योजना बना डाली। हेरा की शंकालु दृष्टि से बचने के लिए सावधानी बरतना श्रेयस्कर होगा, यही सोचकर ज़्यूस ने एक बैल का रूप धारण किया।

पृथ्वी के सभी पशुओं से श्रेष्ठ और सुन्दर यह बैल दूध की तरह सफेद था। इसके सिर पर चन्द्रमा की शिखाओं की तरह छोटे-छोटे दो सींग थे और सींगों के बीच एक काली लकीर। इतना ही नहीं वह एक मेमने की तरह सुकुमार और सीधा था। जब यह बैल समुद्र-तट पर क्रीड़ा करती हुई रमणियों के बीच पहुँचा तो वे भयभीत नहीं हुईं अपितु उन्होंने उसे चारों ओर से घेर लिया। कोई उसे सहलाने लगी तो कोई फूलों से सजाने लगी। कुछ ने उसके गले में पुष्प-मालाएँ पहना दीं। बैल ने कोई विरोध नहीं किया। वह यूरोपे की ओर बढ़ा और उसका स्पर्श पाकर बड़े मधुर स्वर में रँभाया। यूरोपे प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगी। वह बैल उसके पैरों के पास लेट गया जैसे यूरोपे को अपनी धवल पीठ पर चढ़ने का आमन्त्रण दे रहा हो। यूरोपे निर्भीकता से उसकी पीठ पर चढ़ गयी और खिलखिलाती हुई अपनी सखियों को भी बुलाने लगी। लेकिन इससे पहले कि कोई उसके निकट आता वह बैल वायु-वेग से समुद्र की ओर चल पड़ा। भय से आक्रान्त यूरोपे विह्वल स्वर से रक्षा के लिए पुकारती थी लेकिन किसका साहस कि बैल रूपी ज़्यूस को रोकता। यूरोपे की सखियाँ विलाप करती रह गयीं। कुछ ही देर में बैल पानी की लहरों पर दौड़ने लगा। यूरोपे का डर से बुरा हाल था। हर कदम पर उसे मृत्यु साक्षात् दिखाई दे रही थी। उसने एक हाथ से बैल का सींग पकड़ रखा था और दूसरे में स्वर्ण की टोकरी। बैल का समुद्र पर चलना एक अद्भुत घटना थी। यूरोपे ने देखा, ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता उद्दण्ड लहरें शान्त हो जातीं। तभी समुद्र से अनेक प्राणी निकलने लगे। नदियों की संरक्षक शक्तियाँ, समुद्र कन्याएँ, शंख ध्वनि करते हुए ट्रिटन बालक और उनका नेतृत्व करते हुए हाथ में त्रिशूल लिये समुद्र-देवता पॉसायडन। यूरोपे ने आश्चर्यचकित हो यह दृश्य देखा। उसे विश्वास हो चला था कि यह बैल अवश्य ही कोई देवता है। तभी बैल ने उसे आश्वस्त करने के लिए मानव-स्वर में कहा :

“डर मत यूरोपे। तेरी कोई हानि नहीं होगी। मैं ओलिम्पस का सम्राट ज़्यूस हूँ - तेरे प्रणय का प्रार्थी। मैं तुझे सुदूर देश ले जाऊँगा जहाँ उज्ज्वल भविष्य तेरी प्रतीक्षा कर रहा है। तेरे नाम से उस महाद्वीप का नाम होगा। तुझे तेजस्वी पुत्रों की प्राप्ति होगी और तेरा नाम सदा के लिए अमर होगा।”

यूरोपे ने संघर्ष करना छोड़ प्यार से अपनी बाँहें उसके गले में डाल दीं। ज़्यूस ने क्रीट में अपनी यात्रा समाप्त की और अपना वास्तविक रूप धारण किया। इस सम्बन्ध से यूरोपे ने मायनास, रैडमेन्थस और सारपीडन नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया। इनमें से पहले दो अपने न्याय के लिए पृथ्वी पर इतने प्रसिद्ध हुए कि बाद में उन्हें पाताल में मृतकों का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया। तीसरे ने ट्रॉय के युद्ध में वीरगति प्राप्त की। बिना नाम के दूसरे महाद्वीप को यूरोप के नाम से जाना जाने लगा।

***

प्रमथ्यु का विद्रोह

जे. एच. आनन्द

प्रमथ्यु यूनानी पुराण-कथाओं का एक प्रमुख पात्र है। उसे मानव जाति का जन्मदाता बताया जाता है। राक्षसों और देवताओं की लड़ाई में उसने देवताओं का साथ दिया था। लड़ाई समाप्त होने पर उसे देवता मनोनीत किया गया, लेकिन उसने अपना सम्पूर्ण जीवन देवताओं को समर्पित न करके मानव जाति को समर्पित कर दिया। इसलिए देवता उससे नाराज हो गये और उसे भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ीं। इस पौराणिक कथा का काल 8वीं सदी ई. पू. माना गया है।

आरगोस नगर के राजा इनाकोस के दरबार में देवताओं के सरपंच जीयस की लोलुप दृष्टि इनाकोस की पुत्री आइओ पर पड़ी, जो उसकी पत्नी हीरा के मन्दिर की पुजारिन थी। वह उसके दिव्य सौन्दर्य से मुग्ध हो गया। पर वह अपनी पत्नी हीरा की प्रखर दृष्टि से अपनी कामना को छिपा न सका। हीरा का क्रोध प्रतिद्वन्द्वी आइओ के प्रति भड़क उठा, मनुष्य जाति की कन्या देवता जीयस का कण्ठहार बने? असम्भव! उसने उपयुक्त अवसर पर आइओ की हत्या करने का निश्चय किया। जीयस हीरा के क्रोध से परिचित था। उसकी कितनी ही प्रेमिकाएँ हीरा की ईर्ष्या की बलि-वेदी पर चढ़ चुकी थीं। अतः उसने हीरा की पुजारिन को सफेद गाय के रूप में बदल दिया। हीरा ने जीयस के कार्य के प्रति अनभिज्ञता प्रदर्शित करने का बहाना किया। वह ओलिम्पस पर्वत पहुँची। बारह प्रमुख देवताओं और उनकी देवियों के मध्य उच्च स्वर्ण-सिंहासन पर जीयस बैठा था। उसकी दाहिनी ओर हीरा का स्वर्ण-आसन था।

जब हीरा ने देवी-देवताओं की सभा में प्रवेश किया, तब उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए सब देवी-देवता खड़े हो गये।

जीयस ने पूछा, “आरगोस के छह मन्दिर छोड़कर यहाँ आने का कारण?”

