Kot Patloon in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | कोट पतलून

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कोट पतलून

कोट पतलून

नाज़िम जब बांद्रा में मुंतक़िल हुआ तो उसे ख़ुशक़िसमती से किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे मिल गए। इस बिल्डिंग में जो बंबई की ज़बान में चाली कहलाती है, निचले दर्जे के लोग रहते थे। छोटी छोटी (बंबई की ज़बान में) खोलियाँ यानी कोठड़यां थीं जिन में ये लोग अपनी ज़िंदगी जूं तूं बसर कर रहे थे।

नाज़िम को एक फ़िल्म कंपनी में बहैसियत-ए-मुंशी यानी मुकालमा निगार मुलाज़मत मिल गई थी। चूँकि कंपनी नई क़ायम हुई थी इस लिए उसे छः सात महीनों तक ढाई सौ रुपय माहवार तनख़्वाह मिलने का पूरा तयक़्क़ुन था, चुनांचे उस ने इस यक़ीन की बिना पर ये अय्याशी की डूंगरी की ग़लीज़ खोली से उठ कर बांद्रा की किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे ले लिए।

ये तीन कमरे ज़्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन इस बिल्डिंग के रहने वालों के ख़याल के मुताबिक़ बड़े थे, कि उन्हें कोई सेठ ही ले सकता था। वैसे नाज़िम का पहनावा भी अब अच्छा था क्योंकि फ़िल्म कंपनी में माक़ूल मशाहरे पर मुलाज़मत मिलते ही उस ने कुर्ता पायजामा तर्क कर के कोट पतलून पहनना शुरू करदी थी।

नाज़िम बहुत ख़ुश था। तीन कमरे उस के और उस की नई ब्याहता बीवी के लिए काफ़ी थे। मगर जब उसे पता चला कि गुसलखाना सारी बिल्डिंग में सिर्फ़ एक है तो उसे बहुत कोफ़्त हुई डूंगरी में तो इस से ज़्यादा दिक़्क़त थी कि वहां के वाहिद गुसलखाना में नहाने वाले कम-अज़-कम पाँच सौ आदमी थे और उस को चूँकि वो सुबह ज़रा देर से उठने का आदी था, नहाने का मौक़ा ही नहीं मिलता था। यहां शायद इस लिए कि लोग नहाने से घबराते थे या रात पाली (नाइट डयूटी)करने के बाद दिन भर सोए रहते इस लिए उसे ग़ुसल के सिलसिले में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होती थी।

गुसलख़ाना उस के दरवाज़े के साथ बाएं तरफ़ था। उस के सामने एक खोली थी जिस में कोई ..... मालूम नहीं कौन रहता था। एक दिन नाज़िम जब ग़ुसलख़ाने के अंदर गया तो उस ने दरवाज़ा बंद करते हुए देखा कि उस में सूराख़ है गौरसे देखने से मालूम हुआ कि ये कोई क़ुदरती दर्ज़ नहीं बल्कि ख़ुद हाथ से किसी तेज़ आले ..... की मदद से बनाया गया है।

कपड़े उतार के नहाने लगा तो उस को ख़याल आया कि ज़ोन में से झांक कर तो देखे..... मालूम नहीं उसे ये ख़्वाहिश क्यों पैदा हुई। बहरहाल उस ने उठ कर आँख उस सूराख़ पर जमाई..... सामने वाली खोली का दरवाज़ा खुला था ..... और एक जवान औरत जिस की उम्र पच्चीस छब्बीस बरस की होगी सिर्फ़ बिनयान और पेटीकोट पहने यूं अंगड़ाईआं ले रही थी जैसे वो अन-देखे मर्दों को दावत दे रही है कि वो उसे अपने बाज़ूओं में भींच लें और उस की अंगड़ाइयों का ईलाज करदें।

नाज़िम ने जब ये नज़ारा देखा तो इस का पानी से अध् भीगा जिस्म थरथरा गया। देर तक वो उसी औरत की तरफ़ देखता रहा, जो अपने मस्तूर लेकिन इस के बावजूद उर्यां बदन को ऐसी नज़रों से देख रही थी जिस से साफ़ पता चलता था कि वो इस का मसरफ़ ढूँडना चाहती है।

