Abhimanyu lad raha hai (Yudhdh kathayen) in Hindi Adventure Stories by MB (Official) books and stories PDF | अभिमन्यु लड़ रहा है (युद्धकथाएं)

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अभिमन्यु लड़ रहा है (युद्धकथाएं)

अभिमन्यु लड़ रहा है (युद्धकथाएं)

अभिमन्यु लड़ रहा है।1

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अभिमन्यु लड़ रहा है।

कविता वर्मा

रात का सन्नाटा अपने चरम पर था। गली भी दूधिया रोशनी में ऊँघ रही थी। अपने इलाके की लड़ाई लड़ते कुत्ते अब थक कर किसी ओटले की ओट में गुड़ीमुड़ी एक दूसरे से सटे एक दूसरे को गर्मी पहुँचाने की कोशिश करते नींद की आगोश में पहुँच चुके थे। हर घर के दरवाजे खिड़की पूरब की तीखी ठंडी हवा की तीक्ष्ण मार से बचने के लिए कस कर बंद थे। हर घर रजाई कम्बल गोदड़ी की गर्माहट में डूबा हलके भारी खर्राटों से गूँज रहा था। उस रात गजब की ठण्ड थी। ठण्ड ने सुबह से ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे। सूरज ने भी उससे साँठ गाँठ कर उसका साथ दिया था। सुबह देर से उसने अपनी गर्माहट बिखेरी तो शाम को जल्दी ही उसे समेट कर चल दिया। घरों में अँधेरा भरने के पहले ही अँगीठी अलाव जल गए थे लेकिन वे भी कब तक इस ठिठुरन से लड़ते सब सिर पटक कर लस्त पड़े थे।

ऐसी सर्दी में पैर उठाकर रजाई अलग फेंकते और हाथों को रजाई से बाहर निकालते उसने गुड़ीमुड़ी शरीर को सीधा कर पीठ बिस्तर पर फैलाई। कमरे की ठंडी हवा शरीर की गर्माहट महसूस कर उसकी तरफ लपकी तो एक ठंडी लेकिन सुकून भरी सिहरन उस उनींदे शरीर में दौड़ गई। वह कसमसा सी गई। रजाई के अलावा शरीर से उपजी गर्मी ने उसकी गर्दन वक्ष पेडू को पसीने से भिगो दिया था। प्यास से उसका मुँह ही नहीं गला भी सूख रहा था। एक सनसनाहट सी पूरे शरीर में दौड़ती उसकी रीढ़ को कंपकंपा रही थी। उसने रजाई से बाहर निकले एक पैर के पंजे को रजाई के अंदर पड़े दूसरे पंजे पर बैचेनी से ऊपर से नीचे रगड़ा मानों उस सनसनाहट को ऊँगलियों के पोरों से होते हुए शरीर के बाहर निकाल रही हो। लेकिन वह बाहर निकलने के बजाय दूसरे पंजे में प्रवाहित हो तीव्र गति से पिंडलियों जांघों से होती उस तप्त गुहा में समाकर उसे और बैचेन कर गई। अनायास नींद में उसका हाथ वहाँ पहुँचा उँगलियां भींच गईं जैसे उस सनसनाहट और बैचेनी को थाम लेंगीं। उसने अकबका कर आँखें खोलीं। कमरे में लगा नीला बल्ब उसे यथास्थिति दिखाने में सक्षम था। उसने बाईं ओर करवट बदली। ठन्डे खाली बिस्तर पर हाथ फेरते वह बेबसी के एहसास में डूब गई। दो बूँद आँसू बाईं और से उठाकर तप्त सीने से लगाए ठन्डे तकिये में जज्ब हो गये। उसने खाली ठन्डे बिस्तर पर हाथ फेर बिस्तर की ठंडक से इस जलन को शांत करने की कोशिश की।

अभी दो दिन पहले तक इस बिस्तर के बाईं तरफ करवट लेकर वह सुकून की सरगोशियों में डूब जाती थी। दो मजबूत बाँहों के बंधन और चौड़े सीने के सहारे इस तूफ़ान से पार पा जाती थी। उसके शरीर के कटाव और गोलाइयों पर सरसराती उँगलियाँ , तप्त होंठों की फड़कन को दबाते होंठ , कसमसाते बदन को मजबूत जकड़न से रोकते मजबूत बाँहों और पैरों के बंधन। वह संतृप्त हो नींद के आगोश में समा जाती। आज बाईं ओर का वहखाली बिस्तर उसके अंदर की तड़प को बेबसी में बदल रहा है।

पंद्रह दिन पहले ही तो वह ब्याह कर इस घर में आई थी। उस रात दरवाजा बंद होने की आवाज़ के साथ उसने सिर उठा कर मजबूत कद काठी के अभिमन्यु को अपने समक्ष खड़े देखा था। उसके शेरवानी उतारने के बाद उसके चौड़े सीने और बाँहों में फड़कती मछलियों को देखकर तो जैसे वह पलक झपकना ही भूल गई थी। अभिमन्यु की शरारती आँखों से नज़रें मिलते ही वह लाज से खुद में सिमट गई थी।

शुरूआती आठ दिन सोने से और रात चाँदी सी ही गुजरी लेकिन उसके बाद हर रात पर विरह की काली छाया बढ़ती गई। एक दूसरे में खोकर वे दोनों इस छाया से बचने की कोशिश जरूर करते लेकिन मौका मिलते ही वह पहले से और विशाल रूप में दोनों के बीच आ खड़ी होती। फौज में सूबेदार अभिमन्यु को छुट्टी ख़त्म होते ही जाना था। एक दो दिन और रुक जाने की उसकी मार्मिक गुहार भी उस फौजी के अनुशासन को डिगा ना सकी। अभिमन्यु के लिए तो जाना मुश्किल था ही सावी की ललक का अंदाजा हो जाने के बाद वह और ज्यादा कष्टकारी हो गया था। आधी रात में उसे जगा देने वाली सावी अकेले कैसे रहेगी यह बात अभिमन्यु को भी परेशान कर रही थी। उसके ना रहने पर शायद सावी की ललक खुद ब खुद कम हो जाये यही सोच कर वह दिल को तसल्ली देता रहा।

चारों ओर भयावह सन्नाटा था। दूर दूर तक फैली बर्फ की चादर गहरे काले आसमान में छिटके पड़े तारों की रौशनी में भी भरपूर चमक रही थी। सीमा से कुछ ही मीटर अंदर उस सर्द कठोर जमीन पर घासफूस और बर्फ हटा कर अपनी मशीनगन की दूरबीन पर आँख गड़ाए कुहनी और सीने के बल लेटे जवान उस पार होने वाली हलचल के प्रति सतर्क थे। दूर दूर तक नीरव निस्तब्धता एक डरावना मंजर पैदा कर रही थी। अभिमन्यु और उसके साथियों के लिए तो यह रोज़ की बात थी। वीराने में कर्तव्य को गर्मजोशी से ओढ़े ये जवान हर रात गुजार देते थे। ऐसे में अपने शरीर की किसी और जरूरत का उन्हें भान ही कहाँ रहता था ? थक कर चूर अभिमन्यु सुबह ड्यूटी से फारिग होकर जब अपने बैरक में पहुँचता तब सावी की याद उसे घेर लेती। बैरक में सभी अकेले थे इसलिए सभी एक दूसरे के साथ थे। आपस के हँसी मजाक चुटकुले किसी की याद को किसी के साथ रहने ही कहाँ देते थे। उनकी बातों पर हँसता मुस्कुराता अभिमन्यु दिल की उदासी को पलकों में छुपाकर सो जाता।

"काका जी प्रमाण , कैसी हो काकी प्रमाण। " विनय की आवाज़ सुन उदासी में डूबे घर में झनझनाहट सी हुई। चार दिन मेहमानों और शादी की रौनक और दस दिन अभिमन्यु के रहने से नई दुल्हन की रुनक झुनक अभिमन्यु के जाते ही सन्नाटे में बदल गई थी।

"आओ बेटा बड़े दिनों बाद रास्ता भूले ," काकी ने लाड से उलाहना दिया। अभिमन्यु के बचपन का दोस्त है विनय बचपन से जवानी तक उसके कितने ही दिन शामें रातें इसी घर में गुजरती थीं। अभिमन्यु के फौज में भर्ती होने के बाद वही काका काकी का सहारा था। वक्त जरूरत हारी बीमारी से लेकर शादी की तैयारियों तक कोई काम विनय के बिना होता ही कहाँ था ? वही विनय अभिमन्यु के ड्यूटी पर लौटने के पंद्रह दिनों बाद आज आया है।

" काकी शहर में मौसी की तबियत ठीक नहीं थी तो उनके पास चला गया था। "

"अरे " अब ठीक हैं मौसी से शुरू हुई बातें घर परिवार गाँव शहर काम धंधे से लेकर कहाँ कहाँ तक चली जातीं अगर रुनझुन पायल की झंकार ने उन्हें रोक ना लिया होता। चाय पानी की ट्रे तिपाई पर रखकर सावी पलटी ही थी कि "कैसी हो भौजी ?" की आवाज़ ने उसे रोक लिया। "लगता है हमें पहचान नहीं रहीं हैं आप। " विनय ने हलके से परिहास से रुक कर जवाब देने को मानों मजबूर कर दिया।

"पहचानेंगे कैसे नहीं बिलकुल पहचानते हैं? इस परिहास ने सावी को भी बोलने का हौसला दिया। महीने भर की ब्याही बहू शादी के बाद पहली बार किसी गैर मर्द से बात करने में संकोच तो करेगी ही। अकेलेपन से जूझती सावी को किसी से बतिया लेने की उत्कंठा ने भी बल दिया। बात करते विनय ने एक भरपूर दृष्टी सावी पर डाली। माथे तक खिंचे घूँघट की ओट में आधे छुपे चेहरे की उदासी और आँखों का सूनापन उससे छुप ना पाये। सावी भी शायद भाँप गई कि उसकी दशा पढ़ ली गई है वह हड़बड़ाकर पलटी तो विनय ने अचकचा कर अपनी नज़रें हटा कर ट्रे में रखा पानी का गिलास उठा लिया और एक साँस में पी गया।

उस रात सीमा पार से हुई फायरिंग ने अभिमन्यु के बगल में तैनात सैनिक को बुरी तरह घायल कर दिया। एक हताशा सी तारी होने लगी थी अभिमन्यु पर जब वह उसे अधलेटे ही घसीट कर ढलान पर ले गया। अचानक सावी का चेहरा कौंधा था उसके जेहन में। अगर इसकी जगह वह होता तो ? उस शाम उसने सावी से बात की तो वह भावुक हो गया। अभी तो वह छुट्टियों से लौटा है अगले छह महीने तो अभी छुट्टी भी नहीं मिलने वाली। उसे ही सावी के बिना नहीं रहना सावी को भी उसके बिना रहना है , कैसे रहेगी वह अभिमन्यु सोचने लगा। सावी की उसके लिए वह तड़प वह ललक याद करके दिल के एक कोने में खुद के लिए गर्व होता है तो दूसरी तरफ वह सोच में पड़ जाता है। वह कुछ कहता नहीं है क्या कहे ? कुछ कहकर दोनों की ही उदासी और अकेलेपन को कुरेदना ही तो है।

सावी ने अब घर की माँ पिताजी की सारी जिम्मेदारियाँ संभाल ली हैं। सौदा सुलुफ लाने से लेकर घर बाहर के हर छोटे बड़े काम वह करती है बहू है घर की। बुढ़ापे के कारण पिताजी और गठिया के दर्द में जकड़ी माँ चलने फिरने से वैसे भी लाचार हैं। आजकल तो सावी मंदिर भी जाने लगी है साथ ही जानपहचान रिश्तेदारी में मिलने जुलने भी है। अच्छा है सबसे मिलते जुलते मन लगा रहता है बहू का माँ पिताजी यही सोच कर संतुष्ट हैं।

पिछले पाँच दिनों से फायरिंग चल रही है। अभिमन्यु के तीन साथी मारे जा चुके हैं। हर साथी को ताबुत में उतारते उसका दिल डूब जाता है। कभी कभी वह वहीँ खड़े एकटक अपने साथियों की निष्प्राण देह को ताकता रहता है। कभी कभी उसे उस देह पर अपना चेहरा नज़र आता है तो कभी सावी का आँसुओं से भीगा चेहरा। अजीब सी मनस्थिति है उसकी। अपने कर्तव्य के प्रति तो सजग है लेकिन दिमाग में भारी उथल पुथल चल रही है। साथियों का शोक मोर्टार के धमाके सा दिमाग की व्यवस्थित भावनाओं को तहस नहस कर दे रहा है।

आज उसकी बटालियन में पाँच नये रंगरूट आये हैं। सख्त ट्रेनिंग के बाद पहली बार असली युद्ध में दुश्मन के आमने सामने आने से रोमांचित हैं। उनके जोश को संभालना बेहद जरूरी है कहीं कोई गड़बड़ ना कर दें स्थिति बहुत तनावपूर्ण है। अभिमन्यु उन्हें जरूरी दिशा निर्देश दे रहा है लिस्ट में अपने गाँव का नाम देख कर अभिमन्यु चौंक गया। "बुलाकीराम " वह आवाज़ लगाता है।

"यस सर की आवाज़ की तरफ नज़र घूमते उसने इस जवान को ध्यान से देखा। एक छोटे से कसबे के वासी जल्दी ही परिचय जान पहचान के कुछ सूत्र जोड़ कर एक दूसरे के आत्मीय बन गए।

रातों की लम्बाई घट चली है साथ ही ठंडी रातों में कुछ गुनगुनाहट घुलने लगी है। आधी रात में ऊँघती सड़कें अब देर रात या पौ फटने के पहले तक कुत्तों के अधिकार क्षेत्र की लड़ाई का मैदान बनी रहती हैं। कमरे में नीला बल्ब जल रहा है। नींद में उसने पैर से रजाई को एक तरफ फेंक दिया। ठंडी हवा ने उसके तप्त शरीर को हौले से छुआ तो उसने सुकून से गुड़ीमुड़ी शरीर को सीधा कर पीठ बिस्तर पर फैलाई।बाई ओर का बिस्तर खाली है उसने नींद में ही उसपर हाथ फेर अपने शरीर की तपन को कम करने की कोशिश की। चार महीने हो गए हैं अभिमन्यु को गये। वह हफ्ते में एक बार फोन करता है। सावी ठुनक कर उसे याद करती है। शुरू शुरू में तो उसके बिना बैचेन रातों की बात करते करते रो देती थी। बेबस अभिमन्यु किसी तरह उसे समझाता और कितनी मुश्किल से खुद संभलता यह सावी कहाँ जान पाती थी।

आजकल उनकी बातों में स्थिरता आ गई है। सीमा पर गोलीबारी की ख़बरों से सावी दहल जाती है। वह माँ पिताजी उनकी बीमारी दवा डॉक्टर खर्च की बातें करती है। अभिमन्यु सुकून की साँस लेता है सावी समझदारी से उसकी और खुद की जिम्मेदारी संभाल रही है। सावी ने उसे बताया है कि आजकल वह मंदिर भी जाने लगी है वहाँ उसे बड़ी शांति मिलती है। भगवान के दर्शन कर बड़ी हिम्मत मिलती है और वह अकेले सब संभाल पाती है। कभी कभी जब मन बहुत विचलित होता है वह देर तक मंदिर में बैठी रहती है। अभिमन्यु सुनकर सुकून महसूस करता है साथ ही उसे ध्यान से रहने और खुद का ख्याल रखने के लिए भी आगाह करता है।

"सावी इतनी देर तक मंदिर में बैठना ठीक नहीं है बेटा जमाना खराब है। लोगों की कुदृष्टि बहू बेटियों पर रहती है। सूरज ढलने के पहले घर आ जाया करो। " माँ चिंतातुर लाड़ से सावी से कहतीं।

" जी माँजी जाने कैसे आज मन रम गया उठते ही नहीं बना अब से ध्यान रखूँगी।" धीमे से कहकर सावी रसोई में चली गई। उसका रोम रोम प्रफुल्लित है तन मन बेहद हल्का है वह मंद स्वर में गुनगुना रही है उसका रोम रोम गुनगुना रहा है। सावी खाना बना रही है पिताजी जल्दी खाना खाते हैं उसके बाद उनकी दवाई का समय हो जाता है।

अभिमन्यु और बुलाकीराम में स्नेह सूत्र मजबूत हो रहा है। ड्यूटी के बाद का समय वे साथ साथ बोलते बतियाते बिताते हैं। माँ की बीमारी की खबर मिलते ही बुलाकीराम ने छुट्टी की अर्जी दी है। कुछ दिनों से सीमा पर शांति है इसलिए स्पेशल केस में उसे हफ्ते भर की छुट्टी मिल गई है। अभिमन्यु ने उससे विशेष अनुरोध किया है कि वह घर जाते हुए थोड़े से सेब और दो शॉल ले जाये।

अभिमन्यु की ड्यूटी बदल गई है। सीमा पर बर्फ पिघल रही है बसंती बयार तन मन में पुलक भरने लगी है। देर रात तक अभिमन्यु सावी का फोटो लिए उससे बातें करता रहता है। उसकी बलिष्ठ बाहों में दुबकी छुईमुई सी सावी उससे लिपटी उत्तेजना से काँपती सावी , आधी रात में नींद खुल जाने पर उसे कौतुक से ताकती सावी। अभिमन्यु पागल हो जाता है ख्यालों में उसे बाँहों भर कर उसके चेहरे माथे बालों पर चुम्बनों की झड़ी लगा देता है। उसके अकेलेपन के लिए खुद को जिम्मेदार मान कर सावी से माफ़ी माँगता है। "मुझे माफ़ कर दो सावी मुझे तुम्हें अकेले छोड़ कर आना पड़ा। " वह बुलाकीराम के वापस आने की राह देख रहा है। उसने उसे ख़ास ताकीद दी है सावी कैसी है ठीक से देखे समझे उससे बात करे। उसकी हँसी को परखे कहीं माँ पिताजी की ख़ुशी के लिए नकली हँसी तो नहीं ओढ़ रखी है।

बुलाकीराम वापस आ गया है। बुलाकी घर गया था सबसे मिलकर आया है। माँ ने देशी घी में बने आटे लड्डू भेजे हैं। नमकपारे चूड़ा सत्तू भी भेजा है। अभिमन्यु सावी के हालचाल जानने को उत्सुक है उसके साथी घर से आये खाने पीने के सामान पर टूट पड़े हैं लेकिन उसे उसकी रत्ती भर भी चिंता नहीं है।

"बुलाकी तुम्हारी माँ कैसी हैं अब ?" अचानक अभिमन्यु को याद आता है।

" अब ठीक हैं मुझे देखकर ज्यादा अच्छी हो गई हैं। " बुलाकी अभिमन्यु का इशारा समझता है। उसे अभिमन्यु को बहुत कुछ बताना है गाँव की खबरें कम नहीं होतीं।

आज फिर तारों भरी रात है अभिमन्यु और बुलाकी बंद गले की जैकेट पहने तारों की छाँव में बैठे हैं। बर्फ पिघलने से जहाँ तहाँ घास उग आई है लेकिन उसकी हरियाली रात की कालिमा को सोख कर उसे और गहरा बना रही है जिससे तारों की रौशनी दूर तक दिखाने में असमर्थ है। दोनों पास पास बैठे हैं लेकिन एक दूसरे के चेहरे बहुत साफ़ नहीं देख पा रहे हैं।

"सावी से मिले थे बात की उससे ?" अभिमन्यु बैचेन है जानने को। यह की वह ठीक है और यह भी कि वह उसकी याद में दुखी है उदास है।

बुलाकी बहुत देर से चुप है। वह अभिमन्यु को देखता है उसका चेहरा साफ़ नहीं दिखता। वह भी अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लेता है। अभिमन्यु को उसकी चुप्पी खल रही है। वह यह तो जानता है कि बुलाकी घर हो आया है सबसे मिल आया है। सावी से भी मिला है।

जोरदार धमाके की आवाज़ से अफरातफरी मच गई है। बैरक में सायरन गूँज रहा है जो तुरंत तैयार होकर मोर्चा सँभालने का संकेत है। आधी नींद से उठे सैनिक ताबड़तोड़ वर्दी में समाते जा रहे हैं। बूटों की आवाज़ गूँज रही है। अपने हथियार थामे सभी मुस्तैदी से आदेश सुन रहे हैं। दुश्मन देश के सिपाही सीमा में घुस आये हैं उन्होंने सैन्य अड्डे को अपना निशाना बनाया है। अभिमन्यु भी यंत्रवत तैयार होकर आदेश सुन रहा है। उसे अपने साथियों को लेकर अड्डे में दुश्मनों का सफाया करना है। घर में घुस आये दुश्मन को ढूँढना मुश्किल काम है। वे उन्हीं के जैसे भेष में होंगे सतर्क रहना होगा कहीं अपने लोगों पर ही हमला ना हो जाये। वह पूछना चाहता है अगर हमला अपनों ने ही किया हो तो क्या करे ?