“मैं एक वस्तु आपसे माँगने आयी हूँ।”

“जो कुछ मेरा है, वह सब तुम्हारा है।”

“मैंने राजा इनाकोस की चरई में एक सफेद गाय को चरते हुए देखा है - वह गाय मुझे चाहिए।” इतना कहकर देवी हीरा अपने सिंहासन पर बैठ गयी।

जीयस ने देवी-देवताओं के सम्मुख यह स्वीकार करना उचित नहीं समझा कि उसने हीरा की क्रोधाग्नि से बचाने के लिए आइओ को गाय में परिवर्तित कर दिया है, और वह सफेद गाय आइओ है। अतः उसने हीरा को गाय प्रदान कर दी। हीरा ने अपने सेवक महाराक्षस आरगुस को, जिसके सहस्र नेत्र थे, आदेश दिया कि वह गाय की रात-दिन चौकसी करे, आरगुस आधी आँखों से सोता था और आधी आँखों से जागता था।

जीयस अभी सिंहासन से उठा भी नहीं था कि क्रोनोस के पुत्र ने प्रवेश किया।

“ओ जीयस, मानव जाति के स्रष्टा प्रमथ्यु से मेरी रक्षा कीजिए!”

“क्रोनोस के पुत्र, प्रमथ्यु तो तुम्हारा मित्र है। उसने कई बार पृथ्वी के राक्षसों से तुम्हारी रक्षा की है।”

“जीयस, वह मनुष्यों की सहायता से मेरा सिंहासन छीनना चाहता है, वह मेरे स्थान पर किसी अन्य देवता को प्रतिष्ठित करना चाहता है।”

“अर्थात् वह मेरे अधिकार में हस्तक्षेप करना चाहता है? वह देवता नहीं, वरन् मनुष्य है। हमने उसे देवता का पद प्रदान किया है, क्योंकि उसने तीतानों के विद्रोह के समय हमारी सहायता की थी।” जीयस का क्रोध उफनने लगा।

“जीयस, प्रमथ्यु आगम-द्रष्टा है, उसने यह भविष्यवाणी की है कि आपके सिंहासन पर शीघ्र ही आपका पुत्र आपको मारकर बैठेगा। इसके अतिरिक्त उसने मानव जाति की स्त्री आइओ के प्रति आपके प्रेम की खुले शब्दों में निन्दा की है।”

उपस्थित देवी-देवताओं में काना-फूसी होने लगी।

जीयस ने गरजकर कहा, “जो कोई मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस करेगा, मैं उसको पकड़कर प्रायान्धकार तारतरूस लोक में फेंक दूँगा। तब उसे ज्ञात होगा कि मैं कितना शक्तिमान हूँ, देवताओं का सरपंच हूँ। कोई भी देवता मेरे सम्मुख आकर अपनी शक्ति का परीक्षण कर सकता है। हेफास्तुस!”

अग्नि-देवता हेफास्तुस ने अपने आसन से उठकर जीयस से कहा, “आदेश के लिए मैं प्रस्तुत हूँ।”

“प्रमथ्यु ने हमसे विद्रोह किया है। उसने मानव जाति का नेतृत्व करने का साहस किया है। यह उसकी धूर्तता है। तुम शक्ति के देवता क्रेतोस और हिंसा के देवता बिआ को अपने साथ ले जाओ और प्रमथ्यु को पकड़कर, उसे अविनाशी श्रृंखला से बाँधकर काकेशस पर्वत की चोटी से टाँग दो। मैं वहाँ अपना गरुड़ भेजूँगा, जो दिन में नोच-नोचकर उसका कलेजा खाएगा। जितना कलेजे का मांस वह दिन में खाएगा, उतना मांस रात में पुनः बढ़ जाएगा। इस प्रकार उसकी यातना का कभी अन्त न होगा।”

हेफास्तुस, क्रेतोस और बिआ अपने प्रभु के आदेशों का पालन करने चले गये।

उनके जाने के पश्चात जीयस ने अपने पुत्र हर्मीस से कहा, “पुत्र, मैंने तुम्हें पशुओं की रक्षा करने का दायित्व सौंपा है। तुम उनके रक्षक हो।”

“आज्ञा, जीयस!”

“तुम बाँसुरी-वादक हो। तुमने ही बाँसुरी का आविष्कार किया है। तुम बाँसुरी के मधुर स्वर से मेरी सफेद गाय की रक्षा कर सकते हो।”

“मैं अपने प्रभु के आदेश का अक्षरशः पालन करूँगा।”

हर्मीस आरगोस नगर पहुँचा। हीरा के मन्दिर में सफेद गाय बँधी थी। सहस्र नेत्रों वाला आरगुस राक्षस अपनी आधी आँखों से उस पर दृष्टि गड़ाये हुए था। हर्मीस ने मन्द स्वर में बाँसुरी बजाना आरम्भ किया। आरगुस हर्मीस के संगीत स्वरों से सो गया। पशुओं के रक्षक देवता हर्मीस ने तुरन्त अपनी तलवार निकालकर एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। गाय मुक्त हो गयी।

आरगुस की हत्या से हीरा की क्रोधाग्नि में घृत पड़ गया। उसने कहा, “मैं शपथ खाती हूँ, यह गाय मृत्यु यन्त्रणा के कारण एक देश से दूसरे देश में भटकती रहेगी। इसको कभी शान्ति नहीं मिलेगी। और तू आरगुस, तूने मेरी सेवा में अपने प्राण दिये, इसलिए मैं अपने प्रिय पक्षी मयूर के पंखों पर तेरे सहस्र नेत्र अंकित करती हूँ।”

अतः कुद्ध हीरा ने गाय के पीछे गोमक्षिका (डांस) लगा दी, जो उसको अपने पैने डंक से अंकुश मारती थी। आइओ मृत्युयन्त्रणा से कराहती हुई पहाड़ियों, घाटियों, नदियों और सागरों को पार करती एक देश से दूसरे देश में भटकने लगी। वह एक क्षण भी विश्राम के लिए बैठ नहीं पाती थी। मर्मान्तक पीड़ा के कारण उसके मुख से सतत कराह निकल रही थी - “ओ जीयस, क्या तुझे मेरी पीड़ा नहीं दिखाई दे रही है? तूने कितनी ही बार मुझसे अपना प्रेम प्रकट किया था। क्या मुझे ऐसे ही भटकता हुआ देखता रहेगा? क्या तू मुझे शान्ति, विश्राम नहीं प्रदान करेगा? मैं तुझसे प्रार्थना करती हूँ, मुझे मार डाल। यह पीड़ा असहनीय है!”

आइओ नहीं जानती थी कि उसका आर्तनाद ऐसा व्यक्ति सुन रहा था, जो जीयस के हाथों उससे कहीं अधिक कष्ट पा रहा था। जब आइओ ने अपना सिर ऊपर उठाया, तो उसे दूर एक विशालकाय आकृति दिखाई दी। जब उसने ध्यान से देखा, तो उसे ऐसा परिलक्षित हुआ कि विशालकाय आकृति नंगी चट्टान पर टँगी है और उसके चारों ओर चिल्लाता हुआ गरुड़ मँडरा रहा है। आइओ के कानों में शोक-सन्तप्त, वेदनामय स्वर पड़े - “ओ इनाकोस की पुत्री आइओ, कहाँ से आ रही है? इस निर्जन स्थान में तेरे आने का क्या कारण है? क्या जीयस का प्रेम तुझे इस हिम-स्थली में ले आया है?”