नाज़िम बड़ा डरपोक आदमी था। नई नई शादी की थी, इस लिए बीवी से बहुत डरता था। इस के इलावा उस की सर शिस्त में बदकारी नहीं थी। लेकिन ग़ुसलख़ाने के इस सूराख़ ने उस के किरदार में कई सूराख़ करदिए। इस में से हर रोज़ सुबह को वो उस औरत को देखता और अपने गीले या ख़ुशक बदन में अजीब किस्म की हरारत महसूस करता।

चंद रोज़ बाद उसे महसूस हुआ कि वो औरत जिस का नाम ज़ुबेदा था उस को इस बात का इल्म है कि वो ग़ुसलख़ाने के दरवाज़े के सूराख़ से उस को देखता है। और किन नज़रों से देखता है ज़ाहिर है कि जो मर्द ग़ुसलख़ाने में जाकर दरवाज़े की दर्ज़ में से किसी हमसाई को झांकेगा तो उस की नीयत कभी साफ़ नहीं हो सकती।

नाज़िम की नीयत क़तअन नेक नहीं थी। उस की तबीयत को उस औरत ने जो सिर्फ़ बनयान और पेटीकोट पहनती और उस वक़्त जब कि नाज़िम नहाने में मसरूफ़ होता इस क़िस्म की अंगड़ाईआं लेती थी कि देखने वाले मर्द की हड्डियां चटख़्ने लगीं, उस ने इसे उकसा दिया था मगर वो डरपोक था। उस की शरीफ़ फ़ितरत उस को मजबूर करती कि वो इस से ज़्यादा आगे न बढ़े। वर्ना उसे यक़ीन था कि उस औरत को हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं।

एक दिन नाज़िम ने ग़ुसलख़ाने में से देखा कि ज़ुबेदा मुस्कुरा रही है उस को मालूम था कि नाज़िम उस को देख रहा है। उस दिन उस ने अपने सेहत मंद होंटों पर लिप स्टिक लगाई हुई थी। गालों पर ग़ाज़ा और सुरख़ी भी थी। बनयान खिलाफ-ए-मामूल छोटी और अंगया पहले से ज़्यादा चुस्त। नाज़िम ने ख़ुद को इस फ़िल्म का हीरो महसूस किया जिस के वो मकालमे लिख रहा था। लेकिन जूंही अपनी बीवी का ख़याल आया जो उस के दौलतमंद भाई के घर वर्ली गई हुई थी वो इसी फ़िल्म का एक्स्ट्रा बन गया। और सोचने लगा कि उसे ऐसी अय्याशी से बाज़ रहना चाहिए।

बहुत दिनों के बाद नाज़िम को मालूम हुआ कि ज़ुबेदा का ख़ाविंद किसी मिल में मुलाज़िम है। चूँकि उस की औलाद नहीं होती इस लिए पीरों फ़क़ीरों के पीछे फिरता रहता है। कई हकीमों से ईलाज भी करा चुका था। बहुत कम ज़बान, और दाढ़ी मोंचों से बे-नयाज़। पंजाबी ज़बान में ऐसे मर्दों को खोदा कहते हैं मालूम नहीं किस रियायत से, लेकिन इस रियायत से ज़ुबेदा का ख़ाविंद खोदा था कि वो ज़मीन का हर टुकड़ा खोदता कि इस से उस का कोई बच्चा निकल आए।

मगर ज़ुबेदा को बच्चे की कोई फ़िक्र न थी। वो ग़ालिबन ये चाहती थी कि कोई उस की जवानी की फ़िक्र करे। जिस के बारे में शायद उस का शौहर ग़ाफ़िल था।

नाज़िम के इलावा इस बिल्डिंग में एक और नौजवान था। कुँवारा..... कुंवारे तो यूं वहां कई थे, मगर इस में ख़ुसूसियत ये थी कि वो भी कोट पतलून पहनता था। नाज़िम को मालूम हुआ कि वो भी ग़ुसलख़ाने में से ज़ुबेदा को झांकता है और वो इसी तरह सूराख़ के इस तरफ़ अपने मस्तूर लेकिन ग़ैर मस्तूर जिस्म की नुमाइश करती है।