धमाके अभी भी हो रहे हैं अभिमन्यु के दिलदिमाग में। खबर तो गाँव से मिली सावी और विनय की। हमला तो बेहद अपने ने किया क्या करे ? अपनों को दुश्मन भेष में देख धराशयी कर दे या खुद को काबू में रख उसे सफाई देने का मौका दे। सीमा पर चल रही जंग लडे या खुद के भीतर चल रहे युद्ध का सामना करे। अभिमन्यु हथियार उठाकर चल पड़ा है सामना करने।

***

एक अमूल्य हीरा- ओडोना

सोनिया गुप्ता

विश्व में अनेकों युद्ध लड़े गये, जिनका अंत भयानक ही रहा, कईं योद्धा शहीद हुए, कईं घायल हुए और कईं अपने परिवारों से बिछड़ गये ! पर इन्हीं युद्धों के दौरान कईं कहानियाँ और बनी, और पनपी, जिन्होनें या तो प्रेम का रूप लिया या कोई सीख दी, जो आज तक सभी याद करते हैं ! इस कहानी में एक ऐसे योद्धा का ज़िक्र है, जो कि दूसरे विश्व युद्ध में लड़ते हुए बच तो गया पर अपने देश की खातिर वो बाद में भी कईं वर्षों तक लड़ता रहा !

जापान का रहने वाला ‘हीरो ओनोडा’, जो कि जापान की ही एक कंपनी में काम करता था ! उसको आर्मी में भर्ती होने का शुरू से ही शोंक था, २० वर्ष की आयु में ही उसको सेना में भर्ती होने का प्रस्ताव मिला, और वह अपना सब काम,घर बार छोड़कर तुरंत वहाँ अपने देश की सेवा के लिए चल पड़ा ! वहाँ उसकी काबिलियत की बड़ी प्रशंशा हुई और उसको एक खास ट्रेनिंग के लिए चुना गया, जिसमें उसको गुर्रिला प्रशिक्षण सिखाया गया ! उस प्रशिक्ष्ण का उदेश्य योद्धाओं को यह सिखाना था की, विषम परिस्थितियों में किस तरह दुश्मनों का सामना किया जाता है और किस तरह गुप्त रहकर दुश्मन की सारी जानकारी हासिल की जाती है,तथा कैसे दुश्मन के होश उड़ाए जा सकते हैं ! १९४४ में दिसम्बर माह में उसको फिलिपीन के लुबांग द्वीप पर तैनात किया गया ! उसको यह बोला गया कि वह कार्य काफ़ी सख्त है,और उसको बहुत संघर्ष करना पड़ेगा,हो सकता है उसको कईं दिन तक भोजन भी नहीं प्राप्त हो, खाली नारियल ही मिले खाने को ! और उसको यह वादा दिलाया कि मिशन खत्म होने पर उसको सही सलामत वहाँ से ले आएँगे ! ओनोडा को एक टापू में छोड़ दिया गया और वह तभी से अपने मिशन पर जुट गया, उसने वहाँ मौजूद जापानी सैनिकों से सम्पर्क किया और वहाँ की सारी जानकारी हासिल की !

कुछ सप्ताह बीते, ओनोडा और उसके साथियों पर दुश्मनों ने आक्रमण कर दिया, जिसमें कईं योद्धा घायल हुए,पर कईं मर भी गये ! दुश्मनों ने सभी टुकड़ियों का पता लगा लिया, सिवाय ओनोडा और उसके दो तीन साथियों की टुकड़ी का पता कोई नहीं लगा सका ! कईं दिन तक उनको भूखा प्यासा रहना पड़ा, और कभी कभी तो गाँव वालों को डराकर वो खाने का इंतजाम करते थे !

करीब एक साल बाद यानि की १९४५ में, उसी गाँव के लोगों ने ओडोना और उसके मित्रों की टुकड़ी को यह खबर पहुंचाई कि किसी ने उनको यह बताया है, कि विश्वयुद्ध तो कभी का समाप्त हो चूका है, और उसमें जापान की हार हो गयी है,जापान ने अपने हथियार फैंक दिए हैं और खुद को आत्मसमर्पित कर दिया है ! परन्तु, ओडोना बहुत ही शातिर दिमाग का योद्धा था, वह समझ गया था कि यह केवल दुश्मनों की चाल मात्र है ! उसने अपनी टीम वालों को आश्वाशन दिलाया कि ये सब गाँव वाले मिलकर उनको गाँव से निकालना चाहते हैं, पर हम इनको कामयाब नहीं होने देंगे और अपनी जंग जारी रखी ! ओनोडा और उसके साथी गाँव वालों को मारने भी लग गये, और छिपकर जंगल में रहते रहे! एक दिन गाँव वालों ने तंग आकर अपनी सरकार से उनकी शिकायत कर दी, और अपनी सुरक्षा की मांग की ! कुछ दिन बाद वहाँ की सरकार ने पूरे जंगल पर आक्रमण कर दिया और पन्ने फिकवा दिए जिनपर लिखा था,कि युद्ध समाप्त हो चूका है, और परमाणु बम्ब भी तुम्हारे देश पर अमेरिका गिरा चूका है,अब वे खुद को समर्पित कर दें,छिपकर रहने का कोई मतलब नहीं बनता ! परन्तु, ओनोडा और उसके साथी is बात पर अभी भी भरोसा नहीं करते थे ! उन्होंने उनकी बात नहीं मानी,और वहीँ छिपे रहे ! वे यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उनका देश ऐसे हार मान सकता है,उन्हें भरोसा था कि एक दिन उनको रिहा कराने उनकी सर्कार अवश्य आएगी !

जब वहाँ की सरकार ने देखा कि ओनोडा और उसके साथियों पर तो कोई असर ही नहीं पड़ रहा, तो माइक लेकर घोषणाएं की गयी, धमकी दी गयी, यहाँ तक कि जापानी अख़बार में भी सुर्खियाँ छपवाई गयी और उनके पर्चे भी जंगल में फैंके गये ! परन्तु ये जाबांज अपनी देशभक्ति में इतने परिपूर्ण थे कि उनको यकीन ही नहीं होता था !

यह सिलसिला कईं वर्षों तक ऐसे ही चलता रहा, ओनोडा और उसके साथी जंगल में छिपे रहे, और उन्होंने देखा कि अब वर्दी पहने सरकारी लोग आस पास कम नजर आते थे, और ज्यादा गोलाबारी भी नहीं होती थी, परन्तु ओनोडा दुश्मन को कमजोर नहीं समझता था, उसने अपने साथियों को कहा कि संकट अभी भी टला नहीं है, हो सकता है, सरकारी लोग आम वेश भूषा में गाँव में घूम रहें हों,हमें चकमा देने को ,ये सब दुश्मन की चाल है !

इसी तरह ये सब छिपकर ५ वर्ष तक और वहीँ रहते रहे ! परन्तु, उनमें से उनके एक साथी ने उनको धोखा दिया और खुद को जाकर आत्मसमर्पित कर दिया, बिना अपने साथियों को बताये ! जब यह बात ओनोडा और उसके दोस्तों को पता चली तो उन्होंने अपनी जगह और अपनी योजना दोनों को बदल लिया !

योद्धा लड़ते रहे और करते करते अगले ५ वर्ष और बीत गये ! उसके कुछ ही समय बाद उनमें से एक साथी मारा गया, और अब वे केवल दो ही शेष रह गये ! परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी, और अगले १७ वर्ष तक वहाँ तैनात रहकर दुश्मनों की ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करते रहे, उनको अपने देश पर इतना भरोसा था कि उनका देश ऐसे हार नहीं मान सकता, उनको यकीन था कि विश्वयुद्ध अभी भी जारी है! जबकि कईं बार ओनोडा का साथी विचलित हो जाता था और उससे कह देता था कि चल हम भी खुद को आत्मसमर्पित कर देते हैं, पर ओनोडा कहता कि उसको यहाँ भेजा ही इसी शर्त पर गया था कि वह हर हाल में अपने देश के लिए अंतिम क्षण तक जीवित रहेगा ! ओनोडा इसी विश्वास के भरोसे जिन्दा रहा !

अगले २७ वर्ष बीत गये, वहाँ की सरकार ने गोलाबारी के दौरान ओनोडा के साथी को भी मार दिया, अब ओनोडा अकेला ही रह गया था ! जब यह खबर जापान की सरकार तक पहुंची, तो उनको यकीन था कि ओनोडा अवश्य जीवित होगा ! उन्होंने अपना एक गुप्त जहाज़ फिलिपीन के उसी टापू मे भेजा जहाँ ओनोडा तैनात था, परन्तु,जैसा की यह योद्धा छिपने में माहरत हासिल कर चुका था,उसकी खुद की देश की सरकार भी उसको खोजने में नाकामयाब रही और बिना उसको ढूंढें ही जापान लौट आई !

इसके दो वर्ष बाद घटना में एक मोड़ आया, दो वर्ष बाद एक जापानी नवयुवक ‘सुजुकी’ जो कि एक विद्यार्थी था, उसने एक योजना बनाई और एक प्रण लिया, कि वह विश्व दौरा करेगा और उसने इसके लिए तीन चीजों को खोजना अपना लक्ष्य बनाया ; ओनोडा, पांडा, तथा स्नोमैन !यहाँ एक अनोखा दृश्य सामने आया, इतने वर्षों से जिस ओनोडा को पूरा जापान नहीं खोज पाया, उसको इस नवयुवक ने खोज लिया ! सुजुकी उसी टापू प्रज्ञा झनोनोद को छोड़ा गया था और सुराग इक्कठे कर ओनोडा तक पहुंचा! सुजुकी ने ओनोडा को विश्वास दिलाया की युद्ध कबका समाप्त हो गया है, चलो अब घर चलो, तुम्हारे परिवार के सभी सदस्य तुम्हारी राह तक रहे हैं ! पर देशप्रेम का भक्त, ओनोडा, किसी बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था ! ओनोडा बड़ा ही काबिल योद्धा था,जिसने अकेले ही इतने वर्षों में नजाने कितने ही दुश्मनों को अपनी गोली का शिकार बनाया था,और कितने ही चालाक दिमाग से दुश्मनों के छक्के छुड़ाए ! उसने सुजुकी को बोला,मैं अपने वचन का पक्का हूँ,मुझे मेरी सरकार ने एक भरोसे पर यहाँ भेजा था,और कहा था कि युद्ध खत्म होने पर वो मुझे लेने अवश्य आएँगे, अगर वो जिंदा रहा तो !उसने सुजुकी को जाने को बोल दिया ! अंत में सुजुकी हारकर अकेला ही लौट गया और उसने जापानी सरकार को समस्त घटना के बारे में बता दिया ! सुनकर जापानी सरकार के रोंगटे खड़े हो गये,और साथ ही उनको ओनोडा पर फक्र भी महसूस हुआ !

जापानी सरकार अपने योद्धा को अब ऐसे हाल में नहीं देख सकती थी, उन्होंने उस समय के तत्कालीन रिटायर्ड कमांडो को सूचना भेजी और सैनिकों की टुकड़ी लेकर फिलिपीन पहुंचे, उसी टापू पर जहाँ,ओनोडा रहता था, जब जापानी सरकार ने सारा सच उसको बताया, ओनोडा की आँखों में आंसुओं की धारा बहने लगी, उसको यकीन नहीं हो रहा था, कि उसने अपनी जिंदगी के इतने साल एक झूठी आस में ही बिता दिए ! मन ही मन खुद को कोस रहा था यह योद्धा कि उसके हाथों जाने अनजाने ही कितने ही बेक़सूर गाँव वासियों की हत्या हो गयी, अनायास कितने ही पापों का भागीदारी बन गया वो!

खायर जैसे कैसे खुद को सम्भाला, और सैनिक की वर्दी पहने ही जंगल से बाहर निकला, निकलते ही सबसे पहले,अपनी बंदूक फिलिपीन राष्ट्रपति को सौंपी और खुद का आत्मसमर्पण करते हुए उनसे माफ़ी मांगी ! परन्तु, फिलिपीन सरकार को भी ऐसे देशप्रेमी पर नाज़ था, उन्होंने उसको बोला,कि तुमने कोई गुनाह जान बूझ कर नहीं किया है, यह उसका उसके देश के प्रति समर्पण और निस्वार्थ प्रेम था,जो वह अंत तक यही समझता रहा कि उसका देश ऐसे युद्ध में हार मान ही नहीं सकता, इसीलिए यही सोचता रहा कि युद्ध अभी भी चल रहा था शायद ! उसको पूरे सम्मान के साथ वहाँ से विदा किया गया !

जैसे ही ओनोडा जापान पहुंचा, उसका जापानी सरकार ने विशेष रूप से स्वागत किया,और उसको एक नायक की उपाधि प्रदान की,उसके कंधों पर तगमो से सुस्स्जा की गयी, सर पर टोपी डालकर,उसको बन्दूकों की सलामी दी गयी ! सरकार ने उसको अपने देश के लिए बिताये ३० वर्षों के लिए ख़ास मानदेय भी प्रदान किया ! बकायदा उसको वेतन और उसके परिवार का व्यय खर्च भी दिया !

ओनोडा अपने देशभक्ति और समर्पण से बेहद संतुष्ट था ! उसने अपनी जमा की पूँजी में से गरीबों के लिए कईं कार्य किये, और कईं अनाथ बच्चों को दान दिया ! उसने कईं नवयुवकों को अपनी सीखी हुई प्रशिक्ष्ण विद्या सिखाई, और देश के प्रति प्रेम को उजागर किया ! ओनोडा को सिर्फ एक ही चीज खटकती थी,बदला हुआ जापान, जो कि आधुनिकता के घुन में is तरह जंग लगा चुका था, कि जैसे एक शुद्धता तो अब रही ही नहीं थी वहाँ के वातावरण में ! कुछ सालों बाद वह जापान छोड़कर ब्राजील चला गया और वहाँ के एक छोटे से गाँव में रहने लगा ! वहीँ उसने शादी भी की, और अपनी जिंदगी का नया सफर शुरू किया !

१९९६ में ओनोडा उसी जगह,उसी गाँव, उसी टापू पर गया,जहाँ फिलिपीन सरकार से छिपकर वो इतने बरसों रहा, उसने वहाँ के गाँव वालों के नाम अपनी जमा पूंजी में से एक निश्चित १०००० डालर राशी का दान किया ! और वहाँ के लोगों से क्षमा याचना भी मांगी ! ओनोडा ने एक ऐसी डोकुमेंटरी भी निकाली जिसका नाम रखा “नो सरेंडर, माय ३० इयर वार” ! यह आज भी इसी नाम से प्रचलित है !

कईं वर्ष बीते,ओनोडा ने अपने जीवन में और बहुत से नेक कार्य किये ! १७ जनवरी २०१४ को ९१ वर्ष की आयु में ओनोडा का निधन हो गया ! जापान ही नहीं अपितु समस्त संसार ओनोडा के जीवन को सम्मान देता है, उनको सलाम करता है, उनके देशभक्ति भाव और समर्पण को आज तक याद किया जाता है !

आज के is बदलते दौर में ऐसे नायक मिलने तो दूर, उनका नाम तक सुनना नसीब नहीं होता !स्वार्थ से भरे इस संसार में केवल अपने ही हितों के बारे में लोग सोचते हैं और अपने देश को भूल चुके हैं ! ओनोडा की जीवन कहानी से एक सीख मिलती है, कि सच्चा योद्धा वही है जो अंतिम क्षण तक अपने देश के लिए अपने प्राणों की परवाह न किये बगैर लड़ता रहे! जिसमें देश के प्रति भक्ति भाव का जज्बा इस कद्र जागृत रहे कि कितने भी तूफान आ जाएं, कितनी भी मुश्किलें आ जाएं, पर अपने कर्तव्य को हरगिज़ नहीं छोड़ेगा !

विश्वयुद्ध शुरू हुआ, लड़ा गया, समाप्त हुआ, पर कईं ऐसी कहानियों को जन्म दे गया, जो इतिहास के पन्नों अमर होकर रह गयी हैं ! ऐसे वीरों को शत शत नमन !

इन चाँद सितारों का देखो कहना है

‘ओडोना’ सा पाया हमने गहना है

बीच नहीं है चाहे हम सबके तू ,

हमेशा दिलों में पर तूने रहना है !

***

चिनहट की लड़ाई और रेज़िडेंसी की घेराबंदी

आशीष कुमार त्रिवेदी

व्यापार करने के इरादे से भारत आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे धीरे इस देश पर अपना आधिपत्य जमाना आरंभ कर दिया। सन 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर अंग्रेज़ों ने हमारे देश पर अपने राज की शुरुआत कर दी।

उसके बाद उन्होंने भारत की अन्य रियासतों पर कब्ज़ा करना आरंभ कर दिया। मुगलों की शक्ति में धीरे धीरे ह्रास हो रहा था। इस कारण भारत के उत्तर में स्थित अवध की रियासत मुगल शासन के प्रभाव से मुक्त होकर एक संपन्न रियासत बन गई थी। कलकत्ता में स्थित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की निगाहें बहुत समय से अवध की रियासत पर जमी हुई थीं। सन 1856 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध की रियासत पर कब्ज़ा कर उसके नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर कलकत्ता भेज दिया।

वाजिद अली शाह अपनी रंगीन मिजाज़ी के कारण रंगीले पिया के नाम से मशहूर थे। उन्हें गीत संगीत का बहुत शौक था। यद्यपि वह एक दयालु और उदार शासक थे। उन्होंने अपनी रियाया की भलाई के बहुत से काम किए थे। लेकिन अंग्रेज़ों ने उन्हें एक विलासी शासक के तौर पर विख्यात कर दिया। इसका लाभ उठा कर उन्होंने अवध की रियासत पर अधिकार कर लिया।

अवध की प्रजा अंग्रेज़ों के इस फैसले से खुश नहीं थी। जनता में अंग्रेज़ों के लिए अविश्वास का भाव बढ़ रहा था। उन्हें लगता था कि अंग्रेज़ उनके धर्म और परंपराओं को समाप्त करना चाहते हैं। वह उनके पुरखों की विरासत को खत्म कर अपनी सभ्यता उन पर लादना चाहते हैं। अतः लोगों के भीतर अंग्रेज़ों के लिए गुस्सा पनपने लगा था। वजिद अली शाह ने अवध छोड़ते हुए कहा था।

''दरो दीवार पे हसरत से नजर करते हैं।

खुश रहो अहलेवतन हम तो सफर करते हैं।''

लेकिन उनकी प्रजा कंपनी के राज से खुश नहीं थी। उनके दिलों में अपने नए शासकों को लेकर बहुत अधिक असंतोष था। अवध के कंपनी राज में विलय के कारण नवाबी राज के कई अधिकारी सत्ताहीन हो गए थे। महाजनों व दुकानदारों पर भी इसकी आँच आई। उनका कारोबार चौपट होने लगा। यही नहीं नवाबी फौज को भंग करने के कारण बहुत से सैनिक बेरोजगार हो गए। नतीजतन असमाजिक तत्वों ने सर उठाना शुरू कर दिया।

नए राज की न्याय व्वस्था से भी जनता नाखुश थी। न्याय पाने के लिए विभिन्न स्तर के न्यायालयों से गुजरना, कानून की पेचीदगी तथा न्याय व्वस्था से संबंधित अधिकारियों के दंभपूर्ण व्यवहार जनता के लिए असह्य थे।

कंपनी शासन में अनेक प्रकार के कर लगाए गए। इन करों के कारण लोगों के जरूरत की वस्तुओं की कीमतें बहुत बढ़ गईं। इसने प्रजा का जीवन बहुत कष्टमय बना दिया। कंपनी सरकार का उद्देश्य भारत को लूटना और इंग्लैंड को समृद्ध करना था।

अंग्रेज़ों ने अच्छी अच्छी इमारतों पर कब्ज़ा कर उन्हें अपने लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया। कहीं अंग्रेज़ अफसर रहते थे। कहीं उनके घोड़ों के अस्तबल थे तो कहीं अंग्रेज़ी सेना का निवास था। हर स्थान पर फौज की मौजूदगी से आम जनता त्रस्त व डरी हुई रहती थी।

आम जनता में दिन पर दिन अंग्रेज़ों के लिए गुस्सा बढ़ रहा था। जो कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकता था। अंदर ही अंदर लोग अंग्रेज़ों को बाहर करने के लिए योजनाएं बना रहे थे। आम जनता अंग्रेज़ी अधिकारियों को अपना आका नहीं बल्कि दुश्मन समझती थी। वह चाहते थे कि अंग्रेज़ों को हटा कर नवाब के वंश के किसी व्यक्ति को तख्त पर बिठा दिया जाए।