आइओ उसके और निकट गयी। आश्चर्य और भय सम्मिश्रित आवाज में उसने पूछा, “तुम्हें मेरा नाम और मेरे कष्ट के विषय में कैसे ज्ञात हुआ? पर तुमने कौन-सा अपराध किया है, जो तुम्हें इस प्रकार चट्टान पर कील ठोंककर टाँगा गया है? तुम्हारी आकृति से स्पष्ट है कि तुम कोई देवता हो, मनुष्य नहीं, क्योंकि ऐसी आकृतिवाले देवता अथवा महानायक ओलिम्पस पर्वत से उतरकर हम मनुष्यों के मध्य आते हैं।”

आकृति ने कहा, “आइओ, तू जिस देवता को देख रही है, वह प्रमथ्यु है, जो मनुष्यों के लिए ओलिम्पस पर्वत से अग्नि उतारकर लाया था, जिसने तुम्हारी मानव जाति को गृह-निर्माण की कला सिखायी थी, जिसने तुम्हें खेती करना सिखाया था, जिसने तुम्हें सिखाया था कि किस प्रकार सूत काता जाता है। मैंने तुम्हें, मनुष्य जाति को ज्ञान-विज्ञान दिया, संस्कृति और कला दी, तुम्हें पशु-जीवन से निकालकर सभ्य, सुसंस्कृत किया। आइओ, तुम मनुष्य और जीयस देवता एक ही वसुन्धरा-माँ की सन्तान हो, दोनों में एक ही श्वास है, देवता मनुष्य से कदापि श्रेष्ठ नहीं है।”

आइओ विलाप करने लगी - “मानव जाति के जनक प्रमथ्यु, तुमने हमारे कल्याण के लिए जीयस के कोप को मोल लिया!”

“जीयस मेरी देह को नष्ट कर सकता है। मेरे अन्तर को नहीं। क्रोनोस के पुत्र को भय था कि मैं मनुष्यों की सहायता से उसे सिंहासनच्युत कर किसी अन्य देवता को उसके स्थान पर प्रतिष्ठित करूँगा और इसलिए मैंने मनुष्य जाति को देवताओं के समकक्ष उन्नत किया है। वह मेरे भले कार्य भूल गया, जो मैंने उसके हितार्थ सम्पन्न किये थे। उसने जीयस को उभाड़ा और मुझे ओलिम्पस पर्वत पर धोखे से ले गया और छल-कपट से अविनाशी श्रृंखला से बाँध दिया। हेफास्तुस और बिआ मुझे इस चट्टान पर टाँग गये। यहाँ ग्रीष्म में आग बरसती है, ठण्ड में बर्फ! यह गरुड़ दिन में मेरा कलेजा खाता है। रात में कलेजे का मांस फिर बढ़ जाता है। मैं पीड़ित हूँ, पर निराश नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ, आइओ, मैंने मनुष्य जाति के लिए सत्कार्य किये हैं। तुम मनुष्य मेरा सम्मान करते हो, इसलिए कि मैंने तुम्हें शीत, भूख और रोग से बचाया है। मैं आगम-द्रष्टा हूँ। मैं जानता हूँ कि जैसे जीयस अपने पिता को मारकर सिंहासन पर बैठा था, वैसे ही उसका पुत्र उसे मारकर ओलिम्पस के सिंहासन पर बैठेगा।”

“ओ मानवजाति के पिता, अपने शब्द वापस ले लो। जीयस ने मेरी कामना की है।” आइओ का सन्ताप फूट पड़ा।

“यह नियति है, आइओ! तेरे दुखों का भी अन्त समीप नहीं है। तू अनेक युगों तक इसी प्रकार भटकती रहेगी। यदि तू मेरे कथन को सुनकर ही पराजय स्वीकार कर लेगी, तो आगामी घटनाओं का सामना कैसे करेगी?”

“नहीं, पिता इन विपत्तियों-दुखों से अच्छा यह है कि मैं मर जाऊँ!”

“इकानोस की पुत्री, ऐसा मत बोल! अपनी आँखों से जीयस का पतन और मेरी मुक्ति देखेगी। तेरा ही वंशज हरक्युलिस इस गरुड़ को मारकर मुझे श्रृंखला-मुक्त करेगा। इसलिए अपने दुख और पीड़ा को साहस से सह जा। आइओ, मुझे अनेक पीढ़ियों तक इसी चट्टान से लटकते रहना है। तेरा दुख मेरी अपेक्षा कम है, इसी बात पर सन्तोष कर। स्मरण रख, अन्त में सत्य की विजय होगी और जीयस अपने सिंहासन से नीचे फेंक दिया जाएगा। देख, हर्मीस आ रहा है!”

आइओ करुण क्रन्दन करती हुई आगे बढ़ गयी।

हर्मीस निकट आया। उसने कहा, “प्रमथ्यु, क्या तू अब भी मनुष्य जाति के पक्ष में रहेगा और देवताओं के सरपंच जीयस के सम्मुख घुटने नहीं टेकेगा?”

प्रमथ्यु व्यंग्य से हँस पड़ा, उसके अट्टहास से हर्मीस घबरा गया। वह भीषण यातनोन्मुख प्रमथ्यु के निकट खड़ा नहीं रह सका। काकेशस पर्वत से बर्फीला पवन बहा और प्रमथ्यु की देह को बेधता हुआ चला गया। पर्वत से काले बादल नीचे उतरे और उन्होंने प्रमथ्यु की चट्टान को घेर लिया। तभी सम्पूर्ण पर्वत नींव सहित हिल उठा। आकाश के एक कोने से विद्युत चमकती हुई निकली और दूसरे कोने पर लुप्त हो गयी। पर उसके बाद ही विद्युत का चमकना तेज हो गया। प्रमथ्यु की आँखें चौंधियाने लगीं। मेघ-गर्जन से उसके कान फटने लगे। जीयस की समस्त प्राकृतिक शक्तियाँ प्रमथ्यु को तहस-नहस करने के लिए उमड़ पड़ीं। परन्तु प्रमथ्यु उनके आगे नहीं झुका। तूफान और बढ़ गया। प्रमथ्यु की देह आग की लपटों में घिर गयी, फिर भी कोलाहल के मध्य से प्रमथ्यु की आवाज सुनाई देती रही - “जीयस, एक दिन अवश्य ही सत्कार्यों की विजय होगी, अन्याय का सिर कुचला जाएगा और तू सदा के लिए मिट जाएगा।”