नाज़िम पहले पहल बहुत जला। रश्क और हसद का जज़्बा ऐसे मुआमलात में आम तौर पर पैदा हो जाया करता है। लाज़िमन नाज़िम के दिल में भी पैदा हुआ। लेकिन ये कोट पतलून पहनने वाला नौजवान एक महीने के बाद रुख़स्त होगया। इस लिए कि उसे अहमदाबाद में अच्छी मुलाज़मत मिल गई थी। नाज़िम के सीने का बोझ हल्का होगया था।

लेकिन इस में इतनी जुर्रत न थी कि ज़ुबेदा से बातचीत कर सकता। गुसलख़ाना के दरवाज़े के सूराख़ में से वो हर रोज़ उसी अंदाज़ में देखता और हर रोज़ उस के दिमाग़ में हरारत बढ़ती जाती। लेकिन हर रोज़ सोचता कि अगर किसी को पता चल गया तो उस की शराफ़त मिट्टी में मिल जाएगी। इसी लिए वो कोई तेज़ क़दम आगे न बढ़ा सका।

उस की बीवी वर्ली से आगई थी। वहां सिर्फ़ एक हफ़्ता रही। इस के बाद उस ने ग़ुसलख़ाने में से ज़ुबेदा को देखना छोड़ दिया। इस लिए कि उस के ज़मीर ने मलामत की थी। उस ने अपनी बीवी से और ज़्यादा मुहब्बत करना शुरू करदी। शुरू शुरू में उसे किसी क़दर हैरत हुई मगर बाद में उसे बड़ी मुसर्रत महसूस हुई कि उस का ख़ावंद उस की तरफ़ पहले से कहीं ज़्यादा तवज्जा दे रहा है।

लेकिन नाज़िम ने फिर ग़ुसलख़ाने में से ताक झांक शुरू करदी। असल में उस के दिल-ओ-दिमाग़ में ज़ुबेदा का मस्तूर मगर ग़ैर मस्तूर बदन समा गया था। वो चाहता था कि उस की अंगड़ाइयों के साथ खेले और कुछ इस तरह खेले के ख़ुद भी एक न टूटने वाली अंगड़ाई बन जाये।

फ़िल्म कंपनी से तनख़्वाह बराबर वक़्त पर मिल रही थी। नाज़िम ने एक नया सूट बनवा लिया था। इस में जब ज़ुबेदा ने उसे अपनी खोली के खुले हुए दरवाज़े में से देखा तो नाज़िम ने महसूस किया कि वो उसे ज़्यादा पसंदीदा नज़रों से देख रही है। उस ने चाहा कि दस क़दम आगे बढ़ कर अपने होंटों पर अपनी तमाम ज़िंदगी की तमाम मुस्कुराहटें बिखेर कर कहे “जनाब सलाम अर्ज़ करता हूँ।”

नाज़िम यूं तो मुकालमा निगार था। ऐसे फिल्मों के डाएलाग लिखता जो इशक़-ओ-मुहब्बत से भरपूर होते थे। मगर इस वक़्त उस के ज़ेहन में तआरुफ़ी मुकालमा यही आया कि वो उस से कहे “जनाब! सलाम करता हूँ।”

इस ने दो क़दम आगे बढ़ाए। ज़ुबेदा कली की तरह खिली मगर वो मुरझा गया। उस को अपनी बीवी के ख़ौफ़ और शराफ़त के ज़ाइल होने के एहसास ने ये बढ़ाए हुए क़दम पीछे हटाने पर मजबूर कर दिया। और अपने घर जाकर अपनी बीवी से कुछ ऐसी मुहब्बत से पेश आया कि ग़रीब शर्मा गई।