अंग्रेज़ी सेना में काम करने वाले भारतीय सिपाहियों में भी अंग्रेज़ों के लिए नाराज़गी पनप रही थी। इन सिपाहियों का मानना था कि अंग्रज़ हुकूमत उन्हें उनके धर्म से भ्रष्ट करना चाहती है। खबर यह थी कि उन्हें जो कारतूस प्रयोग के लिए दिए जाते हैं उनमें गाय तथा सुअर की चर्बी लगी होती है। सिपाहियों को इन कारतूसों को अपने दांतों से काटकर इस्तेमाल करना होता था। सिपाहियों का मानना था कि जानबूझकर अंग्रेज़ यह हरकत कर रहे हैं। अतः उनके दिलों में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी। जो कभी भी एक दावानल बन सकती थी।

आखिरकार 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में बगावत की आग भड़क उठी। उसके बाद तो कई छावनियों में बगावत आरंभ हो गई। यह आग दिन पर दिन बढ़ने लगी। कई जगह अंग्रेज़ी सेना में काम करने वाले सिपाहियों ने हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया।

अंग्रेज़ी हुकूमत ने भी इस बगावत को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिन पर दिन माहौल गर्माता जा रहा था। अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ आम जनता में भी बगावत की चिंगारियां भड़कने लगीं। हर कोई अंग्रेज़ों को खदेड़ कर भगा देना चाहता था।

बगावत की आग देश के कई हिस्सों में जल रही थी। मेरठ, दिल्ली अवध के कई हिस्से अंग्रेज़ी हुकूमत से मुक्त हो चुके थे। उस समय अवध की राजधानी भी इससे अछूती नहीं थी। ईद के दिन अंग्रेज़ों को लखनऊ में कुछ गड़बड़ी होने की आशंका थी।

अवध में अंग्रेज़ों का प्रमुख आयुक्त सर हेनरी लॉरेंस बहुत ही दूरदर्शी व्यक्ति था। वह सतर्क हो गया उसने मच्छी भवन का किला मरम्त करवा कर युद्ध करने के लायक बना दिया। उसने रेज़िडेंसी में अंग्रेज़ों के छिप सकने की व्वस्था करनी आरंभ कर दी। कई दिनों तक काम चलाया जा सके इसके लिए रसद एकत्र करना आरंभ कर दिया। आसपास के जिलों के डरे हुए अंग्रेज़ अधिकारी आकर रेज़िडेंसी में शरण लेने लगे।

आवश्यक्ता पड़ने पर बागियों से लोहा लिया जा सके इसके लिए हेनरी लॉरेंस ने गोला बारूद और अन्य असलहा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। आसपास की कई इमारतों को गिरा दिया गया। पेड़ों को काटकर मैदान बनाया गया ताकि तोपों को लाया जा सके।

भारतीय सिपाही भी पूरी तैयारी में थे। योजना के अनुसार 30 मई को रात 9 बजे तोप के दगते ही हाजिरी के लिए परेड में उपस्थित 71 वीं पसटन के लाइट कंपनी के सिपाहियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। लगभग 40 लोगों की एक टोली भोजनालय की तरफ बढ़ी। 7वीं लाइट घुड़सवारों की एक टुकड़ी फाटक को भी घेर लिया। किंतु सारे अफसर पहले ही सावधान हो गए थे। वे सब भोजनालय छोड़ कर चले गए थे।

हेनरी ने तोपों से हमला शुरू कर दिया। साधारण हथियारों वाले सैनिक इस हमले के सामने ठहर नहीं सके। वह भाग खड़े हुए। हेनरी ने इन विद्रोहियों को पकड़वाने के लिए ईनाम की घोषणा कर दी। कई विद्रोही पकड़े गए व कई मारे गए।

30 मई को लखनऊ में जो बगावत शुरू हुई वह अवध के कई हिस्सों में फैल गई। सीतापुर, मुहम्मदी, औरंगाबाद,, गोंडा, बहराइच, मल्लापुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सलोन, बेगमगंज दरियाबाद आदि कई स्थानों पर अंग्रेज़ अधिकारियों उनकी स्त्रियों व बच्चों को लोगों के क्रोध का सामना करना पड़ा। अवध की राजधानी लखनऊ को छोड़ कर उसके कई हिस्सों को कंपनी राज से मुक्त करा लिया गया था।

10 मई से अंग्रेज़ों की डाक सेवा बंद थी किंतु उनके जासूसों के माध्यम से उन्हें जो समाचार मिल रहे थे वे अच्छे नहीं थे। इन सब के बीच 25 जून को अंग्रेज़ों को एक अच्छी खबर हाथ लगी। अलीरज़ा खान जो कभी वाजिद अली शाह के विश्वासपात्रों में गिना जाता था ने कंपनी राज होते ही अपनी वफादारी बदल दी। ईनाम के तौर पर उसे डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया। उसने फाइनेंस कमिश्नर मार्टिन गबिन्स को कैसरबाग के गुप्त शाही खजाने का पता बता दिया। त्वरित कार्यवाही करते हुए मेजर बैक्स ने फौज के साथ जाकर उस स्थान को घेर लिया। अंग्रेज़ों ने एक बेशकीमती खजाना लूट लिया।

29 जून को हेनरी को यह खबर मिली की विद्रोहियों की एक सेना लखनऊ से लगभग 6 मील दूर चिनहट नामक स्थान पर आकर रुकी है। उस समय हेनरी का स्वास्थ अच्था नहीं था। फिर भी 30 जून को सुबह के समय उसने 32 रेजिमेंट ऑफ फूट की तीन टुकड़ियों, 13 नेटिव इनफैंट्री की कुछ टुकड़ियों, सिक्खों की एक छोटी सेना तथा अन्य टुकड़ियों के साथ फैज़ाबाद मार्ग की तरफ कूच किया। उसकी धारणा थी कि वह कोई छोटी सी सेना होगी जिसे लखनऊ में प्रवेश करने से पूर्व ही रोक लिया जाएगा।

किंतु हेनरी की यह धारणा गलत थी। इस्माइलगंज के पास जैसे ही वह कुकरैल पुल पर चढ़े अचानक आम के पेंड़ के पीछे छिपे सिपाहियों ने उन पर हमला कर दिया। यह विद्रोहियों की एक बड़ी सेना थी। इस सेना में अंग्रेज़ी सेना के बागी सिपाही, कुछ ज़मींदार तथा अन्य लोग थे। इस सेना का नेत्रत्व बरकत अहमद कर रहा था। बरकत अंग्रेज़ी सेना में सिपाही रह चुका था। उसे युद्ध कौशल का अच्छा ज्ञान था। सभी विद्रोही अंग्रज़ों के दांत खट्टे करने के लिए कमर कसे हुए थे।

यह हिंदुओं और मुसलमानों का एक बड़ा जनसमूह था। सभी अंग्रेज़ों से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए एकजुट थे। मुहम्मदी तथा महावीर की पताकाएं फहरा रही थीं। 'या अली' और 'जय बजरंग बली' के उद्घोष से वातावरण आंदोलित था। अंग्रेज़ों को अपनी एकता दिखाने के लिए नारे लग रहे थे।

"एक पिता की दुई संतान।

एक हिंदू एक मुसलमान।"

अचानक इस हमले से अंग्रेज़ बुरी तरह घिर गए थे। दिन चढ़ने के साथ साथ जून की धूप ने कहर ढाना शुरू कर दिया। तादाद का सही अनुमान ना होने के कारण अंग्रेज़ी सेना सही तैयारी के साथ नहीं आई थी। सैनिक भूख और प्यास से त्रस्त थे। गर्म हवाओं ने भी कई सिपाहियों को बेदम कर दिया था। अंग्रेज़ी सेना के पांव बुरी तरह उखड़ चुके थे। अंग्रेज़ों के कई सिपाही मारे गए। अंग्रेज़ी सेना के कई सिपाही टूट कर बागियों के साथ मिल गए। यह एक बहुत बुरी हार थी। ऐसे में हेनरी को लगा कि वापस लौटना ही समझदारी का काम है। वह अपनी सेना के साथ पीछे हटने लगा।

अंग्रेज़ी सेना के कुछ सिपाही कुकरैल के पुल के एक छोर पर डट कर विद्रोही सेना का मुकाबला करने लगे। इसने हेनरी को बाकी बची फौज के साथ वापस लौटने का मौका प्रदान किया।

चिनहट के इस युद्ध में भारतीय विद्रोहियों ने अदम्य साहस दिखाया। धर्म व जाति के भेद को मिटा कर सबने एकजुट होकर अंग्रेज़ी सेना से लोहा लिया। कई वीरों ने इसमें अपनी शहादत दी। इस युद्ध ने यह साबित कर दिया कि यदि भारतीय एकजुट हो जाएं तो अंग्रज़ों को इस मुल्क से बाहर कर सकते हैं।

हेनरी वापस लौट कर रेज़िडेंसी की सुरक्षा में जुट गई। क्योंकी विद्रोही सेना अब लखनऊ में प्रवेश कर रही थी। अब अंग्रेज़ी सेना के कई और सिपाही और आमजन भी उनके साथ शामिल हो गए। वह सब रेज़िडेंसी का घेराव करने के लिए आगे बढ़ने लगे।

आगे बढ़ते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी सेना को खदेड़ना शुरू किया। अंग्रेज़ भागकर रेज़िडेंसी में छुप गए। विद्रोही सेना ने रेज़िडेंसी को चारों तरफ से घेर लिया। उसके आसपास की इमारतों पर कब्ज़ा कर वह रेज़िडेंसी पर गोलियां बरसाने लगे।

इसी तरह मच्छी भवन के किले को भी बागी सैनिकों ने घेर लिया। यहाँ भी अंग्रेज़ों व विद्रोहियों के बीच लड़ाई हुई। मच्छी भवन में बहुत सा गोला बारूद, असलहा एवं कई अंग्रेज़ औरतें और बच्चे थे।

हेनरी ने गुप्त रूप से वहाँ मौजूद कर्नल पामर को संदेश भिजवाया कि वह आधी रात के बाद चुपचाप वहाँ मौजूद लोगों, खजाने तथा अन्य आवश्यक सामान के साथ रेज़िडेंसी चला आए। आते हुए वहाँ मौजूद गोला बारूद को आग लगा दे। कर्नल पामर ने सबको सुरक्षित निकाल कर वहाँ आग लगा दी। मच्छी भवन जल कर नष्ट हो गया। धमाके का लाभ उठा कर अंग्रेज़ निकल गए।

अगले दिन 1 जुलाई को अहमदुल्लाह के नेतृत्व में रेज़िडेंसी पर तोपों से हमला हुआ। तोप के एक गोले से हेनरी बुरी तरह घायल हो गया। 4 जुलाई को उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले तक हेनरी अपने लोगों की रक्षा के विषय में ही सोंचते रहे।

इधर बागी सेना सही नेत्रत्व ना मिलने के कारण उद्दंड हो गई। उन्होंने लूटपाट शुरू कर दी। उन्हें सही राह दिखाने वाला कोई नहीं था। उस समय यदि कोई नेत्रत्व देता तो उनके उत्साह और जोश का प्रयोग कर अंग्रेज़ों को सदा के लिए अवध से बाहर कर देता। किंतु ना तो मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर उन्हें सही दिशा देने की स्थिति में थे और ना ही अवध में कोई और। वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल ने भी अपनी तरफ से कोशिशें की लेकिन सफल ना हो सकीं। यही कारण रहा कि चिनहट में मिली इतनी बड़ी जीत भी सही परिणाम नहीं ला सकी। कुछ ही महीनों में अंग्रेज़ों ने रेज़िडेंसी की घेराबंदी को तोड़ दिया।

चिनहट में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ा गया युद्ध एक निर्णायक युद्ध था। 19 वीं सदी में अंग्रेज़ किसी से हारे नहीं थे। उन्होंने वॉटरलू के युद्ध में नेपोलियन को भी शिकस्त दी थी। इस युद्ध में अजेय समझी जाने वाली अंग्रेज़ी सेना को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। चिनहट की लड़ाई 1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ी गई प्रमुख लड़ाइयों में सबसे महत्वपूर्ण है। इसके बाद ही सैनिकों ने लखनऊ में प्रवेश कर रेज़िडेंसी को घेर लिया।

अंग्रेज़ों ने स्वयं को मिली शर्मनाक हार को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय विद्रोहियों के साहस और बलिदान को नकारने का यह एक बहुत ओछा प्रयास था। यही कारण है कि इतिहास में चिनहट की लड़ाई का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं मिलता है।

चिनहट के युद्ध में अंग्रेज़ों को हिंदू और मुसलमानों की एकता और उसकी शक्ति का अनुमान हो गया था। अतः इसके बाद उन्होंने इस एकता तोड़ने के प्रयास किए। दोनों समुदाय उनकी चाल में फंस गए। आपसी मनमुटाव के कारण उनकी शक्ति भी बंट कर क्षीण हो गई। अंग्रेज़ों ने इसका पूरा लाभ उठाया।

कई ऐसे वीर योद्धाओं ने चिनहट के युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दिया जिनके बारे में आज कोई जानता भी नहीं है। चिनहट के युद्ध में जान की बाज़ी लगाने वाले केवल वर्चस्व की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। वह तो अपनी अस्मिता, अपनी विरासत की रक्षा और सबसे ऊपर अपनी मातृभूमि की गरिमा की लड़ाई लड़ रहे थे।

आज जब हम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं तब हमारा यह कर्तव्य है कि इतिहास में कहीं खो गए ऐसे वीर योद्धाओं को याद कर उनके प्रति अपना आभार प्रकट करें।

***

जज़्बा-ए-शहादत

अनिता ललित

वह साँस रोके, झाड़ियों में छिपा बैठा था! काँटों की झाड़ कुछ इस क़दर उससे लिपट गई थी कि समझना मुश्किल था -काँटों ने उसको छिपाया हुआ है या उसने काँटों को! उसके शरीर में काँटे धँसे जा रहे थे और खून रिस रहा था ! अचानक उसे अपने पैरों पर कुछ रेंगता हुआ -सा महसूस हुआ ! देखा -एक बिच्छू काँटों की टहनी से होकर, उसके पैरों पर अपना रास्ता बनाता हुआ चला आ रहा था ! उसने उसे झटकना चाहा मगर पैर नहीं हिला पाया क्योंकि वे भारी ज़ंजीरों में जकड़े हुए थे! हाथ से हटाना चाहा तो पाया कि वे मोटे रस्से से बँधे हुए थे! उसने हिलने की कोशिश की, कि तभी जैसे किसी ने उसको, उन रस्सों से ऊपर खींच दिया –उसकी घुटी-घुटी सी चीख़ निकली और कुछ ही पलों में वह हवा में उल्टा लटका हुआ था! गीदड़ और जंगली सूअरों की हुआँ-हुआँ की आवाज़ें दिल दहला रही थीं! अचानक चारों ओर से कई हाथ उसके गले की तरफ़ बढ़ने लगे! घबराकर उसने नीचे देखा तो जान सूख गई –गोश्त के भूखे, दुश्मन के ख़ूँख़ार कुत्ते उसकी बोटी नोचने की फ़िराक़ में, उछल-उछलकर उसतक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे! अचानक कुत्तों ने उसपर छलाँग लगा दी! एक पल को उसके दिल की धड़कन मानों रुक गई –मोहनलाल चीख़ पड़ा! -और इसी के साथ उसकी आँख खुल गई! कुछ पलों तक वह सन्न पड़ा रहा! बदन का पोर-पोर बुरी तरह दुख रहा था! वह एक कोठरी में पड़ा था! मन पर ज़ोर डालकर याद करने की कोशिश की कि वह कहाँ पर है, मगर उसकी पलकें बोझिल हो रही थीं -वह फिर बेहोश हो गया!

मोहनलाल -मुहम्मद असलम के वेश में, जासूस बनकर भारत से पाकिस्तान, यहाँ की आणविक योजनाओं की जानकारी इकट्ठी करने के अभियान पर आया हुआ था! अपने देश भारत के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह, मर मिटने का जूनून उसके अंदर कूट-कूटकर भरा हुआ था! स्वभाव से ही वह अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति का था –इसीलिए उसने देश की सेवा करने के लिए जासूसी का पेशा अपनाया था! अपने पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान में क्या हो रहा है, यह जानने की उत्सुकता उसे सदैव से रहा करती थी! भारत की आज़ादी की लड़ाई का वह स्वयं गवाह था! अपने देश के लिए शहीद होने के जज़्बे में वह सिर से पाँव तक सराबोर था! शहीद भगतसिंह के प्रति उसकी असीम श्रद्धा थी, जिसे उसने अपनी इन पँक्तियों में बयान किया था –

“तेरे लहू से सींचा, है अनाज हमने खाया!

यह जज़्बा-ए-शहादत, है उसी से हममें आया!”

सीमा पर लड़ने वाला एक सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए घूमता है, इसमें कोई कोई शक़ नहीं! वह पूरी तरह खुल के जीवन जीता है! मगर एक गुप्तचर का जीवन इतना एकाकी और आत्मकेंद्रित होता है कि उसमें उसके अपने भी नहीं झाँक सकते! उसकी अपनी अलग ही दुनिया होती है, जिसमें सिर्फ़ वह होता है, और होता है -उसका रहस्यमयी संसार! वह -अजनबी देश, अजनबी शहर, अजनबी लोगों के बीच में रहता है, नकली मुखौटे पहनकर सौ तरह के स्वांग रचता है, हर क़दम पर दुश्मनों की निगाहों से ख़ुद को बचाता है! अपनी आँखों पर वह धूप का चश्मा चढ़ाए हुए होता है कि कहीं कोई उसकी आँखों में झाँककर उसकी भावनाओं को न पढ़ ले!

मोहनलाल के माता-पिता, यहाँ तक कि उसकी पत्नी को भी, उसके काम का पता नहीं था! यह भी पता नहीं था कि वह सुन्नत करवाकर मुसलमान बन चुका था और सिर पर क़फ़न बाँधकर पाकिस्तान में जासूस बनकर आता-जाता है! वह जानता था कि वह कभी भी गिरफ़्तार हो सकता था -ऐसी परिस्थिति में वह मुँह खोलकर अपने देश का नाम तक नहीं ले सकता था और यदि ले भी लेगा, तो यह देश उससे अनजान बनकर उसको ठुकरा सकता था! वह एक ऐसा देशभक्त वीर सिपाही था, जो देश के लिए अपनी जान तो दे सकता था मगर उसके देश को इसकी ख़बर होगी, उसके परिवार वालों को उसकी इस क़ुर्बानी का पता चलेगा -इसकी उम्मीद न के बराबर थी! देशभक्ति के इस जूनून ने उसके भीतर ही जन्म लिया था, और उसे उसके भीतर ही ख़त्म होना था!

बदक़िस्मती से आज वह दिन भी आ गया था, जब अपने ही एक साथी के धोखा देने के कारण, वह अब पाकिस्तान की गिरफ़्त में था! आज उसकी क़ैद का पहला दिन था!

पहली पूछताछ के दौरान, जब मेजर एजाज़ ने उससे उसका मक़सद उगलवाने की कोशिश की और उसको उसके किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला तो मोहनलाल यातनाओं का दौर शुरू हो गया! उसको सारे कपडे उतारकर उल्टा लेटाया गया, फिर दो जवानों को बुलाकर, एक को उसकी टाँग दबाए रखने को कहा और दूसरे को उसकी पीठ पर बैठने को कहा! फिर पेड़ की एक मोटी डाल से डेढ़ घंटे तक लगातार उसको मारा गया! उसके बदन से ख़ून बह रहा था, उसकी चीखों से कोठरी गूँज रही थी! कुछ ही समय में वह बेहोश हो चुका था!

अब वह उसी छह फ़ीट लम्बी, छह फ़ीट ऊँची तथा तीन फ़ीट चौड़ी कोठरी में बेहोश पड़ा था! डरावने सपने हक़ीक़त बन चुके थे और हक़ीक़त अब एक भयावह सपना थी!