***

गिलगमेश की महागाथा

भगवतशरण उपाध्याय

जल -प्रलय की कथाएँ संसार की प्रायः सभी प्राचीन जातियों के साहित्य में लिपिबद्ध हैं। और अब तो इस जल-प्रलय के मूल स्थान को भी सर ल्योनार्ड वूली ने दजला-फरात के निचले दोआब में खोज निकाला है। यहाँ हम प्राचीनतम सुमेरी-अक्कादी जल-प्रलय की कहानी दे रहे हैं। इसका अन्तरंग है गिलगमेश की वीरगाथा।

सन् 1872 में जार्ज स्मिथ को निनेवे के मलबे में बारह ईंटें (पट्टिकाएँ) मिलीं, जिनमें से ग्यारहवीं पर जल-प्रलय की कथा कीलनुमा अक्षरों में खुदी है। यह लिखावट करीब 660 ई. पू. में प्रस्तुत हुई थी। पर यह उस प्राचीन गाथा की प्रतिलिपि मात्र है, जो कम-से-कम 2000 ई. पू. में लिखी जा चुकी थी। जल-प्रलय की यह आदिम घटना अक्कादी-बाबुली कथा के मूल स्थान सुमेरी नगरों सिप्पर, ऊर, उरूक, आदि में घटित हुई थी। मानव जाति की प्रथम महागाथा 'गिलगमेश' का नायक एक अत्यन्त शक्तिशाली एवं साहसी योद्धा है। रोग की औषध के ज्ञान के लिए वह अपने पूर्वज शित्नपिश्ती (नुह्नपि-श्तिम, मूल सुमेरी बीर-जिउसुद्धू) की खोज में निकलता है और फरात के मुहाने पर शित्नपिश्ती उससे जल-प्रलय की कथा कहता है। यहाँ गिलगमेश महागाथा की मूलकथा का रूपान्तर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह सभ्यता की प्रथम महागाथा है।

कुलाब के स्वामी, युरुक के सम्राट् गिलगमेश की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। वह एक ऐसा मनुष्य था, जो संसार की हरेक चीज की जानकारी रखता था। वह एक ऐसा सम्राट् था, जिसे संसार के सभी देशों का पता था। वह बहुत चतुर, बहुत विद्वान, बहुत शक्तिशाली और विश्व के अनेकानेक रहस्यों का ज्ञाता था। लगता, जैसे उसके शरीर के दो तिहाई भाग में ईश्वर का वास है। युरुक में उसने एक भव्य दीवार और ईना का मन्दिर बनवाया था, जहाँ अनु (सर्वोच्च सत्ता-ईश्वरों के ईश्वर) और इश्तर (प्रेम और युद्ध की देवी, जिसे 'स्वर्ग की रानी' भी कहा जाता था) की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की गयी थीं।

एक समय की बात है, गिलगमेश विश्व-विजय के लिए निकला। युरुक लौटने तक उसे कोई ऐसा शक्तिवान नहीं मिला, जो उससे लोहा लेता। यह उसके लिए बेहद रोचक और हौसला देने वाली बात थी। उसने कुमारी कन्याओं का कौमार्य भंग किया, योद्धाओं की बेटियों को अपनी उद्दाम वासना का शिकार बनाया और उनकी पत्नियों को अपनी प्रेमिका बनाने से भी वह नहीं चूका। लोगों में त्राहि-त्राहि मच गयी। देवी-देवताओं को जब लोगों का विलाप सुनाई पड़ा, तो वे बहुत चिन्तित हुए। वे इस विलक्षण और प्रचण्ड व्यक्ति को समाप्त करने के लिए या साधारण मनुष्यों की तरह बनाने के लिए सोच-विचार करने लगे। अन्ततः अनु ने काफी तर्क-वितर्क के पश्चात एंकिदू (आकाश-देवता) को जन्म देकर पृथ्वी पर भेजा।

एंकिदू एकदम आदिम, जंगली, पशु-तुल्य था। उसके शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल थे और सिर के बाल तो औरतों के बालों की ही तरह थे, वह मनुष्य और मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि विकास की ओर से सर्वथा अनभिज्ञ था। वह जंगली जानवरों के साथ रहता था और उन्हीं की तरह घास भी खाता था।

एक बार एक शिकारी जंगल में शिकार खेलने के लिए आया। वहाँ उसकी भेंट जब एंकिदू से हुई, तो वह भयभीत हो उठा। जो कुछ भी शिकार उसके हाथ लगा था। उसे लेकर वह वापस चला आया। भय के कारण उसके मुँह से बोल नहीं फूटते थे, काँपते-हकलाते उसने अपने पिता से कहा, “जंगल में मैंने एक अद्भुत आदमी देखा है, जो जंगली जानवरों के साथ रहता है, उन्हीं के समान घास-पात खाता है-और उसे देखने से ऐसा लगता है, जैसे वह अवतारी पुरुष हो।”

“मेरे लड़के!” पिता ने कहा, “गिलगमेश के पास जाकर इस अनजान जंगली आदमी के बारे में सूचित करो। साथ ही इस आदमी को फँसाने के लिए प्रेम-मन्दिर...से एक देवदासी लेकर जाओ।”

शिकारी युरुक के लिए रवाना हो गया। उसने गिलगमेश को सारी बातें बता दीं। गिलगमेश ने कहा, “शिकारी! तुम देवदासी लेकर वापस जाओ। जब झील-किनारे वह आदमी पानी पीने आये, तो देवदासी को उसकी ओर भेज देना। निश्चय ही वह नारी-सौन्दर्य के प्रति आकर्षित हो जाएगा। और तब जंगली जानवर उसे अपने साथ रखने से इनकार कर देंगे।”

देवदासी को साथ लेकर शिकारी लौट आया और वे झील-किनारे बैठकर एंकिदू की प्रतीक्षा करने लगे। तीन दिनों के बाद जानवरों का एक झुण्ड उधर आया, जिसमें एंकिदू भी था। पानी पी चुकने के बाद जब वहीं इधर-उधर वह जानवरों के साथ घास चरने लगा, तो शिकारी ने देवदासी को बताया, “यही है वह। अब तुम अपने उरोजों से आवरण हटा दो। शरमाओ नहीं। देरी भी मत करो। तुम्हें नग्न देखकर वह तुम्हारी ओर खिंचा चला आएगा और तब तुम उसे पाठ पढ़ाना।”

देवदासी ने अपने को नग्न कर लिया और वह एंकिदू को लुभाने की कोशिश करने लगी। एंकिदू शीघ्र ही उसके जाल में फँस गया। छह दिन और सात रातों तक वे साथ-साथ रहे। तब एक दिन देवदासी ने कहा, “तुम कितने चतुर हो, एंकिदू! और तुम्हारा तो जैसे इस धरती पर अवतार ही हुआ है! फिर जानवरों के साथ पहाड़ी में रहना कहाँ की अक्लमन्दी है? चलो मेरे साथ। मैं तुम्हें युरुक की भव्य दीवार और महान मन्दिर दिखाऊँगी। वहाँ अनु और इश्तर निवास करते हैं। वहाँ गिलगमेश है, जो बहुत शक्तिशाली है और जिसके अधीन बहुत-से लोग हैं।”