इसी दौरान एक और कोट पतलून वाला किराएदार बिल्डिंग में आया। उस ने भी ग़ुसलख़ाने के सूराख़ में से झांक कर देखना शुरू कर दिया। नाज़िम के लिए ये दूसरा रक़ीब था मगर थोड़े ही अर्सा के बाद बर्क़ी ट्रेन से उतरते वक़्त उस का पांव फिसला और हलाक हो गया।नाज़िम को उस की मौत पर अफ़सोस हुआ।, मगर मशियत-ए-एज़दी के सामने क्या चारा है उस ने सोचा शायद ख़ुदा को यही मंज़ूर था कि इस के रास्ते से ये रोड़ा हट जाये। चुनांचे उस ने फिर ग़ुसल ख़ाने के दरवाज़े के सूराख़ से और अपने तीन कमरों में आते जाते वक़्त ज़ुबेदा को उन्हें नज़रों से देखना शुरू कर दिया।

इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि लाहौर में नाज़िम की बीवी के किसी क़रीबी रिश्तेदार की शादी थी। इस तक़रीब में उस की शमूलियत ज़रूरी थी। नाज़िम के जी में आई कि वो उस से कह दे कि ये तकल्लुफ़ उस से बर्दाश्त नहीं हो सकता। लेकिन फ़ौरन उसे ज़ुबेदा का ख़याल आया और उस ने अपनी बीवी को लाहौर जाने की इजाज़त दे दी। मगर वो फ़िक्रमंद था कि उसे सुबह चाय बना कर कौन देगा।

ये वाक़ई बहुत अहम चीज़ थी। इस लिए कि नाज़िम चाय का रसिया था। सुबह सवेरे अगर उसे चाय की दो प्यालियां न मिलें तो वो समझता था कि दिन शुरू ही नहीं हुआ। बंबई में रह कर वो इस शैय का हद से ज़्यादा आदी होगया था। उस की बीवी ने थोड़ी देर सोचा और कहा, “आप कुछ फ़िक्र न कीजिए..... मैं ज़ुबेदा से कहे देती हूँ कि वो आप को सुबह की चाय भेजने का इंतिज़ाम कर देगी।”

चुनांचे उस ने फ़ौरन ज़ुबेदा को बुलवाया और उस को मुनासिब व मोज़ों अल्फ़ाज़ में ताकीद करदी कि वो उस के ख़ाविंद के लिए चाय की दो पयालियों का हर सुबह जब तक वो न आए इंतिज़ाम कर दिया करे।

उस वक़्त ज़ुबेदा पूरे लिबास में थी और दोपट्टे के पल्लू से अपने चेहरे का एक हिस्सा ढाँपे कनखियों से नाज़िम की तरफ़ देख रही थी..... वो बहुत ख़ुश हुआ। मगर कोई ऐसी हरकत न की जिस से किसी क़िस्म का शुबा होता।

चंद मिनटों की रस्मी गुफ़्तगु में ये तै होगया कि ज़ुबेदा चाय का बंद-ओ-बस्त कर देगी। नाज़िम की बीवी ने उसे दस रुपय का नोट पेशगी के तौर पर देना चाहा मगर उस ने इनकार कर दिया और बड़े ख़ुलूस से कहा। “बहन इस तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है। आप के मियां को कोई तकलीफ़ नहीं होगी। सुबह जिस वक़्त चाहें, चाय मिल जाया करेगी।”

नाज़िम का दिल बाग़ बाग़ होगया। उस ने दिल ही दिल में कहा। चाय मिले न मिले.....लेकिन ज़ुबेदा तुम मिल जाया करे। लेकिन फ़ौरन उसे अपनी बीवी का ख़याल आया और उस के जज़्बात सर्द होगए।

नाज़िम की बीवी लाहौर चली गई..... दूसरे रोज़ सुबह सवेरे जब कि वो सो रहा था दरवाज़े पर दस्तक हुई। वो समझा शायद उस की बीवी बावर्चीख़ाने में पत्थर के कोइले तोड़ रही है। चुनांचे करवट बदल कर उस ने फिर आँखें बंद करलीं। लेकिन चंद लम्हात के बाद फिर ठिक ठिक हुई और साथ ही महीन निस्वानी आवाज़ आई। “नाज़िम साहब। नाज़िम साहब”