बेहोशी में ही उसके कानों में किसी के चीख़ने की आवाज़ें पड़ी! भरपूर कोशिश करके उसने अपनी आँखें खोलीं -बगल की कोठरी में शायद उसीका कोई साथी था! यूँ लग रहा था, जैसे कई लोग मिलकर उसे मार रहे हों! उसकी आँख खुली ही थी कि उसे उठाकर, उसके दोनों हाथ पीछे की ओर हथकड़ियों से जकड़ कर, एक बार फिर उसे पूछताछ के लिए कमरे में पहुँचा दिया गया! वहाँ का नज़ारा देखकर ही उसके रोंगटे खड़े हो गए! उसका साथी उल्टा लटका हुआ था और बेहोश हो गया था! मेजर एजाज़ फिर से उसके सामने था और आराम से सिगरेट पी रहा था! उसे देखते ही एक व्यंग्य भरी मुस्कुरान से बोला, “हाय पैट्रियट! बेटा, हम भी देखेंगे, तुम्हारा हीरोइज़्म कब तक चलता है! तुम जान देने पर आमादा हो, तो हम भी तरस खाने वालों में से नहीं हैं!”

उसके पास इसका कोई जवाब न था! एक बार फिर उसके कपड़े उतरवा दिए गये और उसे मेज़ पर खड़ा कर दिया गया! उसके दोनों हाथों को छत से लटक रहे रस्से के साथ पीछे कसकर बाँध दिया गया! नीचे से मेज़ हटा दी गई! वह अब हवा में लटक रहा था! रस्सा ऊपर छत से एक घिरनी पर से गुज़रता था! यह रस्सा उसके हाथों को काटकर कलाइयों में धँसता चला जा रहा था! कितना भी ताक़तवर इंसान क्यों न हो, इस प्रकार इस रस्से पर, पन्द्रह मिनट से अधिक अपने होश क़ायम नहीं रख सकता था! इस तरह उसे लटकाने के बाद पाँच फ़ौजियों ने उसे पीटना शुरू किया –एक के हाथ में एक इंच मोटी बेंत थी, जो उसके तलवों पर बरस रही थी; दूसरा डंडे से उसकी पिंडलियों पर वार कर रहा था; तीसरे के हाथ में कपड़े धोने वाला पिटना था, जिसे वह उसके कूल्हों पर मार रहा था; चौथा उसकी पीठ पर डंडे बरसा रहा था और मेजर एजाज़ बारीक़ शहतूत की छड़ी से उसके सिर पर वार कर रहा था! उसकी चीख़ें बढ़ती जा रही थीं! कुछ देर तक छटपटाने के बाद उसने अपने जिस्म को ढीला छोड़ दिया! फिर उसे डंडों का एहसास होना बंद हो गया था! बेहोशी -सी आने लगी थी कि तभी मेजर एजाज़ ने उसके मुँह पर पानी का जग फेंककर कहा, ‘बेटे, यहाँ मर तो सकते हो, सो नहीं सकते!” उसने पीने को पानी माँगा तो बोला, “हमारे ख़िलाफ़ जेहाद करने आए थे न! राहे-शहादत को कभी पानी माँगकर, कभी आँसू बहाकर, कभी चीख़-पुकार मचाकर क्यों दाग़दार कर रहे हो? हँसते हुए जामे-शहादत नोश फ़रमाओ! यह नसीबवालों को ही नसीब होता है!..” मेजर एजाज़ न जाने क्या-क्या बकता रहा -वीर मोहनलाल बेहोश हो चुका था!

पता नहीं वह कब तक बेहोश रहा! आँखें खुली तो अपने आप को उसी कोठरी में पाया! तभी लकड़ी का दरवाज़ा खुला -दाल के साथ चार तंदूरी रोटियाँ उसके आगे रख दी गईं! उसने रोटी लेने के लिए हाथ उठाने चाहे मगर उसके हाथों ने उठने से इंकार कर दिया! गारद कमांडर क़रामत अली ने आकर उसकी दोनों बाहों की मालिश करवाई और बोला, “रस्से से उल्टा लटकाने से अक्सर ऐसा हो जाता है, अभी ठीक हो जाएगा!” और सचमुच! थोड़ी देर की मालिश के बाद उसके हाथ उठने लगे थे! वह सुबह से भूखा था, अतः जो भी खाना सामने था, वह उसपर टूट पड़ा!

क़रामत अली किसी फ़रिश्ते से कम नहीं था! उसने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “शाबाश, दिल छोटा नहीं करते! मुसीबतें मर्दों पर ही आया करती हैं! तुम जिसको मानते हो, उसको याद करो! अल्लाह अपने प्यारों का ही इम्तिहान लेता है! अल्लाह ने तुम्हें किसी बड़े मक़सद के पेशे-नज़र क़ैद करवाया है! इसलिए जो उसकी रज़ा है, उसी से राज़ी रहो!” क़रामत अली के शब्द उसके ज़ख़्मों पर जैसे मल्हम का काम कर रहे थे!

वह आगे बोला, “पेट भरकर खाना खाओ! अगर जिंदा रहे, तो इंशा अल्लाह ज़रूर अपने मुल्क़, अपने बीवी-बच्चों के पास पहुँच जाओगे!” यह सुनते ही उसके हाथों से रोटी छूट गई! आँखें भर आईं –‘हाय! उसकी पत्नी व माता-पिता को तो ख़बर भी न होगी कि वह यहाँ किस अज़ाब से गुज़र रहा है! उसकी शादी को अभी एक साल भी नहीं हुआ था! पत्नी गर्भवती थी! कैसे गुज़ारा होगा उन बेचारों का -वह इकलौता बेटा था!’

क़रामत अली के जाने के बाद मोहनलाल सोचता रहा –‘हैवानों के बीच में यह फ़रिश्ता कहाँ से आ गया!’ क़रामत अली की बातें उसके कानों में गूँज रही थीं! धीरे-धीरे वह नींद की आग़ोश में चला गया!

आधी रात में किसी की चीख़ें सुनकर फिर उसकी आँख खुल गई! यूँ लग रहा था, जैसे बकरे की गर्दन पर छुरी फेरी जा रही हो! उसके दिल की धड़कनें बहुत तेज़ हो गईं! उसे लगा, शायद ये भी उसी की ही तरह कोई भारतीय जासूस होगा! यातना कार्य पूरे ज़ोरों पर था, मगर जिसको यातना दी जा रही थी, वह क़ैदी उन सिपाहियों को गन्दी-गन्दी गालियाँ दिए जा रहा था! मोहनलाल उस क़ैदी की गालियों को सुनकर हैरान था!

बहुत देर तक यही सिलसिला चलते देख उससे रहा न गया! उसने हिम्मत बटोरकर वहीं से उस क़ैदी को संबोधित करते हुए कहा, “ओ भाई! क्यों इन लोगों को गालियाँ देकर अपनी मुसीबतों को और बढ़ाते हो?" इसपर उसने मोहनलाल को डाँटकर चुप करा दिया! धीमे-धीमे उस क़ैदी की चीख़ें कराहटों में बदल गईं! मोहनलाल ने अंदाज़ा लगाया कि शायद उसे बिजली के झटके दिए जा रहे थे -मगर जो भी ज़ुल्म हो रहा था उसपर, वह असहनीय था –यह उसकी चीखों और कराहटों से पता चल रहा था! कुछ समय बाद, भारी ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ वह क़ैदी निकला –मोहनलाल उसे देख तो न सका, बाद में संतरी ने बताया, वह उसी का कोई हिन्दुस्तानी भाई है! ये लोग इतने ज़ुल्म करने के बावजूद अभी तक उसका नाम भी नहीं जान सके हैं! हर रात वे लोग उसे तंग करते हैं, मगर उसने अभी तक मुँह नहीं खोला, बल्कि उन्हीं लोगों को गालियाँ बकता जाता है! छोटे अफ़सर उससे आज़िज़ आ चुके हैं, कहते हैं कि इसे गोली मार दिया जाए, मगर बड़े अफ़सर इस बात के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि दोनों मुल्क़ों के बीच कुछ नियम हैं, जिनके मुताबिक़ वे ऐसा नहीं कर सकते!

यह सुनकर मोहनलाल के मन में कहीं हल्की सी आस की किरन जागी! वह सोचने लगा, ‘कम से कम इतना तो है, कि कुछ भी हो जाए, ये लोग मुझे मारेंगे नहीं! ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे -यातना ही तो देंगे! कितनी यातना देंगे? आख़िर एक दिन उन्हें उसे छोड़ना ही पड़ेगा!’ वह अपने आप को किसी तरह तसल्ली देने की कोशिश कर रहा था!

जब ज़ुल्म की इन्तेहा हो जाती है और इंसान को उससे निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता, तब उसे उस परमशक्ति के होने का आभास होता है, उसके प्रति उसमें विश्वास जागता है, जो इस दुनिया, दुनिया के जीवों से –सबसे ऊपर है! इस वक़्त मोहनलाल को उसी परमात्मा का सहारा था, जो उसे इन सब मुसीबतों से लड़ने की हिम्मत दे रहा था! अब वह अपने आप को तैयार कर रहा था –बुरे से बुरे हालात का सामना करने के लिए!

कुछ दिनों तक वह इसी तरह ज़ुल्म और अत्याचार की आँधी में झुलसता रहा –कभी बिजली के झटके दिए गये, कभी जिस्म में मिर्ची डाली गई, कभी बर्फ़ पर लिटाया गया, कभी पैरों तले जलते अंगारे रखे गए, कभी सर्दियों की रात में, नंगे बदन, सिर पर तह कराकर चार कंबल रखकर, सारी रात टहलने को कहा गया। कभी कोई मेजर आकर अपनी भड़ास निकाल जाता, तो कभी कोई प्लाटून कमांडर मुँह पर मुक्का मार जाता। कभी उससे कहा गया कि वह बिना हाथों का इस्तेमाल किए खाना खाए, चाय पिए और यदि वह इंकार करता तो फिर पिटाई होती। ये सारी थर्ड डिग्री यातनाएँ, उससे एटॉमिक एनर्जी से सम्बंधित कोई जुर्म मनवाने के लिए दी जाती रहीं! यातनाओं का प्रकोप जारी रहा मगर दिलेर मोहनलाल ने हिम्मत नहीं हारी!

फिर एक दिन उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे लाहौर जेल ले जाया गया! वहाँ उसके साथ पाकिस्तानी क़ैदी भी थे! कहने को तो वे दुश्मन मुल्क़ के थे, मगर उसके साथ प्यार से पेश आए! जब उन्होंने अपने घर से आया खाना उसके आगे किया तो उसका मन भर आया! फिर तो सबने साथ मिलकर आपस में गाने सुनाए, कहानियाँ सुनाईं! मोहनलाल यह देखकर हैरान था कि वहाँ मोहम्मद रफ़ी साहब के गाने बहुत पसंद किए जाते हैं! उसने भी उनके गाए चार गीत सुनाये, जिसे सुनकर संतरी भी झूमने लगा और ख़ुश होकर अपनी तरफ़ से उसे चाय पिलाई! इतने दिनों की यातना के बाद आज उसका मन थोड़ा हल्का था और उसे अच्छी नींद आई! आगे का सफ़र, उसके लिए, अपने साथ क्या लाने वाला था -इसका उसे कुछ इल्म न था!

अगले दिन उसे कचहरी ले जाया गया, जहाँ उसे पाँच दिन का जिस्मानी रिमांड दे दिया गया! उसने सोचा, ‘इतने ज़ुल्म सहने के बाद अब और कौन सा ज़ुल्म बचा होगा! खैर, जो भी है –झेलना तो होगा ही! चाहे मुस्कुराकर झेलूँ, चाहे रोकर!’ आगे की तफ़्तीश चौधरी निसार को करनी थी!

चौधरी निसार ने उसका परिचय पूछा! उसने जैसे ही अपने पिताजी का नाम बताया तो उनकी आँखें हैरानी से फ़ैल गईं, और वे बोले, “तो तू काले बामन का बेटा है?” उसके हामी भरते ही चौधरी निसार ने अपने सिर पर हाथ मारते हुए कहा, “ये तुमने क्या किया बेवक़ूफ़! कितनी मन्नतों से तुम्हारे बाप ने तुम्हें हासिल किया था! कड़ी धूप में पीर-फकीरों की मज़ार पर मानता मानी, तब कहीं जाकर तुम्हें पाया और तुमने इस तरह अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली! तुम्हारे होने पर उन्होंने कितनी ख़ुशियाँ मनाई थीं! मैं भी उस पार्टी में गया था!” फिर चौधरी निसार ने उसे ढाँढ़स बँधाया कि जितने दिन वह उनके पास है, कोई भी उसे हाथ नहीं लगाएगा! वे बोले, “रस्मी तौर पर तुम्हारी पूछताछ ज़रूर होगी वरना मेरे ख़ानदान पर ख़तरा हो सकता है! अगर तुम पाकिस्तानी होते और क़त्ल भी किया होता, तो मैं तुम्हें उससे निकाल लेता, मगर जासूसी जैसे गंदे काम में फँसने के लिए, मैं तुम्हारे लिए सिर्फ़ दुआ ही कर सकता हूँ!” मोहनलाल का दिल उनके प्रति आदर से भर उठा -उसने उनके पाँव छू लिए! चौधरी निसार का कहना था कि ये हमारे पंडितों और मुल्लाओं का ज़हर है, जिसने हिन्दू-मुस्लिम, दोनों क़ौमों के बीच में नफ़रत की दीवार उठा दी है! वरना ऐसे इंसान भी हैं -जो फ़रिश्तों को मात दे दें!

अब मोहनलाल को कोट लखपत जेल, लाहौर लाया गया! यहाँ उसे फाँसी की कोठरी में रखने का आदेश दिया गया, जहाँ सज़ा-ए-मौत के क़ैदी रखे जाते थे! एक रात सोते में उसे ‘इन्क़लाब जिंदाबाद’, ‘पीपुल्स पार्टी जिंदाबाद’, ‘क़ायदे अवाम जिंदाबाद’, अयूबशाही मुर्दाबाद’ के नारे सुनाई दिए! सारे क़ैदी अपने दरवाज़े खड़का रहे थे –पता चला, भुट्टो साहब अपने साथियों समेत जेल में गिरफ़्तार होकर आए थे! यह बात क़ैदियों को पता चल गई और वे सब बेक़ाबू हो रहे थे! दारोग़ा ने क़ैदियों से अपील की कि भुट्टो साहब सुबह सबसे मुलाक़ात करेंगे, तब तक सभी अमन-चैन बनाए रखें! मोहनलाल ने देखा -भुट्टो साहब पाकिस्तानियों के मसीहा थे!

सुबह का नज़ारा अद्भुत था -भुट्टो साहब ने बैरकों का चक्कर लगाना शुरू किया! सभी क़ैदी अपने टीनों पर हाथ मार रहे थे, हर कोई उन्हें खाने के लिए कुछ न कुछ पेश करना चाह रहा था! वे हरेक के हाथ से चीज़ लेते और बड़े प्यार से उसके ही मुँह में डाल देते, फिर आगे बढ़ जाते! जब वे मोहनलाल के बैरक में आए, तो उन्हें बताया गया कि वे सब हिन्दुस्तानी क़ैदी हैं! वे मोहनलाल और उसके साथियों के पास गये और बोले, “अज़ीज़ दोस्तों, आपकी हालत देखकर मुझे बहुत सदमा पहुँचा है! मेरा आपसे वादा है कि जिस दिन हमारी हुक़ूमत आई, इंशाल्लाह आप एक साल के अन्दर-अन्दर अपने मुल्क़ में होंगे!” यह सुनकर मोहनलाल और उसके साथी कैदियों के मुँह से स्वतः ही निकल पड़ा ,”भुट्टो साहब जिंदाबाद!” भुट्टो साहब ये सुनकर मुस्कुरा दिए और हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए!

कुछ दिनों बाद मोहनलाल के लिए छह महीनों की ‘नज़रबंदी’ का हुक्म आया और उसे शाही क़िला, लाहौर भेज दिया गया! वहाँ का माहौल ख़ौफ़नाक था -चौबीस घंटे पूछताछ का काम चलता रहता था! कुछ संतरियों ने उसे बताया कि यहाँ दस हिन्दुस्तानियों कैदियों ने पूछताछ के दौरान दम तोड़ दिया और न जाने कितने पागल हो गए!

पूछताछ के लिए उसे मेजर एजाज़ मक़सूद के सामने पेश किया गया, जो अपने सीनियर के ख़िलाफ़, मोहनलाल के मुँह से कुछ उगलवाकर, साज़िश करने पर उतारू था -बदले में उसने मोहनलाल को रिहाई का आश्वासन दिया! उसने उसके बूढ़े माँ-बाप और गर्भवती पत्नी का भी वास्ता दिया -मगर मोहनलाल एक सच्चा देशभक्त ही नहीं, एक सच्चा इन्सान भी था! उसने उसका प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि, “यह बेईमानी होगी! मैं किसी के बच्चों की बददुआएँ नहीं ले सकता! इसके लिए ख़ुदा कभी मुझे माफ़ नहीं करेगा, मेरा ज़मीर इसके लिए ग़वारा नहीं करता!” उस रात मोहनलाल बहुत चैन की नींद सोया -उसे इस बात का सुक़ून था कि इतने ज़ुल्म और अत्याचार के बीच रहते हुए भी वह डगमगाया नहीं तथा नेकी और ईमानदारी की राह पर क़ायम रहा!

इस बार तफ़्तीश के लिए उसे राजा गुल-अनार ख़ान के सामने पेश किया गया, जिसकी दहाड़ सुनकर किले की दीवारें काँप जाया करती थीं, नज़रबन्दों के दिल डूबने लगते थे -वे गिड़गिड़ाकर दुआ किया करते थे कि उनकी तफ़्तीश गुल-अनार ख़ान न करे! उसकी पूछताछ का तरीक़ा ऐसा था कि अच्छे-अच्छे नज़रबंद उसके सामने रिकॉर्ड की तरह बजने लगते थे और जहाँ कोई जरा सा भी इधर-उधर भटका कि वह चीते की तरह उसपर टूट पड़ता –फिर तो क़ैदी का कोई न कोई अंग टूटा हुआ ही मिलता!

मोहनलाल से गुल-अनार ख़ान ने उसके नाम का मतलब और ज़ात पूछी! मोहनलाल के मुँह से ब्राह्मण ज़ात सुनते ही वह बोला, “तो तुम सूर्यवंशी ब्राह्मण हो?” मोहनलाल के हैरान होने पर उसने बताया कि वह ख़ुद एक चंद्रवंशी ब्राह्मण है और इतिहास में ग्रेजुएट है! उसके पूर्वज राजस्थान के राजा थे! औरंगजेब के ज़माने में, जब हिन्दुओं पर बेपनाह ज़ुल्म हुए तब वे जान बचाकर वहाँ से भागे और मजबूरीवश उन्हें इस्लाम क़ुबूल करना पड़ा!

गुल-अनार ख़ान ने आगे कहा कि, ‘इस्लाम इतनी तेज़ी से इसलिए फैला क्योंकि जब मुसलमानों ने हिन्दुस्तानियों पर हमले किए तो विभिन्न रियासतों के राजाओं ने एक-दूसरे से दुश्मनी निकालने के लिए, आपस में ही एक-दूसरे से गद्दारी की और ख़ुद अपनी तबाही की वजह बने! यदि किसी हिन्दू ने अपनी जान ख़तरे में देखकर कलमा शरीफ़ पढ़ लिया, तो उस हिन्दू के रिश्तेदारों ने उसका हुक्का-पानी ही बंद करवा दिया! मंदिरों के दरवाज़े उनके परिवार के लिए बंद हो गए, कोई तीज-त्यौहार में उन्हें भाग नहीं लेने दिया गया! जब सबने उनसे आँखें फेर लीं, तब उन अभागों ने इस्लाम को गले लगाया और हिंदुस्तान में इस्लाम की जड़ें मज़बूत होती चली गईं! आज वे जो मुसलमान हैं, उनकी पुश्तें कभी हिन्दू हुआ करती थीं! इस दुश्मनी की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं, कि दोनों क़ौमें अब तक एक-दूसरे से बदला ले रही हैं! उन्होंने सोच लिया था -जिन हिन्दुओं ने उनके जज़्बात कुचले थे, उन पर ज़ुल्म किए थे, अब वे उनपर रहम नहीं खाएँगे! उनकी पीढ़ियाँ, आज उनका ही बोया काट रही हैं!

अपने ब्राह्मण होने पर मोहनलाल को ग्लानि हुई! उसने सोचा, ‘कबीर व गुरुनानक की सारी कोशिशें बेकार चली गईं! हम आज भी उसी फूट की राह चले जा रहे हैं!’

गुल-अनार ख़ान और मोहनलाल के बीच शायरी, फ़लसफ़ा और निजी जीवन पर भी बातें हुईं! यहीं गुल-अनार ख़ान ने उसको ख़ुशख़बरी दी कि वह एक बेटे का बाप बन गया है, जिसे सुनकर मोहनलाल की आँखों से आँसू निकल पड़े! वह बोला, “आपके इस ग़रीब दुश्मन के पास तो आपका मुँह मीठा कराने को कुछ भी नहीं है!” इसपर गुल-अनार ख़ान बोला, “मैं ख़ुद ले आया हूँ! यह खाओ मेरे भतीजे के नाम पर!”