देवदासी ने अपने कपड़ों के दो भाग कर लिये और एक भाग को उसने एंकिदू को पहना दिया। एंकिदू ने स्वयं ही अपने शरीर के बालों को साफ किया, सिर के बालों को छोटा किया और तेल से खूब मालिश की। फिर देवदासी ने उसे दूध पीना, रोटी खाना इत्यादि सिखा कर पूरी तरह साधारण आदमी की तरह बना दिया। और उसे साथ लेकर वह युरुक के लिए रवाना हो गयी। जब वे युरुक के बाजार में दाखिल हुए, तो अपार जन-समुदाय उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा।

भव्य दीवार के द्वार पर एंकिदू की मुठभेड़ गिलगमेश से हुई। एंकिदू ने नाक से जोरों की घरघराहट निकाली और वे साँडों की तरह लड़ने लगे, उनके संघर्ष के कारण दरवाजा ध्वस्त हो गया और दीवारें धसकने पर उतर आयीं। अन्त में गिलगमेश ने अपने जबरदस्त पाँवों से एंकिदू के घुटने को मरोड़ा और उसे उठाकर फेंक दिया। एंकिदू का सारा क्रोध, सारा गर्व क्षणांश में हवा हो गया और उसने गिलगमेश से कहा, “संसार में तुम्हारे जैसा शक्तिशाली कोई नहीं, अब तुम समूचे मानव-समुदाय पर शासन कर सकोगे।”

इस प्रकार उन दोनों ने एक-दूसरे का उत्साह से आलिंगन किया। और उनमें पक्की मित्रता हो गयी।

एक रात गिलगमेश ने सपना देखा, जिसमें उसे धिक्कारा गया था कि हे गिलगमेश! ईश्वर ने तुझे राजा बनाया है, पर तू अपने पद और अधिकार का कितना दुरुपयोग कर रहा है! बन्धुत्व, ममता और न्याय के आधार पर तू अपना राज्य क्यों नहीं चलाता?

सपने की चर्चा उसने अपने मित्र एंकिदू से की। एंकिदू ने उस सपने का और विश्लेषण किया। तब गिलगमेश ने प्रतिज्ञा की कि वह आज से विश्व-बन्धुत्व और जनता-जनार्दन की सेवा में अपने जीवन को अर्पित करेगा। फिर उसने सूर्य देवता को प्रणाम करते हुए कहा, “ओ मेमेश! मैं उस देश की ओर जा रहा हूँ, जहाँ की मानवता पीड़ित है और मैं वहाँ ऐसा कृत्य करूँगा, जिससे मैं महान शक्तियों की श्रेणी में गिना जा सकूँ और मेरा नाम पत्थरों पर अंकित हो सके।”

और सचमुच, दूसरे दिन वह एंकिदू को साथ लेकर यात्रा पर निकल पड़ा। चलते-चलते वे एक पहाड़ के पास पहुँचे, जहाँ का प्रहरी हुम्बाबा (वन देवता) था। वह दहाड़ता हुआ गिलगमेश की ओर लपका। दोनों में भयंकर लड़ाई छिड़ गयी और अन्त में गिलगमेश ने हुम्बाबा को समाप्त कर दिया।

इसके बाद गिलगमेश ने अपने हथियारों को साफ किया और कपड़े बदलकर ज्यों ही उसने राज-मुकुट को धारण किया, वहाँ इश्तर का आगमन हुआ। उसने गिलगमेश से कहा, “मेरे साथ आओ, गिलगमेश! और मुझसे विवाह कर लो।”

“असम्भव!” गिलगमेश ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हें दे ही क्या सकता हूँ। जिससे तुम मुझसे विवाह करोगी! मैं तो अब पथिक हूँ। मैं तुम्हारी जीवन-रक्षक आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे कर पाऊँगा? और यदि मैंने तुमसे किसी भाँति विवाह कर ही लिया, तो तुम्हारे जो ढेर-ढेर भर प्रेमी हैं, उनका क्या हाल होगा?”

गिलगमेश के उत्तर से इश्तर ने अपने को बहुत अपमानित महसूस किया। वह सीधे अपने माता-पिता के पास स्वर्ग को गयी और उसने अपने पिता अन से कहा, “गिलगमेश ने मेरा अपमान किया है, उसने मुझपर कई तरह के लांछन लगाये और मेरे साथ दुर्व्यवहार भी किया। उसे नष्ट करने का उपाय बताइए।”

अन ने एक भयंकर बैल को जन्म देकर पृथ्वी पर भेज दिया। बैल ने एंकिदू पर आक्रमण किया। पर एंकिदू बच निकला और उछलकर उसने उसके सींग पकड़ लिये। बैल ने उसके चेहरे पर झाग उगलना शुरू किया और साथ ही अपनी मोटी पूँछ से प्रहार भी करता रहा। एंकिदू ने चिल्लाकर गिलगमेश से कहा, “इस तरह तो हमारा नाम ही डूब जाएगा, मित्र! तुम इसकी गरदन के पृष्ठ भाग और सींग पर प्रहार करो।” गिलगमेश ने शीघ्रता से बैल पर आक्रमण किया। उसने उसकी पूँछ पकड़ ली और तलवार से उसकी गर्दन तथा सींग पर प्रहार किया। बैल मारा गया।

लेकिन एंकिदू काफी घायल हो गया था। उसकी स्थिति मृतक-सी हो गयी थी। वह बेतरह भयभीत भी हो गया था। उसे तरह-तरह के सपने आने लगे थे।

उस रात एंकिदू ने एक भयानक स्वप्न देखा। उसने देखा कि देवताओं ने अपनी सभा में निश्चित किया कि एंकिदू वृषभ मारने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो और गिलगमेश जीवित रहे। उसने जाकर बुरी तरह उस नारी को कोसना शुरू किया, जिसने उसे पशु-जीवन के निश्छल वातावरण से छल से लाकर विपज्जनक मानव जगत में पटक दिया। तब सूर्य देवता ने उसे धिक्कारा-

“एंकिदू, तू देवदासी को कुवाच्य क्यों कहता है,

उस आनन्द कन्या को ?

किसने तुझे खाने को रोटियाँ दीं।

किसने तुझे प्रशस्त वस्त्र से ढका ?

और किसने तुझे , एंकिदू तुझे,

गिलगमेश -सा अप्रतिम मित्र दिया?

और देख , वीर गिलगमेश तेरा भाई है,

तुझे वह समुन्नत पर्यंक पर लिटा देगा (मरने के बाद)...

तेरी सेवा के लिए वह रखैलें और सेवक नियुक्त करेगा। “

(ऊर और कीश की कब्रों से इस वक्तव्य की सत्यता सिद्ध हो जाती है। वहाँ राजाओं और श्रीमानों की लाशों के साथ जीवित नारियाँ, दास, दासी, सुख के प्रभूत सामान दफनाये मिले हैं) और तब एंकिदू ने प्रसन्न होकर देवदासी को आशीर्वाद दिया -

“शाह, राजा और अमीर तुझे प्यार करें!”