नाज़िम का दिल धक धक करने लगा..... उस ने ज़ुबेदा की आवाज़ को पहचान लिया था। उस की समझ में न आया कि क्या करे। एक दम चौंक कर उठा। दरवाज़ा खोला ज़ुबेदा दोनों हाथों में ट्रे लिए खड़ी थी। उस ने नाज़िम को सलाम किया और कहा “चाय हाज़िर है।”

एक लहज़े के लिए नाज़िम का दिमाग़ ग़ैर हाज़िर होगया। लेकिन फ़ौरन सँभल कर इस ने ज़ुबेदा से कहा “आप ने बहुत तकलीफ़ की..... लाईए ये ट्रे मुझे दे दीजिए।”

ज़ुबेदा मुस्कुराई “मैं ख़ुद अन्दर रख देती हूँ..... तकलीफ़ की बात ही क्या है।”

नाज़िम शब ख़्वाबी का लिबास पहने था। धारीदार पाप्लेन का कुरता और पाएजामा। ये अय्याशी उस ने ज़िंदगी में पहली बार की थी। ज़ुबेदा शलवार क़मीस में थी। इन दोनों लिबासों के कपड़े बहुत मामूली और सस्ते थे मगर वो इस पर सज रहे थे।

चाय की ट्रैक उठाए वो अंदर आई। उस को तिपाई पर रखा और नाज़िम के चिड़िया ऐसे दिल को कह कर धड़काया “मुझे अफ़सोस है कि चाय बनाने में देर होगई। दरअसल में ज़्यादा सोने की आदी हूँ।”

नाज़िम कुर्सी पर बैठ चुका था जब ज़ुबेदा ने ये कहा तो उस के जी में आई कि ज़रा शायरी करे और इस से कहे “आओ ..... सो जाएं..... सोना ही सब से बड़ी नेअमत है।” ..... लेकिन उस में इतनी जुर्रत नहीं थी, चुनांचे वो ख़ामोश रहा।

ज़ुबेदा ने बड़े प्यार से नाज़िम को चाय बना करदी..... वो चाय के साथ ज़ुबेदा को भी पीता रहा। लेकिन उस की क़ुव्वत-ए-हाज़िमा कमज़ोर थी। इस लिए उस ने फ़ौरन उस से कहा “ज़ुबेदा जी आप और तकलीफ़ न करें .....मैं बर्तन साफ़ कराके आप को भिजवा दूँगा।”

नाज़िम को इस बात का एहसास था कि उस के दिल में जितने बर्तन हैं, ज़ुबेदा की मौजूदगी में साफ़ कर दिए हैं।

बर्तन उठा कर जब वो चली गई तो नाज़िम को ऐसा महसूस हुआ कि वो थोथा चना बन गया है जो घना बज रहा है।

ज़ुबेदा हर रोज़ सुबह सवेरे आती। उसे चाय पिलाती। वो उस को और चाय दोनों को पीता। और अपनी बीवी को याद करके डरके मारे रात को सो जाता। दस बारह रोज़ ये सिलसिला जारी रहा। ज़ुबेदा ने नाज़िम को हर मौक़ा दिया कि वो उस की न टूटने वाली अंगड़ाइयों को तोड़ दे। लेकिन नाज़िम ख़ुद एक ग़ैर मुख़्ततिम! अंगड़ाई बन के रह गया था।

उस के पास दो सूट थे मगर उस ने चरफ़ी रोड की उस दुकान से जहां उस फ़िल्म कंपनी का सेठ कॉस्ट्यूम बनवाया करता था एक और सूट सिलवाया और उस से वाअदा किया कि रक़म बहुत जल्द अदा करदेगा।

गबर डीन का ये सूओट पहन कर वो ज़ुबेदा की खोली के सामने से गुज़रा। हस्ब-ए-मामूल वो बनयान और पेटीकोट पहने थी। उसे देख वो दरवाज़े के पास आई। महीन सी मुस्कुराहट उस के सुर्ख़ी लगे होंटों पर नुमूदार हुई और उस ने बड़े प्यार से कहा “नाज़िम साहब आज तो आप शहज़ादे लगते हैं।”