अपने देश, अपने घर, अपने अपनों से दूर -मोहनलाल यही सोचता रहता, ‘क्या वह अपने बेटे को देख पाएगा? यदि हाँ –तो कब? वह मेरे बारे में अपनी माँ से पूछेगा, तो वह उसे क्या जवाब देगी? कब वह अपने घर पहुँचेगा, कब अपने बूढ़े माँ-बाप, प्रिय पत्नी और प्यारे से बेटे से मिल सकेगा -क्या वह कभी घर पहुँच पाएगा? और यदि ऐसा न हुआ तो? -ऐसे ख़याल उसका दिल डुबोने लगते!

क़ैद के हर पड़ाव पर मोहनलाल को नए लोग एवं नए-नए अनुभव मिल रहे थे! उसे क़रामत अली, चौधरी निसार, गुल-अनार ख़ान, अब्दुल रहमान खटक जैसे नेक-दिल फ़रिश्ते मिले, जिनके अपनत्व भरे व्यवहार ने उसका दिल छू लिया एवं जिनसे विदा होते वक़्त, दोनों तरफ़ आँखों में आँसू थे, और मोहनलाल को ऐसा लगा, जैसे कि वह अपना दिल वहीं छोड़े जा रहा हो, वहीं मेजर एजाज़, सूबेदार शेर ख़ान, डॉ. सईद, मेजर जादून आदि जैसे कसाई लोग भी मिले!

मोहनलाल को मिलने वाली यातनाएँ अंतहीन थीं। उसको एफ़.आई.सी. (फ़ाइनल इन्टेरोगेशन सेंटर) रावलपिंडी लाया गया और भरपूर यातनाएँ दी गईं! वहाँ के अफ़सर थक चुके थे –वे मोहनलाल के मुँह से वह बात नहीं निकलवा पा रहे थे, जो वे चाहते थे। उन्होंने तो उसे पाकिस्तानी जासूस बनने तक का प्रस्ताव भी दे डाला, जिसे उसने ठुकरा दिया। उन्होंने उसकी आँखों में गोंद डलवाकर उसकी आँखों की रौशनी छीनने की धमकी दी। उसे मार्फ़िया के इंजेक्शन लगवाए , जिससे उसपर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभाव पड़े।

ज़ुल्म बढ़ते जा रहे थे -अकेलापन, चारों ओर से क़ैदियों के चीखने-चिल्लाने और यातनाभरी आवाज़ें और हर दिन किसी नए ज़ुल्म का सामना करने से एक अंजान ख़ौफ़ उसके दिलो-दिमाग़ पर छा गया था -उसे लगता जैसे अनजाने-अनदेखे हाथ उसका गला घोंटने को उसकी तरफ बढ़ रहे हों। उसने कुछ क़ैदियों के साथ मिलकर सुरंग बनाकर फ़रार होने का प्लान भी बनाया, मगर असफल रहा। ऐसे माहौल में अनचाहे ही उसे सिगरेट पीने की आदत लग गई ,जो उसके समय बिताने की साथी बन गई! वह कपड़े उतारकर रहने लगा, पागलों की तरह व्यवहार करने लगा -एक बार तो ख़ुदकुशी तक करने की कोशिश की!

इसी बीच पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू हो गया। ज़रा-ज़रा सी बात पर सड़क पर लोगों के कान पकड़वा दिए जाते, कोड़े बरसाए जाते, भारी जुर्माने लगाए जाते। जनता त्रस्त हो रही थी और उनमें आक्रोश बढ़ रहा था! हड़तालें और प्रदर्शन हो रहे थे। पाकिस्तान अवाम के जाने कितने ही जनाज़े मार्शल लॉ के हाथों निकले -इनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ एक ही मसीहा उठा था और वो था -ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो!

वहाँ रहते हुए मोहनलाल ने महसूस किया कि 'हिन्दू-मुस्लिम दोनों क़ौमें बहुत कुछ एक -सी ही हैं। मसलन-शादी के वक़्त उसी तरह मेहँदी रचती है, गीत गाए जाते हैं, दहेज दिया-लिया जाता है, लड़की की विदाई होती है, पैसे लुटाए जाते हैं, पटाख़े छूटते हैं। रफ़ी साहब एवं लता जी के नग़मे पाकिस्तान के लोग बड़े चाव से सुनते हैं, तो हिंदुस्तान में नूरजहाँ, मेहँदी हसन के लिए लोग दीवाने हैं -फिर कौन है जो उनके बीच में नफ़रत की दीवारें खड़ी करता है? दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे से मिलने के लिए छटपटाते हैं, जज़्बात में खींची हुई सीमाओं की दीवार गिराना चाहते हैं लेकिन दोनों तरफ़ के क़ौमी-रहनुमा ऐसा करते हुए घबराते हैं। अगर दोनों क़ौमें एक हो गईं तो उनकी रहनुमाई कहाँ जाएगी। वे आपस में लड़ेंगीं नहीं, तो विदेशी ताक़तें अपने हथियार किसे बेचेंगीं?' -बंद कोठरी में यातानाओं के दौर से गुज़रते हुए अक्सर ये बातें उसके ज़हन को झिंझोड़ देतीं!

कोर्ट मार्शल के दौरान अपने मुकदद्मे की पैरवी उसने स्वयं की और उसे चौदह साल बामशक़्क़त सजा हुई, जिसे उसने बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी 'राम-बनवास' का नाम दिया। वह खुश था कि सज़ाए-मौत से बच गया! अब उसे मियाँवाली की जेल में रहना था। वहाँ उसे जिस बैरक में रखा गया, उसके क़ैदियों ने उसे हाथों-हाथ लिया और उससे मिलकर बहुत ख़ुश हुए। उसे पता लगा कि इस बैरक में अस्सी हिन्दुस्तानी क़ैदी थे, जिनमें से आठ तो बिजली के झटके और दूसरी यातनाओं से पागल हो चुके थे। उनका हुलिया और ख़ौफ़नाक हरक़तें देखकर दिल दहल जाता था। कुछ ऐसे क़ैदी भी थे, जो सज़ा पूरी होने के बाद भी वहीं थे! मोहनलाल को इस बात की फ़िक्र हुई कि क्या अपनी सज़ा पूरी करने के बाद भी, वह वापस अपने देश जा सकेगा? उसे बेहद अचम्भा और दुःख हुआ कि 'भारत सरकार अपने सपूतों के प्रति इस क़दर लापरवाह है कि इन मौत के मुँह में फँसे लोगों की सुध भी नहीं लेती थी -कि उसके लाड़लों के साथ दूसरे मुल्क़ में क्या सलूक़ होता है!'

मोहनलाल की क़ैद के ही दौरान पूर्वी पाकिस्तान से उठते हुए बंगालियों के नेता शेख़ मुजीबुर्रहमान, जो बंग-बन्धु के नाम से मशहूर थे, के खिलाफ़ याह्या खाँ और भुट्टो ने एक षड्यंत्र रचा। उनके घर पर हमला किया गया और उनको गिरफ़्तार कर लिया गया। इसपर बंगालियों का ख़ून खौल उठा। तब पाकिस्तानी फ़ौज ने बर्बरता का नंगा नाच दिखाते हुए उनपर ऐसे-ऐसे ज़ुल्म किये कि इंसानियत भी थर्रा उठी। इस दौरान क़त्लेआम में हिन्दू बंगाली अधिक शिकार बने। हवाओं में ज़हर फैल गया था और इसका असर जेलों में रह रहे हिन्दुस्तानी क़ैदियों पर भी पड़ा -पाकिस्तानी क़ैदियों और जेल के अफ़सरों की निगाहें बदल गईं थीं।

तभी एक दिन उसकी बैरक में दारोग़ा आया और उसके सहित आठ हिन्दुस्तानी क़ैदियों को बाहर निकलवा कर वहाँ ले आया, जहाँ शेख़ मुजीब क़ैद थे! सब बहुत ख़ुश हुए कि शायद वे शेख़ मुजीब को देख पाएँगे ; परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ; क्योंकि वहाँ दोहरे-तिहरे दरवाज़े बंद कर दिए गए थे। उन सबको हुक़्म दिया गया कि वहाँ पर उन्हें आठ फ़ीट लम्बा, चार फ़ीट चौड़ा और चार फ़ीट गहरा गढ़ा खोदना है। वे सभी समझ गए कि उसी रात शेख़ मुजीब को फाँसी दे दी जाएगी और वे लोग उनकी क़ब्र खोद रहे हैं। मोहनलाल को इस पाप का भागीदार बनने का बहुत अफ़सोस हुआ -परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसी रात भुट्टो ने उनकी फाँसी रुकवा दी थी। इस प्रकार यह अमल तीन बार दोहराया गया और तीनों ही बार उनकी फाँसी टल गई!

आख़िरकार 1971 में भारत-पाकिस्तान की जंग छिड़ी, जिसमें पाकिस्तानी फ़ौजों ने बांग्लादेश में हथियार डाल दिए और जंग ख़त्म हुई। पाकिस्तान की बाग़डोर भुट्टो साहब के हाथ में आ गई!

अब क़ैदियों के तबादले की लड़ी शुरू हो गई थी। जिन लोगों ने अपने नाम व पते ग़लत लिखा रखे थे, उन्हें भारत सरकार यह कहकर बॉर्डर से ही लौटा दे रही थी कि वे उनके आदमी नहीं हैं। वे बेचारे बड़ी बुरी दशा में, पाकिस्तान जेल में अपने दिन ग़ुज़ार रहे थे और भारत सरकार को गालियाँ दिया करते थे। कई-कई दिन बीत जाते थे -उन बेचारों को चाय का एक कप भी नसीब न होता था।

आख़िरकार 9 दिसम्बर 1974 को वह शुभ दिन आया जब मोहनलाल की बारी आई और जोश में 'भारतमाता की जय' पुकारते हुए, उसने अपनी सीमा में दौड़कर प्रवेश किया। वहाँ अपने पिता जी का चेहरा देखकर उसके दिल को धक्का पहुँचा -आँखें रो-रोकर अंदर धँस गईं थीं, चेहरे पर झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ पड़ी हुईं थीं। बाप-बेटे गले मिलकर रोने लगे!

अपने शहर पहुँचने पर बहुत ज़ोरों-शोरों से उसका स्वागत हुआ। उसकी पत्नी प्रभा को भी दुल्हन की तरह सजाया गया! लोग घर तक उन्हें छोड़ने आए। घर में बिल्कुल शादी-ब्याह जैसा माहौल था! परन्तु अपने घर की हालत देखकर उसको बहुत दुःख हुआ -दीवारों से पलस्तर उखड़ गया था, हर ईंट मानों उसकी ग़ैरमौजूदगी में उसके बेकस-बेसहारा, निर्धन हुए परिवार के दर्द को बयान कर रही थी।

मोहनलाल अपने घर तो वापस आ गया, मगर उसकी जंग अभी बाकी थी -घर के हालात बिगड़े हुए थे और उनसे लड़ने के लिए रह गया था –केवल मोहनलाल! उनकी अनुपस्थिति में लोगों ने उसके परिवार के भरण-पोषण में मदद की थी परन्तु अब उसको मदद लेना ग़वारा न हुआ। उसे स्वयं कुछ करके अपना एवं अपने परिवार का पालन-पोषण करना था। परन्तु कई वर्ष अपने घर, अपने देश से दूर रहकर, वह समझ नहीं पा रहा था कि इतने समय से टूटी हुई माला के मोतियों को फिर किस तरह से पिरोए, किस प्रकार एक बार फिर, नए सिरे से जीवन शुरू करे! वह मुंशियों से लेकर बड़े अधिकारियों से मिला मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उसकी बी.एड तक की पढ़ाई, कुछ पुराने अनुभव और प्रसिद्धि के आधार पर एक स्कूल में उसे अध्यापन-कार्य मिल गया।

एक सम्मेलन में मोहनलाल फ़िरोज़पुर से डेलिगेट बनकर गया और तत्कालीन प्रधानमन्त्री से मिला और उनसे उसने कहा, “भारत सरकार को चाहिए कि वह उन हिन्दुस्तानियों को, जो देश के काम पर पाकिस्तान की जेलों में कई-कई वर्ष सड़ते रहे हैं, इतने समय तक दुःख झेलने का उचित पुरस्कार दे।“

इस पर प्रधानमन्त्री का उत्तर था, “हम पाकिस्तान के किए की सज़ा क्यों भुगतें? क्या तुम्हारा मतलब है, कि अगर पाकिस्तानी सरकार तुम्हें बीस साल तक क़ैद में रखती तो हम तुम्हें बीस साल का मुआवज़ा देते?”

यह सुनकर मोहनलाल का ख़ून खौल उठा। यदि उसके हाथ में पिस्तौल होती, तो वह सारी की सारी गोलियाँ उनपर बरसा देता। उसने सोचा, इस शख्स के पास, देश के लिए अपनी जान दाँव पर लगाने वालों की समस्या सुलझाने, उनसे बोलने के लिए सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं थे।

उसे लगा कितने नौजवान, जो अपनी इच्छा से या बेकारी से, मजबूर और विवश होकर इस काम में फँसते हैं, अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं -उनकी ज़िंदगियों के साथ, देशभक्ति के नाम का सहारा लेकर खिलवाड़ किया जाता है! उन्हें मिलता कुछ नहीं है।

वह अत्यंत क्षुब्ध था और सोचने लगा -उनसे बेहतर तो भुट्टो साहब थे, जिन्होंने उसकी क़ैद के दौरान हिन्दुस्तानी क़ैदियों के तबादले का वायदा करके उसे पूरा तो किया और जिनकी बदौलत आज वह अपने देश, अपने घर वापस लौट सका था!

***

जल-समाधि

अर्पण कुमार

युद्ध क्या है ! राष्ट्रवाद के उन्माद में शहादतें होती हैं, दुश्मन और दोस्त तय किए जाते हैं। कई दोस्त मिलकर कई दुश्मनों को मारते हैं। जो दिनभर विजेता की तरह आगे बढ़ रहे थे, अचानक शाम होते होते पीछे हट रहे थे। बाउंड्री बनाई मिटाई जाती है। कभी नक्शे पर रणनीतियां बनाई जाती हैं, तो कभी उबड़ खाबड़ रास्तों पर टैंक दौड़ाए जाते हैं। हड्डी को कंपकंपाती ठंड में जहाँ रतजगा करना होता है, वहीं आत्मा तक को झुलसाती गर्मी में दिनभर यूनीफॉर्म पहने और कंधे पर बंदूक रखे चौकसी करनी पड़ती है।

हथियारों की सौदेबाजी होती है। बड़े बड़े वादों के बीच, बड़े-बड़े घोषणाओं के बीच कैसे छोटे-छोटे अरमानों के पौधे दबाए और कुचले जाते हैं । कई नन्हीं कोंपलें असमय बर्बाद हो जाती हैं । युद्ध कोई ढाई अक्षरों का शब्द नहीं बल्कि युगों युगों तक अपने प्रभाव से डराते रहने वाली एक हिंसक प्रक्रिया है, एक अप्रिय तथ्य है, एक बलात परिघटना है।

माउंटबेटन योजना और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के मद्देनज़र भारतीय उप महाद्वीप दो हिस्सों में बँट गया। भारत और पाकिस्तान । इस विभाजन के दौरान एक करोड़ से अधिक लोगों ने पलायन किया। इसे दुनिया के कुछ बड़े पलायनों में से एक माना जाता है। मगर यह पलायन शांतिपूर्ण नहीं था। इस दौरान भारत-पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा, बलात्कार, हत्या और लूट की सैंकड़ों घटनाएं हुईं जिनमें मानवता तार-तार हुई। दोनों ही देशों में लाखों लोग कई कई सालों तक अपरिचित और नई जगहों पर टेंटनुमा आवासों में अपने समय गुजारे। यह कहानी एक ऐसे ही परिवार की है। यह कहानी सिर्फ एक परिवार की न होकर ऐसे कई परिवारों की कहानी है।

गुरुमुख नाथानी के दादा श्याम लाल नाथानी मध्यप्रदेश के कटनी में रह रहे थे। वे यहाँ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से भागकर आए थे। हर समय अपने गुरु झूलेलाल के स्मरणों में खोए रहनेवाले श्याम लाल के लिए अपने पुरखों की ज़मीन को अचानक छोड़ कर आना आसान न था।

गुरुमुख जब छोटा था, तब खाड़ी युद्ध हुआ था। टीवी पर महाभारत और रामायण की कल्पनाएँ मानो सच हो उठी थीं। लोग टीवी के परदे पर घर बैठे युद्ध की विभीषिकाओं के आक्रामक तेवर देख रहे थे। यह पूरी दुनिया को मानो युद्ध के प्रभाव में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से लाने की कोशिश थी । गुरुमुख का किशोर मन अभी इतना वयस्क कहाँ हुआ था ! टीवी देखते देखते वह एक अपने दादा से कह बैठा " दादा जी !देखिए तो कितने पटाखे चल रहे हैं ! "

श्यामलाल का मन दुखी हो गया । बोले, " बेटा, ये पटाखे नहीं हैं। मनुष्य के पतन के आविष्कार हैं। ये सिर्फ़ शोर पैदा नहीं करते बल्कि हमें गूँगा, बहरा और अंधा बनाते चले जा रहे हैं। ये हमारी संवेदनाओं की तरलता को जला रहे हैं। हमारे भीतर की मनुष्यता को सोख रहे हैं।"

गुरुमुख ने अपनी उम्र से दो क़दम आगे बढ़कर अपने दादा से सवाल किया, " दादाजी, मैंने तो स्कूल में पढ़ा है कि दुनिया का कोई भी आविष्कार मनुष्य की भलाई के लिए होता है। फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? फिर यहाँ पतन की बात कहां से आ गई!"

श्यामलाल ने अपने पाठानी कुर्ते की सलवटों को ज़रा ठीक करने की कोशिश करते हुए उसे समझाने की कोशिश की, “ देखो गुरुमुख, मनुष्य लगातार गिरता चला जा रहा है। हर अगला युद्ध हमें कुछ और अधिक जानवर बना जाता है। जो जिंदगी हम किसी को दे नहीं सकते उसे लेने का हमें हक किसने दिया!”

गुरुमुख ने तो अभी किशोरावस्था में क़दम रखा ही था। दादा जी की बातों को कितना समझ सका और कितना नहीं, इसका ठीक ठीक अंदाज़ा लगाना ज़रा मुश्किल था। मगर श्यामलाल युद्ध से जुड़ी बातें करते-करते जाने कब अपने अतीत की ओर चले जाते और फिर वहाँ की एक-एक चीज़ों को याद करने लगते। हैदराबाद की हवेली का एक एक कोना उनकी आँखों के आगे घूम जाता। उनकी पत्नी को कटनी की आबोहवा शायद जमी नहीं या फिर वे कोई चिड़िया बनकर अपनी हवेली के आँगन, ओसारे और उसकी छत पर फुदकना चाहती हों और अब ऐसा करना इस जन्म में नामुमकिन होता देख शायद अपने प्राण त्यागने में ही भलाई समझी हो, जो भी कारण रहा हो, कटनी आने के साल-भर के भीतर वे ऐसी गिरीं की फिर उठ न सकीं। उस समय श्यामलाल की बहू गौरी अपने भावावेग पर काबू न पा सकी थी और बोली, “बाबूजी, हमारी सेवा में ही शायद कोई कमी रह गई थी। ...”

वह आगे कुछ बोलती, उसके पहले ही श्यामलाल ने उसकी आँखों से बहते आँसुओं को पोंछते हुए कहा, “रो मत मेरी बच्ची। तुम तो सचमुच ही गौरी हो। इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। उसे तो यहाँ कभी जी लगा ही नहीं। समुद्र के किसी बड़े जहाज पर बेमन से मँडराने वाली वह कोई पक्षी थी। उसे तो अपने वतन जाना ही थी। वह वहीं कोई गौरैया के रूप में अपने घर में इधर-उधर फुदक रही होगी। शादी के बाद जब पहली बार वह उस हवेली में आई थी, तबसे ही उसने उस घर को अपना मंदिर बना लिया था। बाकी सिन्धी परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी श्रीराम और श्रीकृष्ण की मूर्ति के साथ-साथ शिव-दुर्गा और गुरु नानक की मुर्ती को वह एक समान भाव से पूजा करती थी। और हाँ, साई भाजी पुलाव के साथ परोसा उसका फ्राई भिन्डी दही क्या कमाल का संयोग हुआ करता था!”