एंकिदू ने एक और स्वप्न देखा, जिसमें यमलोक का वर्णन था -

“उस सदन की ओर, जहाँ प्रवेश कर कोई लौटकर नहीं आता,

उस सदन की ओर, जिसमें बसने वाले प्रकाश नहीं पाते,

जहाँ धूल (आहार के लिए) मांस है, मिट्टी रोटी है,

जहाँ वे पक्षियों की भाँति परों के वस्त्र पहनते हैं...”

गिलगमेश अपने मरणासन्न मित्र को धीरज बँधाता रहा -

“कैसे हो, कैसी नींद है वह, जिसने तुझे जकड़ लिया है?

तू काला पड़ गया है, मेरी आवाज नहीं सुनता!”

पर उसने अपनी आँखें नहीं खोलीं। गिलगमेश ने उसके हृदय पर हाथ रखा, गति बन्द थी, उसने अपने (मृत) मित्र को वधू की भाँति ढक दिया।

गिलगमेश उसके लिए कातर विलाप करने लगा, फिर तभी स्वयं उसे एक दारुण विचार ने आ घेरा -क्या अपने मित्र की ही भाँति वह भी इसी प्रकार मर जाएगा? अकड़कर गूँगा हो जाएगा? सन्त्रस्त हो उसने दूर बसने वाले अपने पूर्वज जिउसुद्दू को ढूँढ़ निकालने और उससे उस अमरता का भेद जानने का निश्चय किया, जो प्रलय के पश्चात उसे देवताओं से प्राप्त हुआ था, पहले वह भयानक पर्वत पर चढ़ा, जिसकी रक्षा भीषण बिच्छू-मानुख करते थे।

“हे राजन्! तुम क्या कह रहे हो?” एक द्वारपाल ने उसे समझाते हुए कहा, “जीवित मनुष्य इस पर्वत में प्रवेश नहीं कर सकता। यहाँ घना अँधेरा और भयावह सन्नाटा है।”

“कोई बात नहीं!” गिलगमेश ने उत्तर दिया, “मैं अँधेरे से लड़ूँगा। पीड़ा और यातना को सहूँगा। तुम दरवाजा खोल दो।”

द्वारपाल ने दरवाजा खोलते हुए कहा, “जाओ! जाओ गिलगमेश! ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।”

फिर उसे एक मत्स्यकन्या मिली, जो सागर की गहराइयों में रहती थी और जिससे उसने अपनी पिछली साहसपूर्ण यात्रा का वर्णन कर अमरता प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा घोषित की। मत्स्यकन्या बोली -

“गिलगमेश, तू विदेश क्यों जा रहा है?

जो तू ढूँढ़ रहा है , वह (अमर) जीवन तू नहीं पा सकता।

जब देवताओं ने मानव जाति को सिरजा ,

तब उसके लिए उन्होंने मृत्यु की भी व्यवस्था की।

और देख गिलगमेश , तू तो अपना पेट भर,

दिन और रात तू ऐश कर ...”

गिलगमेश इससे आश्वस्त न हुआ, चलता चला गया, जब तक मृत्यु के समुद्र में नाव चलाने वाले जिउसुद्दू के माझी को उसने ढूँढ़ नहीं निकाला। क्रुद्ध होकर उसने नौका के पाल फाड़ दिये, मस्तूल उखाड़ दिया। तब माझी ने भी मरण को, जन्मसिद्ध मान उसे लौट जाने को कहा, और जब वह लौट जाने को राजी नहीं हुआ, तब माझी इस शर्त पर उसे ले जाने को राजी हुआ कि नाव को बढ़ाने के लिए वह बाँस काट लिया करे। मृत्यु का समुद्र विषाक्त था, इससे नाव खेने के लिए प्रत्येक चोट के बाद बाँस फेंक देना पड़ता था। बावन लग्गियों (की चोटों) के बाद अन्त में वह मृत्यु का सागर पार कर विस्मित जिउसिद्दू के सामने जा खड़ा हुआ।

गिलगमेश ने मानव जाति को परम भय से मुक्त करने की अपनी उत्कट महत्त्वाकांक्षा घोषित करते हुए जिउसुद्दू से पूछा कि स्वयं वह किस प्रकार अपने स्वाभाविक मरण भाग्य से मुक्त हो सका है। तब जल-प्रलय की कथा का जिउसुद्दू ने वर्णन किया। कथा सुनाकर वह बोला कि अगर तुम अमर जीवन प्राप्त करना चाहते हो, तो पहले सप्ताह भर बिना सोये रहो, जागते रहो। पर गिलगमेश यात्रा की थकान से चूर, बजाय जागते रहने के सो गया। तब जिउसुद्दू ने उसे माझी के साथ स्नान करके ताजा होने के लिए भेजा। और लौटने पर उसे बताया कि अमरता सागर तल में उगने वाली औषध (पौधे) से प्राप्त होती है -

“उसके काँटे तेरे हाथ में गुलाब की भाँति चुभेंगे,

फिर भी यदि तू उस औषध को पा ले ,

तो जीवन (अमरता) को पा लेगा।”

“गिलगमेश ने यह सुनकर कमरबन्द कसा,

पैरों में भारी पत्थर बाँधे।

वे उसे गहरे जलतल में खींच ले गये ,

जहाँ उसने वह औषध देखी।

उसने औषध उखाड़ ली ,

और उसके काँटे उसके हाथ में चुभ गये। “

गिलगमेश पत्थरों की रस्सी काट मुक्त हो गया। प्रसन्न बदन उसके ऊपर पहुँचने पर माझी उसे मृत्यु-जगत की ओर लौटा ले चला। साठ घण्टे निरन्तर चलते रहने से थककर गिलगमेश विश्राम और सरोवर में स्नान करने के लिए रुका।

“सर्प ने औषध की गन्ध पा ली।

जल से वह सर्प निकला और औषध लेकर चम्पत हो गया।

(सरोवर) में लौट कर सर्प ने अपनी केंचुल छोड़ दी,

उसका नया जन्म हुआ।

तब गिलगमेश बैठकर विलाप करने लगा ...

'किसके लिए मैंने अपने हृदय का रक्त सुखाया?