नाज़िम एक दम कोह-ए-क़ाफ़ चला गया..... या शायद उन किताबों की दुनिया में जो शहज़ादों और शहज़ादियों के अज़कार से भरी पड़ी हैं। लेकिन फ़ौरन वो अपने बर्क़ रफ़्तार घोड़े पर से गिर कर ज़मीन पर औंधे मुँह आ रहा। और अपनी बीवी से जो लाहौर में थी कहने लगा सख़्त चोट लगी है।

इश्क़ की चोट यूं भी बड़ी सख़्त होती है, लेकिन जिस क़िस्म का इश्क़ नाज़िम का था। उस की चोट बहुत शदीद थी। इस लिए कि शराफ़त और उस की बीवी इस के आड़े आती थी।

एक और चोट नाज़िम को ये लगी कि उस की फ़िल्म कंपनी का दीवालिया पिट गया। मालूम नहीं क्या हुआ। बस एक दिन जब वो कंपनी गया तो उस को मालूम हुआ कि वो ख़त्म होगई..... इस से पाँच रोज़ पहले वो सो रुपय अपनी बीवी को लाहौर भेज चुका था.....सो रुपय चरनी रोड के बज़्ज़ाज़ के देने थे कुछ और भी क़र्ज़ थे।

नाज़िम के दिमाग़ से इश्क़ फिर भी न निकला..... ज़ुबेदा हर रोज़ चाय लेकर आती थी। लेकिन अब वो सख़्त शर्मिंदा था कि इतने दिनों के पैसे वो कैसे अदा करेगा। उस ने एक तरकीब सोची कि अपने तीनों सूट जिन में नया गैबर डीन का भी शामिल था गिरवी रख कर सिर्फ़ पच्चास रुपय वसूल किए। दस दस के पाँच नोट जेब में डाल कर नाज़िम ने सोचा कि इन में दो चार ज़ुबेदा को दे देगा, और उस से ज़रा खुली बात करेगा।

लेकिन दादरा स्टेशन पर किसी जेब क़तरे ने उस की जेब साफ़ करदी। उस ने चाहा कि ख़ुदकुशी करले ट्रेनें आ जा रही थीं प्लेटफार्म से ज़रा सा फिसल जाना काफ़ी था। यूं चुटकियों में उस का काम तमाम हो जाता। मगर उस को अपनी बीवी का ख़याल आगया जो लाहौर में थी और उमीद से।

नाज़िम की हालत बहुत ख़स्ता होगई। ज़ुबेदा आती थी लेकिन उस की निगाहों में अब वो बात नाज़िम को नज़र नहीं आती थी। चाय की पत्ति ठीक नहीं होती थी। दूध से तो उसे कोई रग़बत नहीं थी लेकिन पानी ऐसा पतला होता था, इस के इलावा अब वो ज़्यादा सजी बनी न होती थी। ग़ुसलख़ाने में जाता और उसे दरवाज़े के सूराख़ में से झांकता वो नज़र न आती ..... लेकिन नाज़िम ख़ुद बहुत मुतफ़क्किर था। इस लिए कि उसे दो महीनों का किराया अदा करना था। चरनी रोड के बज़्ज़ाज़ के और दूसरे लोगों के क़र्ज़ की अदायगी भी उस के ज़िम्मा थी।

चंद रोज़ में नाज़िम को ऐसा महसूस हुआ कि उस का जो बहुत बड़ा बैंक था फ़ेल होगया है। उस की टांच आने वाली थी, मगर इस से पहले ही उस ने किराए वाली बिल्डिंग से नक़्ल-ए-मकानी का इरादा करलिया। एक शख़्स से उस ने तै किया कि वो उस का क़र्ज़ अदा करदे तो वो उस को अपने तीन कमरे दे देगा। इस ने उस के तीनों सूट वापिस दिलवा दिए। छोटे मोटे क़र्ज़ भी अदा करदिए।

जब नाज़िम ग़मनाक आँखों से किराए वाली बिल्डिंग से अपना मुख़्तसर सामान उठवा रहा था तो उस ने देखा ज़ुबेदा नए मकीन को जो शार्क स्किन के कोट पतलून में मलबूस था ऐसी नज़रों से देख रही है, जिन से वो कुछ अर्सा पहले उसे देखा करती थी।