गौरी ने देखा, उन हँसती बूढ़ी आँखों से आँसू बहने लगे थे। इस बार गौरी की बारी थी। अपने ससुर के आँसुओं को पोंछती हुई बोली, “ आप भी न पापाजी, एकदम से बच्चे बन जाते हैं। बिल्कुल गुरुमुख की तरह।”

श्यामलाल भी मुस्कुरा दिए। उस बूढ़े चेहरे पर निर्मलता की एक अलौकिक आभा साफ नज़र आ रही थी।

गौरी इठलाती हुई स्कूल पढ़ती कोई बच्ची बन गई। नखरे दिखाती हुई और अपनी आँखें मटकाती हुई बोली, “पापाजी, आपने मम्मी जी की तो ख़ूब तारीफ़ कर दी। मगर मैं? क्या मुझे कुछ नहीं आता! क्या मैं सिंधी समाज के व्यंजन-परंपरा से बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ? बोलिए, बोलिए?”

श्यामलाल ने अपने गुरु झूलेलाल को स्मरण किया और उनके प्रति मन ही मन कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा, “बेटी, तुम्हारी जैसी रूपमती और गुणी बहू तो नसीब वालों को ही मिलती है।” फिर पुराना कोई स्वाद स्मृति से मानो जिह्वा पर पुनः अवतरित हो गया हो, उसे याद करते हुए और चटखारे लेते हुए अपने बहू की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगे, “ ये जो गौरी है न, वह इमली डालकार बेसन की कढ़ी ऐसी बनाती है न कि बस अपनी ऊँगलियाँ चाटती रह जाओ। और हाँ वह मामूली कढ़ी नहीं होती। उसमें कई तरह की सब्ज़ियाँ डाली जाती हैं”। और फिर श्यामलाल उसे किसी उत्साही बच्चे की तरह गिनाने भी लगे, “बैंगन, कद्दु, सूरन, भिंडी, आलू और न जाने क्या क्या!”

“बस कीजिए बाबूजी, ऊपर आसमान से अम्माजी भी देख रही होंगी। क्या सोचेंगी, उनके जाते ही आपने पार्टी बदल ली| पत्नी की छोड़ बहू की तरफ़दारी करने लगे”

गौरी शर्माती हुई रसोई की ओर भाग गई। जाते-जाते बोली, “ मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूँ|”

***

एक दिन गुरुमुख ने अपने दादा से पूछा, 'दादाजी, इतने सारे बम फटने से प्रदूषण भी तो होते होंगे। वायुमंडल भी सांस लेने लायक नहीं बचता होगा।"

"हाँ बेटा, यह तो है ही। पहले ही नफरतों ने यह दुनिया रहने लायक नहीं छोड़ी है और दूसरे आयुधों के दिनोदिन बढ़ते इस्तेमाल ने तो इस पृथ्वी को नरक ही बना छोड़ा है। युद्ध एक हलचल है। इसमें सबका परिवार नष्ट हो जाता है । कोई खुश नहीं रहता है। न जीतनेवाला और न हारनेवाला। तुम्हें याद है, जिन पायलटों ने हीरोशामा और नागाशाकी पर परमाणु बन गिराए थे, उन्होंने आत्महत्या कर ली थी| और जो लोग अपने परिजनों को किसी युद्ध में खोए बैठे हैं कई बार उनकी याद में जिंदा लोगों की हालत भी मृतप्राय हो जाती है|”

गुरुमुख को तभी उसकी मम्मी ने बुला लिया। धुंधलका हो गया था और उन्हें शौच के लिए बाहर जाना था। घर का दरवाज़ा अंदर से बंद करने को कह वह पड़ोस की दूसरी दूसरी स्त्रियों के साथ बाहर चली गई । इन सभी स्त्रियों के पति अपने अपने व्यवसायों को लेकर संघर्षरत थे । दुकानें जमा रहे थे और परिवार को किसी तरह पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे थे।

श्यामलाल जैसे बुजुर्ग घरों में बैठे रहते और अपनी हालत पर तरस खाते रहते। भारत-पाक विभाजन को कोसते हुए एक दिन श्याम सुंदर अपनी बहू से कहने लगे , "अच्छा होता बहू कि हम आजाद ही नहीं होते! कम से कम अपने इलाके में सुख चैन से रह तो रहे होते। इससे अच्छा तो यही था कि हम गुलाम ही रहते! इस आजादी ने हमें क्या दिया! हमसे हमारा घर बार, खेत खलिहान, जमीन जायदाद, दुकानें सब छीन लीं। हम कम से कम पाकिस्तान में ठीक से रह तो रहे थे। दो जून की रोटी इज्जत के साथ खा तो रहे थे। इस तरह हमारी स्त्रियों को घर से बाहर मौके-बेमौके निकलना तो नहीं पड़ रहा था। हम आज यहाँ एक-एक पैसे के मोहताज बने हुए हैं। क्या मैं यही दिन देखने के लिए जिंदा हूँ! हमारी बहू-बेटियां इस तरह वहाँ मौके-बेमौके बाहर तो नहीं जाती थीं! आज हम एक एक पैसे के मोहताज बने हैं । इस आजादी ने हमें क्या दिया ! इससे तो लाख भली गुलामी ही होती है|”

गौरी क्या बोलती वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई ! वह अपने ससुर की हताशा को समझ रही थी।

जब कभी और जहाँ भी युद्ध की बात होती, श्यामलाल नाथानी इन बातों को दोहराते। उनके पुराने घाव हरे हो जाते। उन्हें पाकिस्तान से भारत आए अरसा हो गया था, मगर अभी भी उनका दिल पाकिस्तानी हैदराबाद की उन्हीं गलियों में ही रमा रहता। खाड़ी युद्ध के दिनों में टीवी के सामने बैठे हुए वे चुपचाप युद्ध से जुड़े समाचारों को सुनते रहते। उनके भीतर अतीत और वर्तमान का अपना युद्ध जाने कब से ज़ारी था।

गौरी नाथानी अपने ससुर का बड़ा आदर करती थी और हरदम उनकी छोटी-मोटी ज़रूरतों का ध्यान रखती थी।

आसपास के सभी लोग वे अभी टेंटनुमा घरों में थे। सार्वजनिक शौचालाय की व्यवस्था थी मगर आए दिन उसमें जाम लगा रहता था। कोई आधा किलोमीटर की दूरी पर एक तालाब था जिसके आसपास की झाड़ियों में स्त्री-पुरुष निवृत्त हुआ करते थे। एक मूक समझौते की तरह स्त्रियों का क्षेत्र अलग और पुरुषों का क्षेत्र अलग था। मगर शहर के कुछ शोहदे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते थे। वे इधर-उधर ताक-झाँक में लगे रहते थे। शहर से कुछ बाहर स्थित तालाब तक रास्ता झाड़-जंगलों से भरा हुआ था। महिलाएँ इसलिए समूह में जाया करती थीं। तड़के सुबह और गोधूली में। मगर हर समय कोई नियम कहाँ सधा रह पाता है! आए दिन कभी कोई तो कभी कोई इन कामों के लिए पकड़ा जाता, उसे डाँटा-पिटा जाता मगर हर रात मच्छरों की नई फौज की तरह उनकी संख्या बढ़ती ही चली जाती। उसमें नए मच्छर शामिल होते जाते। जितनी गंदगी साफ करो, नए सिरे से गंदगी का अंबार जमा हो जाता। आसपास के ये टेंटनुमा घरों में रहनेवाले रिफ्यूजी लोग आए दिन अपमान का घूँट पीकर रह रहे थे। शहर के कुछ नामी-गिरामी घरों के बिगड़ैल बच्चों ने भी इधर की गलियाँ नापनी शुरू कर दी थीं। देखने-दिखाने के लिए प्रशासन की ओर से कुछ धड़-पकड़ होती, मगर वे नाकाफ़ी थीं। उनका कोई सार्थक प्रभाव पड़ता दिख नहीं रहा था। आसपास के लोग भी इस टोली को एक तरह से बाहरी मानकर स्वयं को इनसे अलग-थलग मानकर चल रहे थे।

खुद्द्दार और कभी संपन्न रहे श्यामलाल को यह सब बड़ा नागवार गुज़रता, मगर वक़्त ने उनके पैर और हौसले दोनों तोड़ दिए थे। उस रात भी यही हुआ। अमावस्या की रात थी। सुबह से ही गौरी का पेट खराब चल रहा था। कुछ रोकथाम की कुछ कोशिशों के बावज़ूद भी उसे कई बार जाना पड़ रहा था। पति तो स्टेशन के पास एक छोटे से किराने दुकान को चलाने में जो सुबह जाता, तो फिर देर रात को ही लौटता। ससुर से अपनी प्यारी बहू की दशा देखी नहीं जा रही थी। मगर वे लाचार थे। ....विभाजन में इस तरफ आते वक़्त किसी ने उनपर कुल्हाड़ी से प्रहार कर दिया था। उस समय तो किसी तरह उसपर पतली धोती बाँध सपरिवार उन्हें भारत की सीमा में प्रवेश करने की हड़बड़ी थी। जब उनका उद्देश्य सफल हो गया और परिवार वालों ने ज़िद की तब वे लँगड़ाते हुए किसी तरह डॉक्टर के पास गए। लंबा इलाज़ चला, मगर सेप्टिक के बढ़ते खतरे को देखते हुए उनका पैर घुटने तक काटना पड़ा। जवानी के दिनों में तो लाठी के सहारे कुछ काम-धाम करते रहे मगर अब बुढ़ापे का शरीर पहले जैसा नहीं रह गया था। सो वे ज़्यादातर घर के अंदर रहते। गुरुमुख को बुलाकर एक जाननेवाले की दुकान पर बहू के लिए दवाई लाने भिजवाया मगर मानो उस दवाई से मानो कोई ख़ास फायदा न हुआ। उस रात गौरी का पति दुकान के लिए सामान लाने जबलपुर चला गया था। रात साढ़े आठ बजे वह तालाब की ओर जाकर नौ बजे तक घर लौट चुकी थी। सारे काम निपटाकर और ससुर के पास पानी का जग रखकर गौरी, गुरुमुख के साथ देर तक बातें करती रहीं। आदतन अपनी माँ से दो-तीन कहानियाँ सुनकर वह भी सो गया। गौरी की आँख भी लग गई। मगर पेट के गुड़गुड़ ने उसे जल्द ही जगा दिया और ‘प्रेशर’ बर्दाश्त से बाहर हुआ देख धीरे से बाहर की ओर निकल गई।

***

अपराधी अपराध करके निकल चुका था। रात अपनी लहू रोती रही। सुबह तक कोहराम मच चुका था। मुँह अँधेरे तालाब की ओर फारिग होने निकली स्त्रियों ने वह भयानक मंज़र देखा। निष्प्राण देह जगह जगह से चोटिल थी और पानी पर तैर रही थी। सूर्योदय से पहले ही गौरी अपने दरवाज़े पर आ चुकी थी। मगर नाथानी परिवार के लिए वह सूर्योदय नहीं सूर्यास्त था। जड़-मूर्ति नाथानी परिवार की तीन पुरुष-पीढ़ियाँ उसके पास बैठी हुई स्त्रियों की तरह बिलख बिलख रो रही थीं। लोग तरह तरह की बातें बना रहे थे। पुलिस अपनी औपचारिकताओं में जुटी थी। किसी की श्यामलाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वे सिर्फ बुदबुदा रहे थे मानो स्वयं को दिलासा दे रहे हों…मेरी बहू पवित्र है। गौरी निष्कलंक है। उसने जल-समाधि ली है।

***

जो लौट के फिर न आये ।

जहान्वी सुमन

पृथ्वी पर चेतन प्राणियों की असंख्य जातियां हैं. जिनमें से सबसे सभ्य जाती मानव की समझी जाती है. लेकिन ये ही मानव दूसरे की ज़मीन जायज़ाद, राज पाट हड़पने के लिए सभ्यता के मायने ही भूल जाता है।

युद्ध की साजिश युगों से करता आ रहा।

किसी एक मस्तिष्क में उपजी इस विकृत मानसिकता का खामियाज़ा न जाने कितने लोगों को भुगतना पड़ता है।

इतिहास गवाह है, कि कभी किसी एक व्यक्ति के कारण बड़े -बड़े राज पाट लूट गए हैं, तो कहीं कोई एक बहादुर दुश्मन के सामने ऐसे चट्टान बन कर खड़ा हो गया कि बस्तियों की बस्तियों को उजड़ने से बचा लिया।

ऐसे वीर और वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ न्योछावर दिया। जिनके बलिदान को पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

१९४७ को भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर लगातार विवाद की स्थिति बनी हुए है। भारत ने बहुत बार शान्ति बनाये रखने की चेष्टा की है, लेकिन पाकिस्तान अक्सर धोखा दे जाता है और चुपचाप अपने सैनिक भारत की सीमा में घुसाने की कोशिश करता रहता है।

१९६५ में भारत पाकिस्तान के युद्ध को करीब से देखने वाले मेजर लखन पाल रिटायरमेन्ट के बाद दिल्ली में सेटल हो गए थे ।

मुकेश और वरुण उनके दो बेटे थे।

वरुण का जन्म 10 अक्टूबर 1950 में दिल्ली में हुआ था। मुकेश उनसे दो साल बड़े थे।

जब वरुण तीन वर्ष के थे, तभी से उन में देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा था। वह पिता से अक्सर युद्ध के किस्से सुनते रहते थे और अपनी खिलोने की बंदूक लेकर दुश्मन को ललकारते फिरते थे ।

एक दिन वरुण और मुकेश की स्कूल की छुट्टी हुई और वो रोज़ की तरह अपनी गाडी में सवार होने के लिए सड़क पर आये, तो उन्होंने पाया की आज उनकी गाड़ी नहीं आई। बड़े भाई मुकेश रोने लगे तो सात वर्ष के वरुण पाल ने अपने भाई को दिलासा देते हुए कहा, :रो मत भैया मुझे घर का रास्ता पता है. वरुण ने अपने बड़े भाई का बस्ता भी अपने कंधे पर उठाया और दोनों भाई मंडी हाउस से गुल डाकखाने तक पैदल चलते हुए घर पहुंचे तो माँ का रो रोकर बुरा हाल था।

माँ ने वरुण को गले लगाते हुए कहा, "अगर तुम्हे कुछ हो जाता, तो मैं कैसे ज़िंदा रहती ?"

इस पर मुकेश ने नाराज़ होते हुए कहा,"आप छोटे से ज्यादा प्यार करती हो। "

माँ ने कहा, "नहीं पगले" और रोते हुए दोनों को अपनी छाती से लगा लिया।

बचपन हंसी ख़ुशी से बीत गया। मुकेश ने डाक्टरी में एडमिशन ले लिया।

वरुण का मन तो देश की सरहदों की रक्षा करने को ललायित था। वह मिलिट्री की टट्रेनिंग के लिए देहरादून चले गये ।

माँ ने ट्रेनिंग पर जाते हुए वरुण से कहा, "बेटा पत्र लिखते रहना मुझें, तुम्हारी बहुत चिंता रहती है। "

वरुण माता -पिता का आशीर्वाद लेकर, ट्रेनिंग के लिए देहरादून रवाना हो गए।

१९७१ का वर्ष और दिसंबर का महीना था। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के बादल मंडरा रहे थे।

कश्मीर के शक्गड इलाके में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ हो चुकी थी। युद्ध के पूरे आसार नज़र आ रहे थे।

दिल्ली की एक सुबह वरुण के माता पिता और भाई मुकेश नाश्ते की मेज पर बैठे ही थे की एक ओटो रिक्शा उनके घर के पास आकर रुका। जिसमें से एक लम्बा चौड़ा गोरे रंग वाला युवक बाहर निकला मां की ऑंखों ने झट वरुण को पहचान लिया।

वरुण ऑटो से बाहर निकला उसके दोनों हाथों में सामान था। मुकेश ने जल्दी से दौड़ कर वरुण का सामान अपने कंधे पर उठा लिया। पिता ख़ुशी से वहीं के वहीं खड़े रह गए। माँ बोली, "अंदर आ सबसे पहले तेरी नज़र उतारती हूँ। आर्मी ज्वाइन करने के बाद कितना स्मार्ट लग रहा है।

माँ ने वरुण की नज़र उतारने के बाद सर पर हाथ फेरते हुए पूछा , "ऐसे कैसे आ गया अचानक ?" सरप्राइज़ देना चाहता था मॉ को ?"

वरुण बोले ," सरप्राइज़ ही समझ लो। जैसे अचानक आया हूँ, वैसे अचानक जा भी रहा हूँ आज शाम को। "

"माँ ने हँसते हुए कहा ,:चल हठ, मजाक मत कर मेरे साथ। कितने दिनों बाद देखा है, तुझे ऐसे कैसे चला जाएगा।"

वरुण माँ की गोद में सिर रखते हुए बोले, " मेरी सबसे प्यारी माँ, मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। सचमुच शाम की गाडी से अखनूर जाना है। '

वरुण के पिता समझ गए भारतीय सेना में फौजियों की ज़बरदस्त ज़रूरत है, तभी तो वरुण को ट्रेनिंग के बीच ही बॉडर पर जाने का आदेश मिल गया है।

माँ ने आश्चर्य से पूछा, " अभी तो तेरी ट्रेनिंग भी पूरी नहीं हुईं। ऐसे कैसे दुश्मन से लड़ेगा?

वरुण बोले मॉ आप चिंता मत करों अपने बेटे पर विश्वास रखो जल्दी ही दुश्मन को मुंह तोड़ जवाब देकर वापिस आऊँगा। "

माँ बोली, "तूझ पर पूरा विश्वास है लेकिन अभी तेरी उम्र बहुत कम है। "

वरुण बोले। माँ आप जल्दी से आलू के परांठे बनाओं। मैं भईया के साथ जाकर बाज़ार से एक अच्छा सा सूट खरीद कर लाता हूं। माँ ने पूछा, "सूट क्यों खरीदना है क्या किसी की शादी है ?

वरुण हँस कर बोले, "पाकिस्तान को हराने के बाद पार्टी भी तो करेगे ?"

माँ वरुण का मनपसंद खाना बनाने रसोइ घर में चली गईं। पिताजी ने दोस्तों और रिश्तेदारों को वरुण से मिलने के लिए एकत्र कर लिया।

वरुण बाज़ार से खूबसूरत नीले रंग का सूट लेकर घर लौटा तो, उसके वापिस रेलवेस्टेशन जाने का टाइम होने वाला था उसने खाना गाडी में खाने के लिए रखवा लिया।

मुकेश टेक्सी लेने चला गया रिष्तेदारों और मित्रों की आँखें नम थीं लेकिन सब की जुबां पर एक ही बात थी, "वरुण पकिस्तान केछक्के छुड़ा देना।

टेक्सी आ गई वरुण का सामान टेक्सी में जैसे ही रखा वरुण की माँ फूट फूट कर रोने लगी, वरुण से लिपट गईं, "मेरा बच्चा कैसे रहेगा बंदूकों और गोलियों के बीच। पिताजी ने दिल को मज़बूत करते हुए कहा ,"रो मत हिम्मत रख फौज़ी को जंग में हँसते हँसते भेजना चाहिए। "

वरुण की टेक्सी काळा धुआं छोड़ती हुए आँखों से ओझल हो गई, पीछे छूट गया एक परिवार जिसे वरुण के सकुशल लौट आने का इंतज़ार था..

१३ दिसम्बर १९७१

अख़नूर के आर्मी हेड क्वाटर जाकर वरुण ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई।

उन्हें बतौर सेकिंड लैफ्टिनेंट तैनात किया गया। आर्मीकैम्प के लिए भोजन तैयार करने वाले करतार सिंह से उनकी दोस्ती हो गई जो उम्र और तज़ुर्बे में उनसे सीनियर थे..