मैंने अपने लिए कुछ नहीं किया।

केवल धूल के क्रूर जीव (सर्प) का भला किया!' “

अन्ततः वृद्ध और व्याकुल गिलगमेश ने परलोक की व्यवस्था जानने के लिए अपने मित्र के प्रेत से साक्षात्कार के लिए उन सारे तपस विधानों को तोड़ डाला, जो मानव की प्रेत की छाया से रक्षा करते हैं। देव नर्गल ने, जो यमलोक पहुँचकर निकल भागा था, भूमि में छेद कर दिया और -

“एंकिदू का प्रेत वायु की भाँति पृथ्वी से निकल पड़ा।

दोनों सपद गले मिले। क्रन्दन करते वे बात करने लगे,

बता, मेरे मित्र, बता कब्र के विधान, जो तूने देखे हैं।”

“नहीं बताऊँगा, मित्र, तुझे नहीं बताऊँगा, क्योंकि यदि अपने

देखे कब्र के विधान तुझे बता दूँ, तो तू बैठा रोया करेगा।”

“तो (कुछ परवाह नहीं) मुझे बैठा रोने दे।”

एंकिदू के प्रेत ने तब बताया कि किस भयानक रीति से वस्त्र की भाँति शरीर को कीट चट कर जाते हैं। केवल वे ही परलोक में शान्ति पाते हैं, जिनकी समाधि पर जीवित आहार और पेय भेंट चढ़ते हैं। अन्यथा प्रेत निरन्तर सड़कों पर घूमते मल खाते और नालियों का जल पीते रहते हैं।

यहीं गिलगमेश वीरकाव्य का नितान्त निराशा में अन्त हो जाता है। हाल की मिली काव्य की एक दूसरी प्रति से ज्ञात होता है कि गिलगमेश को भी अन्ततः मरना पड़ा और मरकर उसने परलोक के दण्डधरों (जजों) में स्थान पाया।

ग्रीस (यूनान)

***

जादुई किताब

हीरालाल नागर

राजकुमार खमवास सेतना सम्राट यूसेर मातरा के पुत्र थे। वह अपना अधिकांश समय पुरातात्विक भाषा, जादू-टोने और अतिप्राचीन वस्तुओं के संग्रह में लगाते थे। एक दिन उन्हें पता चला कि साक्षात् भगवान थोट के हाथों लिखी कोई किताब है जो पूर्व सम्राट नानेफर का प्ताह के मकबरे में बन्द है।

काफी खोजबीन के बाद राजकुमार खमवास सेतना ने नानेफर का प्ताह के मकबरे को ढूँढ़ निकाला। इसमें उसके भाई इनारोज ने उनकी मदद की। राजकुमार खमवास वहाँ पहुँचे और मकबरे को खोल दिया। उन्होंने देखा कि जादुई किताब रखी है जिसके चारों ओर रोशनी की किरणें फैली हुई हैं। उन्होंने उस किताब को लेना चाहा तो मकबरे के आसपास नानेफर का प्ताह की पत्नी अशवर (अहूरा) की रूह जाग पड़ी। अशवर की रूह खमवास के सामने प्रकट हुई और उसने किताब छूने से मना किया।

खमवास जब नहीं माना तो अशवर ने कहा, “किताब यदि तुमने लेने की कोशिश की तो तुम भयंकर मुसीबत में फँस जाओगे, जिस तरह नानेफर का प्ताह को अपनी पत्नी तथा बेटे से हाथ धोना पड़ा।”

आगे की कहानी अशवर ने इस प्रकार बयान की -

हम पिता मरनेब का प्ताह की दो सन्तानें थीं - एक मैं और दूसरे मेरे पति नानेफर का प्ताह। हम दोनों भाई-बहिन थे। बचपन से हम एक-दूसरे को बेहद प्यार करते थे। जब हम युवावस्था में पहुँचे, पिता मरनेब का प्ताह ने हमारी शादियाँ जनरल के परिवार में करने की इच्छा प्रकट की। यह सुनकर मुझे बुरा लगा। मैंने सम्राट मरनेब का प्ताह के विश्वसनीय सलाहकार से नानेफर का प्ताह से शादी करने की इच्छा प्रकट कर दी।

सम्राट मरनेब का प्ताह सोच में डूब गये। सलाहकार ने कहा - “आप इतने चिन्तित क्यों हैं?”

“मेरी दो ही सन्तानें हैं - एक पुत्र और दूसरी पुत्री, क्या इन्हें आपस में वैवाहिक बन्धन में बाँधना उचित है? मैं नानेफर का प्ताह का विवाह जनरल की पुत्री के साथ और अशवर का विवाह, जनरल के पुत्र के साथ करने का इच्छुक हूँ। ताकि हमारा परिवार फले-फूले।” मरनेब का प्ताह ने अपनी चिन्ता प्रकट कर दी।

दूसरे दिन रात्रिभोज में मैं प्ताह के सामने जाने की इच्छुक नहीं थी। लेकिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहा-”तुम अपने भाई नानेफर का प्ताह के साथ शादी रचाओगी, यह सुनकर मुझे दुःख है।”

मैंने प्ताह से निवेदन किया-”नहीं! आप जनरल के यहाँ हमारी शादी करें। ताकि आपका परिवार फले-फूले।”

राजा चुप रहे फिर उन्होंने सलाहकार को बुलाया और आज्ञा दी कि आज रात अशवर को दुल्हन बनाकर नानेफर का प्ताह के कमरे में ले जाया जाए। और उसे बहुमूल्य उपहारों से नवाजा जाए।

उस रात मुझे दुल्हन के वेश में नानेफर का प्ताह के पास ले जाया गया। परिवार के लोगों ने हमें कीमती सोने-चाँदी और हीरे-जवाहरात के परिधानों से अलंकृत किया। उस रात मैं और नानेफर का प्ताह एक ही कमरे में रहे। जितना हो सकता था - हमने एक-दूसरे को प्यार किया।

जब मेरे प्रमाणीकरण का वक्त आया तो नानेफर का प्ताह ने खुद यह सूचना प्रसारित कर दी कि हम खुश हैं। इस शुभ सूचना से सम्राट ने हमारे लिए बेशकीमती वस्तुओं का खजाना खोल दिया और गरीबों को धन लुटाया।

इसके बाद सम्राट ने हमें पूजा के लिए मन्दिर भेजा। युवराज नानेफर का प्ताह मन्दिर में दीवारों पर खुदी आयतें पढ़ने लगे तो मन्दिर का बूढ़ा पुजारी हँसा। युवराज ने उसके हँसने का कारण पूछा। बूढ़ा पुजारी बोला - “आपको इन आयतों के पढ़ने से क्या फायदा। यदि आप सचमुच कुछ पढ़ना चाहते हैं तो वह जादुई किताब पढ़ो, जिसके पाते ही पृथ्वी-आकाश सब बस हो जाते हैं।”

“वह जादुई किताब कहाँ है?” युवराज ने पूछा।

पुजारी ने निवेदनपूर्वक कहा - “आपको इस काम के बदले चाँदी की सौ गिन्नियाँ देनी होंगी और दक्षिणा में दो कररहित-जीवन वृत्तियाँ देना स्वीकार करना पड़ेगा।”

युवराज मान गया और उसने पुजारी को मनोवांछित धन से मालामाल कर दिया।

पुजारी ने उस जादुई किताब के बारे में विस्तार से बताया - “कैप्टोज के पास एक बड़ी नदी है। जिसके अथाह जल के नीचे एक लौह-सन्दूक रखा हुआ है। जिसके चारों ओर जल-जीवधारी लगातार पहरा देते हैं। और फिर एक विशाल सर्प उसे अपने गुंजलक में समेटे रहता है। करीब छः मील की परिधि में विषैले सर्पों का डेरा है। लोहे के उस बक्से के अन्दर ताँबई रंग का मजबूत बक्स है। ताँबई बक्से में हाथी दाँत से मढ़ा आबनूस का एक छोटा सन्दूक है और उसके अन्दर चाँदी का बक्स मौजूद है। चाँदी के बक्स के अन्दर रखे सोने के बक्स में मौजूद है, वह जादुई किताब!”