एक दिन करतार सिंह ने वरुण के कन्धे पर हाथ रखकर पूछा, 'कैसा लगा आर्मी केम्प का खाना। "

वरुण ने मुस्कुराते हुए कहा, "बहुत अच्छा। अपने देश की माटी की खुशबु है इस खाने में, लेकिन मेरी माँ के हाथ के बने आलू पराँठों का जवाब नहीं। "

करतार सिंह ने कहा, 'बस ये जंग जीतने के बाद तेरे घर सबसे पहले चलूँगा, आलू के परांठे खाने। कई सालों से बना बना कर खिला रहा हूँ, मैं भी तो किसी और का बनाया खाना खाऊँ। ' वरुण ने हँसते हुए कहा, 'बेशक। '

वरुण ने अपने घर के लिए एक पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि, वह बहुत खुश हैं। उन्हें सीमा पर लगी चौंकियों में सोने उतना ही आनंद आता है जितना आनंद माँ की गोद में सोने में।

१६ दिसंबर १९७१

शकगढ पर तैनात भारतीय सशक्त सेना की एक टुकड़ी ने आर्मी के रेडिओ सेट पर संदेश भेजा कि बसंतर नदी के पास पाकिस्तान के ११ टैंक घुस चुके हैं और हमें शीघ्र मदद चहिए। वरुण तुरंत अपनी टुकड़ी के साथ शकगढ़ रवाना हो गए।

भारतीय सेना के पास केवल तीन टैंक थे। शकगड़ के कमांडिंग ओफिसर ने वरुण को

रिपोटिंग के लिए हेड क्वाटर बुलाया। वरुण की कम उम्र थी, ६ महीने की ट्रेनिंग शेष थी और युद्ध का अनुभव जीरो था। उन्होने वरुण को युद्ध पर नहीं भेजने का फैसला लिया। वरुण जी जान से कमांडर को मनाने में जुट गए।

आफिसर ने उन्हें डांटते हुए कहा,"ये युद्ध कितना महत्वपूर्ण है क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अंदाजा है?"

वरुण बिना कुछ बोले सीधा अपने केम्प में गए और अपने सामन में से अपना नीले रंग का सूट लाकर ऑफिसर की मेज़ पर रखते हुए बोले, "जनाब मैं जीत का जश्न मनाने के लिए अपने साथ ये सूट भी लाया हूँ। "

कमांडर को उनकी आँखों में आत्मविश्वास दिखाई दिया। "

तभी सूबेदार ने हेड क्वाटर को खबर दी, "जनाब हमारे एक टैंक में तकनीकी खराबी आ गई अब हमारे पास केवल दो टैंक बचे हैं।"

भारत की मुश्किलें और बढ़ गई थीं।

कमांडर ने एक वरिष्ठ सूबेदार को वरुण के साथ भेजा। वरुण को सलाह दी गई की कि वह वरिष्ठ सूबेदार के निर्देश अनुसार चले।

इतना वख्त नहीं बचा था, कि यह देखा जाये कि दुश्मन ने बारूदी सुरंग तो नहीं बिछा रखी।

सूबेदार और वरुण ने मिलकर दुश्मन के सात टैंक धराशायी कर दिए, लेकिन सूबेदार के टैंक में आग लग गई।

हेडक्वाटर से वरुण को बार बार निर्देश मिल रहा था, "वरुण वापिस आ जाओ। "

लेकिन वरुण ने कहा, अभी मेरी बंदूक में गोलियाँ बाकी हैं। वरुण ने तीन टैंक और उडा दिए। पाकिस्तान की सेना के पसीने छूट गए उन्होंने वरुण के टैंक को निशाना बनाया जिससे वरुण के टैंक की छत क्षति ग्र्स्त हो गई।

कमांडर ने रेडिओ सेट पर वरुण से कहा। टैंक से नीचे उतर आओ /वरुण ने जान बूझकर अपना रेडिओ सेट बंद कर दिया और पाकिस्तान के एक और टैंक पर गोलियां बरसा दी।

पाकिस्तान की ऒर से एक तोप का गोला दनदनाता हुआ आया और वरुण के टैंक के पास आकर इतनी ज़ोर से फटा कि वरुण की पेट की आंतड़ियाँ बाहर निकल आई।

वरुण ने अपने खून से लथपथ हाथों से एक और टैंक पर गोलियां बरसा दीं, इस टैंक में पाकिस्तान का कमांडर था, वह टैंक छोड़ कर अपनी जान बचा भाग खड़ा हुआ।

पाकिस्तान ने अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया।

भारत के फौजी कैम्प में जीत की खबर पहुंच चुकी थी।

वरुण की आँखेँ जीत की ज्योति लेकर हमेशा हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं।

१८ दिसम्बर १९७१

वरुण का परिवार लगातार रेडिओ सेट पर समाचार सुन रहा था। भारत की जीत और युद्ध समाप्ति की खबर सुनकर परिवार ने चैन की सांस ली।

अगले दिन पांच बजे काल बेल बजी, वरुण की माँ ने कहा, वरुण होगा आप जाकर दरवाजा खोलो मैं आरती की थाली सजातीं हूँ।

वरुण के पिता ने दरवाज़ा खोला तो पोस्ट मैन टेलिग्राम लिए खडा था। वरुण के पिता बुदबुदाए वरुण का होगा, कब आ रहा है।

टेलिग्राम देखकर वःह जड़ हो गए, टेलिग्राम में लिखा था

'डीपली रिगरेट टु इनफ़ॉर्म यू यॉर सन आई सी, सेकेंड लेफ़्टिनेंट वरुण पाल रिपोर्टेडली किल्ड इन एक्शन 16 दिसंबर. प्लीज़ एकसेप्ट सिनसियर कंडोलेंसेज़.'

वरुण के पिता वहीं सर पकड़ कर बैठ गए। मुकेश दौड़ा हुआ आया और बोला, "क्या हुआ पापा वरुण ठीक तो है न ?: कब आ रहा है वो घर वापिस ?"

वरुण के पिता बिलख बिलख कऱ रो पड़े, " कभी नहीं लौटेगा वरुण"

मुकेश उदास होलर बोला, "ऐसा मत कहो,पापा। "

वरुण के पिता बोले, " मेरा बेटे। ये सच है. वरुण शहीद हो गया। "

मुकेश बोला, " नहीं, पापा ऐसा मत कहो। हो सकता है ये टेलिग्राम झूठा हो। किसी ने हमारे साथ मज़ाक किया हो। "

वरुण के पापा फ़फ़क फ़फ़क कर रो रहे थे वो रोते हुए बोले, "टेलिग्राम आर्मी हैड क्वार्टर से आया है, झूठा नहीं है। "

ये सुनते ही वरुण की माँ चीख पड़ी, उनके हाथ से आरती का थाल छूट गया, "मेरा बच्चा,हाय मेरा बच्चा कहाँ चला गया।,उसको वापिस बुला लो, वापिस बुला लो । वरुण कहाँ चला गया लाल। " कहते कहते वे बेहोश हो गईं।

अड़ोसी पड़ोसी रिश्तेदार सब इकट्ठे हो गए, सभी की आँखें नम थी।

१९ दिसम्बर १९७१

वरुण को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई देने की तैयारी चल रही थी, करतार सिंह दूर खड़ा सुबक रहा था, वह वरुण की तस्वीर के पास जाकर बोला, 'तुने तो वादा किया था लड़ाई खत्म हो जाए, फिर अपनी माँ के हाथ के आलू के परांठे खिलाएगा। ओये धोखा दे गया। "

वरुण का पार्थिव शरीर जब आर्मी की गाडी से उसके घर पहुंचा तो, वहॉँ खड़े मिडिया के लोग भी रो पड़े, "महज़ २१ वर्ष की आयु में देश के लिए इतना बड़ा बलिदान। "

पिता ने उसके सामान में से नीले रंग का सूट निकाला और वरुण के शव के पास उसे रखते हुए बोले, 'जीत का जश्न तो मना लेता, कितने अरमान थे तेरे इस सूट को पहनकर पार्टी करने के। सब भूल गया तू। '

आर्मी चीफ ने उन्हें संभालते हुए कहा, "शहीदों की शहादत को यूँ रो कर शर्मिंदा न कीजिये। वरुण मरकर भी अमर हो गया है।

वरुण के पिता बोले, " बेटे को खूब कन्धे पर बिठाया है, आज कैसे कन्धा दूँ उसे। जानता हूँ, शहीद कभी नहीं मरते, वो तो हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.

बाद में इस वीर को राष्ट्रपति द्वारा मरनोप्रांत "परमवीर चक्र " प्रदान किया गया।

कुछ वर्ष बाद पाकिस्तान के एक कमांडर, जिसने १९७१ के युद्ध में पाक़िस्तान की कमान संभाली थी, अपनी एक पुस्तक में उस युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा था,

"उस दिन पाक़िस्तान की जीत निश्चित थी, लेकिन भारत के एक फौजी जवान वरुण पाल ने युद्ध का सारा नज़ारा ही पलट कर रख दिया। उसकी बहादुरी को मैं सलाम करता हूँ। "

देश में जगह जगह जीत का जश्न मनाया जा रहा था। ढोल नगाड़े बज रहे थे।

लेकिन वरुण के घर सन्नाटा था। वरुण की माँ का लाडला वरुण, पिता के बुढ़ापे का सहारा वरुण, मुकेश का दोस्त समान भाई.. .....अब कभी वापस नहीं आएगा।

जो लौट के फिर न आये ।

पृथ्वी पर चेतन प्राणियों की असंख्य जातियां हैं. जिनमें से सबसे सभ्य जाती मानव की समझी जाती है. लेकिन ये ही मानव दूसरे की ज़मीन जायज़ाद, राज पाट हड़पने के लिए सभ्यता के मायने ही भूल जाता है।

युद्ध की साजिश युगों से करता आ रहा।

किसी एक मस्तिष्क में उपजी इस विकृत मानसिकता का खामियाज़ा न जाने कितने लोगों को भुगतना पड़ता है।

इतिहास गवाह है, कि कभी किसी एक व्यक्ति के कारण बड़े -बड़े राज पाट लूट गए हैं, तो कहीं कोई एक बहादुर दुश्मन के सामने ऐसे चट्टान बन कर खड़ा हो गया कि बस्तियों की बस्तियों को उजड़ने से बचा लिया।

ऐसे वीर और वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ न्योछावर दिया। जिनके बलिदान को पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

१९४७ को भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर लगातार विवाद की स्थिति बनी हुए है। भारत ने बहुत बार शान्ति बनाये रखने की चेष्टा की है, लेकिन पाकिस्तान अक्सर धोखा दे जाता है और चुपचाप अपने सैनिक भारत की सीमा में घुसाने की कोशिश करता रहता है।

१९६५ में भारत पाकिस्तान के युद्ध को करीब से देखने वाले मेजर लखन पाल रिटायरमेन्ट के बाद दिल्ली में सेटल हो गए थे ।

मुकेश और वरुण उनके दो बेटे थे।

वरुण का जन्म 10 अक्टूबर 1950 में दिल्ली में हुआ था। मुकेश उनसे दो साल बड़े थे।

जब वरुण तीन वर्ष के थे, तभी से उन में देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा था। वह पिता से अक्सर युद्ध के किस्से सुनते रहते थे और अपनी खिलोने की बंदूक लेकर दुश्मन को ललकारते फिरते थे ।

एक दिन वरुण और मुकेश की स्कूल की छुट्टी हुई और वो रोज़ की तरह अपनी गाडी में सवार होने के लिए सड़क पर आये, तो उन्होंने पाया की आज उनकी गाड़ी नहीं आई। बड़े भाई मुकेश रोने लगे तो सात वर्ष के वरुण पाल ने अपने भाई को दिलासा देते हुए कहा, :रो मत भैया मुझे घर का रास्ता पता है. वरुण ने अपने बड़े भाई का बस्ता भी अपने कंधे पर उठाया और दोनों भाई मंडी हाउस से गुल डाकखाने तक पैदल चलते हुए घर पहुंचे तो माँ का रो रोकर बुरा हाल था।

माँ ने वरुण को गले लगाते हुए कहा, "अगर तुम्हे कुछ हो जाता, तो मैं कैसे ज़िंदा रहती ?"

इस पर मुकेश ने नाराज़ होते हुए कहा,"आप छोटे से ज्यादा प्यार करती हो। "

माँ ने कहा, "नहीं पगले" और रोते हुए दोनों को अपनी छाती से लगा लिया।

बचपन हंसी ख़ुशी से बीत गया। मुकेश ने डाक्टरी में एडमिशन ले लिया।

वरुण का मन तो देश की सरहदों की रक्षा करने को ललायित था। वह मिलिट्री की टट्रेनिंग के लिए देहरादून चले गये ।

माँ ने ट्रेनिंग पर जाते हुए वरुण से कहा, "बेटा पत्र लिखते रहना मुझें, तुम्हारी बहुत चिंता रहती है। "

वरुण माता -पिता का आशीर्वाद लेकर, ट्रेनिंग के लिए देहरादून रवाना हो गए।

१९७१ का वर्ष और दिसंबर का महीना था। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के बादल मंडरा रहे थे।

कश्मीर के शक्गड इलाके में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ हो चुकी थी। युद्ध के पूरे आसार नज़र आ रहे थे।

दिल्ली की एक सुबह वरुण के माता पिता और भाई मुकेश नाश्ते की मेज पर बैठे ही थे की एक ओटो रिक्शा उनके घर के पास आकर रुका। जिसमें से एक लम्बा चौड़ा गोरे रंग वाला युवक बाहर निकला मां की ऑंखों ने झट वरुण को पहचान लिया।

वरुण ऑटो से बाहर निकला उसके दोनों हाथों में सामान था। मुकेश ने जल्दी से दौड़ कर वरुण का सामान अपने कंधे पर उठा लिया। पिता ख़ुशी से वहीं के वहीं खड़े रह गए। माँ बोली, "अंदर आ सबसे पहले तेरी नज़र उतारती हूँ। आर्मी ज्वाइन करने के बाद कितना स्मार्ट लग रहा है।

माँ ने वरुण की नज़र उतारने के बाद सर पर हाथ फेरते हुए पूछा , "ऐसे कैसे आ गया अचानक ?" सरप्राइज़ देना चाहता था मॉ को ?"

वरुण बोले ," सरप्राइज़ ही समझ लो। जैसे अचानक आया हूँ, वैसे अचानक जा भी रहा हूँ आज शाम को। "

"माँ ने हँसते हुए कहा ,:चल हठ, मजाक मत कर मेरे साथ। कितने दिनों बाद देखा है, तुझे ऐसे कैसे चला जाएगा।"

वरुण माँ की गोद में सिर रखते हुए बोले , " मेरी सबसे प्यारी माँ, मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। सचमुच शाम की गाडी से अखनूर जाना है। '

वरुण के पिता समझ गए भारतीय सेना में फौजियों की ज़बरदस्त ज़रूरत है, तभी तो वरुण को ट्रेनिंग के बीच ही बॉडर पर जाने का आदेश मिल गया है।

माँ ने आश्चर्य से पूछा, " अभी तो तेरी ट्रेनिंग भी पूरी नहीं हुईं। ऐसे कैसे दुश्मन से लड़ेगा?

वरुण बोले मॉ आप चिंता मत करों अपने बेटे पर विश्वास रखो जल्दी ही दुश्मन को मुंह तोड़ जवाब देकर वापिस आऊँगा। "

माँ बोली, "तूझ पर पूरा विश्वास है लेकिन अभी तेरी उम्र बहुत कम है। "

वरुण बोले। माँ आप जल्दी से आलू के परांठे बनाओं। मैं भईया के साथ जाकर बाज़ार से एक अच्छा सा सूट खरीद कर लाता हूं। माँ ने पूछा, "सूट क्यों खरीदना है क्या किसी की शादी है ?

वरुण हँस कर बोले, "पाकिस्तान को हराने के बाद पार्टी भी तो करेगे ?"

माँ वरुण का मनपसंद खाना बनाने रसोइ घर में चली गईं। पिताजी ने दोस्तों और रिश्तेदारों को वरुण से मिलने के लिए एकत्र कर लिया।

वरुण बाज़ार से खूबसूरत नीले रंग का सूट लेकर घर लौटा तो, उसके वापिस रेलवेस्टेशन जाने का टाइम होने वाला था उसने खाना गाडी में खाने के लिए रखवा लिया।

मुकेश टेक्सी लेने चला गया रिष्तेदारों और मित्रों की आँखें नम थीं लेकिन सब की जुबां पर एक ही बात थी, "वरुण पकिस्तान केछक्के छुड़ा देना।

टेक्सी आ गई वरुण का सामान टेक्सी में जैसे ही रखा वरुण की माँ फूट फूट कर रोने लगी, वरुण से लिपट गईं, "मेरा बच्चा कैसे रहेगा बंदूकों और गोलियों के बीच। पिताजी ने दिल को मज़बूत करते हुए कहा ,"रो मत हिम्मत रख फौज़ी को जंग में हँसते हँसते भेजना चाहिए। "

वरुण की टेक्सी काळा धुआं छोड़ती हुए आँखों से ओझल हो गई, पीछे छूट गया एक परिवार जिसे वरुण के सकुशल लौट आने का इंतज़ार था..

१३ दिसम्बर १९७१

अख़नूर के आर्मी हेड क्वाटर जाकर वरुण ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई।

उन्हें बतौर सेकिंड लैफ्टिनेंट तैनात किया गया। आर्मीकैम्प के लिए भोजन तैयार करने वाले करतार सिंह से उनकी दोस्ती हो गई जो उम्र और तज़ुर्बे में उनसे सीनियर थे..

एक दिन करतार सिंह ने वरुण के कन्धे पर हाथ रखकर पूछा, 'कैसा लगा आर्मी केम्प का खाना। "

वरुण ने मुस्कुराते हुए कहा, "बहुत अच्छा। अपने देश की माटी की खुशबु है इस खाने में, लेकिन मेरी माँ के हाथ के बने आलू पराँठों का जवाब नहीं। "

करतार सिंह ने कहा, 'बस ये जंग जीतने के बाद तेरे घर सबसे पहले चलूँगा, आलू के परांठे खाने। कई सालों से बना बना कर खिला रहा हूँ, मैं भी तो किसी और का बनाया खाना खाऊँ। ' वरुण ने हँसते हुए कहा, 'बेशक। '

वरुण ने अपने घर के लिए एक पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि, वह बहुत खुश हैं। उन्हें सीमा पर लगी चौंकियों में सोने उतना ही आनंद आता है जितना आनंद माँ की गोद में सोने में।

१६ दिसंबर १९७१

शकगढ पर तैनात भारतीय सशक्त सेना की एक टुकड़ी ने आर्मी के रेडिओ सेट पर संदेश भेजा कि बसंतर नदी के पास पाकिस्तान के ११ टैंक घुस चुके हैं और हमें शीघ्र मदद चहिए। वरुण तुरंत अपनी टुकड़ी के साथ शकगढ़ रवाना हो गए।

भारतीय सेना के पास केवल तीन टैंक थे। शकगड़ के कमांडिंग ओफिसर ने वरुण को

रिपोटिंग के लिए हेड क्वाटर बुलाया। वरुण की कम उम्र थी, ६ महीने की ट्रेनिंग शेष थी और युद्ध का अनुभव जीरो था। उन्होने वरुण को युद्ध पर नहीं भेजने का फैसला लिया। वरुण जी जान से कमांडर को मनाने में जुट गए।

आफिसर ने उन्हें डांटते हुए कहा,"ये युद्ध कितना महत्वपूर्ण है क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अंदाजा है?"

वरुण बिना कुछ बोले सीधा अपने केम्प में गए और अपने सामन में से अपना नीले रंग का सूट लाकर ऑफिसर की मेज़ पर रखते हुए बोले, "जनाब मैं जीत का जश्न मनाने के लिए अपने साथ ये सूट भी लाया हूँ। "

कमांडर को उनकी आँखों में आत्मविश्वास दिखाई दिया। "

तभी सूबेदार ने हेड क्वाटर को खबर दी, "जनाब हमारे एक टैंक में तकनीकी खराबी आ गई अब हमारे पास केवल दो टैंक बचे हैं।"

भारत की मुश्किलें और बढ़ गई थीं।

कमांडर ने एक वरिष्ठ सूबेदार को वरुण के साथ भेजा। वरुण को सलाह दी गई की कि वह वरिष्ठ सूबेदार के निर्देश अनुसार चले।

इतना वख्त नहीं बचा था, कि यह देखा जाये कि दुश्मन ने बारूदी सुरंग तो नहीं बिछा रखी।

सूबेदार और वरुण ने मिलकर दुश्मन के सात टैंक धराशायी कर दिए, लेकिन सूबेदार के टैंक में आग लग गई।

हेडक्वाटर से वरुण को बार बार निर्देश मिल रहा था, "वरुण वापिस आ जाओ। "

लेकिन वरुण ने कहा, अभी मेरी बंदूक में गोलियाँ बाकी हैं। वरुण ने तीन टैंक और उडा दिए। पाकिस्तान की सेना के पसीने छूट गए उन्होंने वरुण के टैंक को निशाना बनाया जिससे वरुण के टैंक की छत क्षति ग्र्स्त हो गई।

कमांडर ने रेडिओ सेट पर वरुण से कहा। टैंक से नीचे उतर आओ /वरुण ने जान बूझकर अपना रेडिओ सेट बंद कर दिया और पाकिस्तान के एक और टैंक पर गोलियां बरसा दी।

पाकिस्तान की ऒर से एक तोप का गोला दनदनाता हुआ आया और वरुण के टैंक के पास आकर इतनी ज़ोर से फटा कि वरुण की पेट की आंतड़ियाँ बाहर निकल आई।

वरुण ने अपने खून से लथपथ हाथों से एक और टैंक पर गोलियां बरसा दीं, इस टैंक में पाकिस्तान का कमांडर था, वह टैंक छोड़ कर अपनी जान बचा भाग खड़ा हुआ।

पाकिस्तान ने अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया।

भारत के फौजी कैम्प में जीत की खबर पहुंच चुकी थी।

वरुण की आँखेँ जीत की ज्योति लेकर हमेशा हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं।

१८ दिसम्बर १९७१

वरुण का परिवार लगातार रेडिओ सेट पर समाचार सुन रहा था। भारत की जीत और युद्ध समाप्ति की खबर सुनकर परिवार ने चैन की सांस ली।

अगले दिन पांच बजे काल बेल बजी, वरुण की माँ ने कहा, वरुण होगा आप जाकर दरवाजा खोलो मैं आरती की थाली सजातीं हूँ।

वरुण के पिता ने दरवाज़ा खोला तो पोस्ट मैन टेलिग्राम लिए खडा था। वरुण के पिता बुदबुदाए वरुण का होगा, कब आ रहा है।

टेलिग्राम देखकर वःह जड़ हो गए, टेलिग्राम में लिखा था

'डीपली रिगरेट टु इनफ़ॉर्म यू यॉर सन आई सी, सेकेंड लेफ़्टिनेंट वरुण पाल रिपोर्टेडली किल्ड इन एक्शन 16 दिसंबर. प्लीज़ एकसेप्ट सिनसियर कंडोलेंसेज़.'

वरुण के पिता वहीं सर पकड़ कर बैठ गए। मुकेश दौड़ा हुआ आया और बोला, "क्या हुआ पापा वरुण ठीक तो है न ?: कब आ रहा है वो घर वापिस ?"

वरुण के पिता बिलख बिलख कऱ रो पड़े, " कभी नहीं लौटेगा वरुण"

मुकेश उदास होलर बोला, "ऐसा मत कहो,पापा। "

वरुण के पिता बोले, " मेरा बेटे। ये सच है. वरुण शहीद हो गया। "

मुकेश बोला, " नहीं, पापा ऐसा मत कहो। हो सकता है ये टेलिग्राम झूठा हो। किसी ने हमारे साथ मज़ाक किया हो। "

वरुण के पापा फ़फ़क फ़फ़क कर रो रहे थे वो रोते हुए बोले, "टेलिग्राम आर्मी हैड क्वार्टर से आया है, झूठा नहीं है। "

ये सुनते ही वरुण की माँ चीख पड़ी, उनके हाथ से आरती का थाल छूट गया, "मेरा बच्चा,हाय मेरा बच्चा कहाँ चला गया।,उसको वापिस बुला लो, वापिस बुला लो । वरुण कहाँ चला गया लाल। " कहते कहते वे बेहोश हो गईं।

अड़ोसी पड़ोसी रिश्तेदार सब इकट्ठे हो गए, सभी की आँखें नम थी।

१९ दिसम्बर १९७१

वरुण को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई देने की तैयारी चल रही थी, करतार सिंह दूर खड़ा सुबक रहा था, वह वरुण की तस्वीर के पास जाकर बोला, 'तुने तो वादा किया था लड़ाई खत्म हो जाए, फिर अपनी माँ के हाथ के आलू के परांठे खिलाएगा। ओये धोखा दे गया। "

वरुण का पार्थिव शरीर जब आर्मी की गाडी से उसके घर पहुंचा तो, वहॉँ खड़े मिडिया के लोग भी रो पड़े, "महज़ २१ वर्ष की आयु में देश के लिए इतना बड़ा बलिदान। "

पिता ने उसके सामान में से नीले रंग का सूट निकाला और वरुण के शव के पास उसे रखते हुए बोले, 'जीत का जश्न तो मना लेता, कितने अरमान थे तेरे इस सूट को पहनकर पार्टी करने के। सब भूल गया तू। '

आर्मी चीफ ने उन्हें संभालते हुए कहा, "शहीदों की शहादत को यूँ रो कर शर्मिंदा न कीजिये। वरुण मरकर भी अमर हो गया है।

वरुण के पिता बोले, " बेटे को खूब कन्धे पर बिठाया है, आज कैसे कन्धा दूँ उसे। जानता हूँ, शहीद कभी नहीं मरते, वो तो हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.

बाद में इस वीर को राष्ट्रपति द्वारा मरनोप्रांत "परमवीर चक्र " प्रदान किया गया।

कुछ वर्ष बाद पाकिस्तान के एक कमांडर, जिसने १९७१ के युद्ध में पाक़िस्तान की कमान संभाली थी, अपनी एक पुस्तक में उस युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा था,

"उस दिन पाक़िस्तान की जीत निश्चित थी, लेकिन भारत के एक फौजी जवान वरुण पाल ने युद्ध का सारा नज़ारा ही पलट कर रख दिया। उसकी बहादुरी को मैं सलाम करता हूँ। "

देश में जगह जगह जीत का जश्न मनाया जा रहा था। ढोल नगाड़े बज रहे थे।

लेकिन वरुण के घर सन्नाटा था। वरुण की माँ का लाडला वरुण, पिता के बुढ़ापे का सहारा वरुण, मुकेश का दोस्त समान भाई.. .....अब कभी वापस नहीं आएगा।

***

फौजी और वफ़ादार कुत्ता

राजेश मेहरा

दूर पहाड़िया बर्फ से ढ़की थी। यहां भी हल्की बर्फबारी हो रही थी। भारत चीन का युद्ध चल रहा था। सर्दी काफी थी लेकिन भारतीय जवान चीन के हर हमले का मुंह तोड़ जवाब दे रहे थे। लेकिन बर्फ गिरने और सर्दी ज्यादा होने के कारण भारतीय सैनिकों का हौसला टूट रहा था और पीछे से भी उनके लिये सहायता आने में टाइम लग रहा था। ऐसे में नायक युद्धवीर सिंह ने मोर्चा संभाला हुआ था। वो अपने जवानों की हौसला अफजाई कर रहे थे। भारतीय सैनिक एक एक करके मारे जा रहे थे । सैनिकों की रसद भी करीब करीब खत्म हो चली थी।

रह रह कर चीन फायरिंग कर रहा था। उस पोस्ट पर केवल 9 सैनिक रह गए थे। नायक युद्धवीर अंदर से परेशान थे लेकिन वो सैनिकों का पूरा हौसला बढ़ा रहे थे। उनको लड़ते हुए पूरे 36 घंटे हो चले थे। सैनिक नींद और कमजोरी से भर चुके थे। तभी एक तोप का गोला उनसे थोड़ी दूर गिरा, जब तक वो संभलते तब तक उनके तीन सैनिक और शहीद हो गए। अब तो सैनिकों में डर का माहौल पैदा हो गया । उनके शरीर मे अब सर्दी की सिहरन दौड़ रही थी। अब वो केवल 6 रह गए थे। उनका तो हौसला अब बिल्कुल टूट गया था।

युद्धवीर ने एक बार फिर ज़ोर से भारत माता का नारा लगाया और सैनिकों का हौसला बढ़ाने लगे। सैनिक फिर पूरे जोश से फायरिंग करने लगे।

जैसे जैसे समय बीत रहा था बचे सैनिक कमजोर पड़ रहे थे।

युद्धवीर ने बंकर में रखा आखिरी खाना सैनिकों को लाकर दिया। खाना थोड़ा था उसमें सैनिकों का पेट तो क्या भरता लेकिन उसको खाकर उनमे थोड़ी ऊर्जा आई। वो फिर जोश से चीन के सैनिकों को जवाब देने लगे । सैनिकों की गोलियाँ भी खत्म हो गई थी।

तभी अचानक चीन की तरफ से एक दम भारी गोला बारी हुई और बचे 6 भारतीय सैनिक भी शहीद हो गए।

अब उस पोस्ट पर केवल युद्धवीर सिंह बचे थे। चीन की तरफ से गोली बारी बन्द हो गई थी क्योंकि भारतीय पोस्ट से भी जवाब नही दिया गया तो वो समझ गए कि पोस्ट तबाह हो चुकी है और भारतीय सैनिक मारे जा चुके है।

युद्धवीर सिंह चाहते तो पोस्ट छोड़ के नीचे अपने मुख्यालय पहुंच जाते लेकिन उन्होंने कसम खाई की वो पोस्ट नही छोड़ेंगे चाहे जान चली जाए। वो कभी भी पीठ नही दिखाएंगे। अब बर्फबारी भी तेज हो गई और गहरा अंधेरा छा गया था।

उस पोस्ट पर अब युद्धवीर सिंह अकेले थे। तभी युद्धवीर को लगा कि वो वहां पर अकेले नही है। युद्धवीर ने अंधेरे में देखा कि दो आंखे चमक रही है। तभी आवाज आई और वो समझ गए के ये तो मोती कुत्ता है जो उनके मुख्यालय में नीचे रहता है। युद्धवीर उसे हमेशा कुछ खाने पीने को देते थे। वह भी युद्धवीर के आगे पीछे ही रहता था। शायद वह युद्धवीर को ही ढूंढते हुए उस तक पहुंच गया था। युद्धवीर को थोड़ा साहस मिला कि वो अकेला नही है। युद्धवीर ने उसे पुकारा तो वह पूंछ हिलाता हुआ उसे पास आ गया। ठंड में उसकी भी हालत खराब थी।

उधर चीन के सैनिक युद्धवीर की भारतीय पोस्ट पर आये और उन्होंने उस पर कब्जा करके युद्धवीर को बंदी बना लिया। तब तक युद्धवीर ने मोती को अंधेरे में छिप जाने को कहा नही तो चीनी सैनिक उसे भी मार देंगे लेकिन चीनी सैनिकों ने मोती की तरफ ज्यादा ध्यान नही दिया।

चीनी सैनिकों ने युद्धवीर की आंखों पर काली पट्टी बांधी ओर से बंदी बनाकर अपनी छावनी में ले जाने लगे। मोती अंधेरे का फायदा उठाकर युद्धवीर के पीछे पीछे चल रहा था।

काफी देर चलने के बाद युद्धवीर को एक सीलन भरी कोठरी में डाल दिया उसके हाथ पैर दोनो एक लकड़ी के खंभे के साथ बांध दिए और आंखों की पट्टी अब खोल दो थी। युद्धवीर को बिल्कुल भी पता नही था कि वह कहां है। वैसे तो युद्धवीर इस इलाके को जानते थे लेकिन आंखों पर पट्टी बांधी थी इसलिय वो समझ नही पा रहे थे और चीनी सैनिक भी उसे इधर उधर घुमाकर लाये थे ताकि वो रास्ता समझ ना पाये।

अंधेरे में युद्धवीर को समझ नही आ रहा था कि वो किस जगह है और उसके आसपास कितने चीनी सैनिक हैं।

अगली सुबह जब उजाला हुआ तो उसे पता लगा कि वह एक बर्फ के ऊंचे टीले पर बने एक लकड़ी के घर मे बन्द है और उसे एक लकड़ी के पिलर से बांधा हुआ है।

सुबह कुछ चीनी सैनिक आये और उसके सामने बात कर रहे थे। युद्धवीर सिंह करीब दस साल से चीनी सीमा पर तैनात थे अतः उन्हें टूटी फूटी चीनी भाषा आती थी। वो चीनी सैनिक कह रहे थे कि वो आज रात को उसको टार्चर करके भारतीय सेना के राज पूँछेंगे।

युद्धवीर थोड़ा घबराया वो जानता था कि चीनी सैनिक कितने क्रूर होते है। वो उसे टार्चर करेंगे तो हो सकता है कि वो उनकी मार के आगे सेना के राज खोल दे।

युद्धवीर ने भी प्रण किया कि वह मर जायेगा लेकिन अपने राज इन चीनी सैनिकों को नही बताएगा।लेकिन रात होने में अभी वक्त था उसने किसी तरह इस कैद से भागने की सोची। अब युद्धवीर भी थोड़ा अंधेरा होने का इंतजार करने लगे। आज भी बर्फबारी तेज हो रही थी इसलिय लगता था कि अंधेरा भी जल्द हो जाएगा।

अंधेरा होते ही युद्धवीर सिंह ने हाथ पैर मारने शुरू किए ताकि अपने आप को इस कैद से छुड़ा सके। काफी कोशिश की लेकिन वो अपने आप को उस बन्धन से मुक्त नही कर पाए। अब उनको इतनी ठंड में भी पसीने आ रहे थे। काफी कोशिश के बाद उनके हाथ सफलता लगी और उन्होंने अपने हाथ खोल लिए। वो दरवाजे के पास आये तो उन्होंने महसूस किया कि बाहर दो गार्ड ठंड की वजह से सिकुड़ कर सो रहे थे। युद्धवीर ने सावधानी से दरवाजा खोला और पहाड़ी से नीचे उतरने लगे। वो थोड़ा आगे निकल थे कि पीछे से चीनी भाषा में गार्ड की आवाज आई 'कौन है वहां' सुनकर युद्धवीर का खून जम गया उसने समझा अब तो पकड़े गए।अंधेरा था और युद्धवीर को चीनी भाषा आती थी तो वो थोड़ा सम्भल कर बोले 'में हूँ तुम आराम करो' गार्ड शायद संतुष्ट हो फिर सो गए की कोई उनका ही साथी है।अब युद्धवीर में खून का संचार हो गया और वो तेजी से नीचे उतरने लगे। लेकिन बर्फबारी और अंधेरे के कारण वो सही रास्ता नही पहचान पा रहे थे। वो फिर परेशान हो गए। अब उनमे कमजोरी भी थी क्योंकि तीन दिन से उन्होंने खाना भी नही खाया था। वो थोड़ा दूर ही पहुंचे थे कि उनको चक्कर आने लगे। वो थकान से बेदम हो गए और बैठ गए। उन्हें लगने लगा कि वो फिर पकड़े जाएंगे क्योंकि ऊपर से आवाजे आने थी,शायद चीनियों को पता चल गया था कि वो भाग निकला है।युद्धवीर ने अंधेरे में महसूस किया कि उनके पास कोई और भी है। तभी उन्हें मोती की आवाज आई और ये सुनकर युद्धवीर फिर फुर्ती से खड़े हो गए क्यंकि मोती उनका हाथ पकड़ उन्हें उठाने की कोशिश कर रहा था।

युद्धवीर खड़े हुए तो मोती आगे आगे चलने लगा और वो उसके पीछे।

मोती अब आगे आगे चलकर रास्ता बता रहा था और युद्धवीर उसके पीछे पीछे चलने लगे। चलते चलते सुबह हो गई। मोती उनको लेकर भारतीय छावनी पहुंच गया लेकिन कुछ दूर पहले ही युद्धवीर भूख और थकान से बेहोश हो गए। मोती ने भोंक कर युद्धवीर की उपस्थिति भारतीय सैनिकों को बता दी। भारतीय सैनिक बेहोश युद्धवीर को अंदर ले गए और उनको चिकित्सा दी।

सुबह हुई तो युद्धवीर होश में आ चुके थे । उन्होंने अपने सीनियर को मोती की सारी बाते बताई की कैसे उसने उसकी रास्ता दिखाकर जान बचाई थी।

सैनिकों ने मोती को बहुत सा खाना दिया। उन्होंने मोती को अपने पास ही रख लिया।युद्धवीर सिंह सोच रहे थे कि यदि मोती नही होता तो शायद वह बच नही पाते। मोती ने उनके द्वारा दिये गए छोटे से खाने और प्यार का बदला चुका दिया था।

कुछ दिनों में युद्धवीर सिंह बिल्कुल स्वस्थ्य हो गए। उन्होंने अपने सैनिकों के सहादत का बदला लेने की सोची। अपने सीनियर्स से बात करने के बाद उन्होंने 5 लोगों के साथ एक गुरिल्ला टीम बनाई। इस ग्रुप में उन्होंने मोती को भी रखा। क्योंकि मोती उन चीनी सैनिकों का पता अंधेरे में भी अपनी सूंघने की शक्ति से पहचानता था।

मिशन को अंजाम देने का समय आ गया था। युद्धवीर सिंह की अगुवाई में टीम ने चीनी छावनी की तरफ प्रस्थान किया। सब सैनिक अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे। युद्धवीर सिंह के सिर पर केवल अपने सैनिकों की शहादत का बदला लेने का जनून था। आगे आगे मोती रास्ता दिखा रहा था और सैनिक युद्धवीर की अगुवाई में आगे बढ़ रहे थे।

आज बर्फ तो नही गिर रही थी लेकिन ठंड ओर कोहरे के कारण रास्ता पार करने में सैनिकों को दिक्कत आ रही थी।

युद्धवीर भारत माता का जैकारा लगा रहा था ताकि सैनिकों में साहस भरा रहे लेकिन साथ मे वो इस बात का भी ख्याल रख रहे थे कि आवाज ज्यादा दूर तक ना जाये।

मोती ओर सैनिक चलते चलते थक चुके थे और अंधेरा भी गहराने लगा था।

तभी एक जगह मोती रुक गया और हल्की आवाज में भोंकने लगा। सभी सैनिक सतर्क हो जमीन पर लेट गए। युद्धवीर ने देखा कि कुछ ही दूरी पर चीनियों की छावनी दिखाई दे रही थी और पास में ही सैनिक गॉर्ड तैनात व चौकन्ने थे।

अब अपनी योजना के किर्यान्वन का समय आ गया था। युद्धवीर ने तीन टीमें बनाई दो दो सैनिकों की और एक टीम की खुद अगुवाई करने लगे। उन्होंने मोती को वहीं रुकने का संकेत दिया। लेकिन शायद मोती भी उनके साथ जाना चाहता था लेकिन युद्धवीर ने सख्ती से उसे वहीं रहने के आदेश दिए। मोती अब उसी जगह बैठ गया।

अब हर टीम में दो व्यक्ति थे। तीनो टीमों ने उस चीनी छावनी के चारो कोनों को छान मारा लेकिन उन्हें हथियारों को रखने की जगह नही मिली। युद्धवीर सिंह का लक्ष्य था कि किसी तरह यदि उनके हथियारों को नष्ट कर दिया जाए तो चीनी सैनिकों की रीढ़ की हड्डी टूट जाएगी। लेकिन उन्हें सफलता हाथ नही लगी। तीनो टीमें थक हारकर फिर अपने बताए स्थान पर इक्कठा हुई। समय बीत रहा था और उन्हें डर था कि यदि चीनी सैनिकों ने उन्हें देख लिया तो उनकी जान की खैर नही। सब लोग परेशान थे। तभी युद्धवीर की नजर मोती पर गई जो अभी भी उसी स्थान पर चुपचाप बैठा था। युद्धवीर को एक उपाय सूझा, उन्होंने अपनी बन्दूक की बारूद से भरी नाली को मोती को नाक के पास ले जाकर सुंघाया और उसको सूंघकर मोती एक तरफ चल पडा। अब मोती के पीछे पीछे तीनों टीम चलने लगी।मोती उनको सूंघ कर घुमाता रहा और आखिरकार उन्हें उसी जगह ले गया जिस जगह पर युद्धवीर सिंह को बंदी बनाया गया था।

लेकिन युद्धवीर ने देखा कि गार्ड अब भी उस घर की रखवाली कर रहे थे अतः ये सुनिश्चित हो गया कि गोला बारूद इसी लकड़ी के कमरे में ही है। उन सबने मिलकर हमला किया और उन चीनी गार्डों को बिना शोर किय मार दिया।

उन लोगों ने फटाफट इस गोला बारूद पर टाइम बम लगाए और वहां से दूर हो गए। कुछ समय बाद धमाका हुआ और गोला बारूद के साथ सारे चीनी सैनिक मारे गए। युद्धवीर ने उस चीनी पोस्ट को कब्जे में ले लिया।

युद्धवीर सिंह और सैनिक खुश थे क्योंकि यह सब मोती की वजह से हो पाया था। उधर मोती बारूद की धमाके की आवाज से भोंके जा रहा था जैसे कि वह भी इस जीत की खुशी मना रहा हो।

युद्धवीर को उचित इनाम दिया गया और मोती को भी भारतीय सेना के डॉग स्क्वाड में भेजा गया वहां पर उसे ट्रेनिंग दी गई I अब मोती और युद्धवीर सिंह दोनों मिलकर भारतीय सेना के सेवा करते है I खासकर मोती की बुद्धि और हिम्मत के सब कायल थे I मोती अब वो काम कर रहे थे जो आम डॉग नही कर पाते थे I

युद्धवीर सिंह को स्पेशल ड्यूटी दी गई थी को वो ही मोती का ख्याल रखेंगे I मोती भी युद्धवीर सिंह के सानिध्य से खुश था I

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