युवराज नानेफर का प्ताह घर वापस हुए और उन्होंने उस जादुई किताब का जिक्र किया। सम्राट मरनेब का प्ताह ने पूछा कि तुम अपना मन्तव्य प्रकट करो। इस पर युवराज ने अपने निश्चय को दुहराया - “मैं हर परिस्थिति में उस किताब को पाना चाहता हूँ। इसके लिए अपना बेड़ा और कुछ कुशल मल्लाह देकर मेरी मदद कीजिए।”

सम्राट ने फौरन युवराज की इच्छा के मुताबिक ‘जल-यात्रा’ के सारे प्रबन्ध कर दिये।

सबसे पहले हम कैप्टोज के निकट आइसिस द्वीप पहुँचे। आइसिस द्वीप के पुजारियों ने हमारा स्वागत किया और हमारे रहने-खाने की उत्तम व्यवस्था की। तीन-चार दिन हम पुजारियों और उनकी पत्नियों की आवभगत में रहे। पाँचवें दिन हमने कैप्टोज के लिए कूच किया।

रात-दिन की यात्रा के बाद हम विशाल सागर-सी नदी के बीचों-बीच पहुँच गये। हमें बेड़े में छोड़कर-नानेफर का प्ताह अकेले उस गहरी जल-सतह पर उतर गये। अन्दर पहुँचकर युवराज को विषैले सर्पों से जूझना पड़ा। बाधा पार करते हुए बक्से के नजदीक पहुँचे। उन्होंने देखा कि बक्सा एक अजदहे की गिरफ्त में है। राजा ने तलवार से उसका सिर, धड़ से अलग कर दिया। मगर सिर अलग होते ही फिर जुड़ गया। यह दो-चार बार हुआ। युवराज ने युक्ति से पाँचवीं बार उसके सिर को नीचे रेत में गाड़ दिया। और वह सर्प मर गया। उन्होंने वह सन्दूक पा लिया। सन्दूक से वह जादुई किताब निकाली और ऊपर आ गये।

‘मैंने’ - अशवर ने कहा - उस किताब को युवराज के हाथ से छीना और पढ़ने लगी। उसका एक मन्त्र पढ़ते ही मेरे सामने आसमान खुल गया। धरती, पहाड़, नदी, झरने फैल गये। असंख्य पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा। मैंने जब दूसरा मन्त्र पढ़ा तो आसमान और जमीन के क्षितिज से चाँद निकलता दिखाई दिया। आकाश के असंख्य तारे भी नजर आने लगे। मुझे समुद्र में वह मछली भी दिखाई दी - जिस पर कई घन फुट पानी उछल रहा था। फिर धीरे-धीरे वह अद्भुत आसमान, झरने, पहाड़, नदियाँ गायब हो गयीं। मैंने जब इस दृश्य का वर्णन किया तो नानेफर का प्ताह खुशी से झूम उठे। लेकिन उनकी यह खुशी ज्यादा देर तक न टिक सकी।

हम आइसिस द्वीप लौटे।

भगवान थोट ने जब यह सुना कि नानेफर का प्ताह उनकी किताब कैप्टोज के उस गुह्य-तल से उठा लाया है तो उसने तमाम दैवी शक्तियों को हमारे खिलाफ उद्दीप्त कर दिया। उन दैवी-शक्तियों ने हमारे बेटे मेरिब की जान ले ली। मेरिब बेड़े से निकला और पानी में गिर गया। किसी तरह नानेफर का प्ताह ने उसकी लाश को पाने में सफलता हासिल कर ली। आगे चले तो नानेफर का प्ताह पानी में डूब गये। फिर मेरे जिन्दा रहने की कोई उम्मीद नहीं थी।

सम्राट मरनेब का प्ताह ने जब यह समाचार सुना तो दुःख से पागल हो गये। उन्होंने अपने बेटे नानेफर का प्ताह की लाश हासिल कर इस मकबरे में दफन किया। और जादुई-किताब को भी यहाँ रखा। जिसे तुम पाना चाहते हो।

मगर खमवास सेतना ने यह कहानी सुनकर भी परवाह नहीं की। उसने कहा-वह इस किताब को हासिल करके रहेंगे। जब वह नहीं माना तो नानेफर का प्ताह की रूह भी जिन्दा हो उठी। और खमवास के सामने एक शर्त रखी - यदि तुम चौबीस कड़ियों के खेल में मुझे हरा दो तो यह किताब ले जा सकते हो।

खमवास तैयार हो गया। दोनों की बाजी बिछ गयी। नानेफर का प्ताह ने पहला गेम जीत लिया। उन्होंने खमवास को जमीन पर घुटने के बल बैठने के लिए कहा। खमवास बैठ गया। बैठते ही उसके घुटने जमीन में धँस गये। दूसरा गेम भी नानेफर का प्ताह ने खमवास को हरा दिया। और खमवास का धड़ जमीन में धँस गया। तीसरे और अन्तिम गेम में खमवास को जमीन में बिला जाना था लेकिन उसके भाई इनारोज ने उसे बचा लिया। इनारोज ने बड़ी चालाकी से जादुई किताब को हासिल कर खमवास सेतना को बाहर निकाला और मकबरे से निकल आये। खमवास सेतना उस किताब को पाकर बहुत खुश हुआ। उसके अधीन अब आसमान था और धरती भी। परन्तु इस किताब को पाने के बाद खमवास सेतना पर जो मुसीबत के बादल टूटे - उसकी कहानी अलग है। उसकी सारी सन्तानें मर गयीं। खमवास जब बहुत व्याकुल हुआ तो उसने भगवान थोट को याद किया। भगवान थोट ने कहा - उस जादुई किताब का सच्चा अधिकारी नानेफर का प्ताह ही है - इसलिए उसे वहीं पहुँचा दो। खमवास ने वैसा ही किया। उसके सर पर मँडराते मुसीबत के बादलों के साये हट गये। उसने अपना सारा जीवन प्राचीन चीजों के संग्रह करने में ही व्यतीत कर दिया।

खमवास सेतना जीवित नहीं है लेकिन उसके द्वारा इकट्ठी की गयी प्राचीन चीजें अब भी मौजूद हैं -ऐसा लोगों का कहना है।

ग्रीस (यूनान)